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हिंदी से तमिलों को आख़िर दिक़्क़त(परेशानी) क्या है?

मणिशंकर अय्यर वरिष्ठ कांग्रेस नेता

कस्तूरीरंगन कमिटी की रिपोर्ट में एक आधे वाक्य को लेकर तमिलनाडु में जो हंगामा और विरोध हुआ, उससे तमिलनाडु के बाहर रहने वाले भारतीय हैरान हो गए. उन्हें समझ में नहीं आया कि आख़िर तमिलनाडु में हिंदी का इतना विरोध क्यों हो रहा है. कस्तूरीरंगन कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में सिफ़ारिश की थी कि तमिलनाडु समेत सभी ग़ैर-हिंदी भाषी राज्यों में एक क्षेत्रीय भाषा और अंग्रेज़ी के अलावा सभी सेकेंडरी स्कूलों में हिंदी पढ़ाई जानी चाहिए.

इस सुझाव का सबसे कड़ा विरोध तमिलनाडु में हुआ. इस पर हैरान होने वालों को स्कूलों में हिंदी पढ़ने की अनिवार्यता के ख़िलाफ़ (विरुद्ध)तमिलभाषियों के आंदोलन का इतिहास याद करना चाहिए. ये क़िस्सा क़रीब दो सदी पुराना है. 1833 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने ईसाई मिशनरियों को क़ाबू में रखने वाली अपनी अक़्लमंदी (समझधार) भरी नीति को तिलांजलि दे दी. इसके बाद पूरे देश में मानो ईसाई मिशनरियों ने हमला बोल दिया था, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को ईसा मसीह का अनुयायी बना सकें.

इस काम के लिए ईसाई मिशनरियों ने दक्षिण भारत को ख़ास तौर(विशेषकर) से चुना. दक्षिण भारत में ईसाई मिशनरी गतिविधियों के उस दौर को हम दो सबूतों (प्रमाणों ) से समझ सकते हैं. उस दौर में दक्षिण भारत में ईसाई धार्मिक पर्चों और किताबों (पुस्तक)  की बाढ़ सी आ गई थी.

भाषा और धर्म- 1832 तक केवल तमिल भाषा में ही 40 हज़ार से ज़्यादा ईसाई धार्मिक पर्चे और किताबें छापे गए थे. 1852 तक इनकी तादाद(संख्या)  दो लाख 10 हज़ार तक पहुंच गई थी (MSS Pandiyan, Brahmi and Non-Brahmi, Permanent Black, 2007). दक्षिण भारत में ईसाई मिशनरियों ने कितने बड़े पैमाने पर धावा बोला था, इसकी दूसरी मिसाल(उदाहरण)  ये है कि 1852 तक मद्रास में 1185 ईसाई मिशनरी स्कूल थे, जिनमें क़रीब 38 हज़ार बच्चे पढ़ते थे (S. Narayan, The Dravidian Story, OUP 2018).

इसी दौर में बंगाल और बॉम्बे प्रेसिडेंसी में केवल 472 मिशनरी स्कूल थे. इनमें 18 हज़ार के आस-पास बच्चे पढ़ते थे. ईसाइयत का दक्षिण भारत पर ये हमला केवल अपने धर्म के प्रचार तक सीमित नहीं था.

जब हिंदुओं ने ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार का विरोध किया, तो ईसाई मिशनरियों ने हिंदू देवी-देवताओ और उनकी आस्था का अपमान किया. उनके बारे में दुष्प्रचार भी किया गया. ईसाई मिशनरियों के इस धार्मिक हमले के ख़िलाफ़ (विरुद्ध) दक्षिण भारत में ब्राह्मण बुद्धिजीवियों की अगुवाई में एक बड़ा तबक़ा (वर्ग) एकजुट हुआ था. ये वो ब्राह्मण बुद्धिजीवी थे, जिन्होंने वेदों का गहराई से अध्ययन किया था. वो पुराणों के भी अध्येता थे और उन्हें आदि शंकर के अद्वैत दर्शन की भी गहरी समझ थी. इसके अलावा ये ब्राह्मण समुदाय अंग्रेज़ी भाषा भी अच्छी तरह से बोल और समझ लेता था. कुल मिलाकर, ईसाई मिशनरियों का विरोध करने वाले ब्राह्मण वो लोग थे, जो भारतीय संस्कारों से भी अच्छी तरह परिचित थे और यूरोपीय-अंग्रेज़ विचारों से भी वाक़िफ़ (परिचित) थे. ब्राह्मण समुदाय, दक्षिण भारत में ईसाई मिशनरियों के ख़िलाफ़ (विरुद्ध) आवाज़ उठाने लगा.

क्या होता है भारत में हिंदी मीडियम होने का दर्द?

उनका मक़सद (उद्देश्य) उन परंपराओं और आस्थाओं को बचाना था, जिन्हें वोप्रामाणिक हिंदू परंपराऔर जीवनपद्धति मानते थे. उनके विचारों का स्रोत आर्यों के संस्कृत के ग्रंथ थे. ईसाईमिशनरियों के विरोधी इन ब्राह्मणों ने परंपरा और आस्था के नाम पर समाज पर अपने ऊंचे दर्जे वाली पकड़ बनाए रखने की कोशिश(प्रयत्न) की. वो इसमें काफ़ी हद तक कामयाब (सफल) भी रहे. उन्हेंअंग्रेज़ी भी आती थी और संस्कृत जैसी परंपरागत धार्मिक ज़बान (भाषा) भी. वो अंग्रेज़ी जानने की वजह(कारण) सेसाम्राज्यवादी व्यवस्था में ताक़त (शक्ति) के स्रोतको भी अच्छी तरह समझते थे. (Pandian, ibid).

एस. नारायण ने साम्राज्यवादी शासन व्यवस्था में ब्राह्मणों की मज़बूत पकड़ को बड़े अच्छे से बयान किया है. उन्होंने लिखा है कि, ‘1892 से 1904 के बीच जो 16 भारतीय आईसीएस चुने गए थे,उनमें से 15 ब्राह्मण थे. वो आगे लिखते हैं कि इंजीनियर की पढ़ाई पास करने वाले 27 भारतीयों में से 21 ब्राह्मण थे‘. ये ब्राह्मण आर्यों को अपना पूर्वज मानते थे और संस्कृत भाषा को अपनी संस्कृति काहिस्सा. इनकी आबादी तमिलनाडु की कुल आबादी का केवल तीन प्रतिशत थी. लेकिन, बीसवीं सदी के आग़ाज़ (आरम्भ) के वक़्त (समय) मद्रास यूनिवर्सिटी के 67 प्रतिशत ग्रेजुएट ब्राह्मण होते थे.सरकारी नौकरियों में उनका बोलबाला था, सचिवालय और ज़्यादातर ज़िलों के प्रशासन में ब्राह्मणों का ही दबदबा था.

मद्रास हाई कोर्ट और बार में तो शायद ब्राह्मण ही वक़ील और जज थे. ज्यादातर बड़े पत्रकार भी इसी समुदाय से आते थे. यहां तक कि निजी कारोबारी (व्यापारी) कंपनियों में भी ब्राह्मणों का हीजलवा था.

अंग्रेज़ों की अंग्रेज़ी सबसे ख़राब!

भाषायी राजनीति

अब इस दबदबे के ख़िलाफ़ इंक़लाब तो आना ही था. इसमें ज़्यादा देर नहीं लगी. 1916 में टी.एम. नायर और पिट्टी त्यागराया चेट्टी ने कांग्रेस से बग़ावत करके अपनागैरब्राह्मण घोषणापत्रजारी किया. इसके अलावा 1916 में ही मशहूर आध्यात्मिक गुरू मरिमलाई अडिगल (अडिगल का मतलब (अर्थ) होता है महात्मा) ने तमिल शुद्धीकरण आंदोलन शुरू कर दिया. उनका मक़सद(उद्देश्य) तमिल भाषा को संस्कृत के शिकंजे से आज़ाद कराना था. तमिल भाषा में मौजूद संस्कृत और दूसरी भाषाओं के शब्दों को हटाना था. इन दोनों आंदोलनों के मेल से ही 1920 में जस्टिस पार्टी कीस्थापना हुई. इस पार्टी ने कांग्रेस और ब्राह्मणों के प्रभुत्व को मद्रास प्रेसीडेंसी में कड़ी चुनौती दी.

महात्मा गांधी की प्रेरणा से 1918 में दक्षिण हिंदी प्रचार सभा की स्थापना हुई. इसने तमिल पहचान के सांस्कृतिक और सियासी(राजनैतिक) आंदोलन को और मज़बूत करने का ही कामकिया. ये आंदोलन कांग्रेस विरोधी था, ब्राह्मण विरोधी था, आर्य विरोधी भी था, उत्तर भारत, संस्कृत और हिंदी विरोधी भी था.

इसने धीरेधीरे तमिल अलगाववाद का रूप धर लिया. आख़िर में इस आंदोलन के बीच से अलग द्रविड़नाडु यानी तमिल राष्ट्र की मांग उठने लगी.

           हिंदी और ब्राह्मण विरोध की ये सामाजिकभाषाईसांस्कृतिक क्रांति 1937 में हुए चुनाव के दौरान अपने उरूज पर पहुंच गई. जस्टिस पार्टी ने भी इस चुनाव में हिस्सा लिया. इसे और भी कट्टरनेता ईवी रामास्वामी नायकर केस्वाभिमान आंदोलनसे और बल मिला. 1938 में ईवी रामास्वामी नायकर ने जस्टिस पार्टी का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया. तब उन्होंने इसका नाम बदल करद्रविदार कझगम यानी द्रविड़ों का संगठन कर दिया. लेकिन, 1937 के चुनाव में अपनी शानदार चुनावी मशीन की बदौलत शातिर(चतुर) ब्राह्मण नेता सी, राजगोपालाचारी (राजाजी) मद्रास प्रेसीडेंसी केमुख्यमंत्री चुने गए. कांग्रेस की राष्ट्रवादी विचारधारा पर चलते हुए राजाजी ने मशहूर(प्रशिद) राष्ट्रवादी तमिल पत्रिका सुदेशमित्रम में 6 मई 1937 को लिखा कि, ‘जब हम हिंदी सीख लेंगे तभीदक्षिण भारत को सम्मान हासिल(प्राप्त) होगा‘. IMAGES

तमिल स्वाभिमान    तमिलों के स्वाभिमान को ये ज़ख़्म(घाव) देने के बाद राजाजी ने उस पर नमक डालते हुए प्रेसीडेंसी के सभी सेकेंडरी स्कूलों में हिंदी पढ़ना अनिवार्य बनाने वाला एक सरकारीफ़रमान (आदेश) भी जारी कर दिया. इस सरकारी आदेश ने हिंदी विरोध के आंदोलन को मानो और हवा दे दी. हिंदी भाषा को तमिलों के स्वीकार करने की रहीसही उम्मीद(आशा) इस आंदोलनकी भेंट चढ़ गई. हिंदी के ख़िलाफ़ तमिलों का आंदोलन अगले तीन साल यानी 1937 से 1940 के दौरान जारी रहा. इसने तमिलनाडु की राजनीति को हमेशा के लिए बदलकर रख दिया. राजगोपालाचारीसरकार के हिंदी अनिवार्य करने के आदेश के ख़िलाफ़ जस्टिस पार्टी और मुस्लिम लीग ने मिलकर तमिझ पदाई (तमिल ब्रिगेड) तैयार की, जिसने त्रिची से मद्रास तक की 42 दिनों की पदयात्रानिकाली. ये यात्रा एक अगस्त से 11 सितंबर 1938 तक चली थी. अपने रास्ते में ये यात्रा 239 गांवो और 60 क़स्बों से गुज़री थी. एक मोटे अनुमान के मुताबिक़ (अनुसार) इस लंबी पदयात्रा में 50हज़ार लोग शामिल हुए थे. उनके नारों में, ‘आर्य हँस रहे हैं और तमिल रो रहे हैंऔरब्राह्मण समुदाय मातृभाषा तमिल की हत्या कर रहे हैं‘, जैसे उत्तेजक नारे शामिल थे.                                                                                                                                                                 तीन साल के उस दौर में हिंदीविरोधी सभाओं का आयोजन आम बात बन गई. 1938 में हिंदीविरोधी कमांड की स्थापनाकी गई थी. महिलाओ की एक सभा में ईवी रामास्वामी नायकर कोपेरियार‘ (महान) की उपाधि से सम्मानित किया गया. तब से वो इसी नाम से जाने जाते हैं. उसके बाद पेरियार नेतमिलनाडु केवलतमिलों के लिएका नारा दिया. साथ ही पेरियार ने अलग, संप्रभु द्रविड़ राष्ट्र की मांग कर डाली. तमिल मूल के अमरीकी विद्वान सुमति रामास्वामी के मुताबिक़ हिंदी विरोध का ये आंदोलन, ‘तमिलनाडु के बिल्कुल अलग, सामाजिक और सियासी (राजनैतिक) हितों और समुदायों को जोड़ने वाला बन गया. हिंदी के विरोध में तमिलनाडु के कट्टरपंथी और नास्तिक, भारतीय और द्रविड़ोंके अधिकारों के समर्थक, यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर और सड़कों पर गानेबजाने वाले अशिक्षित गवैये, पर्चे बाँटने वाले और कॉलेज के छात्र, सब एकजुट हो गए‘. उस दौर में मुस्लिम लीग के नेता पी,कलीफ़ुल्ला ने ऐलान किया कि, ‘मैं रवुथर मुसलमान हूं. लेकिन, मेरी मादरी ज़बान (मातृ भाषा) तमिल है, उर्दू नहीं. मुझे ये कहने में ज़रा (रत्ती) भी शर्म नहीं. मुझे इस बात पर गर्व है.’

