भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की इज़राइल यात्रा को लेकर मेरे अंदर जो असीम सुख का भाव जागृत हुआ है, उसका कारण यह है कि इस यात्रा से भारत ने अपनी पिछली 70 वर्षो से मध्य एशिया को लेकर स्थापित विदेशनीति की मुखाग्नि दे कर, प्रयाश्चित कर लिया है। वैसे तो भारत ने 2014 से ही, अपनी विदेशनीति में बदलाव कर लिया था लेकिन उस पर अंतिम मोहर, इस इज़राइल यात्रा ने लगा दी है।
आखिर, भारत ने अपनी विदेश नीति में समयानुसार परिवर्तन करने में इतनी देरी क्यों कर दी? इसका सीधा उत्तर यह है कि शुरू से ही भारत की मध्य एशिया की नीति, भारत के स्वार्थ से ज्यादा, भारतीय राजनैतिक दलों की मुस्लिम वोट बैंक के हाथों बिकी हुई थी। इसकी शुरवात जहां नेहरू की कांग्रेस ने किया था वही उसको भारत के वामपंथियों और सोशलिस्टों का भरपूर समर्थन था। उस काल मे हमारे भारत के शासक, मुस्लिमपरस्ती में इतना अंधा थे कि भारत के स्वार्थ और खुद के व्यक्तिगत स्वार्थ में अंतर करना ही भूल गये थे और इसी का परिणाम यह हुआ कि हम न सिर्फ वैश्विक जगत में अपना मान बेच आय बल्कि हम दूसरे राष्ट्रों के हितों के गुलाम भी हो गये।
इस बात को इस तरह से समझ ले, कि किसी भी राष्ट्र की कूटनीति, उसके राष्ट्र के स्वार्थ पर आधारित होती है और उसकी विदेश नीति कभी भी इस चलायमान विश्व में लम्बे समय तक स्थिर नही हो सकती है। यदि कोई राष्ट्र, बदलते विश्व की अनदेखी करके अपनी कूटनीति और विदेश नीति को चलाता है तो वह राष्ट्र, विश्व के लिये अप्रासंगिक हो जाता है।
हम कितने अप्रसांगिक थे और मुस्लिम वोट बैंक के लिए, मध्य एशिया की नीति के तहत अरब राष्ट्रों को खुश करने के लिए क्या क्या किया है, इसको समझने के लिए हमे इतिहास से जाना होगा। हमने अरबों की जूती अपने सर पर रक्खी और इज़राइल को जूते मारे है, लेकिन इसके बाद भी अरब देशो की निगाह में, भारत की औकात क्या थी, उसका गवाह इतिहास है।
अब मैं अपने दो साल पहले लिखे एक लेख को संछिप्त करके लिख रहा हूँ, ताकि हम आज हुए बदलाव के साथ, आने वाले बदलाव को अच्छी तरह समझ ले।
15 अगस्त 1947 को बटवारे के बाद जिस भारत को स्वतंत्रता मिली थी उसी भारत ने, फिलिस्तीन के बटवारे और इजराइल को एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाने का, यूनाइटेड नेशन में विरोध किया था। नेहरू ने, खुद के बटवारे से हुयी पैदाइश से मुँह मोड़ते हुए, नवंबर 1947 में, यहूदिओं के नव प्रस्तावित देश के विरुद्ध वोट देकर, अपना चारित्रिक दोगलापन दिखाया था।
नेहरू के भारत ने 1947 में इजराइल के उदय के बाद, अरब राष्ट्रों का साथ देते हुए उसको राष्ट्र के रुप में मान्यता देने से भी इंकार कर दिया था। इसी क्रम में 1949 में नेहरू के भारत ने, अरबो का साथ देते हुए इजराइल को यूनिटेड नेशन का सदस्य बनाने का भी विरोध किया था। इसी अरब नीति के तहत, भारत ने, 1956 में मिस्र के राष्ट्रपति गमल अब्देल नासेर के सुएज कैनाल के राष्ट्रीकरण करने व उस पर कब्जे को समर्थन दिया था और इसको लेकर इजराइल व फ्रेंच सेना से हुए संघर्ष में मिश्र का साथ दिया था।
भारत, जब से प्रधानमंत्री नेहरू हुए थे, शुरू से ही, अरब राष्ट्रों के साथ ही खड़ा था। वह उनके हर गलत और सही कामो का समर्थक और साथी था। अरब भी, नेहरू की इस विदेश नीति से खुश थे, क्योंकि इसमें उन्हें भारत को अपने पक्ष में लेने के लिए कुछ भी नही देना पड़ा था।
नेहरू का भारत, बेहद महान बनने की बीमारी से इतना ग्रसित और दोगलेपन को आत्मसात किये हुए था की जो भारत, खुद अपने को स्वेच्छा से बटवा कर पैदा हुआ था वह फिलिस्तीन के बंटवारे को विरोध कर रहा था? एक राष्ट्र अपने को ही काट कर, इस्लाम के नाम पर अलग हुए पाकिस्तान को मान्यता देता है लेकिन वहीं यहूदियों के लिए उनकी खुद की जगह देने से इंकार कर रहा था!
यह हमारा नेहरू का बनाया भारत था, जो शांति, अहिंसा, मानवता का पाठ पढ़ाते हुए, वास्तिविकता को नकार कर रोमानियत में जीता था।
50 के दशक में अरबो के हमने खूब तलवे चाटे और यह हमने अपनी इच्छा से किया था। फिर आया 1962 का चीनी युद्ध, जिसमे चीन ने हमको खसीट खसीट के मारा था। हम उस वक्त इतने काबिल हो गाये थे की लोग हमे मारे। पिटते हुये, नेहरू ने अरबो को आवाज़ लगायी की हमने आपका हर मंच पर साथ दिया है और आज हमको आपकी सहायता की जरुरत है।
सिवाय मिस्र के राष्ट्रपति गमल अब्देल नासेर के, सारे अरब राष्ट्र शांत रहे। लेकिन मजेदार बात यह थी की उसने भी चीन का विरोध नही किया! उसने भारत की चीन के साथ हुए विवाद मे समझौते कराने की पेश कश की थी!
हमने अपनी इस अरब नीति की विफलता से कोई सबक नही सीखा। भारत ने अरबो का साथ न देना, उनकी मजबूरी मान लिया और यूनिटेड नेशन में उनके पक्ष में वोट देते रहे। पाकिस्तान जब 1962 में यूनिटेड नेशन में, कश्मीर को लेकर एक प्रस्ताव लाया तब सभी अरब राष्ट्रो ने पाकिस्तान का साथ दिया लेकिन हम तब भी बेशर्मी से अपनी नेहरू द्वारा प्रतिस्थापित विदेश नीति से चिपके रहे क्योंकि तब तक नेहरू, भारत के मुस्लिम वोट को, अरब से जोड़ चुके थे।नेहरू की कांग्रेस ने भारतीय मुस्लिमो को उनके अंदर के अरबी खून का गुमान, सबसे पहले कराया था।
फिर आया 1965 का भारत पाकिस्तान का युद्ध। इस युद्ध में भी अरब राष्ट्रों ने पाकिस्तान का ही समर्थन किया था और हम को शर्मसार हो कर जीती हुयी बाजी को सोवियत दबाव में ताशकंद में खोनी पड़ी थी।
इस वक्त तक भारत की विदेश नीति को अरबी लकवा लग चुका था और राष्ट्र के रूप में बेशर्म हो चुके थे।
फिर 1967 में जब इजराइल पर सभी अरब के राष्ट्रों ने संयुक्त आक्रमण कर दिया था तब पूरा विश्व चीत्कार कर पड़ा था। यह युद्ध जहां राष्ट्रों के बीच तो था ही वही यह युद्ध, इस्लाम और यहूदी का भी था। भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंद्रा गाँधी ने अरब आक्रमण का समर्थन किया था और उल्टा इजराइल को ही दोषी ठहराया था। उस वक्त इंदरा गांधी की कांग्रेस के साथ, सोवियत रूस के नयजायज औलाद कम्युनिस्ट पार्टी और मुस्लिम कट्टरपंथियों की मुस्लिम लीग खड़ी हुयी थी जबकि स्वतन्त्र पार्टी और जनसंघ ने भारत के इस फैसले का विरोध किया था।
फिर आया वह वाकया हुआ जिसके कारण मुझे, भारत की अरब व विदेश नीति का इतिहास बताना पड़ा है।
इजराइल से बहुत ही बड़े होने के बाद भी लगातार हारने के बाद, अरब राष्ट्रो ने विश्व के सभी मुसलमानो को एक मंच में खड़े करने की तैयारी की और उसके परिणामस्वरूप आर्गेनाईजेशन ऑफ़ द इस्लामिक कांफ्रेंस (OIC) का गठन हुआ।
मोरक्को के शहर रबात में 22 से 24 सितम्बर 1969 को OIC की इतिहासिक प्रथम बैठक हुयी, जिसमे भारत निमंत्रित नही था। लेकिन इंद्रागाँधी के भारत को यह कैसे मंजूर था की मुसलमानो के लिए कोई संघठन बने और उसमे भारत की शिरकत न हो? इसलिए मोरक्को के शाह को संदेशा भिजवाया गया की भारत 6 करोड़ मुस्लिमो का राष्ट्र है और उसमे भारत को होना चाहिये।
22 सितम्बर 1969 को आर्गेनाईजेशन ऑफ़ द इस्लामिक कांफ्रेंस की बैठक शुरी हो गयी थी तब भारत के बहुत गिड़गड़ाने पर 23 सितम्बर की सुबह मोरक्को में भारत के राजदूत को, भारत को निमंत्रण दिए जाने की सूचना दे दीगयी और उसमे शिरकत करने को कहा गया। उस वक्त के राजदूत गुरबचन सिंह उसमे पहुंचे और बताया की भारत का प्रतिनिधित्व करने भारत के लिये, उद्योग मंत्री फकरुद्दीन अली अहमद आरहे है और उनकी अनुपस्थिति तक वह भारत का प्रतिनिधित्व करेंगे।
वहां, भारत की उपस्थिति का पाकिस्तान के राष्ट्रपति यहया खान ने वहां विरोध कर दिया और भारत को गैर इस्लामिक राष्ट्र होने के कारण, उसकी उपस्थिति को गलत बताया।
24 सितम्बर को जब उद्योग मंत्री फकरुद्दीन अली अहमद रबात पहुंचे, तब उनकी हवाई अड्डे पर अगवानी कर के, उनके होटल में पहुंचा दिया गया। जब वो आर्गेनाईजेशन ऑफ़ द इस्लामिक कांफ्रेंस में शिरकत करने के लिए होटल से निकले तो उन्हें वही रोक दिया गया और भारत, मुँह पर जूता खा कर वापस लौट आय। यह भारत था और यह अरब राष्ट्र का समुदाय हमको समझता था।
लेकिन हम अब भी बेशर्म बने रहे और अपनी नेहरू की नीतियों को गले लगाय रहे।
जब 1971 में पाकिस्तान और भारत का फिर से युद्ध हुआ और उससे बंगलादेश का उदय हुआ तब पुरे अरब राष्ट्र शांत रहे। उस वक्त के भारत के विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह ने शर्मिंदा होते हुए भारत की संसद को यह बताया की हमको जो अरब राष्ट्रों से उम्मीद थी वह उस उम्मीद पर खरे नही उतरे है।
हम तब भी बेशर्म बने रहे।
1973 के अरब इजराइल युद्ध में हम फिर से अरब के साथ खड़े हुए थे क्यूंकि भारत के मुस्लिम वोट, अरब के नाम पर बिकते है यह इंद्रागाँधी की कांग्रेस को भी विश्वास होगया था।
इतनी पुरानी बात को फिर से कहने का मेरा मकसद यह है की इससे आप, समझ ले कि हमारे भारत ने पूर्व में बड़े पाप किये है। नेहरू कांग्रेस द्वारा प्रतिपादित अरब व मध्य एशिया की विदेश नीति, मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति की धरोहर थी। भारत ने अरब राष्ट्रों के स्वार्थ को अपने स्वार्थ से कभी नही तौला। हमने हमेशा, इज़राइल का तिरस्कार किया है और अरब राष्ट्रो के कुकर्मो का समर्थन किया है। इसमें अरब राष्ट्रों की कोई गलती नही है, उनको तो अपने स्वार्थ पुरे करने थे और हम ने उनके लिए, घर में घुस कर अपनी बेज्जती कराने को विदेश नीति का हिस्सा बना चुके थे।
अब आगे ऐसा नही होगा। मोदी जी की इज़राइल यात्रा से भारत ने प्रयाश्चित कर लिया है। भारत इज़राइल गठबंथन वैश्विक शक्ति समीकरणों को नये मायने देने वाला है और आगे से अरब राष्ट्र, मोदी के भारत के साथ वो नही कर पायेगा जो उन्होंने नेहरू , इंद्रा और बाद के भारत के किया था। तब के भारत को अपनी इज्जत कराना ही नही आता था और उसने मध्य एशिया की नीति को सीधे मुस्लिम वोट बैंक से जोड़ लिया था।
पुष्कर अवस्थी