Shadow

समय आ गया है आर्थिक चिन्तन का

अब वो समय आ गया है, जब दिल्ली को वैश्विक अर्थव्यवस्था के संरचनात्मक रुझानों के बारे में भी चिंतन करना चाहिए, खासतौर से अमेरिका और चीन के बीच चल रही तनातनी को देखकर| इससे जुड़े कई सवाल हैं। जैसे, अमेरिका और चीन किस हद तक आपसी तनाव बढ़ाएंगे? क्या हमें भू-आर्थिक प्रतिस्पर्धा  के इस युग में किसी एक तरफ झुक जाना चाहिए? क्या भारत के लिए यह एक मौका है कि वह बाजार में विविधता की इच्छा रखने वालों और वैश्विक उत्पादन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए विनिर्माण क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ावा दे?

यदि इसे आधार मानकर हम आगे बढ़ते हैं कि भारत को उच्च प्रौद्योगिकी वाले औद्योगिकीकरण, अधिक गुणवत्ता वाले विनिर्माण-कार्य, उत्पादों की आपूर्ति से जुड़ी व्यवस्था में अधिकाधिक रोजगार, और अंतरराष्ट्रीय आपूर्ति शृंखला में ज्यादा से ज्यादा भागीदारी की दरकार है, तो वैश्वीकरण में खलल डालने वाले इन रुझानों का समझदारी से लाभ उठाने की जरूरत है। इसके अतिरिक्त हमारा एक रणनीतिक लक्ष्य अपने पारंपरिक रिश्ते को फिर से जिंदा करना भी है,अर्थात  इंडो-पैसिफिक और यूरेशियाई पड़ोसी देशों के साथ अपने कारोबारी व सामाजिक संपर्क बढ़ाना। इस परिदृश्य में भारतीय अर्थव्यवस्था में चीन की भूमिका को आखिर किस तरह गढ़ा जाना चाहिए? पिछले छह वर्षों से मोदी सरकार का रुख यही रहा है कि व्यापार घाटे को नियंत्रित किया जाए और देश में चीनी निवेश व प्रौद्योगिकी को आकर्षित किया जाए। सब बखूबी जानते हैं कि नई दिल्ली और बीजिंग किस तरह एक-दूसरे पर निर्भर हैं।

अब हमें ऐसा अध्ययन करना चाहिए कि किस तरह हम लागत से अधिक फायदा कमा सकते हैं, और इसका क्या असर पड़ेगा। ऐसे आकलनों के बाद ही नीति-नियंताओं को चुनिंदा क्षेत्रों में चीन के साथ परस्पर-निर्भरता विकसित करने की नीति बनानी चाहिए या किसी अन्य देश से आयात बढ़ाकर और दूसरी जगहों से आउटसोर्सिंग करके इसे कम करने की योजना पर काम करना चाहिए। हमें सबसे पहले चीन की २०२५ योजना की तरह प्रभावी औद्योगिकीकरण की रूपरेखा तैयार करनी चाहिए, और फिर पता करना चाहिए कि जिस तरह से चीन की सुधार प्रक्रिया में अमेरिका उत्प्रेरक बना था, उस तरह वह हमारे कैसे काम आ सकता है?

विशेषकर डिजिटल क्षेत्रों में अमेरिका और चीन में जो मुकाबला चल रहा है, उससे एक अन्य नीतिगत चुनौती हमारे सामने है। एक डिजिटल सुपरपावर को छोड़कर दूसरे के पाले में जाने से हमें बचना होगा। आखिरकार, चीनी और अमेरिकी कंपनियां समान धरातल पर हैं। दोनों से समान रूप से हमारी डाटा संप्रभुता को खतरा है। आयातित सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर के लिए भी हमारी इन दोनों देशों पर निर्भरता है और दोनों ही हमारी स्थानीय क्षमताओं पर समान रूप से चोट करते हैं। लिहाजा, अपना बहुमूल्य संसाधन उन्हें सौंपने से पहले, हमें घरेलू नवाचार को बढ़ावा देना चाहिए।

एक अन्य विषय इंडो-पैसिफिक के साथ भारत का रिश्ता है। क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरईसीपी) पर हुआ फैसला बताता है कि भारत व्यापार के दरवाजे बंद करने को लेकर जल्दबाजी में नहीं है, क्योंकि हमारी घरेलू अर्थव्यवस्था अभी कमजोर है और कई तरह की संरचनात्मक समस्याएं हैं। स्थानीय स्तर पर भारत बेशक चीजों को व्यवस्थित करना शुरू करे, पर अमेरिका-चीन के बिगड़ते रिश्ते के आधार पर हमारी क्षेत्रीय भू-आर्थिकी नहीं तैयार होनी चाहिए। सच यही है कि चीन और अमेरिका के आर्थिक रिश्तों में गिरावट चीन-एशिया की परस्पर निर्भरता को कम नहीं करेगी। इसकी झलक हाल के आंकड़ों में दिखती है। पिछले साल आसियान उसके साथ द्विपक्षीय कारोबार करने वाला दूसरा बड़ा सहयोगी बन गया है। यह स्थान पहले अमेरिका का था। इस साल तो अब तक आसियान यूरोपीय संघ को भी पीछे छोड़  चीन से सबसे ज्यादा कारोबार करने लगा है।

स्पष्ट है, हमें  अमेरिकी सियासत की संभावनाओं पर चिंतन करने की बजाय हमें भू-आर्थिकी और क्षेत्र में विकसित होने वाले रिश्तों को लेकर रणनीति बनानी चाहिए, जिससे आगे के अवसर पैदा हो सकें। बेशक चीन के साथ संबंध आगे और जटिल रहने के कयास हैं| भारत के पड़ोसी देश सहित कई एशियाई देश अमेरिका, चीन, जापान और यूरोप की प्रौद्योगिकी व पूंजी का लाभ उठाने के लिए उदार रणनीति अपनाएंगे। ऐसे में, कुछ अलग करने की कोशिश करके हम प्रतिस्पर्धी  लाभ उठा सकेंगे |

-राकेश दुबे

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *