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हिन्दू उत्कर्ष

 

हिन्दू कोई धर्म नहीं है बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप की एक जीवन शैली है। इस भूभाग में रहने वाला हर व्यक्ति हिन्दू है। इनमें कुछ सनातन धर्म को मानते हैं तो कुछ अन्य धर्मों को, जिन्हें भारत में अल्पसंख्यक कहा जाता है। इस भूभाग में रहने वाले सभी लोगों के पूर्वज हिन्दू सनातनी ही रहे हैं। विदेशी आक्रांताओं के आक्रमण और उनके शासन के कारण कुछ ने इस्लाम धर्म अपना लिया तो कुछ ने ईसाइयत को स्वीकार कर लिया। पर सभ्यता और संस्कृति के आधार पर सब हिन्दू ही कहे जाएंगे। इसलिए जब भारत के हिन्दू राष्ट्र की बात की जाती है तब इसमें सभी धर्मों के वे सभी लोग शामिल हो जाते हैं जिनके पूर्वज हिन्दू रहे हैं। वामपंथी इतिहासकारों ने अब तक इतिहास को अपने हिसाब से काफी तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत किया है। भारत को बांटने के क्रम में इन्होंने अंबेडकर के उन लेखों को तो प्रोत्साहित किया जिसमें उन्होंने हिन्दू धर्म की कमियां बतायी थी किन्तु उन लेखों को छुपा दिया जिसमें वह इस्लाम की कमियों को उजागर करते थे। ऐसा स्वयं अंबेडकर ने 1940 में लिखी अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान ओर पार्टीशन ऑफ़ इंडिया’ में लिखा है। इसी तरह लोहिया किसी भी धर्म की कट्टरता के विरोधी थे। उनका कहना था कि भारतीय जनमानस भगवान राम या मोहम्मद साहब की आलोचना सुनने का धैर्य रखे। अब अंबेडकर और लोहिया का सिर्फ एक पक्ष दिखाकर जिस तरह से एक धारणा बनाई गयी उसने कुछ सालों तक सत्ताधीशों को संजीवनी तो दी किन्तु धीरे धीरे उसका असर कम हुआ तो हिन्दुत्व का प्रभाव बलवान होता चला गया। क्षेत्रीय दल सिमटते चले गये। 2014 के बाद से हिन्दुत्व के विषय राष्ट्रीय विमर्श का विषय बनने लगे। जातियों में बंटा हिन्दू समाज राजनीतिक रूप से एकजुट होने लगा। हिन्दुत्व के विषय फिल्मों में भी नजऱ आने लगे और बाज़ार का हिस्सा बन गये। 370, राम मंदिर और सीएए जैसे विषय जिनको छूने से पिछली सरकारें कतराती थीं वह अपनी परिणीती तक पहुंचे। वर्तमान में मजबूत होते हिन्दुत्व के विषय के बीच लोगों की जीवन शैली में कितना हिंदूपन आत्मसात होता है यह विषय अब और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। इन सबके बीच वामपंथी खेमे का बौद्धिक वर्ग अब सीएए की आड़ में आखिरी लड़ाई लड़ता दिख रहा है।

द्य अमित त्यागी

जब समाज जाग जाता है तब सत्ताएं हिल जाती हैं। व्यवस्थाएं जागृत हो जाती हैं। राष्ट्रवाद उभर जाता है और बदलाव की परिकल्पनाओं के मूर्त रूप लेने की शुरुआत हो जाती है। 1947 में भारत आज़ाद हुआ। भारत के लोगों को यह आज़ादी एक हवा के झोंके के समान लगी और भारत के निर्माण की रूपरेखा की शुरुआत हुयी। भुखमरी से जूझते भारत में हरित क्रान्ति के नाम पर रसायनों का इस्तेमाल शुरू हुआ। गाय, बैलों का स्थान ट्रैक्टर ने ले लिया। इस दौरान राष्ट्रवाद और भारतीयता के आधार पर भारत को स्थापित करने के कार्य नहीं हुये। इसके बाद भारत ने चीन और पाकिस्तान से युद्ध झेले तो भारत की सेना को मजबूत करने के लिए जय जवान जय किसान का नारा दिया गया। हथियारों की खरीद हुयी, देश रक्षा क्षेत्र में मजबूत हुआ। गरीबी मिटाओ के नारे और बांग्लादेश को स्वतन्त्रता दिलवाने में 70 का दशक बीता। भारत की सांस्कृतिक विरासत को भारतीयता के आधार पर स्थापित करने की कोई रूपरेखा तब तक भी नहीं बनी। मुसलमानों को अल्पसंख्यक दिखाकर उनका तुष्टीकरण किया गया और हिन्दू समाज में दलित उत्पीडऩ दिखाकर उनका भरपूर इस्तेमाल किया गया। अस्सी और नब्बे के दशक आते आते जब कांग्रेस थोड़ा कमजोर होने लगी तब मण्डल कमीशन की रिपोर्ट के नाम पर आरक्षण लागू कर सवर्ण और दलित के बीच एक रेखा खींच दी गयी। राम मंदिर के ताले खुलवाकर तुष्टीकरण की राजनीति शुरू कर दी गयी। शाहबानो प्रकरण द्वारा मुस्लिम समाज में सुधार का एक बड़ा मौका गंवा दिया गया। राम मंदिर के ताले खुलने के बाद भाजपा का इस विषय को पकडऩा और वीपी सिंह द्वारा आरक्षण लागू करने तक भी वोट बैंक की राजनीति तो होती रही किन्तु भारत की सांस्कृतिक और गौरवशाली विरासत के अनुरूप कार्य यहां भी शुरू नहीं किए गये। इसके बाद नब्बे के दशक में जब उदारीकरण का दौर शुरू हुआ तो भारत के बड़े बाज़ार के कारण बड़े बड़े देशों ने भारत पर नजऱ गढ़ा दी। भारत एक बड़ा बाज़ार बनकर उभरा और बाज़ार ने भोगवादी व्यवस्था पुष्पित एवं पल्लवित कर दी। भोगवाद के कारण राष्ट्रवाद और भारतीयता की भावना और भी ज़्यादा पीछे चली गयी। उदारीकरण के दो दशकों के बाद इसका विकृत चेहरा भी सामने आया। देश में मुस्लिम तुष्टीकरण की हद हो गयी और बड़े बड़े घोटाले खुलने लगे तो धीरे धीरे देश में राष्ट्रवाद की भावना स्वत: ही बलवती होने लगी। 2010 से 2014 के बीच जनता में राष्ट्रवाद, हिन्दुत्व के समर्थन में और भ्रष्टाचार के विरुद्ध माहौल बनने लगा। तब तक मोबाइल क्रान्ति की शुरुआत हो चुकी थी। राजीव दीक्षित ने राष्ट्रवादी विचारधारा को उभारा और विदेशी कंपनियों की लूट उजागर की। अन्ना आंदोलन के द्वारा भ्रष्टाचार मुद्दा बना। स्वामी रामदेव ने योग के माध्यम से राष्ट्रजागरण किया। इस बीच भाजपा का राष्ट्रवादी खेमा सक्रिय हुआ और नरेंद्र मोदी एक बड़े विशाल एवं विराट व्यक्तित्व के साथ उभरे। हर तरफ से हताश हो चुके भारतीय समाज ने 2014 में मोदी के रूप में एक ताजे हवा के झोंके को महसूस किया और हिन्दुत्व के एजेंडे के साथ मोदी ने भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की। इस तरह व्यवस्था की कमियों और राजनीतिक विफलताओं के बीच राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व का विषय स्वयं राजनीतिक मुद्दा बन कर उभर गया।

इसके बाद जब 2019 के चुनाव हुये तो वह प्रखर राष्ट्रवाद के विषय पर हुये। 2019 आते आते भारत के आम जनमानस में राष्ट्र प्रथम की भावना घर कर चुकी थी। उसे राष्ट्र, हिन्दू और हिन्दुत्व जैसे भारी भरकम से लगने वाले विषय आसानी से समझ आने लगे। इसकी वजह यह थी कि आम जनता अब वह खेल समझने लगी थी जो उसके साथ खेला जा रहा था। जैसे दलितों को यह बताकर दिग्भ्रमित किया जाता रहा है कि हिन्दू कोई धर्म नहीं है बल्कि सिर्फ जातियों का समूह है। सवर्र्णों ने दलितों का शोषण किया है। बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म से अच्छा है। इस तरह से काफी मात्रा में दलित बौद्ध धर्म अपनाने लगे। दलितों के बौद्ध धर्म अपनाने के पीछे भी धर्मांतरण का एक षड्यंत्र शामिल रहा है। चर्च द्वारा दलितों को ईसाई में धर्मांतरण होने पर हिंदुवादी संगठन बौखलाने लगे थे। ऐसे में चर्च ने सनातन को कमजोर करने के लिए दलितों को बौद्ध धर्म की तरफ प्रेरित करने का काम शुरू कर दिया। अब दलित चाहे ईसाई धर्म स्वीकार करें या बौद्ध। दोनों ही स्थिति में सनातन तो कमजोर हो ही रहा था। इस बात को वैश्विक परिदृश्य में देखें तो विश्व में मुस्लिम और ईसाई की आबादी सबसे ज़्यादा है। दोनों के बीच वर्चस्व की जंग चलती रहती है। सनातन धर्म के कमजोर होने से दोनों को अपना फायदा दिखता रहता है। उनकी इस विचारधारा को भारत में पोषण करती थी वामपंथी विचारधारा। सोवियत संघ के विभाजन के पहले तक वामपंथियों को काफी मात्रा में विदेशी धन मिला करता था। सोवियत संघ के बंटवारे के समय के एक सरकारी अभिलेख के अनुसार पांच लाख पाउंड प्रतिवर्ष वामपंथियों को दिया जाता था। अब एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी इस बात को समझ सकता है कि कोई देश दूसरे देश को एकजुट करने के लिए तो धन नहीं देता होगा। इस धन का प्रभाव तत्कालीन साहित्य, कला और फिल्मों पर भी साफ दिखाई देता था।

