आर.के.सिन्हा
लिट् फेस्ट यानी साहित्यिक उत्सव। एक इस तरह का कार्यक्रम जहां पर लेखक और उनके पाठक सीधे मिलें, उनके बीच सीधा संवाद हो, लेखकों के काम पर टीका-टिप्पणी भी होI वे भी अपनी नई किताब पर या फिर किसी भी विषय पर बेबाकी से राय रखें। जाहिर है,देश के विभिन्न शहरों में ‘’लिट-फेस्टिवल’’ के बढ़ते आयोजन अपने आप में एक अच्छी शुरूआत मानी जानी चाहिए।यहां तक सब ठीक है। किसी भी देश और समाज को दिशा उसके लेखक और कवि ही तो देते हैं। वह समाज मरा हुआ मन जाता है,जो अपने लेखकों के प्रति कृतज्ञता का भाव नहीं रखता।
लेकिन, अब कुछ ‘’लिट फेस्टिवल’’ के दौरान एक खास एजेंडे पर चलने वाले लेखक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में देश विरोधी विचार रखने से बाज नहीं आते। पुस्तक चर्चा, और लेखकों से भेंट तथा संवाद के बहाने ‘’लिट फेस्टिवल’’ में ऐसी आवाज़ों को तरजीह दी जाने लगी है, जो जान बूझ कर मंच से ऐसी बातें कहेंगे, जिससे भारतीयता की भावना का अपमान हो। ये तो सदैव राष्ट्रवाद को लांछित करके अपने को महान साबित करने की फिराक में लगे रहते हैं। येमहानुभाव तो शब्दों के उत्सव की मूल भावना का ही अनादर और अवेहलना करते रहते हैं। संस्कृति कर्मी मालिनी अवस्थी नेविगत दिनों अपनी फेसबुक वॉल पर बताया कि जयपुर “लिट्-फेस्ट” में मुख्य वक्ता के तौर पर पधारे “पीको अय्यर” ने अपने उद्बोधन में, राष्ट्रवाद का अपमान कुछ इस तरह से किया है कि वे राष्ट्रवाद और आतंकवाद दोनों को एक तराज़ू में तौलने लगे। पीकू अय्यर के शब्दों में “हम राष्ट्रवादियों और आतंकवादियों को मिटा नही सकते हैं, लेकिन हम हमारे शब्द, विचार, और कल्पना से दुनिया बदलने की कोशिश कर सकते हैं।” अब आप जरा अय्यर के उक्त विचार को पढ़े और समझें। वे राष्ट्रवाद की तुलना आतंकवाद से कर रहे हैं। निश्चय ही इस तरह की बात कोई सिरफिरा शख्स ही करेगा। भारत में अभिव्यक्ति की आज़ादी ही तो है, तभी तो हम इस तरह के अनर्गल प्रलाप करने वाले दुस्साहसी पीकू अय्यर को लोगबाग महान बुद्धिजीवी मान “लिट्-फेस्ट” के स्वागत उद्बोधन के लिए आमंत्रित करते हैं, और वह जान कर उसी जगह चोट करते हैं, जहां आयोजकों के लिए उन्हें बुलाना सार्थक सिद्ध हो।
नहीं होता विरोध
हैरानी इसलिए होती है, क्योंकि पीकू अय्यर जब अपनी अधकचरी सोच रखते हैं,तो कोई विरोध में आवाज तक नहीं बुलंद करता। उन्हें सुना जाता है। तालियां भी बजाई जाती हैंI उन्हें किसने अधिकार दिया कि वह हमारे ही देश में आकर एक मंच का आश्रय लेकर एक ही सांस में राष्ट्रवाद और आतंकवाद की तुलना करने का दु:साहस करेंI दुर्भाग्य यह है कि पीकू सरीखे कथित लेखकों का प्रतिवाद करने के लिए दूसरा पक्ष आगे नहीं आता। लगता है कि राष्ट्रवादी अपनी बौद्धिक सामग्री को सही वक्त पर इस्तेमाल करने से चूक जाते हैं। वस्तुतः कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों द्वारा पश्चिमी विद्वानों की दो चार लाइनें कोट कर देने भर से राष्ट्रवादी विचारधारा को मानने वाले बुद्धिजीवीआत्मसमर्पण कर देते हैं। जरूरत राष्ट्रवाद को हिंदू संदर्भ में परिभाषित करने की है।
बरपा हंगामा क्यों
अब देखनें में ये भी आ रहा है कि किसी जगह के फेस्ट को अखिल भारतीय स्तर पर प्रचार दिलवाने के लिए आयोजक घनघोर देश विरोधियों को बुलाने लगे हैं। क्या जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी छात्र संघ का पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार लेखक है? उसे दूर-दूर तक कोई लेखक नहीं मान सकता। लेकिन, उसे लिट फेस्टिवल में बुलाया जाता है।पिछले साल लखनऊ लिट फेस्टिवल मेंकन्हैया कुमार को वक्ता के रूप में बुलाया गया था। तब उनके वहां वक्ता के रूप में बुलाए जाने पर कसकर हंगामा भी हुआ था। विरोध के बावजूद कन्हैया कुमार को मंच दिया गया। विरोध करने वालों का कहना था कि साहित्य के कार्यक्रम में कन्हैया कुमार का क्या काम है। उन्होंने ‘’कन्हैया कुमार वापस जाओ’’के नारे भी लगाए। वहीं दोनों पक्षों के बीच विवाद की वजह से अफरातफरी का माहौल बन गया। बहरहाल, कन्हैया के आने से जो हंगामा बरपा उससे लखनऊ फेस्ट देशभर में अपनी जगह बनाने में सफल रहा। कहते हैं न कि ‘’बदनाम हुए तो क्या नाम न हुआ?
