लोकसभा-सदस्यों के एक रात्रि-भोज में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रति सहानुभूति दिखाई और कहा कि पता नहीं क्यों, उन पर लोग पत्थर बरसा रहे हैं? जैसे मैं दिल्लीवाला नहीं हूं, वैसे ही ट्रंप वाशिंगटन डीसी वाले नहीं हैं। जैसे वे बाहरी हैं, मैं भी बाहरी हूं। यह कैसा संयोग है? संयोग यह भी है कि ट्रंप ने अपने चुनाव-अभियान के दौरान भारतीय मूल के वोट पटाते वक्त मोदी की तारीफों के पुल बांध दिए थे। वह ट्रंप की मजबूरी थी। यह मोदी कि मजबूरी हो सकती है कि वे जान-बूझकर ट्रंप के तारीफ में कसीदें काढ़ रहे हैं। मोदी का यह गणित हो सकता है कि ट्रंप को वह खुश रखें, वरना ट्रंप कहीं अमेरिका में रह रहे भारतीय मूल के नागरिकों के पीछे न पड़ जाए। 30 लाख भारतीय वहां रहते हैं। वे संपन्न हैं और अन्य अमेरिकियों की नजर में ईर्ष्या के पात्र हैं। यदि ट्रंप उनसे रोजगार छीनने का अभियान चला दे तो वे क्या करेंगे? इसी तरह भारत के लगभग दो लाख युवजन एचबी-1 वीजा पर हैं। यदि ट्रंप उन्हें निकाल बाहर करेंगे तो संकट खड़ा हो जाएगा। इसके अलावा भारत के अनेक सामरिक और व्यापारिक समझौते अधर में लटके पड़े हैं। भारत को चीन और पाकिस्तान के गठजोड़ के खिलाफ भी मुस्तैद होना है। इन सब बातों को ध्यान में रखकर मोदी और ट्रंप में फोन पर प्रेमालाप चले तो कोई बुराई नहीं है लेकिन ढाई साल की उल्टी-सीधी कसरतों ने मोदी को इतना तो सिखा ही दिया होगा कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में इस तरह के जबानी जमा-खर्च का महत्व बहुत सीमित होता है और वह शुरुआती दौर में अच्छा लगता है। असली कूटनीति में राष्ट्रहित सर्वोपरि होते हैं।
इस तथ्य को समझे बिना यदि मोदी खुद की तुलना ट्रंप से करते है। तो वे अपने छवि खुद ही गिरा रहे हैं। मोदी और ट्रंप की इतनी तुलना तो ठीक है कि विदेश नीति के मामले में दोनों ही नौसिखिए हैं और दोनों ही खुद को सर्वज्ञ समझते हैं लेकिन ट्रंप के मुकाबले मोदी का चरित्र शुद्ध है और व्यक्तिगत आचरण भी मर्यादित है। दोनों ही अपने फैसले भावावेश में बहकर कर डालते हैं लेकिन मोदी को मुख्यमंत्री रहने का अनुभव है और देश के मतदाताओं का बहुमत उनके साथ था जबकि ट्रंप का राजनीति का अनुभव शून्य है और वे जनता के अल्पमत से जीते हैं। अमेरिकी जनता तो उनके खिलाफ है ही, यूरोप, मेक्सिको और कनाड़ा-जैसे देशों में भी लाखों लोग उनका विरोध कर रहे हैं जबकि मोदी की नोटबंदी और फर्जीकल स्ट्राइक के बावजूद आम जनता को अभी भी उनमें विश्वास है। विदेशों में ट्रंप काफी अलोकप्रिय हैं जबकि मोदी जहां-जहां भी गए हैं, कम से कम प्रचार की दृष्टि से अपना (याने भारत का) सिक्का तो जमा ही आए हैं। यदि शेष दो-ढाई साल में वे कुछ अच्छा और ठोस कर पाए तो ट्रंप-वंप उनके मुकाबले कहां ठहरेंगे? वे अपनी तुलना ट्रंप से क्यों करें?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक