Shadow

समाज सिनेमा और कानून पर मंथन जरूरी

आठ साल पहले दिल्ली में हुआ निर्भया कांड हो या पांच दिन पहले हाथरस की घटना हो, इन दोनों बातों में कुछ नहीं बदला, अगर कुछ बदला है तो वो सिर्फ  दोषियों के नाम भर है। हम इक्कीसवीं सदी में रहने के बावजूद वो आजादी आज भी महिलाओं और बेटियों को नहीं दे पाए जिसकी वो हकदार हैं, उन्हें भी हक है रात को सड़को पर चलने का, उन्हें भी हक है अकेले कहीं भी घूमने का, लेकिन क्या वो हक हम उन्हें दे पाए हैं, क्यों हम और हमारी सरकार ऐसे कानून बनाने में पीछे है जो खाड़ी देशों में लागू है, जिसमें किसी भी प्रकार की हैवानियत करने से पूर्व अपराधी अपराध की सजा सोचकर अपनी मानसिकता बदल  देता है। आज जो कुछ घटित हो रहा है समाज में, उस हिसाब से अब जरूरत है एक ठोस कानून की।
उपरोक्त दोनों घटनाओं के आरोपी लगभग बीस से तीस साल के नौजवान हैं, उम्मीद तो ये भी है कि ये यकीनन समाज से अलग-थलग होंगे, इस कारण भी भयमुक्त होंगे। सोशल थैरेपी की कमी भी डिप्रेशन या कुंठित मानसिकता के शिकार ऐसे अपराधियों को बढ़ावा देती है जिससे कई बार गंभीरता को समझते और जानते हुए भी, तो कई बार लचर कानून और सजा का भय न होना भी ऐसी घटनाओं का कारण बनते हैं।
कई बार इस तरह की घटनाएं राजनीतिक पार्टियों का मोहरा बन जाती है, जिसके कारण स्थानीय पुलिस प्रशासन पर भी आरोप लगते रहते है, हाथरस की घटना में भी स्थानीय प्रशासन को घेरे में लेते हुए आरोप लगाए गए कि बिना घर वालो की मर्जी के पीड़िता का रात में अंधेरे में जबरदस्ती अंतिम संस्कार किया गया, ऐसे प्रकरण में इस बात पर भी संदेह से इनकार नहीं किया जा सकता कि जिस प्रदेश में बहुमत की सरकार हो वहां का प्रशासन घटना की जल्द से जल्द लीपापोती में जुट जाता है।
एक दिन भी नहीं जाता जब आप भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध की खबर नहीं सुनते। भारत में महिलाओं की सुरक्षा की स्थिति देखना बेहद दर्दनाक है, खासकर ऐसे देश में जहाँ महिलाओं को देवी का रूप दिया जाता है।
यहां इस बात पर भी गौर करना होगा कि आधुनिक युग में मनोवैज्ञानिकों ने भी अपने अध्ययन में पाया है कि हमारे दिमाग की बनावट इस तरह की है कि बार-बार पढ़े, देखे, सुने या किए जाने वाले कार्यों और बातों का असर हमारी चिंतनधारा पर होता ही है और यह हमारे निर्णयों और कार्यों का स्वरूप भी तय करता है. इसलिए पोर्न या सिनेमा और अन्य डिजिटल माध्यमों से परोसे जाने वाले सॉफ्ट पोर्न का असर हमारे दिमाग पर होता ही है और यह हमें यौन-हिंसा के लिए मानसिक रूप से तैयार और प्रेरित करता है. इसलिए अभिव्यक्ति या रचनात्मकता की नैसर्गिक स्वतंत्रता की आड़ में पंजाबी पॉप गानों से लेकर फिल्मी ‘आइटम सॉन्ग’ और भोजपुरी सहित तमाम भारतीय भाषाओं में परोसे जा रहे स्त्री-विरोधी, यौन-हिंसा को उकसाने वाले और महिलाओं का वस्तुकरण करने वाले गानों की वकालत करने से पहले हमें थोड़ा सोचना होगा, क्यूंकि समाज तो मर चुका है, समाज जब फ्री में सीरियल की आड़ में परोसे जा रहे अश्लील दृश्यों को देखने में पारंगत हो चुका हो वहां महिलाओं पर अत्याचार की बात कहना उचित ना होगा। वो समाज जो आधुनिकता की ओट में वेब सीरीज के रूप में महिलाओं पर आधारित हिंसा को देखने में रुचि रखता हो वहां महिला सुरक्षा पर कुछ कहने की बात कहना ही बेमानी है। किसी ने कहा भी है कि किसी समय फिल्में समाज का आइना होती थी, आज अगर फिल्में खुद को आइने में देखें तो पाएंगी कि उसमें से भारत का समाज ही गायब है।
फ्री में मिल रहे डेटा के आधार पर अब वो हर चीज सर्वसुलभ उपलब्ध है जिसपर ना तो किसी संस्था की नजर है और ना किसी अभिवावक की। आए दिन रिलीज हो रही वेब सीरीज जो अगले ही दिन आपके फोन में एक लिंक पर क्लिक करते ही उपलब्ध है, इसलिए आज जरूरत है कि डिजिटल जमाने के इस दौर में परिवार और बच्चो को एक साथ जोड़ने की, ताकि एक बेहतर संतुलन स्थापित रहे।
साथ ही साथ जरूरत है ऐसे नियम कानून की जो मरे हुए समाज से निकलकर आए एक मानव रूपी राक्षस तक को सोचने पर मजबूर कर दे कि इस कृत्य के बाद मेरा अंजाम क्या होगा, वरना एक सवाल हमेशा बाकी रह जायेगा, आखिर कितनी निर्भया ?
अपूर्व बाजपेई
शाहजहांपुर उत्तर प्रदेश

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *