Shadow

मुस्लिम वृद्धि दर बनाम अल्पसंख्यक हिन्दू

भारत में एक सेकुलर जमात है जो सेकुलर के नाम पर सिर्फ अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण करती है। अल्पसंख्यकों को वोट बैंक मानकर राष्ट्रवाद की भावना पर प्रहार करती है। इस जमात को न तो भारत की एकता और अखंडता से कोई मतलब होता है और न ही नागरिकों को मिलने वाले अधिकारों से। यह जमात अल्पसंख्यकों की राजनीति तो करती है किन्तु अल्पसंख्यक शब्द को ठीक से पारिभाषित करने की मांग नहीं करती। जिन प्रदेशों में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं उनके लिए यह जमात किसी अधिकार की मांग नहीं करती। यह जमात बांग्लादेशी घुसपैठियों के मानवाधिकार हनन पर तो आवाज़ बुलंद करती है किन्तु हिन्दू अल्पसंख्यक इनके मानवाधिकार के दायरे से पीछे छूट जाते हैं। और शिकायत सिर्फ इस जमात से ही क्यों की जाये। पांच साल सत्ता में रही राष्ट्रवादी सरकार ने भी हिन्दू अल्पसंख्यक विषय पर खामोशी रखी। हालांकि, चालीस साल से रह रहे बांग्लादेशियों पर सरकार द्वारा निशाना जरूर साधा गया। चुनाव के वातावरण में एनआरसी (नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजऩ) के द्वारा पूर्वोत्तर भारत में तो भाजपा को फायदा होता दिख रहा है किन्तु भारत की संप्रभुता और आपसी समन्वय को बरकरार रखने के क्रम में अब आगामी सरकार द्वारा अल्पसंख्यक शब्द की स्थानीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर व्याख्या बेहद आवश्यक हो गयी है ताकि हिन्दू अल्पसंख्यक भी अपने अधिकारों का सम्पूर्ण उपयोग कर सकें।

अमित त्यागी

देश के संविधान के अनुसार भारत का हर नागरिक समान अधिकार रखता है। अब कौन भारत का नागरिक होगा और कौन नहीं, इसके कुछ मापदंड हैं। इसका चुनाव से कोई लेना देना नहीं है। इसके साथ ही धर्म, लिंग और संप्रदाय के आधार पर नागरिकों में किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जा सकता है। अब थोड़ा पीछे चलते हैं।

1947 के विभाजन के बाद संविधान निर्माताओं के मन में एक भय था कि कहीं ऐसा न हो कि आने वाली सरकारें धार्मिक रूप से अल्पसंख्यकों की हितों की रक्षा न कर सकें। चूंकि भारत की ज़्यादातर आबादी हिन्दू होने के कारण ईसाई और मुसलमान जैसे धर्मों के हित प्रभावित हो सकते थे इसलिए संविधान में अनु0-29,30 के प्रावधान रखे गए। संविधान में तो सिर्फ एक बार धार्मिक अल्पसंख्यक शब्द का उपयोग किया गया था किन्तु 1992 में कांग्रेस सरकार ने अलग से अल्पसंख्यक आयोग का गठन करके हिन्दू एवं अन्य धर्मों में विभेद की नींव रख दी। इसके साथ ही भारत के संविधान में अल्पसंख्यकों के लिए अलग से प्रावधान दिये गए हैं किन्तु अल्पसंख्यक शब्द को पारिभाषित नहीं किया गया है। 1992 तक देश में अल्पसंख्यक विषय पर संवैधानिक रूप से सामान्य प्रक्रिया चल रही थी। 1992 में पहली बार तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इस विषय को उभार दिया और अल्पसंख्यक आयोग बनाने की प्रक्रिया आरंभ कर दी। कानून बना दिया गया। पर इतने महत्वपूर्ण विषय पर न तो कोई विस्तृत चर्चा की गयी न ही अल्पसंख्यक शब्द को पारिभाषित किया गया। इस कानून में सिर्फ यह प्रावधान कर दिया गया कि अल्पसंख्यक को निर्धारित करना केंद्र सरकार के मापदण्डों के अनुसार होगा। केंद्र सरकार किस मापदंड के अनुसार अल्पसंख्यक को परिभाषित करेगी यह इसमें स्पष्ट नहीं किया गया। कितनी प्रतिशत आबादी होने पर कोई वर्ग अल्पसंख्यक माना जाएगा यह भी इस कानून में स्पष्ट नहीं है।

इस तरह से राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का गठन कर दिया गया जिसकी धारा-2 में प्रदत्त असीमित शक्तियों का उपयोग करते हुये तत्कालीन केंद्र सरकार ने 23 अक्तूबर 1993 को मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध एवं पारसी को अल्पसंख्यक समुदाय घोषित कर दिया। अब बिना किसी शोध, जनगणना, विस्तृत चर्चा, राष्ट्रीय विमर्श और विधि विशेषज्ञों की सलाह के इसका आधार क्या था यह आज भी समझ से परे हैं। इसके बाद वही हुआ जिसकी उम्मीद थी। अन्य धर्म के लोग अल्पसंख्यक का दर्जा पाने के लिए हाथ पैर मानने लगे। जैन समुदाय ने इसके लिए न्यायलय में याचिका दायर कर दी। 2002 में बॉम्बे उच्च न्यायालय से जैन समुदाय को निराशा हाथ लगी। इसके बाद 11 न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा कि अल्पसंख्यक की पहचान प्रदेश स्तर पर होनी चाहिए। 2005 में उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने जैन समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा देने से मना कर दिया। न्यायालय का तर्क इस बारे में रोचक रहा। ”देश का बंटवारा एक बार पहले ही धर्म के आधार पर हो चुका है और भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है, इसलिए अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की अवधारणा ठीक नहीं है।’’ न्यायालय ने हालांकि, अल्पसंख्यक शब्द को खारिज नहीं किया किन्तु सरकार से आशा की कि वह धीरे धीरे अपनी नीतियों से अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के बीच का फासला अवश्य खत्म कर देगी। इस फैसले के एक साल के बाद ही जो काम पहले समाज कल्याण मंत्रालय के आधीन होता था, उसके लिए अलग से अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय बना दिया गया।

अब एक दूसरे विषय को देखते हैं। 13 फरवरी 1964 को राष्ट्रपति के भाषण पर पेश धन्यवाद प्रस्ताव पर राज्यसभा में बोलते हुये अटल बिहारी बाजपेयी ने बताया था कि भारत में अवैध रूप से 50 लाख पाकिस्तानी घुसपैठिए रह रहे हैं। इनमें विशेष रूप से असम और पश्चिम बंगाल का उन्होंने जि़क्र किया था। चूंकि 1964 में बांग्लादेश पाकिस्तान का ही एक भाग था इसलिए बांग्लादेशी घुसपैठियों को पाकिस्तानी कहा गया था। चूंकि, ये घुसपैठिए मुस्लिम थे इसलिए वह भारत में अल्पसंख्यक का दर्जा पा गए। असम के लोगों ने 1980 में बांग्लादेशी घुसपैठ के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन छेड़ा था। इस आंदोलन  को निर्णायक आंदोलन भी कहा जा सकता है। इस आंदोलन से बाध्य होकर तत्कालीन केंद्र सरकार ने असम आंदोलनकारियों के साथ एक समझौता किया। इस समझौते को असम समझौते के नाम से जाना जाता है। इस समझौते में तत्कालीन सरकार ने कई लूप होल छोड़ दिये और इसलिए इसके क्रियान्वयन में कई खामियां भी सामने आयीं। इसके बाद मामला न्यायालय में गया और फिर न्यायालय की देखरेख में बांग्लादेशी घुसपैठियों की पहचान प्रारम्भ हुयी। वर्तमान में असम में जो अवैध घुसपैठियों पर काम चल रहा है वह न्यायालय की देखरेख में ही है। इसमें प्रारम्भिक दौर में लगभग 40 लाख लोगों की नागरिकता संदेहास्पद नजऱ आई है। इसके बाद इन लोगों को नोटिस दिया गया। फिर क्या था पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सहित सेकुलर जमात के सभी नेता एवं उनका गैंग मानवाधिकार के नाम पर हो हल्ला करने लगे। इन लोगों का कहना है कि ये लोग पिछले 40 साल से असम में रह रहे हैं और असम के समाज में घुल मिल चुके हैं। असम के विकास में इन लोगों का महत्वपूर्ण योगदान है। सेकुलर जमात यह भी चाहती है कि इन लोगों को भारत की नागरिकता देकर यहीं बसा दिया जाये और वापस न भेजा जाये।

यदि वापस 1971 की तरफ लौंटे तो बांग्लादेश की स्वाधीनता के पहले पाकिस्तान की सेना ने वहां काफी जुर्म किए थे। इससे पीडि़त होकर वहां की एक बड़ी आबादी भारत का रुख करने लगी। उस समय मानवता के आधार पर भारत ने उनको शरण दे दी। बाद में ये लोग वापस अपने देश नहीं लौंटे और असम, बंगाल में बस गए। 1980 के आंदोलन के बाद 1981 में ये लोग उत्तर प्रदेश तक आकर बसने लगे। 1981-91 के बीच राष्ट्रीय मुस्लिम जनसंख्या दर एवं इन राज्यों की मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर में बड़ा अंतर देखा गया। जब राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर 32.9 प्रतिशत थी तब पश्चिम बंगाल में 45.12 प्रतिशत, दार्जिलिंग में 58.55 प्रतिशत, कोलकाता में 53.75 प्रतिशत एवं मदनीपुर में 53.17 प्रतिशत देखी गयी। चूंकि तब तक इसकी आंच उत्तर प्रदेश तक आ चुकी थी इसलिए मुरादाबाद में वृद्धि दर 46.77 प्रतिशत, मुजफ्फरनगर में 50.14 प्रतिशत, गाजिय़ाबाद में 46.68 प्रतिशत, अलीगढ़ में 45.61 प्रतिशत एवं बरेली में 50.13 प्रतिशत देखी गयी। सीतापुर जिले में तो आश्चर्यजनक रूप से मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर 129.66 प्रतिशत देखी गयी।

अब क्या ये आंकड़े चौकाने वाले नहीं हैं? क्या यह किसी योजनाबद्ध तरीके से हिन्दुओं को अल्पसंख्यक बनाने का प्रयास नहीं था? यदि 1991 से 2011 के बीच के 20 सालों के आंकड़ों पर गौर करें तो राष्ट्रीय स्तर पर जनसंख्या वृद्धि दर 44.39 प्रतिशत रही। इसमें हिन्दू वृद्धि दर 40.51 प्रतिशत एवं मुस्लिम वृद्धि दर 69.53 प्रतिशत थी। यदि पूर्वोत्तर के राज्यों की इस दौरान मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर देखें तो अरुणाचल प्रदेश में 126.84 प्रतिशत, मेघालय में 112.06 प्रतिशत, मिज़ोरम में 226.84 प्रतिशत, सिक्किम में 156.35 प्रतिशत रही। इसके साथ ही दिल्ली में मुस्लिम वृद्धि दर इस दौरान 142.64 प्रतिशत, चंडीगढ़ में 194.36 प्रतिशत एवं हरियाणा में यह 133.22 प्रतिशत रही। अब वृद्धि दर में इतना बड़ा अंतर इस बात का सबूत है कि कहीं कुछ तो गड़बड़ है। कुछ लोग मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर के संदर्भ में एक तर्क देते हैं कि चूंकि मुस्लिम समाज जनसंख्या नियंत्रण पर ध्यान नहीं देता है इसलिए इसमें बढ़ोत्तरी हुयी। जबकि दक्षिण के राज्यों में भी मुस्लिम होने के बावजूद वहां ऐसी वृद्धि दर नहीं देखी गयी इसलिए यह तर्क भी खारिज हो जाता है। दक्षिण के राज्यों आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, और कर्नाटक में 1961-2011 के बीच मुस्लिम जनसंख्या में सिर्फ 3 प्रतिशत की वृद्धि देखी गयी है। इस प्रकार से यह बात तो साफ है कि मुस्लिम की बढ़ती जनसंख्या सिर्फ नए बच्चों के जन्म से संबन्धित विषय न होकर एक बड़े षड्यंत्र का हिस्सा है। अब इस वृद्धि दर के बाद अल्पसंख्यक शब्द की नयी व्याख्या क्या आवश्यक नहीं हो गयी है?

