2014 में नरेंद्र मोदी बदलाव के नारे के साथ सत्ता में आये थे और जनता को भी उनसे बड़ी उम्मीदें थीं. लेकिन तीन साल पूरे होने को आये हैं और मोदी सरकार कोई नयी लकीर खीचने में नाकाम रही है, मोटे तौर पर वह वह पिछली सरकार के नीतियों का ही अनुसरण करते हुए दिखाई पड़ रही है. हालांकि इसके साथ उनकी यह कोशिश भी है कि पुराने लकीर को पीटने में नयापन दिखाई दे. 2017 के बजट में भी यही फार्मूला अपनाया गया है बजट में कुछ नया नहीं है और अगर इसे जेटली की जगह चिताम्बरम पेश करते तो शायद इसमें शेरो-शायरी के आलावा कोई खास फर्क नहीं होता. लेकिन जैसा की मोदी सरकार आमतौर पर करने की कोशिश करती हैं 2017-18 के आम बजट को लेकर भी कई चीजें को परम्परा तोड़ते हुए “पहली बार” करने की कोशिश की गयी है, जैसे इस बार बजट को अपने निर्धारित समय से करीब एक महीने पहले ही पेश किया गया है,इसी तरह यह पहला मौका है जब आम बजट में रेल बजट को भी शामिल किया गया है और पहली यह बार ही है जब बजट में सभी मंत्रालयों एवं विभागों को शामिल करते हुए इसे एक समेकित परिणाम बजट के रूप में पेश किया गया है.
इस बजट पर “सूट-बूट” और कारपोरेट परस्त सरकार की छवि तोड़ने और पांच राज्यों में होने जा रहे चुनावों की छाप दिखाई पड़ती है, इसके लिए “गाँधी” और “गावं” को मुखौटा बनाया गया है और खुद को गाँधीवादी व किसान हितेषी सरकार के तौर पर पेश करने की कोशिश की गयी है. हालांकि वितमंत्री ने अपने पूरे भाषण में सबसे ज्यदा 102 बार “टैक्स” शब्द का उपयोग किया लेकिन इस सूची में “गरीब” शब्द चौथे स्थान पर था जिसका उन्होंने 15 बार जिक्र किया है.
वितमंत्री ने ने जीएसटी और नोटबंदी को अपने पिछले साल की उपलब्धि के तौर पर पेश किया है, हालांकि नोटबंदी के तथाकथित उपलब्धियों को लेकर उनका आत्मविश्वाश डिगा हुआ नजर आया और ज्यादातर समय वे सफाई पेश करते हुए ही दिखाई पड़े वे घुमा-फिराकर यही बता पाए कि इससे अर्थवयवस्थाबिगर, क्लीनर और रियल हो जायेगी. इस बार के बजट में टॉन्सफॉर्म, एनर्जाइज़ और क्लीन इंडिया’ का नया नारा दिया गया है और डिजिटल इंडिया पर भी जोर रहा है.
2017 के बजट का ट्रेक पुराना है, यह पहले खीचे गये लकीर से बाहर नहीं निकल पाती है और 2014 में हुए आम चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी द्वारा किये गये आसमानी वायदों को मुंह चिढ़ाती है. यह बदलाव नहीं यथास्थिति को बनाये रखने का बजट है. इस बार का फोकस रोटी, मकान और डिजिटल भारत पर है. जहाँ एक तरफ महात्मा गांधी की 150वीं जयंती यानी 2019 तक एक करोड़ परिवारों को ग़रीबी से बाहर निकलने, 5 साल में किसानों की आय किसी “जादू” से दोगुना कर देने जैसी घोषणाये हैं वहीँ ‘विफलताओं के स्मारक” मनरेगा के बजट को 38,500 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 48,000 करोड़ रुपये कर दिया गया है. 2019 तक 1 करोड़ लोगों को मकान देने का लक्ष्य रखा गया है और और 3 लाख रुपये से ज्यादा के नकद लेन-देन पर रोक लगा दी गई है, मिडिल क्लास के लिए 2.5 लाख से 5 लाख रुपए तक की आय पर लगने वाले टैक्स 10 प्रतिशत से घटाकर 5 प्रतिशत कर दिया गया है. रेलवे को लेकर कम घोषणायें है और इसमें यात्रियों की सुरक्षा के लिए एक लाख करोड़ के कोष व आईआरसीटीसी के ज़रिए ई-टिकट बुकिंग्स के दौरान सर्विस चार्ज नहीं लगने जैसे ऐलान किये गये हैं.
