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‘रोहनात’ गांव जहां आज़ादी के 71 साल बाद लहराया तिरंगा

‘रोहनात’ गांव जहां आज़ादी के 71 साल बाद लहराया तिरंगा

-सत्यवान ‘सौरभ’

आजादी की लड़ाई में भारत के लाखों शूरवीरों ने अपने प्राण न्याैछावर किए थे। मगर आज कुछ यादों को संजोया गया है तो कुछ की किसी को जानकारी ही नहीं है। इसी में शामिल थी 1857 की क्रांति की एक कहानी, जिसमें अंग्रेजी सेना के छक्के छुड़ाने वाले गांव रोहनात हिसार (हरियाणा) के वीर थे। वो 29 मई 1857 की तारीख थी। हरियाणा के रोहनात गांव में ब्रिटिश फ़ौज ने बदला लेने के इरादे से एक बर्बर ख़ूनख़राबे को अंजाम दिया था। बदले की आग में ईस्ट इंडिया कंपनी के घुड़सवार सैनिकों ने पूरे गांव को नष्ट कर दिया।  लोग गांव छोड़कर भागने लगे और पीछे रह गई वो तपती धरती जिस पर दशकों तक कोई आबादी नहीं बसी।

दरअसल यह 1857 के गदर या सैनिक विद्रोह, जिसे स्वतंत्रता की पहली लड़ाई भी कहते हैं, के दौरान ब्रिटिश अधिकारियों के कत्लेआम की जवाबी कार्रवाई थी। रोहनात गांव, हरियाणा के हिसार ज़िले के हांसी शहर से कुछ मील की दूरी पर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। गांव रोहनात आजादी के रणबांकुरों के नाम से जाना जाता है। यहां के लोगों ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अंग्रेजों से लोहा लेते हुए देश की आजादी के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे।
 गांव के वीर जांबाजों ने बहादुरशाह जफर के आदेश पर 29 मई 1857 के दिन अंग्रेजी हुकूमत की ईंट से ईंट बजा दी। इस दिन ग्रामीणों ने जेलें तोड़कर कैदियों को आजाद करवाया। 12 अंग्रेजी अफसरों को हिसार और 11 को हांसी में मार गिराया। इससे बौखलाकर अंग्रेजी सेना ने गांव पुट्ठी के पास तोप लगाकर गांव के लोगों को बुरी तरह भून दिया। सैंकड़ों लोग जलकर मर गए, फिर भी ग्रामीण लड़ते रहे। अंग्रेजों के जुल्म के आगे यहां के ग्रामीण निडर होकर डटे रहे और उन्होंने अंग्रेजों के जुल्म को भी सहा। अंग्रेजों ने यहां के गांव को तोप से तबाह कर दिया।

अंग्रेजों ने इसके बाद भी जुल्मों को जारी रखा। औरतों और बच्चों को कुएं में फेंक दिया। दर्जनों लोगों को सरे आम जोहड़ के पास पेड़ों पर फांसी के फंदे पर लटका दिया। ये कुएं और पेड़ आज भी अंग्रेजी हुकूमत के जुल्मों के जीते जागते सुबूत हैं। इस गांव के लोगों पर अंग्रेजों के अत्याचार की सबसे बड़ी गवाह हांसी की एक सड़क है। इस सड़क पर बुल्डोजर चलाकर इस गांव के अनेक क्रांतिकारियों को कुचला गया था, जिससे यह रक्त रंजित हो गई थी और इसका नाम लाल सड़क रखा गया था। महिलाओं ने भी अंग्रेजों से आबरू बचाने के लिए गांव स्थित ऐतिहासिक कुएं में कूदकर जान दे दी थी।

डेढ़ सौ साल बीत जाने के बाद आज भी गांव उस सदमे से उबर नहीं सका। गांव के बुजुर्ग कुंए को देख कर उस डरावनी कहानी को याद करते हैं। गांव के घरों को तबाह करने के लिए आठ तोपों से गोलों बरसाए गए।  जिसके डर से औरतें और बच्चे बुजुर्गों को छोड़ कर गांव से भाग गए। अंधाधुंध दागे गए गोलों की वजह से लगभग 100 लोग मारे गए. पकड़े गए कुछ लोगों को गांव की सरहद पर पुराने बरगद के पेड़ से लटका कर फ़ांसी दे दी गई। जिसने भी ब्रिटिश अधिकारियों को मारने की बात कबूल की, उन्हें तोप से बांध कर उड़ा दिया गया। इस घटना के महीनों बाद तक यहां कोई इंसान नज़र नहीं आया।

14 सितंबर 1857 को अंग्रेजों ने इस गांव को बागी घोषित कर दिया। 13 नवंबर को पूरे गांव की नीलामी के आदेश दे दिए गए। 20 जुलाई 1858 को गांव की जमीन व मकानों तक को नीलाम कर दिया गया। इस जमीन को पास के पांच गांवों के 61 लोगों ने महज 8 हजार रुपये की बोली में खरीदा था। अंग्रेज सरकार ने फिर फरमान भी जारी कर दिया कि भविष्य में इस जमीन को रोहनात के लोगों को न बेचा जाए। मगर समय बीतने के साथ धीरे-धीरे स्थिति सामान्य हो गई और यहां के लोगों ने अपने रिश्तेदारों के नाम कुछ एकड़ जमीन खरीदकर दोबारा गांव बसाया।

रोहनात गांव में 23 मार्च 2018 से पहले कभी भी आजादी का जश्न नहीं मनाया गया था और न ही गांव में राष्ट्रीय ध्वज फहराया गया था, क्योंकि यहां के ग्रामीणों की मांग को पूरा करने के लिए किसी भी सरकार ने ध्यान नहीं दिया। इसी रोष स्वरूप यहां के लोगों ने आजादी का जश्न नहीं मनाया था। लोगों को यह मलाल रहा कि देश की आजादी के लिए अपना सब कुछ खो देने के बावजूद उन्हें वह जमीन तक नहीं मिली, जिसके लिए वे लड़ाई लड़ते रहे। इसी बात से खफा होकर ग्रामीणों ने यहां कभी झंडा नहीं फहराया था।

कुछ समय पहले तक भी कुछ जमीन पर विवाद रहा। वर्तमान सरकार ने इस विवाद को निपटवाया। इसके बाद 23 मार्च 2018 को पहली बार मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने गांव के बुजुर्ग के हाथों राष्ट्रीय ध्वज फहराकर यहां के लोगों को गुलामी के अहसास से आजाद करवाया। देश की आजादी में म्हारे गांव रोहनात के बुजुर्गों के योगदान को अब सभी जान पाए इसलिए रोहनात गांव के बुजुर्गों के योगदान पर ‘दास्तान ए रोहनात’ नाटक बना है।  नाटक में 1857 की क्रांति में गांव रोहनात के बलिदान को दिखाया गया है जिसे देखने के लिए देश भर के लोगों में विशेष उत्साह है।

 — सत्यवान ‘सौरभ’

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