TIMAGES हिन्दी से मुश्किलें (कठिनाया)

सत्यमूर्ति और सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भी महात्मा गांधी को लिखकर हिंदी को तमिलनाडु पर थोपने के राजाजी के हठधर्मी वाले तरीक़े(ढंग) पर अपना विरोध जताया. लेकिन राजाजी अपनी बातपर अड़े रहे.

मद्रास प्रेसीडेंसी में हिंदू विरोध का ये आंदोलन तब ख़त्म हुआ, जब अक्टूबर 1939 में सभी कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने बिना सलाहमशविरे(परामर्श) के भारत को दूसरे विश्व युद्ध में घसीटे जाने केख़िलाफ़ इस्तीफ़ा दे दिया.

           इसके बाद मद्रास के गवर्नर लॉर्ड अर्सकाइन ने वो कुख्यात सरकारी आदेश वापस ले लिया, जिसे राजगोपालाचारी की सरकार ने जारी किया था. गवर्नर लॉर्ड अर्सकाइन ने वायसराय को लिखा किहिंदी को अनिवार्य बनाने के फ़ैसले(निर्णय) से इस सूबे में बहुत मुश्किलें पैदा हो रही हैं. ये फ़ैसला राज्य की जनभावना के निश्चित रूप से ख़िलाफ़ है.’ तमिलों का ये हिंदी विरोध हमने संविधान सभाकी बैठकों में भी देखा था तब टीटी कृष्णमाचारी और एन गोपालस्वामी आयंगर ने संविधान सभा को हिंदी को इकलौतीराष्ट्रभाषाघोषित करने से रोका. भाषा के मुद्दे पर समझौता ये हुआ कि राष्ट्रभाषाके मसले(समस्या) को 15 साल यानी 1965 तक के लिए टाल दिया जाए. जैसे ही ये तारीख़ क़रीब (निकट) आई, डीएमके नेता सी. एन अन्नादुरैय ने 1963 में घोषणा की कि, ‘ये तमिल लोगों काकर्तव्य है कि वो हिंदी थोपने वालों के ख़िलाफ़ जंग लड़ें.’ अन्नादुरै के विरोध और अपनी सरकार में तमिलनाडु के दो मंत्रियों के इस्तीफ़े के बावजूद, लालबहादुर शास्त्री सरकार ने तमिलनाडु केकांग्रेसी मुख्यमंत्री भक्तवस्तलम के साथ मिलकर तमिलनाडु मेंतीन भाषाएं पढ़ाने के फॉर्मूलेको लागू कर दिया.  इसके बाद राज्य में दंगों और ख़ुद को आग के हवाले करने की घटनाओं की बाढ़ सी गई. ब्लैक फ्लैग डे यानी 25 जनवरी 1965 से 13 फरवरी 1966 के दौरान तमिलनाडु क़त्लोगारत(नरसंहार) का मैदान बन गया.

