दिल्ली के शाहीनबाग और लखनऊ के घंटाघर पर पाकिस्तानियों, बांग्लादेशियों, रोहिंगियाओं और उनके सरपरस्त धर्मनिरपेक्ष-मानवतावादी मुसलमानों और प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं की भीड़ जमा है… इस भीड़ के हाथ में भारत का झंडा है। यह खास रणनीति है। जब उन्हें सड़क से हटाने की कार्रवाई शुरू होगी, तब इस झंडे का डंडा पुलिस के खिलाफ हथियार बनने वाला है। धर्मनिरपेक्ष-मानवतावादी मुसलमानों की धर्मनिरपेक्षता और मानवीयता केवल बांग्लादेशी, पाकिस्तानी और रोहिंगिया घुसपैठिए मुसलमानों के लिए है… और प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं की तो बात ही छोड़िए, यह भारतवर्ष की संदिग्ध नस्ल है। शाहीनबाग या घंटाघर पर जमा अवांछित तत्वों को गुस्सा इस बात पर है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में गैर-मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचार पर क्यों उंगली उठाई गई, क्यों सवाल उठे..! पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में बर्बर धार्मिक-अत्याचार का शिकार हो रहे गैर-मुस्लिमों को भारत में नागरिकता देकर उन्हें संरक्षण देने का फैसला भारत सरकार ने क्यों किया..! आप सोचिए कितने घिनौने लोग हैं ये..! भारत सरकार ने पाकिस्तानी, बांग्लादेशी और रोहिंगिया मुसलमान घुसपैठियों के लिए भारत की नागरिकता देने का रास्ता खोला होता, तो जरा भी विरोध नहीं होता। यह है भारत के धर्मनिरपेक्ष-मानवतावादी मुसलमानों और प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं की असलियत। यह जमात उन दिनों की तैयारी कर रही है, जब पाकिस्तान और बांग्लादेश की तरह भारत में भी एकधर्मी-अधर्म का पाप सड़कों पर पसरेगा और गैर-मुस्लिमों का खून और सम्मान सड़कों पर बिखरेगा। सड़क घेर कर बैठे लोगों की मंशा और तैयारी उन दिनों की है। ये बस अपनी संख्या बढ़ाने की जुगत में हैं।
मेरी बातें अतिरंजना नहीं हैं… इसमें एक शब्द भी बढ़ा-चढ़ा कर नहीं कहा जा रहा… सारे शब्द नपे-तुले और सोच-समझ कर लिखे जा रहे हैं। यह आप भी समझते हैं, लेकिन खुल कर बोलने से डरते हैं कि कोई क्या कह देगा… यह मनोवैज्ञानिक भय बड़े ही शातिराना तरीके से हममें पीढ़ी दर पीढ़ी इंजेक्ट किया गया है। वो खुल कर एकधर्मी-अधर्मिता पर उतारू हों तो वे धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील… हम स्वाभाविक मानवीयता, सर्वधर्मीय समग्रता और राष्ट्रीय प्रतिबद्धता की बात कहें तो हमें हाशिए पर डालने की कार्रवाइयां तेज गति से चालू..! इसे हम कब तक बर्दाश्त करेंगे..? हम उचित बात इसलिए न कहें कि धर्मनिरपेक्षता और प्रगतिशीलता की नकाब ओढ़े गुंडों और अवांछित तत्वों की एकजुट जमात हमसे नाराज हो जाएगी..! गुंडे और असामाजिक तत्वों को हम अपने समाज पर कबतक और क्यों हावी होने दें..? इसे सोचिए… इस प्रश्न पर विचार करिए… इस मसले पर मुखर होइए। इस पर विचार करिए कि सड़क घेरे बैठी भीड़ का कोई भी एक धर्मनिरपेक्ष-प्रगतिशील शख्स आज ही के दिन वर्ष 1990 में कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के साथ हुए भीषण नरसंहार, बलात्कार और आगजनी के शर्मनाक एकधर्मी-अधार्मिक बर्बर कृत्य को लेकर एक शब्द भी बोला..? 19 जनवरी 1990 को कश्मीर घाटी में मुसलमानों ने जो घोर
घृणित कृत्य किए थे, उसे लेकर शाहीन-बाग के समर्थक क्या किसी एक भी व्यक्ति ने शोक जताया..? कश्मीरी पंडितों के शोक में शरीक होने और उनके प्रति सहानुभूति जताने की जरूरत समझी..? नहीं न..! आप समझिए कि वे कितने क्रूर हैं। अगर कोई यह कहता है कि सीएए का विरोध कर रहे लोग डरे हुए लोग हैं… तो आप समझ लीजिए कि ऐसा कहने वाला बेहद मक्कार है। ये डरे हुए लोग नहीं, ये समझे हुए शातिर लोग हैं। हिन्दुओं, सिखों और अन्य गैर मुस्लिमों को बेरहमी से काटते हुए, गैर-मुस्लिम महिलाओं के साथ बेगैरत हरकतें करते हुए, सार्वजनिक ऐलान कर गैर-मुस्लिम कश्मीरियों को कश्मीर से बाहर निकालते हुए जो लोग डरते नहीं… वे सीएए से डर रहे हैं..? किस गलतफहमी में हैं आप..? ये जब अपने देश के नागरिकों के नहीं हुए तो आप क्या यह सोचते हैं कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में गैर-मुस्लिमों पर हुए बर्बर अत्याचार पर वे संजीदा होंगे..? यह भारतवर्ष का नाकारा-नपुंसक सत्ता-चरित्र है कि यहां राष्ट्रविरोधी तत्वों को सड़क घेरने की आजादी रहती है और वे सड़क घेर कर खुलेआम आजादी-आजादी का नारा लगा सकते हैं। क्या किसी भी अन्य देश में इस तरह राष्ट्र-विरोधी नारे लगाने की इजाजत है..? पाकिस्तान-परस्त लोग जो शाहीनबाग की मुख्य सड़क घेरे बैठे हैं, वे क्या पाकिस्तान में ऐसी हरकतें कर सकते हैं..? शाहीनबाग धरना को पाकिस्तान खुलेआम समर्थन दे रहा है… इससे क्या सत्ता को बात समझ में नहीं आती..? सामूहिक-बलात्कार, सामूहिक-हत्याएं और सामूहिक अग्निकांडों (Mass-Rapes, Mass-Murders and Mass-Arson) के बाद 19 जनवरी 1990 को करीब चार लाख कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ने पर विवश होना पड़ा था। ऐसी जघन्य और हृदय-द्रावक घटना क्या कभी भूली जा सकती है..? शाहीनबाग के शातिरों को यह घटना क्यों नहीं याद आई..? उस एकधर्मी-अधर्मी वारदात के 14 दिन पहले चार जनवरी 1990 को उर्दू अखबार ‘आफताब’ में कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़ देने की चेतावनी-घोषणा प्रकाशित हुई थी। फिर दूसरे उर्दू अखबार ‘अल-सफा’ ने भी यही घोषणा छापी। श्रीनगर के चौराहों और मस्जिदों में लगे लाउड-स्पीकरों से कश्मीरी पंडितों को तत्काल घर छोड़ कर चले जाने की धमकियां दी गईं। कश्मीरी पंडितों को घाटी से चले जाने और अपनी औरतों को छोड़ जाने… ‘असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान’ (हमें पाकिस्तान चाहिए, पंडितों के बगैर, लेकिन उनकी औरतों के साथ) की लगातार सार्वजनिक धमकियां दी गईं। इन हरकतों पर शाहीनबागी धर्मनिरपेक्ष-मानवतावादी मुसलमानों और प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं को क्या आज भी शर्म आती है..? तब नहीं आई तो अब क्या आएगी..? सत्ता और न्यायिक व्यवस्था को भी शर्म कहां आती है..! ‘रूट्स ऑफ कश्मीर’ संस्था वर्ष 1990 में हुई कश्मीरी पंडितों की सामूहिक हत्या के 215 मामलों की जांच की लगातार मांग कर रही है। सुप्रीमकोर्ट ने कहा कि मामले पुराने हो गए। जबकि मई 1987 में मेरठ के हाशिमपुरा में हुए दंगों पर सुप्रीम कोर्ट ने बाकायदा सुनवाई की और दोषियों को सजा भी सुनाई। इसे ही तो विडंबना कहते हैं..! ऐसे ही दोगले सत्ताई-प्रशासनिक-न्यायिक-वैचा रिक कुचक्र में फंसे हैं भारतवर्ष के वास्तविक-स्वाभाविक प्रतिबद्ध लोग, जिन्हें सच बोलने से डर लगता है…
प्रभात रंजन दीन