दरअसल, इतिहास को तोड़- मरोड़ कर दफनाने की जिम्मेदारी इन लिट फेस्ट से जुड़े लेफ्टिस्ट लम्पटों ने ही ले ली है। ये हर जगह तथाकथित बुद्धिजीवी बन कर ऐसे घुस जाते हैं कि जैसे कि आज हम हिंदुस्तान का इतिहास भूल कर मुगल और फिरंगो कि गुणगान में लगे हैं। राष्ट्रवाद को ‘’हिन्दू राष्ट्रवाद” तक सीमित कर दिया गया है। कला ,साहित्य सब इन बुद्दिजीवियों की जागीर बन कर रह गयी है।
दे दो कालजयी रचना
लिट फेस्टिवल की उपयोगिता पर कोई सवाल नहीं खड़े कर सकता है। लेकिन, यह तो देखना ही होगा कि कुछ तथाकथित लेखक इस मंच का दुरुपयोग करने से बाज आयें। ये अपनी गिरेबान में झांककर तो देखें कि क्या उनके काम से आम-जन वाकिफ भी है? तो जवाब होगा कि कतई नहीं।ये सब मिल कर पिछले कई दशकों में ऐसी एक भी रचना दे पाने में असफल रहे हैं, जो जन-मानस को इनसे जोड़ सके। ये स्वयंभू साहित्यकार स्वान्तःसुखाय कुछ भी लिखते रहते हैं और जोड़-तोड़, चाटुकारिता, भाई-भतीजावाद, जुगाड़ व चरण-वंदना से ‘महान’ बन जाते हैं या पुरस्कार पा जाते हैं। लेकिन इनकी “रचनाएँ” महज़ 500 से 1000 प्रतियों में छप कर पुस्तकालयों में धूल खाने चली जाती हैं। क्या किसी भी आम-आदमी ने ख़रीद कर अरुंधति राय की एक भी रचना पढ़ी? यह रोना व्यर्थ होगा कि अब लोगों की पढ़ने की आदत ख़त्म हो गयी है। अमीश त्रिपाठी और चेतन भगत जैसे लेखकों की रचनाएँ लांच होने से पहले ही कैसे बिक जाती हैं? अफ़सोस! क़लम के कथित सिपाही अपने लेखन से जन-जागरण करने के बजाय राजनैतिक पार्टियों के मोहरे बन कर ख़ुश हैं। प्रेमचंद का रास्ता कठिन है और जनमानस से जुड़ा लेखन तो इन सबके लिए नितांत असंभव है। ये ही लेखक कुछ समय पहले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आंच आने के कथित खतरे से नाराज होकर अपने सरकारी सम्मान और पुरस्कार वापस कर रहे थे। इन लेखकों की पंजाब में आतंकवाद के दौर में आतंकियों के खिलाफ कलम क्यों थमी? इंदिरा की इमरजेंसी के दौर में भी इनके कलम की स्याही सूख गई थी। आतंकवाद के दौर में आप ही दुबके रहे आतंकियों के भय से। देश में स्तरीय साहित्य की रचना हो तथा कलम के सिपाही सच लिखकर समाज को दिशा दें, ये नितांत आवश्यक है। पर उन कथित लेखकों को समाज और पाठक खारिज करें जो देश को कमजोर करने का दुस्साहस करते हैं।
( लेखक राज्य सभा सांसद हैं)