      हिंदी विरोध के इस आंदोलन ने तमिलनाडु में कांग्रेस की सियासी ताक़त(शक्ति) को हमेशा के लिए ख़त्म कर दिया. इंदिरा गांधी ने इस मामले में संवेदनशीलता से काम लिया. इसके बाद उन्होंने 1968 मेंलैंग्वेज एक्ट पारित किया. इसकी वजह से तमिलनाडु में हिंदी विरोध का आंदोलन अगली क़रीब(लगभग) आधी सदी तक शांत रहा. जैसा कि डीएमके अध्यक्ष एम. के. स्टालिन ने मुस्कुराते हुए कहा था कि अबकस्तूरीरंगन कमिटी ने ‘मधुमक्खियों के छत्ते पर पत्थर फेंका है’. अगर हिंदी-हिंदुत्व की राजनीति करने वाले कट्टरपंथियों की चली, तो आगे का सफ़र बेहद ख़ूंरेजी होने वाला है. हम एक बार फिर तमिलनाडु में 1937-40 और 1965 का दौर देख सकते हैं. ये देश को मेरी चेतावनी है.

ब्राह्मणों के प्रभुत्व का नकारात्मक पहलू सबको ये तो पता है कि ईसाई मिशनरियों के बेक़ाबू(अनियंत्रित) उत्साह ने उत्तर, मध्य और पूर्वीपश्चिमी भारत में 1857 की पहली जंगआज़ादी कोहवा दी थी. लेकिन, लोगों को दक्षिण भारत और ख़ास तौर से मद्रास प्रेसीडेंसी में ईसाई मिशनरियों के धर्म प्रचार से हुई तबाही का अंदाज़ा(अनुमान) शायद नहीं है.  रॉबर्ट काल्डवेल नाम का ईसाईमिशनरी 1837 में 23 बरस की उम्र में मद्रास पहुंचा था. इसके बाद उसने स्थानीय लोगों को ईसाई बनाने के लिए पूरे दक्षिण भारत में धर्मसभाएं आयोजित करना शुरू किया. ये सिलसिला 1891 में उसकीमौत तक जारी रहा था. उसका एक बयान, दक्षिण भारत में सक्रिय मिशनरियों की सोच को दिखाने के लिए काफ़ी है. काल्डवेल ने 11 साल भारत में रहने के बाद 1848 में लिखा था कि, ‘भारत की ही तरहहिंदुत्व शब्द भी यूरोपीय विद्वानों की खोज है. आम भारतीय इससे अनजान हैं‘. काल्डवेल के साथी हेनरी राइस का मानना था कि आम हिंदू को तर्क की बिल्कुल भी समझ नहीं है. उनके ये विचार ईसाईधर्म के प्रचार के लिए छापे गए पर्चों में दर्ज थे.

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There is no proof that Hindii provides mental robustness says Lt Col CR Sundar.

The article. By Lt Col CR Sundar has suggested three language formula where Hindii has no place for all-of Bhaarat, while English would be taught to 100 percent students of Bhaarat. There is no place for Hindii in the 3-language formula suggested by Mr. Sundar.

 

MODERN THREE LANGUAGE FORMULA

(Regional Language, English and Python)

By-Lt Col CR Sundar

The modern times are internet based. Almost everything is run and maintained on line and one is not far away from the world wide web at any time. In the years to come the influence of internet on our lives is only going to increase many folds. Under these circumstances it is necessary that our future generations must be familiar with internet languages, coding and writing programs that can run on various table top and hand-held devices.

Therefore it is essential that we include the teaching of computer languages in our education systems.

The Ministry of Education has since 1968 been harping on a ‘three language formula’. At the outset it must be agreed that a three-language formula is suitable for a diverse country like ours. However we find that through the decades the policy has failed.

The reason for this is successive governments have erred in the choice of languages. They have rightly given the first and second place in the formula to regional languages and English. It is in the choice of the third language that they have gone wide off the mark.

For the third language they have said that non-Hindii states should take on Hindii as the third language. This is strongly opposed by non-Hindii states as an imposition of Hindii upon them. They are unwilling to accept Hindii in the school education curricula since they see it as an attempt by the Hindii States to dominate them. Therefore the present form of three language formula has been a total failure.

In any case Hindii is unsatisfactory as a compulsory language for many reasons. You can’t study medicine or engineering in Hindii. It is not useful for global trade or international relations. Better poetry exists in Urdu, and better literary traditions in Thamizh or Bengali. Easier Hindustani with flexible gender norms is useful for the armed forces and if you want a job Thamizh or Kannada is preferable because that is where jobs exist. So Hindii can at best only retain its scope as a local language of certain regions. Any passerby through a Hindii-regions can pick up that language in a matter of days.

But on the other-hand the three- language formula can be a success and be welcomed by all States of our country if, keeping with modern times, we choose a Computer Language as the third language instead of Hindii. This will increase the computer literacy in our country which at present is dismally low.

Of the languages at present available for inclusion as the third language the Python language seems to be the most suitable because of various reasons.

The main advantage of Python is that it is an Open Source and Community Developed language that is easy to learn and has support available. It has a user-friendly Data Structure, it is beneficial for productivity and speed.

It is a superb language for teaching programming both at the introductory and in the more advanced courses. There are many courses that teach basic skills for scientific computing, running bootcamps and providing open-access teaching materials.

Python is used in many applications and domains. It is widely used in scientific and numeric computations. It is the preferred language for Artificial Intelligence. It offers many choices for web development such as Django and Flask and advanced content management systems. Python’s standard library supports many Internet protocols.

Hence Python should be chosen as the third language of Modern Three Language Formula. In this modernised form the priority of languages should be as follows: –

First Language (The Anchor)                  – Regional Language

Second Language (The Global Link)       – English

Third Language (The Future)                    – Python

Such a Modern Three Language Formula will be acceptable to all States and can be applied uniformly for the whole country.

Note: Newly released ‘General PP Kumaramangalam His Life and Times’ is available on Amazon. Get your copy today.

Lt Col CR Sundar, Plot No. 43, 24th Cross Street, Padmavathy Nagar, Madambakkam, Chennai – 600126, 80561 63792

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India is India because of the non-Hindii speaking people says Lt Col CR Sundar

A letter to Lt Col CR Sundar Ji,

You have suggested three language formula where Hindiii has no place for all-of Bhaarat, while English would be taught to 100 percent students of Bhaarat. There is no place for Hindiii in the 3language formula suggested by you. Dr. Madhusudan Ji have written more than 200 articles on this topic. I am enclosing some of the articles for your review.

According to your suggestion no Bhaaratiya language will get the prominent status in Bhaarat and everybody will have to learn English. Like Israel why not any language be developed in Bhaarat which becomes national language of Bhaarat and even one the languages of UNO.

Your suggestion will make whole of Bhaarat mentally slave for ever. Will the conscious of people like you ever become clear and try to do something for the glory of Bhaarat.

Mohan Gupta

Lt Col CR Sundar should read the following articles to understand the importance of Hindii and other Bhaaratiya languages

Madhu Jhaveri- (1 of 6) Article (mjhaveri@umassd.edu) thinks you may be interested in the following post:

वार्तालाप द्वारा फैलाए तमिलनाडु में  हिन्दी https://www.pravakta.com/hindi-in-tamil-nadu-spread-by-conversation/

 

भाग (दो) -तमिलनाडु में हिन्दी प्रचार रणनीति। डॉ. मधुसूदन https://www.pravakta.com/part-two-hindi-in-tamil-nadu-promotional-strategy-dr-madhusudan/

 

तमिलनाडु में हिंदी प्रवेश कैसे करें ? https://www.pravakta.com/how-to-enter-hindi-in-tamil-nadu/

 

तमिल की संस्कृत कड़ी – डॉ. मधुसूदन – https://www.pravakta.com/sanskrit-tamil-3/

 

तमिलनाडु में हिन्दी लोकप्रिय? – https://www.pravakta.com/popular-hindi-in-tamil-nadu/

 

तमिल-हिंदी के बीच सेतु है संस्कृत–डॉ. मधुसूदन https://www.pravakta.com/sanskrit-bridge-between-tamil-hindi/

Vidya Bharathi Tamilnadu passes resolution on the draft National Education Policy 2019 – https://www.vsktamilnadu.org/2019/06/vidya-bharathi-tamilnadu-passes.html

अपने पारिभाषिक शब्दों से ही शीघ्र उन्नति। –  https://www.pravakta.com/his-early-progress-from-the-definitional-terms/

 

हमारी शब्द रचना का समृद्ध आधार

https://www.pravakta.com/humari-shabd-rachna-ka-samriddh-aadhaar/

शब्दों का कल्पवृक्ष: संस्कृत

https://www.pravakta.com/shabdon-ka-kalp-vriksha-sanskrit/

भाषा विषयक ऐतिहासिक भूलें?

https://www.pravakta.com/bhashaa-vishyak-aitihasik-bhulein/

 २०३ आलेख के नाम खुलेंगे।

 https://www.pravakta.com/author/mjhaveriumassd-edu/

मधुसूदन झवेरी

There are many Jai Chands in Bhaarat. There is no way to finish such Jai Chands. Jai Chands in Bhaarat will stay in Bhaarat till the end of this planet earth is destroyed. Suggestion by Lt Col CR Sundar will make Bhaarat mentally slave forever

 

 

From: Cr Sundar <crsundar@gmail.com>
Sent: June 23, 2019
To: Mohan Gupta <mgupta@rogers.com>
Thank you Guptaji for your comments.

                         People of a nation do not become slaves because of the language they speak. They become slaves because of their mental weakness. They fall to slavery when they choose the easier wrong against the harder right.

There is no proof that Hindii provides mental robustness. South India resisted the Moghuls whereas the Hindii belt fell prey to them just as the people of the Hindii belt are now slaves of Hindutva.

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From: Madhusudan H Jhaveri <mjhaveri@umassd.edu>;
Sent: June 23, 2019

पहले राष्ट्रीय दृष्टिकोण रखिए। राजनीति ना करिए। और डराइए नहीं।

 पागल हमेशा दूसरों को पागल समझते हैं। पीलिया जिन्हें होता है, उसे पीला ही दिखता है। जापान, इज्राएल, चीन, फ़्रान्स, रूस, अपनी भाषाओ में उन्नति करते हैं। अनगिनत लोग मेरे व्याख्यानके बाद बदल गए हैं।

 

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English the most lethal language in the world

                Ninety percent languages of the world’s 5000 – 6000 are fated to disappear at the rate of 12 languages a year, says an article in French magazine Le Devoir by Sylvie moisan. Between 20 – 50 percent of these languages are no longer used in daily life and many of these languages have been codified for posterity the article adds.

                Disappearing languages was the main theme of an international gathering of linguists at Quebec City’s laval University some time ago. Discussing the ecology of languages they agreed that English is the most lethal language in the history killing about 90% languages with which it has come into contact. This is according to Michael Krauss’s article “The world’s languages in Crisis. In a language magazine, it was written that Russian language was imposed in the Soviet empire, but the soviet language has not done nearly as much damage, as only about 50 percent of the languages exposed to Russian language have died.

                Ms. Moisan quotes Jacques Maurais, director of a publication called Les languages autochtones du Quebec published recently by publications du Quebec and produced by Le Conseilde la language Francaise. He made an analogy between the disappearance of animal and plant species and the pessimistic prognosis for morality of languages.

                We see a number of psycho-social problems, because the disappearance of a language also raises the question of ethnic identity. In such a context, the dominance of one language creates a deprecition of the mother tongue a stagmatized of the linguistic varities considered inferior, not to mention the increase in delinquency even in suicides, all the symtoms we can claasify under the world alienation.

                At the time of colonisation of Canada, there were 55 native languages. Now only about 5 native languages are in daily use. Other languages have either died or in the process of becoming extinct.

                No systemic study has been done about the impact of English language on Indian- languages but one thing is clear that English has slowed down the growth of Indian languages considerably. Hindii has not taken its due place even after 72 years of independence, similar is the fate of all other Indian languages. If Hindi cannot get its due-place then can other Indian languages could   prosper in presence of English.

                The present situation is, if say hello to English then it becomes goodbye to many other languages. For preserving and prosperity of Indian languages time has come that  we should say Hello to Indian languages and say goodbye to English language and to bureaucracy who runs the country with English language.

                Some slave minded and English-speaking people want to retain English in Bhaarat forever. They should try to establish a research center to establish the affects of English language on Bhaaratiya languages and various other dialects who have become extinctin Bhaarat due to English.   

For the unity of a country many factors play a big part. The biggest part is played by the culture of the country, then comes language and to the lesser extent is religion. In-spite of all sorts of contradictions, Bhaarat is one country which is due to the uniformity of culture through out Bhaarat.

                Language also plays a big part in the unity of people and country. When Bengal was partitioned   in 1902 – 1903, there was a revolt that Bengal was united again. That was the language unity which caused revolt and which made Bengal united again due to Bengali language. In a group of people, if there is a Gujrati speaking Hinduu and a Gujrati speaking Muslim, then the chances are that Gujrati speaking Hinduu would like to have friendship with Gujrati speaking Muslim rather than a non-Gujrati speaking Hinduu.

                English language will not create any unity in Bhaarat. Only any Bhaaratiya language will create unity in Bhaarat.

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