हिन्दू आस्था और अस्मिता के प्रतिमान प्रभु राम के अयोध्या में मंदिर निर्माण की प्रक्रिया गतिशील है, भूमि पूजन के साथ ही साथ हिन्दू आस्था और अस्मिता का प्रत्याशित आशा पूरी गयी। देश ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में उत्साह और हर्ष का विषय बन गया। दुनिया भर में रहने वाले हिन्दू, भूमि पूजन समारोह को अपने-अपने ढंग से मनाने और याद रखने की कोशिश काफी समय से कर रहे हैं। अयोध्या नगरी और प्रभु राम हिन्दू संघर्ष और बलिदान के भी प्रतीक बन गये हैं। कोई एक-दो साल का संघर्ष नहीं रहा है, पूरे पांच सौ साल का संघर्ष रहा है। तत्कालीन मुलायम सिंह यादव की सरकार द्वारा कारसेवकों पर बर्बर गोलियां चलवाने और कोठारी बंधुओं सहित दर्जनों कारसेवकों की हत्या कराने से लेकर जिहादियों द्वारा गोधरा कांड में लगभग एक सौ से अधिक कारसेवकों को जला कर मार डालने जैसे सैकड़ों बर्बर घटनाओं की याद ताजा हो रही है।
कोई भी बड़ा आंदोलन और अभियान सफल तब होता है जब उसके प्रति गहरी आस्था होती है, समर्पण होता है, उसका कोई न कोई आईकाॅन होता है। प्रभु राम के प्रति आस्था तो थी और समर्पण भी था पर उसका साक्षात प्रकटिकरण की समस्या थी। जब तक आस्था और समर्पण का सक्रिय प्रकटिकरण नहीं होता है तब तक उसका कोई प्रभाव सामने नहीं आता है, उसका कोई प्रतिफल नहीं होता है। सबसे पहली आवश्यकता आस्था और समर्पण के प्रकटिकरण को सुनिश्चित करने की थी। रामजन्म भूमि आंदोलन में कई ऐसे आईकाॅन हैं जो आस्था और समर्पण के प्रकटिकरण सुनिश्चित करने के आईकाॅन बने हैं, बलिदानी बने हैं। इनमें सर्वश्रेष्ठ थे अशोक सिंघल। अशोक सिंघल को राममंदिर आंदोलन को चीफ आर्किटेट कहा जाता है। जब आप अशोक सिंघल के जीवन गाथा को देंखेगे और उनकी रामजन्म भूमि आंदोलन में भूमिका को देखेंगे तो त आप भी अशोक सिंघल को रामजन्म भूमि आंदोलन का चीफ आर्किटेट मानेगे और उनके प्रति सिर झुकायेंगे। देश के करोड़ों लोग जिनकी आस्था और समर्पण प्रभु राम के प्रति है वे सभी अशोक सिंघल के प्रति न केवल गहरी आस्था रखते हैं बल्कि उनके सम्मान में सिर भी झुकाते रहे हैं। अशोक सिंघल जी को संस्कृृति के पुर्नजागरण का भी प्रतीक संत माना गया है। आज देश के उपर जो हिन्दू सत्ता विराजमान है उसके पीछे भी कहीं न कहीं अशोक सिंघल जी की सोच, प्रबंधन और संस्कृति जागरण से संभव हुआ है। अशोक सिंघल जी के उस बयान को कौन भूल सकता था जिसमें उन्होने कहा था कि एक-दो साल नहीं बल्कि आठ सौ साल बाद भारत में हिन्दू सत्ता की वापसी हुई है। उनका तात्पर्य नरेन्द्र मोदी की 2014 में जीत से थी।
अशोक सिंघल कोई साधरण व्यक्ति नहीं थे। उनकी प्रतिभा असाधारण थी। उनकी शैक्षणिक योग्यता भी सर्वश्रेष्ठ थी। 