50 प्रतिशत से कम आबादी अल्पसंख्यक  

केरल शिक्षा बिल, 1958 में उच्चतम न्यायालय ने मुद्दा उठाया कि अल्पसंख्यक समुदाय उसे माना जाएगा जिसकी आबादी 50 प्रतिशत से कम होगी। लेकिन यह नहीं कहा कि यह 50 प्रतिशत पूरे देश की आबादी है या किसी राज्य विशेष की। इस सवाल का जवाब गुरुनानक यूनिवर्सिटी, पंजाब के वाद में मिलता है। इसमें न्यायालय ने कहा कि भाषाई अल्पसंख्यक समुदाय को पूरे देश की आबादी के अनुपात में अल्पसंख्यक नहीं मानकर क्षेत्र के कानून के हिसाब से अल्पसंख्यक माना जाये। 2002 में टीएम पाई फ़ाउंडेशन मामले में उच्चतम न्यायालय की आठ न्यायाधीशों की पीठ ने निर्णय दिया कि कोई भी समुदाय जो उस राज्य की आबादी के पचास प्रतिशत से कम है उसे अल्पसंख्यक माना जाये। इस निर्णय के अनुसार नागालैंड, मिज़ोरम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, लक्षदीप, जम्मू कश्मीर और पंजाब में हिन्दू अल्पसंख्यक माने जाने चाहिए। विषय सिर्फ इस बात तक सीमित नहीं है कि कौन अल्पसंख्यक है और कौन बहुसंख्यक। यह विषय धर्मांतरण और जनसंख्या विस्फोट से जुड़ा हुआ भी दिखता है। एक ओर एक धर्म समुदाय के लोगों द्वारा तेज़ी से जनसंख्या को बढ़ाया जा रहा है वहीं दूसरी तरफ पूर्वोत्तर एवं अन्य पिछड़े राज्यों में धर्मांतरण का कार्य भारत की संप्रभुता के लिए खतरा बन रहा है। यह दोनों विषय समय रहते संज्ञान लेने वाले विषय है।

अब एक रोचक आंकड़ा देखिये जो सारी स्थिति को बयान कर देता है। लक्षदीप में 97 प्रतिशत, कश्मीर में 70 प्रतिशत, असम में 35 प्रतिशत, बंगाल में 28 प्रतिशत, केरल में 27 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 20 प्रतिशत और बिहार में लगभग 19 प्रतिशत मुसलमान हैं। इन प्रदेशों की यह बहुसंख्यक आबादी अल्पसंख्यक कही जाती है। इसके साथ ही ईसाई का आंकड़ा भी रोचक है। नागालैंड में 88 प्रतिशत, मिज़ोरम में 87 प्रतिशत, मेघालय में 75 प्रतिशत, मणिपुर में 42 प्रतिशत, अरुणाचल प्रदेश में 31 प्रतिशत, गोवा में 26 प्रतिशत, अंडमान और केरल में 21 प्रतिशत जनसंख्या ईसाई है। इतनी बड़ी आबादी होने के बावजूद इन सबको अल्पसंख्यक के नाम पर वह अधिकार मिल रहे हैं जो हिंदुओं को नहीं मिल रहे हैं। इसके विपरीत लक्षदीप में 2 प्रतिशत, मिज़ोरम में 3 प्रतिशत, नागालैंड में 8 प्रतिशत, मेघालय में 11 प्रतिशत होने के बावजूद हिन्दू बहुसंख्यक माने जाते हैं और अधिकारों से वंचित हैं। अब देश की विडम्बना देखिये कि आज़ादी के सत्तर साल बाद भी हम अल्पसंख्यक को पारिभाषित करने वाला फॉर्मूला नहीं ढूंढ पाये हैं। जब हर राज्य में अलग अलग धर्मों के लोग भिन्न भिन्न अनुपात में हैं तो अल्पसंख्यक की परिभाषा केंद्र सरकार के स्थान पर राज्य सरकार के द्वारा क्यों नहीं तय होती है? संविधान के द्वारा प्रदत्त समता का अधिकार तब महत्वहीन दिखाई देता है जब लक्षदीप का 97 प्रतिशत मुसलमान अल्पसंख्यक और 2 प्रतिशत हिन्दू बहुसंख्यक कहलाता है। कश्मीर में 70 प्रतिशत मुसलमान अल्पसंख्यक एवं 28 प्रतिशत हिन्दू बहुसंख्यक कहलाता है।