इस बजट की खास बात रही कि इसमें कई लक्ष्यों को समयसीमा के साथ जोड़ दिया गया है जैसे 2025 तक भारत को टीबी मुक्त बनाने का लक्ष्य और 1 मई 2018 तक हर गांव में बिजली उपलब्ध कराना, उम्मीद है इससे बजट की जवाबदेहिता बढ़ेगी. राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले बेनामी चंदे की सीमा को 20 हजार रुपये से घटाकर दो हजार कर दिया गया है जो कि एक बड़ा फैसला है. लेकिन जो 2,000 रुपये की सीमा बनाये रखे गयी है उसका भी फायदा उठाया जा सकता है हाँ अगर यह सीमा पूरी तरह से समाप्त कर दी गयी होती तो इसका प्रभाव देखने को मिल सकता था.
इस बजट में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र की अनदेखी साफ़ नजर आती है जो कि बजट भाषण के विषय सूची में भी शामिल ही नहीं हैं, उच्च शिक्षा में दाखिले के लिए राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी बनाये जाने की घोषणा की गयी है और स्कूली शिक्षा के गिरते स्तर को बेहतर बनाने और सेकेंडरी एजुकेशन को प्रोत्साहित करने की बात कहके पीछा छुड़ा लिया गया है. जाहिर है सावर्जनिक शिक्षा का घाव बहुत गहरा है और ईलाज सतही. मोदी सरकार के पिछले बजटों में समार्ट सिटी और बुलेट ट्रेन का खासा शोर था लेकिन इस बार इन दोनों पर खामोशी बरती गयी है.
वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में कहा कि “हमारा समाज मुख्यतः टैक्स को न मानने वाला समाज है.” उन्होंने बताया कि भारत में केवल 2.7 करोड़ करदाता है. लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि भारत उन मुल्कों में शामिल है जहाँ असमानता की खाई सबसे चौड़ी है इस साल जनवरी में ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट आयी थी जिसके मुताबिक भारत की 58 फीसदी संपत्ति पर केवल 1 प्रतिशत लोगों का कब्जा है. आंकड़े गवाह हैं कि भारत की 85 प्रतिशत से ज्यादा आबादी छोटी खेती, खेतिहर मजदूर,असंगठित क्षेत्र में नौकरी या छोटे-मोटे धंधे करने वाली है और इतना नहीं कमाती है यह आबादी आयकर के दायरे में आ सके . हालांकि यह आबादी भी इनडायरेक्ट टैक्स तो भरपूर देती है, सुबह उठने से लेकर लोग जो खुछ भी खरीदते हैं या सेवा लेते हैं तो उन्हें इसके लिए अच्छा-खासा “कर” या “सेवा कर”तो चुकाते हैं. डायरेक्ट टैक्स के दायरे में करीब दस से बारह प्रतिशत लोग ही आते होंगें जिसे हम मिडिल क्लास कहते हैं. लेकिन यह एक ऐसा वर्ग है जिसमें से ज्यादातर लोग सीमा रेखा के पास ही बने रहते हैं और उनपर नीचे लुढ़कने का खतरा बना रहता है. एक और कारण इस वर्ग का चरित्र भी है जो अपने अखबार का चुनाव भी गिफ्ट मिलने के चक्कर में करता है. सरकारों को भी सोचना चाहिए कि इधर आप सामाजिक सुरक्षा में लगातार कटौती करते जा रहे हैं तो दूसरी तरफ टैक्स को लेकर अपेक्षायें भी बढ़ाते जा रहे हैं यह दोनों एक साथ संभव नहीं है.
बजट से पहले पेश किये गये आर्थिक सर्वेक्षण में स्वीकार किया गया है कि नोटबंदी से देश की अर्थ-व्यवस्था को गहरा नुक़सान पहुँचाया है जीडीपी में वृद्धि की पिछले साल की दर 7.6 से घट कर 6.5 प्रतिशत रह सकती है और रोजगार पर भी इसका गहरा असर पड़ा है. लेकिन बजट इस पर खामोश रहा है.
भाजपा एक दक्षिणपंथी पार्टी है कांग्रेस भी है लेकिन दोनों में एक फर्क है भाजपा आर्थिक रूप से खुद को उतना दक्षिणपंथी साबित नहीं कर पायी है जितना की कांग्रेस है, वर्तमान में केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपा का बुनियादी जोर संघ कुनबे के अपने अन्य सदस्यों के साथ मिलकर दक्षिणपंथ के अपने सामजिक-सांस्कृतिक एजेंडे को आगे बढ़ना है. इसलिए हम देखते हैं कि सामजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर तो भाजपा का रास्ता अलग है और अब वे यहाँ बाकियों का अजेंडा तय करने की स्थिति में आ चुके हैं लेकिन आर्थिक मुद्दों पर वे कांग्रेस का अनुसरण ही करते हैं. 2017 का बजट इस कड़ी की एक और मिसाल है.
जावेद अनीस