1950 में उन्होने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से धातुकर्म मे इंजीनियरिंग की थी। उस समय इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करना कोई आसान काम नहीं होता था। इंजीनियरिंग की पढाई करने का अर्थ अच्छी नौकरी और सुखमय जीवन का प्रमाण होता है। पर उनके सामने राष्ट्रभक्ति अहम प्रश्न थी, सांस्कतिक पुर्नजागरण की सोच उनके अंदर थी। जिस मनुष्य के अंदर राष्ट्रभक्ति होती है, अपनी संस्कृति उसे लुभाती है उस व्यक्ति के लिए सुखमय जीवन और भौतिक संसाधन तुच्छ होते है। देश भक्ति की कसौटी पर ही सरदार भगत सिंह अपने सुखमय जीवन की आकांक्षा को छोड़कर फांसी पर झूले थे, सुभाषचन्द बोस हजारों किलोमीटर पैदल चलकर वर्मा पहंुचे थे, जर्मनी पहुंच कर आजाद हिंद फौज की स्थापना की थी। अशोक सिंघल ने भी इजीनियरिंग की नौकरी न करने की ठान ली और संघ का प्रचारक बनना स्वीकार कर लिया। आपातकाल के दौरान उनकी भूमिका इन्दिरा गांधी की बर्बर सरकार के प्रजि आक्रोश उत्पन्न कराने की थी। खासकर देश की राजधानी दिल्ली में इन्दिरा गांधी की इमरजेंसी के खिलाफ व्यूह रचना और आंदोलन में भी इनकी भूमिका अग्रणी थी। अशोक सिंघल इमरजेंसी के दौरान कभी पकडे नहीं गये थे। पुलिस उनको पकडने मे विफल रही थी। इसी क्षमता का प्रमाण था कि संघ ने उन्हें हिन्दुओ कों संगठित करने के लिए विश्व हिन्दू परषिद से जोड़ दिया।
हिन्दुओं में आस्था और उ्रग्रता के प्रदर्शन के पीछे इनकी दृष्टि दूरदर्शी थी। इनकी सोच थी कि हिन्दुओं में अपने देश, धर्म और संस्कृति के प्रति आस्था तो होनी ही चाहिए पर इस आस्था के प्रकटिकरण के लिए उग्रता भी होनी चाहिए। बिना उग्रता के कोई लक्ष्य की पूर्ति होने ही नहीं दिया जाता है। अशोक सिंघल ने इसे समझने के लिए दिल्ली में इन्दिरा गांधी द्वारा गो हत्या के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले सैकड़ों निहत्थे साधुओं की पुलिस की गोलियों से की गयी हत्या को चुना था। दिल्ली की सड़कें निहत्थे साधुओ की हत्या और खून से लथपथ हो गयी थी। कहा जाता है कि लगभग एक हजार साधुओं की हत्या हुई थी। इतने बड़े नरसंहार के बाद इन्दिरा गांधी की सत्ता नहीं रहनी चाहिए थी पर इस नरसंहार के खिलाफ देश भर में आवाज नही उठी? आखिर क्यों? इसलिए कि हिन्दू अपने हितो की रक्षा के प्रति उदासीन होते हैं, हिन्दू प्रतिक्रिया वादी नहीं होते है, अपने हितों के प्रति उग्रता नहीं दिखाते हैं।
देश की राजधानी दिल्ली में दो सम्मेलनों ने देश की राजनीतिक धारा में परिवर्तन लाने और हिन्दुत्व के उभार की बडी भूमिका निभाायी थी। 1981 में डाॅ कर्ण सिंह के नेतृत्व में एक विराट हिन्दू सम्मेलन का आयोजन हुा था। 1984 में दिल्ली के विज्ञान भवन में एक धर्म संसद का आयोजन हुआ था। इन दोनों सम्मेलनों में पहली बार हिन्दू हितों पर राष्ट्रीय चर्चा हुई और यह कहा गया कि हिन्दू हितों की बलि चढाना राजनीतिक कर्म बन गया है, हिन्दू हितों को अपमानित करना राष्ट्रीय राजनीति बन गयी। इन दोनों सम्मेलनों में न केवल देश से बड़ी-बडी हस्तियां जुटी थी बल्कि विदेशों से भी बडी हस्तियां आयी थी। इन्ही दोनों सम्मेलनों में रामजन्म भूमि को मुक्त कराने और राष्ट्रीय शर्म बाबरी मस्जिद के विध्वंस की चर्चा हुई थी, सिर्फ चर्चा ही नहीं हुई थी बल्कि इसके लिए आंदोलन की पृष्टभूमि बनाने की जरूरत भी महसूस क गयी थी। इन दोनों सम्मेलनों के पीछ अशोक सिंघल का ही दिमाग था। इन दोनो सम्मेलनों के कर्ता-धर्ता भी अशोक ंिसंघल थे।
जब बाबरी मस्जिद का ताला खुला और प्रभु राम की प्रार्थना-पूजा करने की अनुमति मिली तब अशोक सिंघल ने राम जन्म भूमि मुक्ति के आंदोलन को राजनीति का यक्ष प्रश्न बना दिया। लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा के पीछे इनका ही दिमाग काम कर रहा था। गांव-गाव और घर-घर ईंट पूजन समारोह मनाने, एक पिछडे-दलित कामेश्वर चैपाल से ईट पूजन कराने से लेकर बाबरी मस्जिद के विघ्वंस तक की पूरी व्यूह रचना के शिल्पी अशोक सिंघल रहे थे।
नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित कराने और गुजरात में नरेन्द्र मोदी को पूरी शक्ति व समर्थन के साथ खड़े रहने वालों में अशोक सिंघल भी शामिल रहे हैं। जब राष्ट्रधर्म के सिद्धांत पर गददी छोड़ने का दबाव पडा था तब अशोक सिंघल ने आडवाणी के साथ मिल कर पराक्रम दिखाया था। वे अपने विरोधियों के कर्म से विचलित नहीं होते थे। जब उन्होने नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर कहा कि आठ सौ साल बाद सत्ता वापस लौटी है तब देश की तुष्टीकरण की राजनीति ने कैसी बवाल काटी थी, देश से लेकर विदेश तक इसकी गूंज हुई थी लेकिन वे अपने बयान पर कायम रहे। यह प्रदर्शित करता है कि हिन्दू के प्रति उनका दृष्टिकोण कभी विचलित नहीं होता था।
हिन्दुत्व की धारा इन्हें संस्कृति पुर्नजागरण का महापुरूष मानता है, देश की राजनीति में हिन्दुत्व को यक्ष प्रश्न बनाने का पराक्रमी मानता है। हिन्दुत्व धारा अशोक सिंघल को देशरत्न की उपाधि की मांग करता है।
जब लोकतंत्र की हत्यारी, देश में सविधान को गौण कर इमरजेंसी लागू करने वाली इंदिरा गांधी को देश रत्न की उपाधि मिल सकती है सिखो की हत्या का समर्थन करने वाले राजीव गांधी को देश रत्न की उपाधि मिल सकती है तो फिर अशोक सिंघल को यह उपाधि क्यो नही मिल सकती है? अनैतिकता देखिए, बेशर्म देखिए, इंदिरा गांधी ने स्वयं ही देश रत्न की उपाधि दे दी थी। देश रत्न की उपाधि या अन्य पुरस्कार कोई नैतिकता और त्याग पर आधारित अपवाद स्वरूप ही मिलते है। सरकार जिसकी होती है वह अपनी आवश्यकता और स्वार्थ की कसौटी पर देश रत्न जैसी उपलब्धियां बांटती हैं।
हिन्दुत्व की धारा का यह प्रश्न खारिज नहीं किया जा सकता कि जब सिखों की हत्या का समर्थन करने वाले और जिनकी सत्ता के नीचे हजारों सिखों की हत्या हुई उस राजीव गांधी को भारत रत्न की उपाधि मिल सकती है और इमरजेंसी लागू कर लोकतंत्र की हत्या करने वाली इंदिरा गांधी को भी देश रत्न की उपाधि मिल सकती है तब राष्ट्र का अलग जगाने वाले और देशभक्ति को कर्म मानने वाले अशोक सिंघल को भारत रत्न की उपाधि क्यों नहीं मिलनी चाहिए। देश के उपर अशोक सिंघल जी के शिष्य और हिन्दुत्व रक्षक के प्रतीक बन गये नरेन्द्र मोदी की सरकार है। शायद नरेन्द्र मोदी सरकार अशोक सिंघल जी को भारत रत्न की उपाधि भी दे सकती है। रामजन्म भूमि निर्माण जो अब सच हो गया है उसके पीछे अशोक सिंघल जी के सघर्ष को जब-जब याद किया जायेगा तब-तब सुखद अनुभूति होगी, राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा मिलती रहेगी।
विष्णुगुप्त