अब क्या इन आंकड़ों के बाद भी किसी और तथ्य को सार्वजनिक करने की आवश्यकता है? क्या अल्पसंख्यक शब्द के राजनीतिक इस्तेमाल की इससे पुष्टि नहीं होती है? क्या इस तरह की असमानता और इस असमानता की पैरवी करने वालों से देश की एकता और अखंडता की भावना को खतरा नहीं है? आप स्वयं विचार करिए।

 

मोदी, योगी की जोड़ी का भरोसा हिन्दुत्व के मुद्दे पर

प्रधानमंत्री मोदी मुद्दे गढऩे में माहिर हैं।  कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अमेठी के अलावा केरल के वायनाड से चुनाव लडऩे का जो निर्णय किया उसे भी उन्होंने बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक अभियान से जोड़ दिया है। आम चुनाव एक ऐसा अवसर होता है जिसमें सत्तारूढ़ दल अपनी पांच साल की उपलब्धियों और भावी योजनाओं को जनता के बीच रखकर एक और जनादेश मांगता है। लेकिन इस चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के स्टार प्रचारक मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने प्रचार को बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक अथवा हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण पर ले जाते हुए दिख रहे हैं। साध्वी प्रज्ञा के भोपाल से मैदान में आने के बाद इसमें हिंदुत्व का एक बड़ा तड़का लग चुका है। महात्मा गांधी की कर्मस्थली वर्धा में चुनाव प्रचार करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, ”कांग्रेस ने हिंदू आतंकवाद शब्द का प्रयोग करके देश के करोड़ों लोगों पर दाग लगाने की कोशिश की थी। आप ही बताइए हिंदू आतंकवाद शब्द सुनकर आपको गहरी पीड़ा नहीं होती? हज़ारों साल में क्या एक भी ऐसी घटना है, जिसमें हिंदू आतंकवाद में शामिल रहा हो?’’

यह बात सही भी है कि सामान्य धारणा है कि हिंदू या सनातन धर्म को मानने वाले लोग आमतौर पर शांति प्रिय होते हैं। भारत जैसे विविधता भरे देश में नीतियां बनाने और सरकार चलाने में सभी को प्रतिनिधित्व मिले, इसीलिए भारतीय संविधान सभा ने जानबूझकर देश में संसदीय लोकतंत्र की स्थापना की थी, ताकि किसी एक धर्म वालों का बोलबाला न हो। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तो उनसे भी दो कदम आगे चल रहे हैं। सहारनपुर में चुनाव प्रचार करते हुए कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार को योगी ने पाकिस्तानी चरमपंथी मसूद अज़हर का ‘दामाद’ कहा। चुनाव आयोग की स्पष्ट मनाही के बावजूद प्रचार में ना केवल सेना की बहादुरी को पार्टी की उपलब्धियों के रूप में पेश किया जा रहा है, बल्कि योगी आदित्यनाथ ने भारतीय सेना को ‘मोदी की सेना’ भी बना दिया है। अनेक पूर्व सैन्य अधिकारियों ने इस पर खुलकर आपत्ति की है। मुस्लिमों को पाकिस्तान मिलने के बाद भी अगर हिन्दुओं को उचित स्थान नहीं मिलता है तो यह सरकारों की ही नाकामी मानी जा सकती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *