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शिवरात्रि और शिवार्चन का महत्व

भगवान शिव उत्पत्ति,स्थिति तथा संहार के देवता हैं। फाल्गुन मास में आने वाली शिवरात्रि के दिन स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त होकर भक्त यदि ‘‘नमःशिवाय’’ इस पंचाक्षर मंत्र का जाप अनवरत करता है तो उसे उत्तम फल की प्राप्ति होती है। वह मृत्यु पर विजय प्राप्त कर मोक्ष ग्रहण कर लेता है। नारायण जब मायारूपी शरीर धारण कर समुद्र में शयन करते हैं तो उनके नाभि -कमल से पंचमुख ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं और वे सृष्टि निर्माण की प्रार्थना करते हैं। भगवान ने पाँच मुखों से पाँच अक्षरों का उच्चारण किया यही शिव वाचक पंचाक्षर मंत्र है। इसके प्रारंभ में ऊँ लगा देने से यह षड़ाक्षर हो गया है। यह मोक्ष, ज्ञान का सबसे उत्तम साधन है। शिव नाम की महिमा अनन्त है। सामान्य मनुष्य तो इनकी महिमा का गुणगान करने में असमर्थ है ही माँ भगवती सरस्वती भी भगवान के गुणों का वर्णन करने में असमर्थ प्रतीत होती है। श्री पुष्पदन्ताचार्य ने शिवमहिम्न स्तोत्र में लिखा है –
असित गिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे,
सुरतरूवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं,
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति।।
(शिवमहिम्न स्तोत्र 32 वाँ श्लोक)
भगवान शिव की भक्ति स्त्री – पुरूष, बाल-वृद्ध, प्रौढ़-युवा सभी किसी न किसी रूप में अपनी श्रद्धा – भक्ति और सामथ्र्यानुसार करते हैं‘माता पार्वती ने शिवजी से पूछा कि किस प्रकार की तपस्या से भगवन् आप प्रसन्न होते हैं, तब भगवान शिव ने कहा कि:-
फाल्गुने कृष्णपक्षस्य या तिथिः स्याच्चतुर्दशी।
तस्यां या तामसी रात्रिः सोच्यते शिवरात्रिका।।
तत्रोपवासं कुर्वाणः प्रसादयति मां ध्रुवम्।
न स्नानेन न वस्त्रेण न धूपेन न चार्चया’’।।
तुष्यामि न तथा पुष्पैर्यथा तत्रोपवासतः।।
फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि, अन्धकारमयी रात्रि को शिवरात्रि कहते हैं। इस दिन जो उपवास करता है उससे शंकरजी प्रसन्न होते हैं उतने वे स्नान, वस्त्र,धूप और पुष्प से भी नहीं होते हैं। शिवरात्रि पर्व में जागरण किया जाता है तथा रात्रि के चार प्रहर में अलग – अलग पूजा का विधान कहा गया है –

‘‘दुग्धेन प्रथमे स्नानं दध्नाचैव द्वितीयके।
तृतीये तु तथाऽऽज्येन चतुर्थे मधुना तथा’’
अर्थात् प्रथम प्रहर में दुग्ध स्नान, द्वितीय प्रहर में दधि (दही) स्नान, तृतीय प्रहर में घी स्नान तथा चतुर्थ प्रहर में मधु स्नान कराया जाता है। जो व्यक्ति भगवान् शिव का नाम प्रतिदिन श्रद्धा-भक्ति के साथ जपते हैं वे इस लोक में सुख भोगकर मृत्यु के बाद शिवलोक में जाते हैं तथा मोक्ष को प्राप्त करते हैं। यहाँ एक लघुकथा पाठकों के लिए प्रस्तुत है:-
एक ब्राह्मण था। वह मगध देश का रहने वाला था। वह पापी था। उस ब्राह्मण के यहाँ वृद्धावस्था में एक पुत्र का जन्म हुआ! उस दिन सोमवार था। ब्राह्मण ने बालक का नाम ‘सोमवासर’ रख दिया। वह ब्राह्मण उस बालक को सोमवासर कह कर ही बुलाता था। एक दिन उस ब्राह्मण को सर्प ने काट लिया। ब्राह्मण ने बार-बार अपने पुत्र को सोमवासर कह कर पुकारा। ऐसा कई बार करते हुए उस ब्राह्मण की मृत्यु हो गई। उसी समय शिवजी के गण सुन्दर विमान लेकर उपस्थित हुए और ब्राह्मण को कैलास ले गये।
(शिवरहस्य 7/20)
भगवान शिव कहते हैं किसी के अन्दर पाप तभी तक ठहरते हैं जब तक भक्त नाम स्मरण में लीन नहीं हो जाता है। कलियुग में शिवनाम से बढ़कर कोई नाम नहीं है –
ब्रह्मा कृतयुगे देवस्त्रेतायां भगवान रविः।
द्वापरे दैवतं विष्णुः कलौ देवो महेश्वरः।।
(कूर्म पुराण, अ.18)
शिवरात्रि व्रत सभी व्रतधारियों के लिए कल्याणकारी है क्योंकि इस व्रत के करने से जीवात्मा का परमात्मा के साथ सहयोग संभावित है। ज्ञान-प्रधान भक्ति या कर्म प्रधान भक्ति दोनों का सम्मिश्रण व्रती के लिए मुक्ति प्रदाता होता है। शिवपूजन में बिल्व पत्र, पुष्प,चन्दन, दुग्ध, दधि तथा मधु का विशेष महत्व है।
मैंने शिवरात्रिव्रत की एक कथा अपने पूज्य दादाजी,दादीजी से सुनी थी जिसे मैं यहाँ स्मृति के आधार पर प्रस्तुत कर रही हूँ। ‘‘एक ब्राह्मण परिवार था। उनका एक लड़का था। उसका नाम चन्द्रसेन था। वह स्वभाव से दुष्ट था। उसकी दोस्ती भी अच्छे लोगों से नहीं थी। वह चोरी करता था, जुआँ खेलता था। चन्द्रसेन की माँ बेटे की हर बात पिता से छुपा लेती थी। इस कारण वह ज़्यादा बिगड़ गया था। एक दिन ब्राह्मण कहीं से पूजा करके वापस आ रहा था। उसने देखा कि, दो लड़के एक अँगूठी के लिए झगड़ा कर रहे थे। वे कह रहे थे कि, यह अँगूठी उन्होंने चन्द्रसेन से जीती है। ब्राह्मण ने बालकों को समझाकर उनसे वह अँगूठी ले ली। ब्राह्मण घर गया।
उसने पत्नी से पुत्र के बारे में जानकारी ली तो वह बोली कि, चन्द्रसेन यहीं कहीं खेल रहा है। जबकि, वास्तविकता यह थी कि, वह कई दिनों से घर में नहीं था। एक दिन वह घर से कुछ सामान चुराने जा रहा था कि, दोस्तों ने उसे पकड़ लिया।
वह जैसे – तैसे वहाँ से भाग निकला। रास्ते में उसे एक मंदिर मिला जहाँ कीर्तन चल रहा था। वह वहाँ बैठ गया और भक्तजन जब गाते-गाते सो गये तो उसने कुछ प्रसाद चुरा लिया। अचानक एक भक्त ने उसे देख लिया और चोर-चोर का शोर मचाया। भक्त ने भागते हुए चन्द्रसेन पर डंडा फैंका। पाँच दिन से भूखे व अशक्त चन्द्रसेन की डंडे के वार से मृत्यु हो गई। उसे लेने के लिए यमदूत तथा शिवगण दोनों ही आ गये।
यमदूतों का कथन था कि, इसने पाप ही पाप किये हैं इसलिये यह नर्क जावेगा। शिवगणों का मत था कि, वह पाँच दिन भूखा रहा, शिव मंदिर में दर्शन व जागरण किया अतः वह स्वर्ग का अधिकारी है। यमदूत चले गये और चन्द्रसेन को शिवलोक प्राप्त हुआ।‘’

शिव जगत् गुरू हैं। उनके क्रिया -कलाप, आहार-विहार तथा नियम -संयम जीवनमुक्त के लिए आदर्श स्वरूप है। सर्वदा सदाचार सम्पन्न होकर ही शिवार्चन करना श्रेष्ठ है। आचारहीन होना सर्वत्र निन्दनीय है। शिव भक्त के हृदयस्थ हैं। हृदयस्थ शिव को छोड़कर जो बाह्य शिव को पूजते हैं वे हस्तगत फल को छोड़कर भारी भूल करते हैं।
शिवरात्रि पर्व के विषय में विद्वानों में मतेक्य नहीं हैं। कुछ विद्वान कहते हैं कि शिवरात्रि के दिन शिव का प्रादुर्भाव हुआ था, तथा कुछ विद्वानों का कथन है कि इस दिन शिव पार्वती का पाणिग्रहण संस्कार हुआ था। शिवभक्तों के इन मत वैभिन्न से हम सामान्य भक्त अनभिज्ञ हैं। इतना कहते हैं –
शिवेभक्तिः शिवेभक्तिः शिवेभक्तिः भवे भवे।
अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम।।
(शिव महापुराण 75-78)
डाॅ. श्रीमती शारदा मेहता

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