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यह समृद्धि का कैसा विकास है?

व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के विकास को नापने का एक ही पैमाना है और वह है समृद्धि। व्यक्ति का विकास मतलब व्यक्ति की समृद्धि और देश का विकास मतलब देश की समृद्धि। समृद्धि का भी अर्थ निश्चित और सीमित कर दिया गया है। पैसों और संसाधनों का अधिकाधिक प्रवाह ही समृद्धि का अर्थ है। पैसे भी संसाधनों से ही आते हैं। इसलिए कुल मिलाकर अधिकाधिक संसाधन चाहिए। इस संसाधनों के संचयन की होड़ पूरी दुनिया में लगी हुई है। इसके लिए हम किसी भी चीज की बलि चढ़ाने के लिए तैयार हैं, चढ़ा भी रहे हैं। चूँकि संसाधन हमें प्रकृति से ही मिलते हैं, इसलिए बलि भी प्रकृति की ही चढ़ाई जा रही है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि हमारी समृद्धि तो बढ़ रही है परन्तु वास्तविक तौर पर हम गरीब हो रहे हैं। यह गरीबी पर्यावरण और पारिस्थितिकी की है। हमारी जैव-विविधता खतरे में है, हमारा पेयजल खतरे में है, हमारी शुद्ध हवा और उपजाऊ जमीन खतरे में है यही कारण है कि आज हमारे सामने कई ऐसे सवाल खड़े हो गए हैं, जिनके बारे में कल्पना तक भी नहीं की गई थी।
वर्तमान में समृद्धि को लेकर हमारे समाज की मानसिकता और मानक बदले हैं। आज समृद्धि का अर्थ सिर्फ आर्थिक सम्पन्नता तक हो गया है। समाज में मानवीय मूल्यों और सद्विचारों को हाशिये पर डाल दिया गया है और येन-केन-प्रकारेण धन कमाना ही सबसे बड़ा लक्ष्य बनता जा रहा है। आखिर ऐसा क्यों हुआ? क्या इस प्रवृत्ति के बीज हमारी परंपराओं में रहे हैं या यह बाजार के दबाव का नतीजा है? इस तरह की मानसिकता समाज को कहां ले जाएगी? ये कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं, जिनपर मंथन जरूरी है।
समृद्धि के नाम पर पनप रहा नया नजरिया न केवल घातक है बल्कि मानव अस्तित्व पर खतरे का एक गंभीर संकेत भी है। साम्राज्यवाद की पीठ पर सवार पूंजीवाद ने जहां एक ओर अमीरी को बढ़ाया है तो वहीं दूसरी ओर गरीबी भी बढ़ती गई है। यह अमीरी और गरीबी का फासला कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है जिसके परिणामों के रूप में हम आतंकवाद को, नक्सलवाद को, सांप्रदायिकता को, प्रांतीयता को और राजनीतिक अपराधीकरण को देख सकते हैं, जिनकी निष्पत्तियां समाज में हिंसा, नफरत, द्वेष, लोभ, गलाकाट प्रतिस्पर्धा, रिश्ते में दरारें आदि के रूप में दिखाई दे रही हैं। सर्वाधिक प्रभाव पर्यावरणीय असंतुलन एवं प्रदूषण के रूप में उभरा है। चंद हाथों में सिमटी समृद्धि की वजह से बड़े और तथाकथित संपन्न लोग ही नहीं बल्कि देश का एक बड़ा तबका मानवीयता से शून्य अपसंस्कृति का शिकार हो गया है।
जीवन के दो रूप सामने आए-एक ओर अमीरों की ऊंची अट्टालिकाएं, दूसरी ओर फुटपाथों पर रेंगती गरीबी। एक ओर वैभव ने व्यक्ति को विलासिता दी और विलासिता ने व्यक्ति के भीतर क्रूरता जगाई, तो दूसरी ओर गरीबी तथा अभावों की त्रासदी ने उसके भीतर विद्रोह की आग जला दी। वह प्रतिशोध में तपने लगा, अनेक बुराइयां बिन बुलाए घर आ गईं। आतंकवाद जनमा। आदमी-आदमी से असुरक्षित हो गया। हिंसा, झूठ, चोरी, बलात्कार, संग्रह जैसे निषेधात्मक संस्कारों ने मनुष्य को पकड़ लिया। चेहरे ही नहीं चरित्र तक अपनी पहचान खोने लगे। नीति और निष्ठा के केंद्र बदलने लगे। आस्था की नींव कमजोर पड़ने लगे। अर्थ की अंधी दौड़ ने व्यक्ति को संग्रह, सुविधा, सुख, विलास और स्वार्थ से जोड़ दिया। समस्या सामने आई-पदार्थ कम, उपभोक्ता ज्यादा। व्यक्तिवादी मनोवृत्ति जागी। स्वार्थों के संघर्ष में अन्याय और शोषण होने लगा। हर व्यक्ति अकेला पड़ गया। जीवन आदर्श थम से गए।
नई आर्थिक प्रक्रिया को आजादी के बाद दो अर्थों में और बल मिला। एक तो हमारे राष्ट्र का लक्ष्य समग्र मानवीय विकास के स्थान पर आर्थिक विकास रह गया। दूसरा सारे देश में उपभोग का एक ऊंचा स्तर प्राप्त करने की दौड़ शुरू हो गई है। इस प्रक्रिया में सारा समाज ही अर्थ प्रधान हो गया है। इस प्रक्रिया में सारी सामाजिक मान्यताओं, मानवीय मूल्यों, मर्यादाओं को ताक पर रखकर कैसे भी धन एकत्र कर लेने को सफलता का मानक माने जाने लगा है जिससे राजनीति, साहित्य, कला, धर्म सभी को पैसे की तराजू पर तोला जाने लगा है। इस प्रवृत्ति के बड़े खतरनाक नतीजे सामने आ रहे हैं। पिछले दो दशक की सारी नीतियां और विकास का लक्ष्य चंद लोगों की समृद्धि में चार चांद लगाना हो गया है। चंद लोगों के हाथों में समृद्धि को केन्द्रित कर भारत को महाशक्ति बनाने का सपना भी देखा जा रहा है। संभवतः यह महाशक्ति बनाने की बजाय हमें कमजोर राष्ट्र के रूप में आगे धकेलने की तथाकथित कोशिश है।
समृद्धि हर युग का सपना रहा है और जीवन की अनिवार्यता में इसे शामिल भी किया जाता रहा है। सापेक्ष दृष्टि से सोचे तो समृद्धि बुरी नहीं है लेकिन बुरी है वह मानसिकता जिसमें अधिसंख्य लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं को लील कर कुछ लोगों को उनके शोषण से अर्जित वैभव पर प्रतिष्ठित किया जाता है। बुरा है समृद्धि का वह वैभव प्रदर्शन जिसमें अपराधों को पनपने का खुला अवसर मिलता है। अपनों के बीच संबंधों में कड़वाहट आती है। ऊंच-नीच की भेद-रेखा खींचती है। आवश्यकता से ज्यादा संग्रह की प्रतिस्पर्धा होती है। अनियंत्रित मांग और इंद्रिय असंयम व्यक्ति को स्वच्छन्द बना देता है। हिंसा और परिग्रह के संस्कार जागते हैं।
समृद्धि के साथ व्यक्ति की आदत, अभिरुचि, आकांक्षा, बहुत कुछ अपसंस्कृति से प्रभावित होकर गलत दिशा पकड़ लेते हैं। व्यक्ति फैशन की चकाचैंध में झूठे प्रदर्शन करता है। ड्रिन्क, ड्रग्स और डांस के नशे में डूबता है। खान-पान की मर्यादा को तोड़ता है। समृद्धि की तथाकथित आधुनिक जीवनशैली ने जीवन मूल्यों के प्रति अनास्था को पनपाया है। समृद्धि को हम भले ही जीवन विकास का एक माध्यम माने लेकिन समृद्धि के बदलते मायने तभी कल्याणकारी बन सकते हैं जब समृद्धि के साथ चरित्र निष्ठा और नैतिकता भी कायम रहे। शुद्ध साध्य के लिए शुद्ध साधन अपनाने की बात इसीलिए जरूरी है कि समृद्धि के रूप में प्राप्त साधनों का सही दिशा में सही लक्ष्य के साथ उपयोग हो। संग्रह के साथ विसर्जन की चेतना जागे। पदार्थ संयम के साथ इच्छा संयम हो, भोग के साथ संयम भी जरूरी है।
समृद्धि की बदलती फिजा सद्संस्कारों को शिखर दे, वैचारिक दृष्टिकोण को रचनात्मकता दे, आधुनिकता के साथ पनपने वाली बुराइयों को विराम दे, ईमान और इंसानियत बटोरते हुए आगे बढ़े। आज कहां सुरक्षित रह पाया है-ईमान के साथ इंसान तक पहुंचने वाली समृद्धि का आदर्श? कौन करता है अपनी सुविधाओं का संयमन? कौन करता है ममत्व का विसर्जन? कौन दे पाता है अपने स्वार्थों को संयम की लगाम?
जब तक समृद्धि नैतिक और इंसानपरक नहीं बनेगी तब तक उसे कल्याणकारी नहीं कहा जा सकता। असल में देखा जाए तो समृद्ध होता हुआ इंसान भौतिक दृष्टि से भले ही पराक्रमशील दिखाई दे लेकिन नैतिक दृष्टि से वह अनुत्साही-निष्ठुर ही है। क्योंकि असली समृद्धि आदमी को आदमी बनाती है। लेकिन वर्तमान परिदृश्यों को देखकर ऐसा नहीं लगता कि इंसान इंसानियत की ओर अग्रसर हो रहा है। अगर तटस्थ दृष्टि से बिना रंगीन चश्मा लगाये देखे तो हम सब गरीब हैं। विशेषतः जो समृद्धि का अहंकार पाले हुए हैं वे ज्यादा गरीब हैं। गरीब, यानी जो होना चाहिए वह नहीं है। जो प्राप्त करना चाहिए वह प्राप्त नहीं है। चाहे वह अज्ञानी है, चाहे वह भयभीत है, चाहे वह लालची है, चाहे वह निराश हैं। हर दृष्टि से हम गरीब हैं। जैसे भय केवल मृत्यु में ही नहीं, जीवन में भी है। ठीक उसी प्रकार भय केवल गरीबी में नहीं, अमीरी में भी है। ये भय है आतंक मचाने वालों से, सत्ता का दुरुपयोग करने वालों से, येन-केन प्रकारेण अपने स्वार्थों की पूर्ति करने वालों से, व्यवस्था को भ्रष्ट एवं अराजक बनाने वालों से। जब चारों तरफ अच्छे की उम्मीद नजर नहीं आती, तब मनुष्य अनैतिकता की ओर मुड़ता है।
समृद्ध-जीवन किसी-न-किसी ‘ध्येय’ को धारण करें और उस ध्येय को पाने के लिए ‘निष्ठा’ का पाल बांधे, तभी हम समृद्धि को अभिशाप नहीं, बल्कि वरदान बना सकेंगे। तभी इसे शक्ति का रूप दे सकेंगे। भले हमारे पास कार, कोठी और कुर्सी न हो लेकिन चारित्रिक गुणों की काबिलियत अवश्य हो क्योंकि इसी काबिलियत के बल पर हम अपने आपको महाशक्तिशाली बना सकेगे अन्यथा हमें समृद्धि एवं तथाकथित विकास के जिस रास्ते पर ले जाया जा रहा है वह आगे चलकर अंधी खाई की ओर मुड़ने वाली हैं।
ललित गर्ग

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