सम्पूर्ण प्रकृति को सौन्दर्य,मादकता तथा वाचा से महकाने वाला यह त्यौहार हमारे सनातन धर्म को ऊर्जा और वाणी से गुंजायमान करता है। माघ मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को वसन्त पंचमी या श्रीपंचमी के नाम से जाना जाता है।
ब्रह्मा जी ने पृथ्वी पर मानव की रचना की। रचना करने के बाद उन्हें अपनी सृष्टि में कुछ कमी का आभास हुआ क्योंकि मानव को वाचा नहीं थी अतः सर्वत्र सूनापन था। ब्रह्माजी ने विष्णु जी की आज्ञा लेकर अपने कमण्डल से पृथ्वी पर जल का छिड़काव किया। ऐसा करने से एक कम्पन के साथ एक देवी का प्रादुर्भाव हुआ। यह वाणी प्रदाता विद्या की देवी माँ सरस्वती ही थी। ब्रह्मा ने उनसे वीणा बजाने का आग्रह किया। वीणा की झंकार के साथ ही सम्पूर्ण सृष्टि में स्वर गुंजायमान हो गया। जगतीतल में वाणी का प्रादुर्भाव हुआ। सभी प्राणी बोलने लग गये। मानव में बुद्धि का संचार हुआ। पशु-पक्षी चहचहाने लगे। चारों ओर मधुर गुंजायमान के साथ आनन्दानुभूति का संचार हो गया।
माँ सरस्वती को संगीत, विद्या तथा बुद्धि-प्रदाता देवी कहा गया है। माता के चार हस्त थे। इनमें माता ने पुस्तक,माला,वीणा तथा वरमुद्रा धारण कर रखी थी। कहा जाता है कि, उस दिन शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि थी। वसंत ऋतु की पंचमी तिथि को वसन्त पंचमी कहते हैं। इस दिन विद्यार्थीगण सरस्वती पूजन के साथ ही अपनी पुस्तकों को भी पूजते हैं। लेखक अपनी लेखन सामग्री कलम आदि तथा संगीतकार अपने वाद्ययंत्रों का पूजन करते हैं।
सरस्वती का पूजन पवित्र आसन पर बैठकर शुद्धमन व स्वच्छ वस्त्रों को धारण कर करना चाहिये। इस दिन पूजन में आम्रमंजरी, बेरफल तथा श्वेत एवं पीले पुष्पों का विशेष महत्व है। पीली मिठाई प्रमुखरूप से केशरियाभात का नैवेद्य लगाया जाता है। वसन्त पंचमी पर विशेषकर पीले वस्त्र ही धारण किये जाते हैं। इसे ही श्रीपंचमी भी कहते हैं। श्रीशब्द अनेकार्थी है। यह मांगलिक उपकरणों,पूजन सामग्रियों आदरसूचक शब्दों,अष्टसिद्धियों तथा सुन्दरवेश रचना में भी प्रयुक्त किया जाता है।
विश्व के समस्त सद्ग्रंथ माँ सरस्वती के ही विग्रह के प्रतीक हैं। उन्हें हमें अत्यंत पावन मानकर पवित्र स्थान पर रखना चाहिये। पवित्रता का विशेष ध्यान रखकर आदरपूर्वक उनका वाचन करना चाहिए। जीर्ण-शीर्ण होने पर इधर-उधर नहीं फेंकना चाहिए। पवित्र नदी में विसर्जित करना ही सर्वोत्तम है। वसन्त ऋतु को ऋतुओं का राजा माना गया है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद् भगवत्गीता में कहा है-
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः।।
(भगवद्गीता अध्याय 10/35)
पतझड़ के पश्चात् वृक्षों पर नवीन कोपल आने लगते हैं। आम्र-वृक्ष मंजरियों के प्रस्फुटन से झूम उठते हैं। शीतलहर कम होने लगती है। धरा की यह वासंती आभा वसन्त के सौन्दर्य को द्विगुणित कर देती है।
माता शारदा ने अपने भक्तों को ये आठ शक्तियाँ प्रदान करती है। इन शक्तियों के नाम हैं बुद्धि,मेधा,धारणा,तर्कशक्ति,ज्ञान,विज्ञान,कला और विद्या। सरस्वती को त्रिदेवी भी कहा गया है क्योंकि यह सरस्वती,लक्ष्मी और काली का प्रतीकहै।धनार्जन,धनरक्षण और बुद्धि का सदुपयोग सरस्वती के विशेष अनुग्रह से इस कला का अर्जन संभव है। माता सरस्वती को अनेक अभिधानों से जाना जाता है जैसे, वाणी,गीर्देवी,वाग्देवी,भाषा,शारदा,गिरा,वीणापाणि,पद्यासना,हंस वाहिनी,त्रयीमूर्ति,भारती आदि। जनमानस में सरस्वती ही सर्वाधिक प्रचलित है।
श्रीपंचमी(वसन्त पंचमी) का पर्व भारत ही नहीं अपितु नेपाल बांग्लादेश आदि देशों में भी उत्साह पूर्वक मनाया जाता है। इसी दिन कामदेव का पूजन भी किया जाता है। सरसों के पीले फूलों से आच्छादित खेत गेहूँ की पकी हुई बालियाँ,बेर के फलों से लदे वृक्ष आदि सभी प्रकृति की छबि की द्विगुणित कर देते हैं। प्रकृति देवी नवयौवना प्रतीत होती है। पक्षी समूह की चहचहाहट मादकता को द्विगुणित कर देती है। संस्कृत साहित्य के महाकवि कालिदास ऋतु संहार ग्रंथ में वर्णन करते हुए कहते हैं –
द्रुमा सपुष्पाः सलिलं सपदम्,
स्त्रियः सकामाः पवनःसुगन्धः।
सुखाः प्रदोषाः दिवसाश्च रम्याः
सर्वं प्रियं चारूतरं वसन्ते।।
अर्थात् वृक्षों में फूल खिल गये हैं, जल में कमल खिल गये हैं,स्त्रियों में ‘काम’ जाग्रत हो गया है, पवन सुगन्धित हो गया है तथा संध्या सुहावनी तथा दिन लुभावने हो गये हैं।
वसन्त ऋतु सृजन का गीत है। जीवन शक्ति का संचार है। इस ऋतु का ऐतिहासिक महत्व भी है। मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चैहान पर सोलह बार हमले किये और वह हार गया। सत्रहवीं बार पृथ्वीराज चैहान हार गये और मोहम्मद गौरी बंदी बनाकर उन्हें अपने साथ ले गया। कवि चन्द्रबरदाई भी उनके साथ गये। गौरी ने चैहान की दोनों आँखों को गरम सलाखों से दाग दिया। आँखों की रोशनी खो बैठे। उन्होंने शब्दभेदी बाण चलाकर गौरी की हत्या कर दी। इसके बाद दोनों दोस्त चन्दबरदाई और पृथ्वीराज चैहान ने अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। कहा जाता है उस दिन वसन्त पंचमी थी। वसन्त का गान करने में संस्कृत तथा हिन्दी साहित्य के कविगण भी पीछे नहीं हैं। सेनापति,सुमित्रानन्दन,निराला,सुभद्राकुमारी चैहान आदि अनेक कविगण हो गये हैं। महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी का जन्म वसन्त पंचमी के दिन हुआ था। उनके द्वारा रचित कविता,‘‘वर दे वीणा वादिनी वर दे’’ आज भी विद्यालयों में सस्वर पाठ की जाती है। गोस्वामी तुलसीदास जी का कथन है कि श्रीगणेश से पूर्व सरस्वती पूजन करना चाहिए। अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ श्रीरामचरितमानसके प्रारंभ में ही वे लिखते हैं –
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कत्तोरौ वन्दे वाणी विनायकौ।।
(श्रीरामचरितमानस बा.का. प्रथम श्लोक)
वसन्तपंचमी का दिन नन्हें बालकों में विद्यारंभ करने के लिए श्रेष्ठमाना जाता है। स्लेट पर स्वस्तिक बनाकर दाएँ हाथ से ‘ग’गणेश का लिखवाकर विद्यारंभ का श्रीगणेश किया जाता है।
श्रीमती शारदा डाॅ. नरेंद्र कुमार मेहता
(एम.ए. संस्कृत विशारद)