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लुटेरे राजनेता

जिन्होंने अपने जीवन और कर्म द्वारा अनन्त काल तक के लिए यह मर्यादा स्थापित की कि एक मनुष्य को व्यक्ति रूप में,अपने सभी सम्बन्धों में,समाज देश और राजा रूप में कैसा होना चाहिए….उन राजा राम के राज्य में भी धोबी जैसी सोच वाले लोग रहते थे,,,,तो फिर सोचिए कि यदि राजा ही रावण जैसा,,अर्थात भ्रष्ट पापी अनाचारी अत्याचारी हो तो उसका अनुसरण करने वाली जनता कैसी होगी?

चारा या सॉफ्टी बाबू का दोष केवल यह नहीं था कि व्यक्तिगत स्तर पर ये नष्ट भ्रष्ट थे और इन्होंने सत्ता का दुरुपयोग करते अपने ही प्रदेश को लूटा खसोटा बर्बाद कर दिया,अपने अनुयायियों को मूर्ख बनाया बल्कि इन्होंने जिस प्रकार की राजनीति, कार्यसंस्कृति की स्थापना की, लूट अपहरण गुण्डई दबंगई को शौर्य रूप में स्थापित किया, भ्रष्टाचार को जीवन शैली रूप में स्थापित कर उसे शिष्टाचार बना दिया,मुफ्तखोरी जालसाजी धोखाधड़ी को स्वीकार्यता दी,,,,एक शब्द में कहें तो जनमानस का चरित्र दूषित कर दिया,,वह कहीं से क्षम्य नहीं,कभी क्षम्य नहीं। टूटे भवन को कोई फिर से जल्दी से बना सकता है,पर यदि चरित्र ही टूट जाये तो उसे सुधारने में पीढ़ियाँ खप जाती हैं।

वस्तुतः देखा जाय तो महाभ्रष्ट अपराधी प्रवृति के इन लोगों ने खादी पहन कर जनभावनाओं का रुख देखते हुए उन्हें बड़े आराम से ठगा और अपना साम्राज्य खड़ा कर लिया।
ऐसी कोई सरकारी योजना इनके सत्ताकाल में ऐसी न चली जिसके द्वारा इनकी अपनी व्यक्तिगत कमाई नहीं हुई।गुण्डों अपराधियों को उनके मनमुताबिक दबंगई अपराध की छूट,लूटे गए सरकारी(जनता के टैक्स का धन)धन में से दो चार मुट्ठी उनकी फैली हथेली पर रख दिया और बाकी सब अपने परिवार खानदान के लिए रख लिया।

चारा बाबू ने तो दो कदम और आगे बढ़ते योजनाओं को कागज पर ही कम्प्लीशन सर्टिफिकेट भी दे दिया और सारा का सारा पैसा डकारे।मतलब दस प्रतिशत भी काम करवाकर यदि 90 प्रतिशत डकारे होते तो जनता थोड़ा सन्तोष कर लेती,,किन्तु इन्होंने तो जनता को सीखने को यही दिया कि आप जहाँ भी हो,अपनी सीमाओं को सम्पूर्ण विस्तार दे 100% लूट मचाओ, यही है सफलता और सिद्धि प्रसिद्धि का मन्त्र।

दीदी जब रेल मंत्रालय में आयीं तो उन्होंने श्वेतपत्र जारी करते विस्तार से बताया था कि किस प्रकार से इसे लूटा खसोटा गया था,कंगाल कर दिया गया था। मजे की बात कि लगभग 600 करोड़ के(उस समय के छह सौ करोड़) के उस घोटाले में एक एक नौकरी,एक एक टेण्डर सीधे पैसे खाकर दिया गया था।नौकरी के बदले जमीनें लिखवा ली गयीं, सोना गहना पैसा जो जो दे पाए,लूटा गया। और मजे की बात कि गरीबों के,दबे कुचलों के मसीहा इस स्वेच्छाचारी नवसामंत ने ये नौकरियाँ अधिकतर तथाकथित ऊँची कही जाने वाली जातियों को दी,क्योंकि वही निम्नमध्यवर्गीय तथा मध्यमवर्गीय परिवार थे जिनके पास थोड़ी बहुत जमीनें थीं,सोना गहना पैसा था,,या कहें कर्ज लेकर यह जुटाने की स्थिति में वे थे।

एकबार मेरे गाँव से दादाजी के साथ उनके कई मित्र हमारे यहाँ आये थे।मेरे पिताजी तब टाटा स्टील में कार्यरत थे।हमारे यहाँ के सुख सुविधा,पिताजी के पद प्रभाव को देखकर वे खूब प्रभावित हुए और लगभग सबने समवेत पूछा- ई सब तो बड़ा बढ़िया है,पर ऊपरी कमाई केतना है? जब पिताजी ने बताया कि यहाँ ऊपरी तूपरी का कोई चलन नहीं,,तो एक ही स्वर में सभी कह उठे कि फिर क्या फायदा ऐसे नौकरी पद प्रतिष्ठा का।फलनवा कोयला विभाग में क्लर्क है,,उसपर भी दस साल से सस्पेंडेड,फिर भी देखो कमा के कैसे बुर्ज लगा रखा है।पटना राँची गाँव में कई कई आलीशान घर है,दुकानें हैं,जमीन है,,,आदि इत्यादि……

मैं छोटी थी पर उनकी बातें सुन मन अश्रद्धा से भर उठा कि कितने गन्दे हैं ये लोग,पिताजी भ्रष्ट नहीं इससे उन्हें गर्व नहीं,बल्कि इसका शर्म है।

यह होता है चारित्रिक क्षरण !!!

हम स्वयं बिहार से हैं,पर घरेलू कार्य हेतु कोई बिहारी स्टाफ नहीं रख पाते क्योंकि उनसे अपेक्षा ही नहीं कर सकते कि वे चोरी चकारी धोखाधड़ी नहीं करेंगे।कितना दुर्भाग्यपूर्ण है यह।ऐसी कोई कुरीति, कोई भेदभाव, कोई निःकृष्टता नहीं जिसे चारा बाबू से लेकर आज भी टोपी बाबू ने पोस न रखा हो।
अरे, जिस अपसंस्कृति उर्फ ल लुआराज को चैतन्य बिहारियों ने दशकों के संघर्ष के बाद प्रभावहीन किया था और उससे मुक्ति हेतु टोपी बाबू को विराट समर्थन दिया था,,जनता के उस विश्वास को तथाकथित इस लोहियाचेले ने अपनी कुर्सी के लिए बेच दिया,,,चाराचोर खानदान को पुनर्जीवन देकर पुनः बिहारियों को उसी आग में जलने का दुर्भाग्य दिया है।

यदि इन जैसों के ग्रह नक्षत्र प्रतिकूल हुए और ये अपने लिए न्यायिक राहत नहीं खरीद पाये….और इन्हें वर्तमान न्यायिक व्यवस्था द्वारा कठोरतम दण्ड मिला,,,तो भी वह दण्ड इनके कुकर्मों के पासंग बराबर भी नहीं होगा।इन अनाचारियों का न्याय तो सीधे सीधे ईश्वर ही करेंगे,तभी उसमें कोई वजन होगा और आमजनों को भी लगेगा कि भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार ही होता है,शिष्टाचार नहीं।

साभार रंजना सिंह जी ।

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