2014, 2019 ‘हिन्दुत्व का जागरण’

2014 और 2019 के कालखंड में हिन्दुत्व के जागरण के कार्य आरंभ हुये। गौ, गंगा और गांव आधारित भारतीय पारंपरिक शैली पर राष्ट्रीय विमर्श बनना शुरू हुआ। योग दिवस की शुरुआत हुयी। भारतीय अध्यात्म को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक और पहचान मिली। आयुर्वेद का चलन बढ़ा। जिस तरह से मोदी की विदेश में स्वीकार्यता बढ़ी उससे वैश्विक स्तर पर भारत और हिन्दुत्व का कद बढ़ता चला गया। अन्तर्राष्ट्रीय संबंध जो बाज़ार के हिसाब से निर्धारित होते हैं उसमें भारतीय मूल के तत्व बाज़ार का हिस्सा बनने लगे। भारतीय मूल के परिधान फ़ैशन का हिस्सा हो गये। कुर्ता पाजामा अचानक से ग्लोबल हो गया। धोती स्टाइल स्टेटमेंट बन गयी। योग और आयुर्वेद में एक नया बाज़ार पैदा हुआ। भारत में चिकित्सा सस्ती होने के कारण विदेशी लोग भारत में इलाज़ करवाने आने लगे। भारत की वास्तुकला और शिल्प को देखने वाले पर्यटकों में बढ़ोत्तरी हुयी। हिन्दुत्व की जीवन शैलियां और बाज़ार के मेल के बीच मोदी का वैश्विक जादू कुछ यूं चला कि हिन्दुत्व मजबूत होने लगा। इस बीच इस्लाम का विकृत स्वरूप दुनिया के सामने आने लगा। इस्लामिक आतंकवाद से दुनिया त्रस्त हो गयी। ऐसे में हिन्दुत्व की जीवन शैली और वसुधैव कुटुंबकम की धारणा लोगों को अच्छी लगने लगी।

इसका प्रभाव ज़मीन पर देखने को मिला। अन्तर्राष्ट्रीय और घरेलू स्तर पर हिन्दुत्व का प्रभाव समानान्तर रूप से बढ़ रहा था। विदेशों में मोदी अपने प्रभाव से भारत के बड़े बाज़ार के बीच हिन्दुत्व के ब्रांड एम्बेसडर बने हुये थे तो घरेलू स्तर पर कांवर यात्रा और अन्य हिन्दू त्यौहार ज़ोर शोर से मनाए जाने लगे थे। इन त्यौहारों में बड़ा बाज़ार होने के कारण वैश्विक स्तर पर भी यह त्यौहार पहचान बनाने लगे। हिन्दुत्व का यह बढ़ता प्रभाव वामपंथियों को रास नहीं आ रहा था तो वह समानान्तर रूप से पुरुस्कार वापसी, असहिष्णुता, मॉब लिंचिंग जैसे शब्द गढ़ कर हिन्दुत्व को कमजोर करने का प्रयास कर रहे थे। उनके प्यादे पुरुस्कार वापस कर रहे थे। वामपंथियों को समय समय पर आसाराम, राम रहीम जैसे संत ऑक्सीजऩ दे देते थे। इसके द्वारा वामपंथी यह प्रचारित करने में कामयाब हो जाते थे कि सनातन धर्म आडंबरों से भरा हुआ है। धीरे धीरे इस तरह के फर्जी संत जेल जाने लगे। टीवी पर संत की आड़ में आने वाले धार्मिक चैनल में लोगों की रुचि कम होने लगी। लोग वास्तविक और छद्म हिन्दुत्व का फर्क समझने लगे। हिन्दुत्व के राजनीतिक उत्थान का आभास तब हुया जब मुस्लिम तुष्टीकरण करने वाले दल भी हिन्दू मंदिरों में जाने लगे और राहुल गांधी जनेऊ पहनने लगे। सबसे ज़्यादा फर्क फिल्मों में देखने को मिला। सांस्कृतिक और ऐतिहासिक फिल्में ज़्यादा कमाई करने लगी। और जिन भी फिल्मी लोगों ने टुकड़े टुकड़े गैंग की तरफदारी की वह सिमटते चले गये।

वामपंथियों का फिल्मी गैंग लगातार हो रहा कमजोर

दीपिका पादुकोण की फिल्म छपाक और अजय देवगन की फिल्म तानाजी दोनों एक समय रिलीज़ हुईं। दोनों फिल्मों के विषय महत्वपूर्ण थे। एक तरफ छपाक एसिड अटैक की सच्ची कहानी पर आधारित थी तो तानाजी छत्रपति शिवाजी के समय के भारत और शौर्य पर आधारित थी। एक ब्रांड के रूप में देखा जाये तो दीपिका पादुकोण एक बड़ा नाम हैं। छपाक का विषय भी बौद्धिक वर्ग तक सीमित विषय कहा जा सकता है किन्तु आम जनमानस तक भी उस विषय की पकड़ होने की संभावना थी। इसी बीच फिल्म रिलीज़ के पहले दीपिका पादुकोण जेएनयू पहुंच गईं। वहां उन्होंने उन लोगों का समर्थन किया जिनके विरोध में भारत का आम जनमानस एक धारणा बनाए बैठा है। वामपंथी विचारधारा के गढ़ में भारत विरोधी नारे भी लग चुके हैं। वाक पटुता में अग्रणी जेएनयू के लोग दलीलों से तो एक दूसरे को संतुष्ट कर लेते हैं किन्तु समाज का एक बड़ा वर्ग उन दलीलों से संतुष्ट नहीं होता है। दीपिका के वहां जाने का वही प्रभाव हुआ जिसकी आशंका थी। दीपिका की फिल्म छपाक एक अच्छी कहानी होने के बावजूद कमाई में पिछड़ गयी। जिन ब्रांड के साथ दीपिका जुड़ी थी उनकी ब्रांड वैल्यू पर भी असर पड़ा। अब इससे एक बात तो स्पष्ट है कि पूरा देश इस बात को स्वीकार कर चुका है कि देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त किसी भी समुदाय का समर्थन उसे पसंद नहीं आता है। वह सरकार को उसकी कमियों पर तो आड़े हाथ ले सकता है किन्तु उन कमियों की वजह से देशद्रोही उसे बर्दाश्त नहीं हैं। छपाक को हिट करने के लिए मोदी विरोधी खेमा एकजुट भी हुआ। उसने फिल्म की कमाई के जरिये मोदी विरोधी खेमे को एक चुनौती देने की कोशिश भी की किन्तु ये सारे दांव पेच न फिल्म के काम आए न विपक्ष को एकजुट करने के। हां, बिना किसी प्रचार के राष्ट्रवादी विचारधारा पर बनी फिल्म तानाजी को लोगों ने खूब पसंद किया।

अब 2014 के बाद से एक बड़ा परिवर्तन तो भारत में आया है जिसे ज़मीन पर महसूस किया जा सकता है। वह परिवर्तन यह है कि जिस हिन्दुत्व के विषय पर लोग बात करने से कतराते थे वह मुख्यधारा का विषय बन गया है। हमारी फिल्में जिसमें ओ माई गॉड और पीके जैसी फिल्मों के माध्यम से सनातन पर हमला किया जाता था, वह बंद हो गयी हैं। हिन्दू धर्म से जुड़े किरदारों को नकारात्मक छवि में दिखाने पर रोक लग गयी है। अब यदि कोई फिल्म इन विषयों पर आती भी है तो जनता उसे नकार देती है। जो अभिनेता भारत में राष्ट्रवाद की भावना के विरोध में बात करते हैं उन्हें उसका नुकसान होता है। जैसे आमिर खान ने जब कहा कि उनकी पत्नी को भारत में डर लगता है तब उनके इस पूर्वाग्रही बयान के बाद उनकी फिल्मों पर असर पड़ा। शाहरुख खान को भी जब भारत में असहिष्णुता दिखाई दी तो जनता ने उनकी फिल्मों को असहिष्णुता का जवाब दे दिया। यहां यह समझना महत्वपूर्ण है कि क्यों अचानक इन लोगों को भारत में कमी दिखाई देने लगी। क्यों नरेंद्र मोदी इनको विलेन दिखने लगे? क्यों कभी पुरुस्कार वापसी, कभी मॉब लिंचिंग तो कभी असहिष्णुता जैसे शब्द गढ़े गए? वास्तव में इन शब्दों को कहने वाले लोग तो सिर्फ मोहरा थे। इनके पीछे पूरा एक वैश्विक षड्यंत्र था जिसमें भारत में सनातन को कमजोर करके पहले भारत के बड़े बाज़ार को कब्जे में रखना था फिर इसके बाद जातियों में वैमनस्यता फैलाकर हिन्दू समाज में आपसी टूट करके दलितों का धर्मांतरण करने का बड़ा षड्यंत्र था। चूंकि, साहित्य और फिल्मों का प्रभाव व्यापक होता है इसलिए ये दोनों वामपंथियों के प्रमुख हथियार थे। पुरुस्कार वापसी गैंग के सदस्य भी वही लोग थे जो उनकी विचारधारा को देश में फैलाकर भारत की एकता और अखंडता को नुकसान पहुंचा रहे थे। पुरुस्कार वापसी के दौरान तो ऐसे ऐसे लोगों ने भी पुरुस्कार वापस कर दिये जिनके नाम सुनकर लगता था कि इन लोगों के नाम तो साहित्य में कभी सुने भी नहीं गए। तब लोगों में ऐसी चर्चाएं होती थी कि जो पुरुस्कार पहले गलत बंट गए थे वह अब वापस आ रहे हैं।

बॉलीवुड और हॉलीवुड में राष्ट्रवाद का बढ़ता बाज़ार 

वापस फिल्मों की बात करें तो हिन्दुत्व के उत्कर्ष की बात फिल्मों में दिखाई देने लगी है। तानाजी फिल्म में जब तानाजी दुर्ग पर हमले के पहले मंदिर में पूजा करते दिखाई देते हैं तो यह भारतीय फिल्म के 2014 के बाद बदले परिदृश्य का स्वरूप है। इसके विपरीत अगर पुरानी फिल्मों में देखें तो उनमें हीरो ज़्यादातर भगवान से नाराज़ और मंदिर के बाहर खड़े रहने वाला दिखाया जाता था। उन फिल्मों को देखकर भगवान के प्रति आस्था कम बल्कि तिरस्कार का भाव ज़्यादा प्रबल होता था। 1990 के उदारीकरण के बाद तो फिल्मों में एक नया बाज़ार पैदा हुआ जिसमें पूजा पाठ करने वालों को पिछड़ा और रोमांस करने वालों को प्रगतिशील दिखाया जाने लगा। ऐतिहासिक घटनाओं पर बनी फिल्में बनना लगभग बंद हो गईं। जो बनी वह बाज़ार के आगे नतमस्तक हो गईं। चूंकि, फिल्में समाज का आईना होती हैं इसलिए बाज़ार भी उन्हीं विषयों को फिल्मों के माध्यम से उठाता है जिससे उसे मुनाफा होता हो। 2014 के बाद से हिन्दुओं के मज़ारों पर जाने में काफी कमी आई। मंदिरों में भीड़ ज़्यादा देखी जाने लगीं। जैसे ही ये परिदृश्य सामने आया वैसे ही फिल्मों में भी हिन्दुत्व दिखने लगा। इस संदर्भ में अगर दक्षिण की फिल्मों में देखा जाये तो वहां की फिल्में धर्म की अच्छी छवि पेश करती नजऱ आती रही हैं। 1960 और 1970 के दशक की तमिल फिल्मों में भाषा और राष्ट्र को एक आकार देने की परिकल्पना साफ दिखाई देती है। हिन्दी फिल्मों में यह बदलाव 2014 के बाद से शुरू हुआ।

यदि फिल्मों में धर्म के महत्व पर अगर अमेरिकी बाज़ार पर नजऱ डाले तो काफी कुछ समझ आता है। इसके पहले प्रख्यात दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे के 135 साल पुराने एक बयान का संदर्भ आवश्यक हो जाता है। उस समय नीत्शे ने कहा था कि ‘चूंकि विज्ञान अब मानवजाति को सब कुछ उपलब्ध कराने में सक्षम हो गया है इसलिए अब ईश्वर की आवश्यकता नहीं रह गयी है’। ईश्वर अब मृतप्राय हो गया है। अब 135 साल पुराने इस बयान को जब आज के विकसित देश अमेरिका के संदर्भ में देखें तो साक्ष्य इसके उलट दिखाई देते हैं। अमेरिका एक विकसित देश है और विज्ञान के क्षेत्र में काफी अग्रणी माना जाता है फिर भी 60-85 प्रतिशत अमेरिकी धर्म को बहुत महत्व देते हैं। अमेरिकी फिल्मों में धार्मिक आस्था और राष्ट्रवाद की भावना प्रबल दिखाई देती है। अमेरिकी फिल्मों में ईसाई धर्म पर आधारित फिल्मों ने भारी कमाई की है। चूंकि ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका में राष्ट्रवाद अपने चरम पर है तो वहां का राष्ट्रवाद बाज़ार को अपने हिसाब से प्रभावित कर रहा है। धर्म, राष्ट्रवाद और विज्ञान का मेल वहां फिल्मों का बड़ा बाज़ार पैदा कर रहा है। फिल्मों के सबसे बड़े बाज़ार अमेरिका में जब माइक पेन्स उपराष्ट्रपति बने थे तब उनका एक बयान बहुत सुर्खियों में आया था इसमें उन्होंने कहा था कि ‘सबसे पहले मैं ईसाई हूं, फिर परंपरावादी फिर रिपब्लिकन’। धर्म का अमेरिकी जीवन में शामिल होना ही उनकी फिल्मों में साफ झलकता है। यही उनके राष्ट्रवाद की भावना को भी मजबूत करता है।

मुस्लिम आक्रांताओं के वंशज हैं देश की अखंडता को खतरा 

भारत की फिल्मों पर ईसाइयत और चर्च का प्रभाव एक दूसरे तरीके से भी रहा है। इस संदर्भ में मशहूर अभिनेता रजनीकान्त का बयान महत्वपूर्ण संदेश देता है। रजनीकान्त का कहना है कि पेरियार ने 1971 में सलेम में आयोजित एक रैली में भगवान राम और सीता की वस्त्रहीन तस्वीरों का इस्तेमाल किया था। पेरियार हिंदू देवताओं के कट्टर आलोचक थे परंतु उस समय किसी ने भी पेरियार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद नहीं की थी। अब रजनीकान्त के इस बयान से दो महत्वपूर्ण प्रश्न उभरते हैं। पहला, कि क्यों उस समय पेरियार के इस तरह के कार्यों का कोई विरोध नहीं हुआ? दूसरा, रजनीकान्त के द्वारा इस समय इस प्रश्न को क्यों उठाया गया? पहले प्रश्न का जवाब है कि पेरियार दलित साहित्य के द्वारा स्वयं उतना लाभ नहीं ले सके जितना उसका फायदा चर्च ने उठाया। चर्च ने विदेशी धन के माध्यम से पेरियार के नाम को स्थापित किया। पेरियार के विरोधियों को दलित विरोधी साबित करने का तंत्र विकसित किया और चूंकि भारत में तर्क सुलभ लोग आसानी से मिल जाते हैं इसलिए उनके माध्यम से अपना तंत्र सुचारु रूप से चलाया। चूंकि उस समय तक दलित और मुस्लिम गठजोड़ भारतीय राजनीति का प्रमुख तत्व होता था इसलिए उस वोट बैंक को छूने का साहस कोई नहीं करता था। अब दूसरे प्रश्न पर आते हैं। अब जैसे भारत में हिन्दुत्व मजबूत हुआ और दलित समाज मीम-भीम के चक्रव्यूह से निकलना शुरू हुआ तब वामपंथी खेमे का चर्च पोषित यह खेल सतह पर उठने लगा। जो बात लोग दबे जुबान से बंद कमरे में करते थे उसे सार्वजनिक चर्चा का विषय बनाया जाने लगा। रजनीकान्त का बयान भी भारत के उस बदले परिदृश्य का उदाहरण है जिसे 2014 के बाद से वातावरण में महसूस किया जाने लगा है।

मुस्लिम आक्रांताओं के वंशज आज भी भारत में स्वयं को शासक वर्ग समझते हैं और हिन्दू समाज को अपनी प्रजा। उनकी भाषा और शैली में यह स्पष्ट झलकता भी है। जैसे अगर ओवैसी को सुना जाये तो उनका कहना है कि मुगलों ने देश में 800 वर्ष राज किया है। लालकिला और ताजमहल जैसी इमारतें मुगलों की देन हैं। तानाजी फिल्म में विलेन बने सैफ अली खान भी फिल्म में अपना किरदार निभाने के बाद फिल्म को ऐतिहासिक तथ्यों से छेड़छाड़ वाला बताने लगें। इसके बाद उन्हें लोगों ने आड़े हाथों लिया और उनसे सवाल पूछा कि शायद वह तैमूर नाम के लुटेरे का इतिहास भी नहीं जानते होंगे तभी उन्होंने अपने बेटे का नाम तैमूर रखा है।  शायद यही भारत के लोगों के अंदर का वह आत्मविश्वास है जो 2014 के बाद जाग गया है। वह उन बातों का सार्वजनिक विरोध करने लगे हैं जिन पर बात करने से वह पहले कतराते थे। इसके साथ भारत में जो इतिहास पढ़ाया जाता है कि भारत पर मुगलों ने शासन किया यह भी भ्रमित करने वाला है। मोहम्मद बिन कासिम, मुहम्मद गोरी, अलाउद्दीन खिलजी, लोदी, बाबर आदि लुटेरे थे जो भारत को लूटने का काम कर रहे थे। दक्षिण भारत के राज्यों में कहीं भी मुस्लिम शासन कभी था ही नहीं। उड़ीसा, पूर्वोत्तर राज्यों, केरल, तमिलनाडू जैसे दक्षिण भारत के राज्य कभी मुगलों के अधीन रहे ही नहीं तो कैसे सम्पूर्ण भारत पर मुगलों का राज्य कहा जा सकता है। खिलजी और लोदी दिल्ली तक सीमित रहे। अकबर राजस्थान के कई राज्यों तक भी अपनी पकड़ नहीं बना पाया था। औरंगजेब का शासन आगरा में होने के बावजूद मथुरा उसकी पहुंच से दूर था। इन आक्रांताओं ने भारत की पुरानी इमारतों में परिवर्तन कर उसकी शक्ल मस्जिदों की तरह बनाई। राम मंदिर के फैसले में जिस तरह उच्चतम न्यायालय ने तर्क देकर राम मंदिर का निर्माण प्रशस्त किया उसके बाद वामपंथियों की कई खोखली थियरी खारिज हो गईं। अब आवश्यकता है उन पुस्तकों और पाठ्यक्रमों के पुनर्गठन की जिसके द्वारा आने वाली पीढ़ी वास्तविक भारतीय इतिहास को समझ सके।

भारत के गौरवशाली इतिहास का हो पुनर्लेखन 

पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाया जाने वाला इतिहास और वास्तविक इतिहास में कितना फर्क है यह बात तो अब समझ आने लगी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब स्वामी विवेकानंद की जयंती पर कोलकाता गये तो वहां भी उन्होंने इस पर चर्चा की। प्रधानमंत्री के द्वारा भारत के इतिहास विरासत की दुर्दशा पर की गयी चर्चा को राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बनना चाहिए। उनका कहना रहा कि ‘यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि अंग्रेजी शासन के दौरान और स्वतन्त्रता के बाद देश का जो इतिहास लिखा गया उसमें कुछ अहम पक्षों को नजऱअंदाज़ किया गया। इतिहास का लेखन एवं विश्लेषण सत्ता और सिंहासन तक सीमित रह गया’। प्रधानमंत्री द्वारा 1903 में ‘भारतवर्ष का इतिहास’ विषय पर रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा शांति निकेतन में दिये गये भाषण की भी याद दिलाई गयी। इस भाषण में गुरुदेव ने कहा था कि भारत का इतिहास वह नहीं है जो हम परीक्षाओं के लिए याद करते एवं पढ़ते हैं। इसमें तो सिर्फ यही बताया गया है कि कुछ लोग बाहर से आए और सिंहासन प्राप्ति के लिए बाप-बेटे और भाई की हत्या करते रहे। यह वास्तविक इतिहास नहीं है। इस इतिहास में इस बात का कहीं जि़क्र नहीं है कि उस दौरान भारत के लोग क्या कर रहे थे। क्या उस समय उनका कोई अस्तित्व नहीं था? क्या साहित्य, कला, लोककला, स्थापत्य, दर्शन, विज्ञान, शिक्षा, जीवनशैली आदि का इतिहास में स्थान नहीं होना चाहिए?

गुरुदेव की कही बातों को प्रधानमंत्री के वक्तव्य ने पुनर्जीवित कर दिया है। अब समय है कि इतिहास को भी पुनर्जीवित किया जा जाये। ऐसा होता रहा है। कनाडा इसका उदाहरण है। 1990 में कनाडा की संसद ने संस्तुति दी और वहां का इतिहास दुबारा से लिखा गया। पाठ्य पुस्तकों में परिवर्तन किए गये। 1990 के पूर्व की पुस्तकों में कनाडाई इतिहास पर्याप्त मात्रा में नहीं था। 1990 के बाद स्थिति बिलकुल बदल गयी। नया पाठ्यक्रम राष्ट्रवादी भावना से ओतप्रोत था। उसमें इतिहास के सकारात्मक बिन्दुओं को उभारा भी गया। 2014 के बाद से भारत में भी इतिहास का पुनर्लेखन विषय पर चर्चा तो प्रारम्भ हुयी किन्तु यह चर्चा राष्ट्रीय विमर्श का विषय नहीं बन सकी। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में जब पाठ्य पुस्तकों में बदलाव पर काम शुरू हुआ तब अन्य विषयों के बदलाव पर तो आपत्तियां नहीं हुयी। इतिहास लेखन के विषय पर वामपंथी खेमा ऐसे टूट पड़ा जैसे कोई भूचाल आने वाला हो। इस खेमे के कुछ इतिहासकारों ने तो ऐसा माहौल बनाना शुरू कर दिया कि जैसे इतिहास को तो बदला ही नहीं जा सकता है। वह किसी भी तरह का संशोधन स्वीकार करने को तैयार ही नहीं थे। इसके बाद इतिहास के नए तथ्यों के आधार पर तैयार की गयी नयी पुस्तकों को पूरी तरह नकार दिया गया। ये पुस्तकें गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के सुझाए मार्ग पर तो थीं किन्तु वामपंथ से बिलकुल अलग हटकर थी।

इतिहास के पुनर्लेखन में अब जो भी देर हो रही है वह हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की भावना को आहत कर रही है। अब सबसे पहले तो इस विषय पर राष्ट्रीय विमर्श बनना चाहिए। इसके बाद हमारी संस्कृति, व्यवहार, परंपरा, अनुष्ठान, धार्मिक गतिविधियां एवं कारगर आर्थिक प्रणालियों को हमारी आगामी पौध के बीच पहुंचना चाहिए। चाणक्य की शासन नीति और कौटिल्य का अर्थशास्त्र बहुत सी वर्तमान समस्याओं का हल प्रदान करता है। हमें इमारतों के निर्माण पर नहीं संस्कृति के निर्माण पर ध्यान देना चाहिए। भूतकाल की बहुत सी इमारतें तो आज नष्ट हो गयी हैं किन्तु उस समय काल की संस्कृति और विचार आज भी जि़ंदा हैं। बस अब आवश्यकता है उन विचारों को भावी पीढ़ी तक पहुंचाने की। इतिहास के संदर्भ में एक बात और महत्वपूर्ण है कि इतिहास में एक साथ कई समानान्तर गतिविधियां घटित हो रही होती हैं। सिर्फ एक दृष्टिकोण को दिखाकर आप पूरी परिदृश्य का खाका नहीं खींच सकते हैं। समग्रता से विश्लेषण करने से ही वृहद आयाम उभरते हैं। जिस तरह से राम मंदिर के विषय पर उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में वामपंथियों की कई थियरी नष्ट कर दी, वैसा ही कुछ पाठ्य पुस्तकों के इतिहास में भी करने की आवश्यकता है।

ऐतिहासिक गलतियों को समझें और लें सबक 

पिछले हज़ार सालों में भारत में कुछ ऐसा परिदृश्य रहा कि विदेशी आक्रांताओं, अंग्रेजों और लुटेरों ने भारत को जी भर लूटा। अंग्रेजों ने जब भारत को आज़ाद किया था तब गांधी जी ने पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) के बीच एक आठ किमी चौड़े गलियारे के प्रस्ताव को भी स्वीकृति दे दी थी। अब जऱा कल्पना कीजिये अगर वह गलियारा बन जाता तो पाकिस्तान भारत से अलग नहीं होता बल्कि भारत उत्तर और दक्षिण में टूटकर बिखर जाता। यह वह दौर था जब भारत में हिन्दू और हिन्दुत्व शब्द सांप्रदायिक कहकर तिरस्कृत कर दिया जाता था। माथे पर टीका लगा होना एक अभिशाप बन गया था। देवी देवताओं की पूजा आडंबर के रूप में प्रचारित की जाती थी। सनातन और सनातन के अनुयायियों को निशाने पर लिया जाता था। चूंकि 1947 की आजादी के बाद समाज को जागृत होने में 2014 तक का समय लग गया इसलिए समाज को भी इस बात को अब समझना है कि विरोधी समाज जैसा होता है हमें भी उसके हिसाब से ढलना होता है। यदि हम वसुधैव कुटुंबकम को मानते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि अन्य आक्रामक समाज भी इस बात को स्वीकार करेगा। यदि हम किसी महान संस्कृति और गौरवशाली विरासत का प्रतिनिधित्व करते हैं तो हमें दूसरे से ये अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि उसकी संस्कृति और विचारधारा भी आदर्श होगी। यदि हम आदर्शवादी हैं तो हमें यह नहीं मानना चाहिए कि अन्य सभ्यताएं भी आदर्शवादी ही होंगी। दशकों या यूं कहें सैकड़ों सालों की ग़ुलामी के बाद हम अपनी मानसिक ग़ुलामी में इस तरह जकड़ते चले गए थे कि भारत पर पिछले 700 सालों से विदेशी आंक्रांताओं ने ही अपना वर्चस्व स्थापित रखा। इस दौरान हम सिर्फ खुद को लिबरल दिखाने की होड़ में कितना पीछे चले गए ये हमें स्वयं भी पता ही न चला। हम आदर्शवादी बनकर उस पर गर्व ही करते रह गये। और हमारे देश में छिपे गद्दार और विदेशी ताक़तें हमारे आदर्शवाद के द्वारा हमारे कमजोर होने का इंतज़ार करती रहीं।

जबकी वास्तविकता यह है कि युद्ध चाहें वैचारिक हो या शस्त्रों से। लड़ाई तभी जीती जाती है जब आपके हथियार सामने वाले से बेहतर हो। हमें गांधी जी के माध्यम से ‘अहिंसा परमो धर्म:’ तो याद करा दिया गया किन्तु इस श्लोक का आगे का भाग ‘धर्म हिंसा तथैव च’ नहीं बताया गया। इस अधूरेपन का दुष्प्रभाव भारत के हिन्दू समाज की मानसिकता पर पड़ा। वह अहिंसा के माध्यम से कायरता के मार्ग पर आगे बढ़ गया। धीरे धीरे भारत का हिन्दू समाज कायर होता चला गया। किसी भी आक्रमण को हम अपनी नियति मानते चले गए। शत्रु के वध और उसके समूल नाश के स्थान पर अहिंसा की माला जपते रहे। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि चाहें भारत के आंतरिक स्तर पर हो या भारत के बाहर, अत्याचार को सहना हमने अपनी नियति मान लिया। हमारे राष्ट्राध्यक्ष इधर से बस लेकर जाते थे तो उधर से कारगिल का प्रसाद मिलता था। 2014 के पहले यदि किसी बौद्धिक को इस बात का एहसास भी होता था तो भी वह स्वयं के सम्बन्धों के खराब न होने की बात कहकर उस बात से किनारे कर जाता था या खामोश हो जाता था। जबकि भारत विरोधी गतिविधियों में लिप्त वर्ग अपनी शर्तों और अपने नियमों में कोई ढील न देकर अपने एजेंडे पर चलते रहते थे। इस तरह भारत में अंदुरुनी और बाहरी दोनों तरफ से सांस्कृतिक और षड्यंत्रकारी हमले लगातार होते रहते थे। सेकुलर शब्द की आड़ में राष्ट्रवाद को सांप्रदायिक कह कर चिढ़ाया जाता था। अल्पसंख्यकों को अलग से संवैधानिक प्रावधान देकर बहुसंख्यकों की भावनाओं को आज तक आहत किया जाता है। अब सामान्य बुद्धि से भी देखा जाये तो जब भारत में सब नागरिक समान हैं तो अल्पसंख्यकों को अलग से प्रावधान देने की आवश्यकता ही क्या है। अनु0-29, 30 के द्वारा किसी सामान्य अल्पसंखयक को फायदा नहीं होता है बल्कि इसकी आड़ में उनके ठेकेदार लाभ लेते हैं। जामिया और एएमयू जैसे संस्थान जो अपनी बेहतर शिक्षा के लिए जाने जाते हैं उनमें भी भारत विरोधी खेमे को हवा मिलना बेहद चिंताजनक और गैर जिम्मेदार रवैया है।

सेकुलर भारत में अलग से अल्पसंख्यकों को अधिकार क्यों 

एक तरफ तो भारत को सेकुलर देश कहा जाता है तो दूसरी तरफ धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यकों को अलग से अधिकार दिये जाते हैं। यह विरोधाभासी बातें ही भारत के अंदर बहुसंख्यकों में रोष पैदा करती हैं। भारत के संविधान में एक ओर समानता का अधिकार है तो दूसरी ओर अल्पसंख्यक शब्द समानता के अधिकार के साथ विरोधाभास पैदा करता है। अनु0-29,30 के द्वारा अल्पसंख्यकों को अलग से अधिकार देने से उनका बहुसंख्यकों के साथ समावेश होने की भावना आहत होती है। इसके साथ साथ भारत के संविधान में अल्पसंख्यकों के लिए अलग से प्रावधान तो दिये गए हैं किन्तु अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है। 1992 तक देश में अल्पसंख्यक विषय पर संवैधानिक रूप से सामान्य प्रक्रिया चल रही थी। 1992 में पहली बार तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इस विषय को उभार दिया और अल्पसंख्यक आयोग बनाने की प्रक्रिया आरंभ कर दी। कानून बना दिया गया। पर इतने महत्वपूर्ण विषय पर न तो कोई विस्तृत चर्चा की गयी न ही अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित किया गया। इस कानून में सिर्फ यह प्रावधान कर दिया गया कि अल्पसंख्यक को निर्धारित करना केंद्र सरकार के मापदण्डों के अनुसार होगा। केंद्र सरकार किस मापदंड के अनुसार अल्पसंख्यक को परिभाषित करेगी यह इसमें स्पष्ट नहीं किया गया। कितनी प्रतिशत आबादी होने पर कोई वर्ग अल्पसंख्यक माना जाएगा यह भी इस कानून में स्पष्ट नहीं है। इस तरह से राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का गठन कर दिया गया जिसकी धारा-2 में प्रदत्त असीमित शक्तियों का उपयोग करते हुये तत्कालीन केंद्र सरकार ने 23 अक्तूबर 1993 को मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध एवं पारसी को अल्पसंख्यक समुदाय घोषित कर दिया। अब बिना किसी शोध, जनगणना, विस्तृत चर्चा, राष्ट्रीय विमर्श और विधि विशेषज्ञों की सलाह के इसका आधार क्या था यह आज भी समझ से परे हैं।

इसके बाद वही हुआ जिसकी उम्मीद थी। अन्य धर्म के लोग अल्पसंख्यक का दर्जा पाने के लिए हाथ पैर मारने लगे। जैन समुदाय ने इसके लिए न्यायलय में याचिका दायर कर दी। 2002 में बॉम्बे उच्च न्यायालय से जैन समुदाय को निराशा हाथ लगी। इसके बाद 11 न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा कि अल्पसंख्यक की पहचान प्रदेश स्तर पर होनी चाहिए। 2005 में उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने जैन समुदाय को अल्पसंख्यक का दर्जा देने से मना कर दिया। न्यायालय का तर्क इस बारे में रोचक रहा। ”देश का बंटवारा एक बार पहले ही धर्म के आधार पर हो चुका है और भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है, इसलिए अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की अवधारणा ठीक नहीं है।’’ न्यायालय ने हालांकि, अल्पसंख्यक शब्द को खारिज नहीं किया किन्तु सरकार से आशा की कि वह धीरे धीरे अपनी नीतियों से अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के बीच का फासला अवश्य खत्म कर देगी। इस फैसले के एक साल के बाद ही जो काम पहले समाज कल्याण मंत्रालय के अधीन होता था, उसके लिए अलग से अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय बना दिया गया। यानि कि अल्पसंख्यकों के नाम पर मुस्लिम तुष्टीकरण का कोई बहाना कांग्रेस सरकारों ने नहीं छोड़ा। अब अगर इसके विपरीत अगर मोदी सरकार के 2014 के कार्यकाल को देखें तो उसमें पहले उन्होंने प्रशासनिक सुधार किए, बाद में नीतिगत कार्यों से जनता को जोड़ा। इन नीतियों का फायदा अल्पसंख्यकों को स्वत: ही मिलता चला गया। इसका प्रभाव 2019 में देखने को मिला। मोदी के खिलाफ आक्रोश भरने के बावजूद मुस्लिम अल्पसंख्यक मोदी के खिलाफ तो रहा किन्तु उसने ध्रुवीकृत होकर मोदी के खिलाफ वोट नहीं किया। वह विपक्ष की भ्रमित राजनीति और दिशाहीन रणनीति के कारण उस पर भरोसा ही नहीं कर पाया।

धड़ाधड़ फैसलों और ताबड़तोड़ अमल से आक्रोशित विपक्ष

वर्तमान में विपक्ष इस बात से आहत नहीं है कि हिन्दुत्व मजबूत हो रहा है बल्कि इस बात से ज़्यादा आहत है कि अल्पसंख्यक वोटों में एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति बन गयी है। सीएए के माध्यम से विपक्ष अब अपने वजूद की आंखिरी लड़ाई लड़ रहा है। इसको ऐसे समझा जा सकता है। अपने पहले कार्यकाल में मोदी ने प्रशासनिक कार्य ज़्यादा किए। 37 करोड़ जनधन खाते खुले। खातों को मोबाइल और आधार से जोड़ा गया। सब्सिडी का पैसा सीधे खाते में आने लगा। प्रधानमंत्री आवास योजना से लोगों को घर दिये। उज्ज्वला योजना से गैस मिली। नौ करोड़ लोगों को शौचालय मिले। बिजली मिली। दस करोड़ परिवारों को स्वास्थ्य बीमा और किसान सम्मान निधि दी गयी। इन कामों से जनता को सीधे लाभ मिला और वह सीधे मोदी से जुड़ गयी। प्रशासनिक भ्रष्टाचार कम होने से जनता तक योजनाएं भी पहुंची। इस बीच नोटबंदी और जीएसटी से विपक्ष को मोदी को भेदने की कुछ आस लगी किन्तु नोटबंदी को गरीबों ने और जीएसटी को आम व्यापारी ने हाथों हाथ लिया। विपक्ष यहां भी सेंध लगाने में नाकामयाब रहा। अब इस प्लेटफॉर्म को सेट करने के बाद दूसरे कार्यकाल में प्रचंड बहुमत के बाद सरकार ने एजेंडे पर काम शुरू किया तो उन विषयों को भी निपटा दिया जिन पर हाथ डालने की अपेक्षा भी विपक्ष नहीं कर रहा था। अपने शुरुआती सात महीने में ही तीन तलाक, 35ए, 370 पर सरकार ने काम कर दिया। राम मंदिर का निर्णय न्यायालय से आ गया। इसके बाद सीएए आ गया। विपक्ष को इस बात की चिंता नहीं है कि सीएए से उसे खतरा है। विपक्ष इस बात से ज़्यादा विचलित है कि सरकार का अगला कदम अब क्या होगा। यह जनसंख्या नियंत्रण बिल होगा या समान नागरिक संहिता। यह पाक अधिक्रांत कश्मीर का विषय होगा या चीन अधिक्रांत लद्दाख। चूंकि, मोदी सरकार का हर फैसला चुनाव के आधार पर न होकर राष्ट्रप्रथम के आधार पर हो रहा है इसलिए विपक्ष पूरी तरह हताश है। मोदी अपनी जनता के बीच स्थायी भाव के रूप में पैठ बनाते चले जा रहे हैं। उनके हर फैसले से हिन्दुत्व लगातार मजबूत होता चला जा रहा है।

दूसरी तरफ विपक्ष 2014 के प्रारम्भ में मोदी से स्वयं को सिर्फ सतही तौर पर ही पस्त ही मान रहा था। उसको लग रहा था कि 2014 की जीत के बाद पांच साल में ही राष्ट्रवाद की हवा निकल जाएगी। पर ऐसा नहीं हुया। इसलिए विपक्ष पहले हताश हुआ, फिर नाराज़ हुआ, फिर उसे मोदी से नफरत हुयी और अब अमित शाह के आने के बाद उसमें आक्रोश आ गया है। मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करने वाले दल मुस्लिम वोट बैंक को अपनी वीटो पावर माना करते थे। आज समय बदल गया है। हिन्दुत्व और हिन्दू वोट बैंक वीटो पावर बन गया है। और विपक्षी मुस्लिम वोटों के शिकार के लिए आपस में लड़ रहे हैं। सीएए के नाम पर आखिरी लड़ाई लडऩे के बाद वामपंथी खेमा खीज में क्या कदम उठाएगा इसके लिए अब उनके अगले कदम का इंतज़ार ही किया जा सकता है।

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अंबेडकर का इस्लाम बनाम हिन्दुफोबिआ का शिकार हिन्दुत्व

बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर अपनी एक 1940 में लिखी पुस्तक ‘पाकिस्तान ओर पार्टीशन ऑफ़ इंडिया’ में कुछ रोचक तथ्य /विचार रखते हैं। वे बिलकुल साफ़ लिखते हैं कि इस्लाम बात भाईचारे की करते हैं किन्तु असल में वह सिर्फ मुसलमानों के भाईचारे तक सीमित होते हैं। वह (इस्लाम धर्म ) एक कारपोरेशन की तरह है और जो लोग इस कारपोरेशन की बाहर है, उन्हें दुश्मन माना जाता है। अब चाहे वह कोई भी बंधु या पड़ोसी इत्यादि। इस्लाम कभी भी एक मुस्लिम को भारत को अपना मुल्क मानने की इजाजत नहीं दे सकता है क्योंकि उसकी हिदायत ही ऐसी है। बाबा साहेब ने अपने इस 14 अध्याय के चैप्टर में इस्लाम के बारे में जो लिखा है उस पर अगर आज के बुद्धिजीवी वर्ग या मीडिया खुलकर बात करे तो शायद इतिहास के सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ  ‘इस्लामॉफ़ोब’ (इस्लामॉफ़ोबिया को बढ़ावा देने वाला) कहलायेंगे।

जिस तरह से हमारे तथाकथित इतिहासकारों, शैक्षणिक संस्थानों या मीडिया के वर्ग ने बाबा साहेब के उस पक्ष को उजागर किया जिसमें हिन्दू धर्म की खामियों का जि़क्र है। उस विचार को बार बार हमारे बीच में उजागर किया किन्तु इस्लाम पर लिखे उनके विचारों को दबा लिया गया। उनका मक़सद दुराग्रहपूर्ण था कि बाबा साहेब की नजऱों में केवल हिन्दू धर्म ही गलत रहा है। यही है एक तरह का हिन्दूफोबिया। इस पर भी बाबा साहेब स्वयं उस वक्त के प्रख्यात ईसाई मीडिया हाउस ‘मायो’ का नाम लेकर लिखते हैं कि ”मुझे ताज्जुब है कि ऐसी प्रतिष्ठित पत्रिकाएं मेरे लेखो में से सिर्फ एक भाग का उल्लेख करती हैं जो हिन्दू धर्म पर है परन्तु इस्लाम पर जो कुछ भी लिखा उस पर कोई उल्लेख नहीं करती। ऐसी परिस्थिति काफी चिंताजनक है क्योंकि इससे ऐसा प्रतीत होगा कि मेरे विचारों में केवल हिन्दू समाज में बुराइया हैं। जबकि सत्य इसके विपरीत है, हिन्दू समाज में खामियां हैं, बुराइयां तो इस्लाम में हैं। और ये बुराइयां ही देश के लिए ज्यादा चिंताजनक हैं।’’ शायद, बाबा साहेब ने समाज के उच्च स्तर पर बैठे लोगों में हिन्दूफोबिया के जहर को और देश तोडऩे वाली ताकतों के मंसूबों को बहुत पहले भाप लिया था। शायद, यही वजह रही कि जब उन्होंने बुद्ध धर्म को अपनाया तो वीर सावरकर जी ने उनकी निंदा करते हुए कहा की ”राष्ट्र की अस्मिता हिन्दुओं से है, ये आप (बाबा साहेब) भी जानते हैं। अगर राष्ट्र हित में हिन्दू समाज को सुधारना है तो उसके अंदर से कीजिये, भगोड़ा होकर नहीं। न भूले कि आपको इस स्तर तक लाने वाला भी एक ब्राह्मण ही है।’’

आज जब भी दुनिया के किसी कोने में कहीं आतंकवादी हमले होते हैं तो दुनियाभर के वामपंथी एकजुट होकर कहने लगते हैं कि कि इसे इस्लाम से जोड़कर न देखे। अगर कहीं कोई नेता या मीडिया इसे ‘इस्लामिक टेरर’ कहते हैं तो सब उसे ‘इस्लामॉफ़ोबिया’ का नाम देते हैं। यानि कि एक धर्म के नाम पर डर फैलाना। या यूं दिखाना कि खुद धर्म के आधार में बुराई है। किसी भी हिंसक घटना को उस धर्म के आधार से जोड़ कर दुष्प्रचार करना। जैसे कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के बारे में कहते हैं या हमारे देश के कई नेता के बारे में ये मीडिया कहते मिलती है कि ये ‘इस्लामॉफ़ोबिक’ है। हालांकि वही ‘वामपंथी पत्रकार’ एक सम्पूर्ण ‘वामपंथी देश’ चीन के राष्ट्रपति ‘शी जिन पिंग’ के बारे में कुछ नहीं कहते। जब वो लाखों उइघुर मुसलमानों को डिटेंशन कैंप में रख देता है। बस उनके धर्म के आधार पर न कोई बम धमाका, न किसी प्रकार का हमला। खैर ये तो वामपंथियों के दोहरे चेहरे का इतिहास रहा है।  जिस तरह कई आतंकवादी/हिंसक घटनाओं को इस्लाम से जोड़कर एक डर का माहौल बनाए जाने को ‘इस्लामॉफ़ोबिया’ बताया जाता है, ठीक उसी तरह भारत में कई दशकों से कुछ ताकतें ‘हिन्दूफोबिया’ पर निरंतर काम कर रही हैं। अफ़सोसजनक यह है कि इस विषय के बारे में न जनता को पता है न ही कोई मुख्यधारा की मीडिया या बुद्धिजीवी वर्ग इस पर चर्चा करते हैं। उदाहरण के तौर पर अगर आप पिछले 2 से 3 दशक की फिल्म, धारावाहिक, प्रायोजन या प्रचार किसी भी चीज को उठाकर देखिये तो आप पाएंगे कि सबमें जो नकारात्मक चरित्र/खलनायक है वो कोई न कोई संत, पंडित, तिलकधारी या कोई शुक्ला, तिवारी, मिश्रा अर्थात कोई ब्राह्मण वर्ग के ही लोग होते हैं। मतलब पिछले कई वर्षों से फिल्मों और मीडिया के माध्यम से हमारे अचेतन में ये डाला गया है कि हमारे समाज में कोई अगर खलनायक है तो वो कोई न कोई ब्राह्मण या हिन्दू संत ही है।

इसी हिन्दूफोबिया की साजि़श के तहत आप देखते हैं कि कैसे 26/11 हमले को हिन्दू आतंकवाद से जोडऩे की साजि़श थी।  ठीक उसके बाद कुछ हिन्दू संत-साध्वियों को पकड़ कर हिन्दू आतंकवाद का प्रसंग बनाने की कोशिश की गयी। नयी सरकार आने का एक असर तो हुआ कि ये हिन्दूफोबिया का सच आम जनमानस के बीच आने लगा है। हालांकि इसके द्वारा हुये ध्रुवीकरण से सबसे ज्यादा फायदा भी नयी सरकार को ही है। पर यह बात समझना अत्यंत जरूरी है कि ये लड़ाई दलगत राजनीति के परे है और दशकों से चलता आ रहा है। और इस पर राजनीति से परे होकर खुलकर मुखर होने की आवश्यकता है। वामपंथी इतिहासकार, फिल्मकार, पत्रकार सबको सामने से चुनौती देनी होगी और पीठ पीछे छुपे ‘हिन्दूफोबिया’ की लड़ाई को खुले में लाना होगा।

-मनीष मिश्र

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समान नागरिक संहिता से मजबूत होगा राष्ट्र

धर्म के अंदर आडंबर और कुप्रथाओं का चलन बेहद पुराना है। संविधान की छत्र-छाया में विभिन्न क़ानूनों के द्वारा देश में आडंबरों और कुप्रथाओं का अंत हुआ है। हिन्दू धर्म के अंदर भी कई कुप्रथाएं रीति रिवाजों के भेष में पनप चुकी थी। सती प्रथा, बाल विवाह, बहू विवाह जैसी प्रथाएं समाज में विघटन पैदा करने वाली थी। 1871 में राजा राममोहन राय और लॉर्ड विलियम बेंटिक के संयुक्त प्रयासों से हिन्दू समाज की इस कुरीति का अंत हुआ। इसको भारतीय दंड संहिता की धारा 306 (आत्महत्या के लिये उकसाने का दुष्प्रेरण) के अंतर्गत रखा गया। प्रारम्भ में इस कदम का बहुत विरोध हुआ। तत्कालीन धर्म के ठेकेदारों ने बहुत हो-हल्ला भी किया। पर महिलाओं के एक बड़े वर्ग ने इसे खुले दिल से सराहा। 1958 में राजस्थान उच्च न्यायालय ने तेजसिंह वाद में कहा कि सती के लिये उकसाने वाले को पांच साल के कठोर कारावास की सज़ा दी जाये। इसके बाद सरकार ने सती (निरोधक) कानून,1987 बनाकर इस पर पूरी तरह से रोक लगा दी। अब हिन्दू धर्म में सती प्रथा सुनाई भी नहीं देती हैं। देश के युवाओं को शायद पता भी न हो कि ऐसी कोई कुप्रथा समाज में थीं भी। आखिर जीवन जीने के अधिकार से बड़ा अधिकार किसी महिला के लिए भला क्या हो सकता है?

समय एवं काल का प्रभाव हमारे समाज पर हमेशा से पड़ता रहा है। समाज भी अब पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति से अधिक प्रभावित हुआ है। ऐसे में पाश्चात्य सभ्यता के कुछ दुर्गुण भी सभी धर्म को प्रभावित कर रहे हैं। इन दुर्गुणों से निपटने के लिए और वर्तमान परिस्थितियों से सामंजस्य बैठाने में माननीय न्यायालयों के निर्णय बेहद प्रभावी साबित होते रहे हैं। संतोष कुमारी बनाम सुरजीत सिंह-1967, पटना-20 के वाद में पहली पत्नी की सहमति के बावजूद दूसरे विवाह को न्यायालय ने अवैध माना। न्यायालय का मानना था कि एक पत्नी के जीवित रहते दूसरी महिला से विवाह गैर कानूनी है चाहें प्रथम पत्नी ने इसके लिए स्वीकृति ही क्यों न दे दी हो। न्यायालय का यह निर्णय हिन्दू महिलाओं के अधिकारों के संदर्भ में महत्वपूर्ण निर्णय है। इसी क्रम में राजीव गांधी के कार्यकाल में शाहबानो के वाद में माननीय उच्चतम न्यायालय ने मुस्लिम महिलाओं को तलाक होने पर गुज़ारे भत्ते का प्रावधान किया था। 125-सीआरपीसी के अंतर्गत न्यायालय का यह निर्णय मुस्लिम महिला सशक्तिकरण की तरफ बड़ा कदम था। किन्तु तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी तब कट्टरवादी मौलानाओं के दबाव में आ गए और न्यायालय के इस निर्णय को कानून बनाकर पलट दिया। इसके बाद सरला जैन के वाद में उच्चतम न्यायालय ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव को निर्देशित किया कि वह समान नागरिक संहिता को लागू करें तो उन्होंने भी उस समय चूक कर दी। अभी कुछ समय पूर्व जब तीन तलाक के विषय पर भी देश में खूब हंगामा हुआ किन्तु उच्चतम न्यायालय के फैसले ने धर्म के ठेकेदारों की नहीं चलने दी।

अन्य आडंबर की बात करें तो हिन्दू धर्म में बाल विवाह और बहुविवाह प्रचलन में थे। कम उम्र की लड़कियों की शादी कर दी जाती थीं। उस उम्र में जब वह शादी संस्कार का अर्थ भी नहीं समझती होती थीं। पुरुषों में एक से ज़्यादा पत्नी रखने की प्रथा भी चली आ रही थी। 1956 में फ़ैमिली एक्ट के अंतर्गत आधा दर्जन कानून भारत की संवैधानिक व्यवस्था ने पारित किये और इन दोनों कुप्रथाओं पर रोक लगा दी। आज न तो 18 साल से कम उम्र की लड़कियों की शादी की प्रथा रह गयी है और न ही एक पत्नी के जीवित रहते दूसरी से शादी की। इन कुप्रथाओं का अंत हिन्दू धर्म से जुड़े पंडित, पुजारियों या धर्म के ठेकेदारों ने नहीं किया, बल्कि भारतीय संविधान के अंतर्गत बने कानूनों ने किया। कुछ समय के लिये ठेकेदारों के छद्म स्वाभिमान को ठेस तो पहुंची किन्तु जनता ने इसे खुले दिल से स्वीकारा। इस तरह कानूनी प्रावधानों के द्वारा धर्म के बहुत से आडंबरों को दूर किया जा सकता है। किन्तु एक बड़ा दुर्भाग्य देखिये कि आज भी भारत में समान नागरिक संहिता लागू नहीं है। मुस्लिम धर्म के लोगों पर कानूनी प्रावधानों के स्थान पर शरीयत के प्रावधान लागू होते हैं। शायद इसलिए ही मुस्लिम धर्म में आडंबरों और मुल्ला-मौलवियों पर निर्भरता ज़्यादा दिखाई देती है। वह जैसी व्याख्या कुरान की कर देते हैं वैसी ही उनकी जनता को माननी होती है। कई बार तो यह मुल्ला-मौलवी ऐसी व्याख्याएं कर देते हैं कि उनके फतवे जमीनी सच्चाई से परे लगने लगते हैं।

– अमित त्यागी

(लेखक संवैधानिक विषयों के जानकार हैं )

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कट्टर हिन्दुत्व और मजहबी कट्टरता के विरोधी थे लोहिया

हिन्दू धर्म में कभी एक सिद्धांत नहीं रहा, यह अनेकानेक सिद्धांतों का मिश्रण रहा है, हम दूसरे धर्मों की तरह न थे न हो सकते हैं, हम उदारवादी हैं। हम कट्टर और हिंसक न थे और न हो सकते हैं। देश कई दशकों से उदार हिंदूवादी सोच और कट्टर हिंदुत्व की आपसी लड़ाई में झूलता आ रहा है, लेकिन देश में एकता कायम करने में हमेशा उदारवादी हिन्दू ही सफल रहे हैं।  कट्टरवाद और हिंसक वृत्ति कभी सफल नहीं हो सकी। लोहिया खुद को आधा स्त्री और आधा पुरुष के रूप में देखते थे। ‘माक्र्स, गांधी एंड सोशलिज्म’ की भूमिका में उन्होंने कहा है कि लैंगिक असमानता ही हर अन्याय की जड़ में है। उन्होंने देखा था कि सामूहिक जीवन में स्त्रियों की भागीदारी बेहद सीमित है, यहां तक कि रूस और अमेरिका जैसे देशों में भी, जो लैंगिक समानता हासिल करने का दावा करते हैं। लोहिया को पक्का यकीन था कि जाति और लैंगिक आधार पर भारत में जो अलगाव हुआ वही मुख्य रूप से इसके पतन के लिए जिम्मेदार है। गरीबी के खिलाफ कोई युद्ध भी तब तक बेमानी है जब तक कि इन दो प्रमुख सामाजिक वर्गीकरणों के खिलाफ जागरूक होकर लगातार संघर्ष नहीं किया जाता। लोहिया ने हिंदू धर्म में महिलाओं को देवी के तौर पर पूजे जाने के खोखले प्रतीकों को भी बेनकाब किया। कोहिया देवी के रूप में महिलाओं की पूजा करने को सतही मानते थे। लोहिया हालांकि नास्तिक थे, लेकिन धर्म के खिलाफ नहीं थे उन्होंने धर्म और राजनीति के बीच समरसता पर जोर दिया। उनका मानना था कि ‘धर्म एक दीर्घकालिक राजनीति है और राजनीति एक अल्पकालिक धर्म’। वे यह मानते थे कि धर्म का दायित्व ज्यादा से ज्यादा अच्छाइयों को जन्म देना है, जबकि राजनीति को बुराइयों से लडऩे के लिए आगे आना चाहिए।

वे भारत में धर्म की स्थिति से इसलिए नाखुश थे कि वह अब भी पंडितों और मुल्लाओं के हाथ में है जो निचले तबके के लोगों को अपने अधीन बनाये रखने के लिए उसका इस्तेमाल करते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि बहुत से देशों में धार्मिक सुधार आंदोलन चले और उन्होंने धर्म की भूमिका को निजी दायरे तक सीमित कर दिया। लोहिया चाहते थे कि भारतीय जनमानस भगवान राम या मोहम्मद साहब की आलोचना सुनने का धैर्य रखे। उनकी राय में आलोचना के मायने रक्त बहाना या किताबों को जला देना नहीं होना चाहिए। उन्होंने ‘गिल्टी मेन ऑफ इंडियाज पार्टीशन’ की भूमिका में लिखा कि जो मीठी भावुकता धार्मिक विश्वासों को चिह्नित करती है, उसकी जगह धार्मिक सिद्धांतों और विश्वासों के उत्तेजना-रहित समीक्षा को तरजीह दी जानी चाहिए ताकि इसका आंकलन किया जा सके कि ये धार्मिक विश्वास और सिद्धांत बनाए रखने लायक हैं या नहीं। उनका कहना था कि ऊंची जातियां देश के प्रमुख क्षेत्रों जैसे व्यवसाय, सेना, प्रशासनिक सेवा और राजनीति में 80 फीसद पदों पर कब्जा किये हुए हैं। लोहिया उन प्रचलित ऐतिहासिक विवरणों से भी सहमत नहीं थे जिनमें अंदरूनी झगड़ों और साजिशों को भारत में विदेशी साम्राज्य का ख़ास कारण बताया जाता था। उनका मानना था कि एकता का न होना प्रमुख वजह नहीं थी, बल्कि भारत पर हुए आक्रमणों और उनके आगे घुटने टेकने की वजह जाति ही रही है।

-डॉ. स्वप्निल यादव

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अन्य धर्मों के लोगों के धार्मिक समर्पण से सीख लें हिन्दू

जब मैं किसी मुस्लिम परिवार के पांच साल के बच्चे को भी बाक़ायदा नमाज़ पढ़ते देखता हूं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। मुस्लिम परिवारों की ये अच्छी चीज़ है कि वो अपना धर्म और अपने संस्कार अपनी अगली पीढ़ी में ज़रूर देते हैं। कुछ पुचकारकर तो कुछ डराकर, लेकिन उनकी नींव में अपने बेसिक संस्कार गहरे घुसे होते हैं। यही ख़ूबसूरती सिखों में भी है। एक बार छुटपन में मैंने एक सरदार का जूड़ा पकड़ लिया था। उसने मुझे उसी वक्त तेज़ आवाज़ में न सिर्फ समझाया ही नहीं, धमकाया भी था। तब बुरा लगा था, लेकिन आज याद करता हूं तो अच्छा लगता है। हिन्दू धर्म चाहें कितना ही अपने पुराने होने का दावा कर ले, पर इसका प्रभाव अब सिर्फ सरनेम तक सीमित होता जा रहा है। मैं अक्सर देखता हूं कि मज़ाक में लोग किसी ब्राह्मण की चुटिया खींच देते हैं। वो हंस देता है। एक मां आरती कर रही होती है, उसका बेटा जल्दी में प्रसाद छोड़ जाता है, लड़का कूल-डूड है, उसे इतना ज्ञान है कि प्रसाद गैरज़रूरी है। बेटी इसलिए प्रसाद नहीं खाती कि उसमें कैलोरीज़ ज़्यादा है, उसे अपनी फिगर की चिंता है। छत पर खड़े अंकल जब सूर्य को जल चढ़ाते हैं तो ‘कूल लौंडे’ हंसते हैं।

दो वक्त पूजा करने वाले को हम सहज ही मान लेते हैं कि साला दो नंबर का पैसा कमाता होगा, इसीलिए इतना अंधविश्वास करता है। ‘राम-राम जपना, पराया माल अपना’ ये तो फिल्मों में भी सुना है। इस पर मां टालती हैं ‘अरे आज की जेनरेशन है जी, क्या कह सकते हैं, मॉडर्न बन रहे हैं’। पिताजी खीज के बचते हैं ‘ये तो हैं ही ऐसे, इनके मुंह कौन लगे’। नतीजतन बच्चों का पूजा के वक्त हाजिऱ होना मात्र दीपावली तक सीमित रह जाता है। यही बच्चे जब अपने हमउम्रों को हर शनिवार गुरुद्वारे में मत्था टेकते या हर शुक्रवार विधिवत नमाज़ पढ़ते या हर सन्डे चर्च में मोमबत्ती जलाते देखते हैं तो बहुत फेसिनेट होते हैं। सोचते हैं ये है असली गॉड, मम्मी तो यूंही थाली घुमाती रहती थी। अब क्योंकि धर्म बदलना तो पॉसिबल नहीं, इसलिए मन ही मन खुद को नास्तिक मान लेते हैं। शायद हिन्दू अच्छे से प्रोमोट नहीं कर पाए। शायद उन्हें कभी ज़रूरत नहीं महसूस हुई। शायद आपसी वर्णों की मारामारी में रीतिरिवाज और पूजा पाठ ‘झेलना’ सौदा बन गया। वरना, सूरज को जल चढ़ाना सुबह जल्दी उठने की वजह ले आता है। सुबह पूजा करना नहाने का बहाना बन जाता है और मंदिर घर में रखा हो तो घर साफ सुथरा रखने का कारण बना रहता है। घण्टी बजने से जो ध्वनि होती है वो मन शांत करने में मदद करती है तो आरती गाने से कॉन्फिडेंस लेवल बढ़ता है। हनुमान चालीसा तो डर को भगाने और शक्ति संचार करने के लिए सर्वोत्तम है। सुबह टीका लगा लो तो ललाट चमक उठता है। प्रसाद में मीठा खाना तो शुभ होता है भई, टीवी में एड नहीं देखते?

संस्कार घर से शुरु होते हैं। जब घर के बड़े ही आपको अपने संस्कारों के बारे में नहीं समझाते तो आप इधर-उधर भटकते ही हैं जो कि बुरा नहीं, भटकना भी ज़रूरी है। लेकिन इस भटकन में जब आपको कोई कुछ ग़लत समझा जाता है तो आप भूल जाते हो कि आप उस शिवलिंग का मज़ाक बना रहे हो जिसपर आपकी मां हर सोमवार जल चढ़ाती है। लेकिन मैं किसी को बदल नहीं सकता। मैं किसी के ऊपर कुछ थोपना नहीं चाहता। मैं गुरुद्वारे भी जाता हूं। चर्च भी गया हूं। कभी किसी धर्म का मज़ाक नहीं उड़ाया है, हर धर्म के रीतिरिवाज़ पर मैं तार्किक बहस कर सकता हूं लेकिन किसी को भी इतनी छूट नहीं देता हूं कि मेरे सामने शिवलिंग का मज़ाक बनाये। कम से कम मेरे लिए तो हिन्दू होना कोई शर्म की बात नहीं रही। आपके लिए हो भी तो मज़ाक न बनाएं, चाहें जिसकी आराधना करें लेकिन मूर्तियों को धिक्कारें नहीं। हर हिन्दू के लिए विचार मंत्र है। यत्र धर्मस्य ततो जय:।

-मयंक मयूर

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राजनीति और राजनीतिज्ञों का मोहताज नहीं है हिन्दुत्व

यदि न  प्रणयेद्राजा  दण्डं दण्ड्येष्वतन्द्रित:।

शूले मत्स्यानिवापक्ष्यन्दुर्बलान्बलवत्तरा:।। (मनुस्मृति)

यदि राजा दण्डित किए जाने योग्य दुर्जनों के ऊपर दण्ड का प्रयोग नहीं करता है, तो बलशाली व्यक्ति दुर्बल लोगों को वैसे ही पकाएंगे जैसे शूल अथवा सींक की मदद से मछली पकाई जाती है । मनुस्मृति के इस श्लोक को ध्यान में रखते हुये आज की राजनीतिक व्यवस्था को देखते हैं। आज जब सीएए के विरोध के नाम पर जो अनावश्यक प्रदर्शन आदि हो रहे हैं तो विरोध प्रदर्शन करने वाले दुर्जन ही प्रतीत हो रहे हैं। जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हिंसक लोगों पर कार्यवाही करते हैं और सरकारी संपत्ति की वसूली का ऐलान करते हैं तब मनुस्मृति का यह श्लोक सार्थक हो जाता है। अब अगर आज की राजनीति और समाज की मानसिकता की तरफ देखा जाए तो न नेता जो हिंदुत्व के नाम पर चुनकर आये हैं न संत समाज सनातन संस्कृति हेतु अपेक्षित प्रसार और स्थापना का प्रयास कर रहे हैं। जबकि 2014 के बाद यह एक मौका था जब हिंदुत्व के नाम पर एक सरकार बनी थी तो हिंदुत्व के बहुत से जमीनी कार्य बिना राजनीतिक लाभ की सोच रखे ईमानदारी से किये जा सकते थे परंतु ऐसा न हुआ न होते दिख रहा है। हिंदुत्व अर्थात सनातन संस्कृति का पुन:?उद्भव राजनीति के सत्ता प्राप्ति के गणित के केवल प्रतीक मात्र निर्णयों से नहीं होगा अपितु उसको पूर्ण राजनैतिक इच्छाशक्ति से सनातनी जीवनपद्धति में लाना होगा, यदि देश के शिक्षा संस्थानों को स्कूल यानि इसाकुल की ईसाइयत भोगवादी शिक्षा के व्यवसायीकरण की मानसिकता से हटाकर गुरुकुल पद्दति पर लाना होगा, यदि छात्र छात्राएं वहां आधुनिक ज्ञान विज्ञान की शिक्षा के साथ, वेद उपनिषद, अष्टाध्यायी, गीता, आयुर्वेद, अपने महापुरुषों की गाथायें उनके द्वारा रचित संहिताएं पढ़ेंगे तो निश्चित एक जागृत हिंदुत्व अर्थात सनातन का पुन: उदय होगा। जैसे आचार्य चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य जैसे साधारण बालक को शिक्षा प्रदान की जिससे वह बालक महान प्रतापी राजा बना और भारत परम वैभव को प्राप्त हो विश्वगुरु बना। मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने इसी सनातनी संस्कृति और शिक्षा को ग्रहण कर अपने जीवन में पुरुषार्थ से अद्वितीय कार्य किये और श्रीराम के द्वारा समृद्ध और सुखमय राज्य की स्थापना के लिए तो ‘रामराज्य’ का उदाहरण आज भी देश और विदेश में दिया जाता है।

कश्यप ऋषि का कश्मीर 370 हटने के बाद भी सनातन स्थापित न कर पाया। वर्षों बाद आज भी कश्मीरी पण्डित शरणार्थी की तरह जीवन बिता रहे हैं, हालांकि मुस्लिम देशों में बुरी दशा में कट्टरपंथ की आग में जी रहे हिंदू शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता दी जा रही है, यह एक अच्छी पहल है।  परन्तु सरकार की इस पहल को राजनैतिक लाभ तक सीमित न रहने दे, सरकार केवल हिंदुत्व के प्रतीक मात्र कार्य को हिंदुत्व की स्थापना हो गई यह करके न दिखाए, अपितु अपनी संस्कृति, सभ्यता और धर्म रक्षा की स्थापना भी होती दिखनी चाहिये। भारत में रहने वाले प्रत्येक धर्म के लोगों को स्पष्ट निर्देश होना चाहिये कि आप अपनी अपनी धार्मिक मान्यताओं के पालन के लिये स्वतंत्र हैं, किसी भी नागरिक में जाति या धर्म के नाम पर कोई भेदभाव यह सरकार नहीं करेगी परंतु यदि कोई भी व्यक्ति धर्म की आड़ में कट्टरता या मजहबी जहर फैलाए तो उसकी सजा इतनी कड़ी हो कि वह और उसकी आने वाली पुश्तें तक हिम्मत न कर सके, परन्तु हो उल्टा रहा है। सरकार हिंदुत्व के निर्णय प्रतीक मात्र में लाकर और मुस्लिमों को उसका डर दिखा वोट का ध्रुवीकरण करती तो दिख रही है जिससे ओवैसी बन्धु जैसे कट्टरपंथियों और वामपंथियों को सत्ता प्राप्ति के लिये सांप्रदायिक जहर घोलने का खूब मौका मिल रहा है और साथ ही साथ टीवी चैनलों पर भी मौलानाओं और भगवाधारियों को बैठा बेफजूल की बहस करा खूब हवा दी जा रही है, आज की सरकार चूंकि हिंदुत्व की सरकार मानी जाती है, उसका यह इकबाल होना चाहिये कि चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान नेता हो अथवा साधारण इंसान, जो भी हो सांप्रदायिकता का जहर उगलने की हिम्मत न कर सके।

-अशित पाठक

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हिन्दुत्व विरोधी वामपंथी खो चुके हैं जनता की नब्ज़   

कम्युनिस्टों का इतिहास यही कहता है कि ये देश की संस्कृति को कभी आत्मसात नहीं कर सके। देश की संस्कृति को ये कभी प्रेरक नहीं मान सके। देश की संस्कृति को ये हमेशा अतिरंजित तौर पर देखते रहे। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि इन्होंने देश की संस्कृति को साम्प्रदायिकता का प्रतीक भी मान लिया। जब इन्होंने देश की संस्कृति को साम्प्रदायिकता का प्रतीक मान लिया तो फिर इनकी पूरी सक्रियता देश की संस्कृति को नष्ट करने, लांछित करने और अपमानित करने में ही जारी रही। कोई भी देश अपनी संस्कृति पर राज करता है, अपनी संस्कृति पर गर्व करता है, अपनी संस्कृति से निकले हुए महापुरुषों पर अभिमान करता है। ऐसी प्रवृत्तियां सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में है। फिर अपनी संस्कृति को ही नष्ट करने वालों, अपनी संस्कृति को ही लांछित करने वालों का साथ जनता कैसे देगी? भारत में भी ऐसा हुआ है। कम्युनिस्ट जरूर तेजी के साथ पनपे थे लेकिन अब ये धीरे-धीरे न केवल सीमित होते गए बल्कि अब तो इनके अस्तित्व पर ही संकट के बादल मंडरा रहे हैं। इनकी सत्ता तो अब सिर्फ केरल में है, अगले केरल विधानसभा के चुनाव में इनकी सत्ता वापस होगी या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता है। विश्वविद्यालयों और अन्य बुद्धिजीवी संगठनों में इनकी जो भी उपस्थिति बची है वे भी कोई देश के प्रेरक तत्व नहीं हैं।

हिन्दुत्व के विरोध का भूत इनके सिर पर नाचता रहता है। इस्लाम के कारण देश का विभाजन हुआ। इस्लाम को मानने वालों ने मजहब के नाम पर पाकिस्तान बनवाया था पर कम्युनिस्टों को इसमें कोई सांप्रदायिकता नजर नहीं आती है। हिन्दुत्व का विरोध इनका प्रिय खेल है। हर जगह इनके सिर पर हिन्दुत्व के विरोध का भूत नाचता रहता है। हिन्दुत्व का इन्होंने ऐसा अतिरंजित विरोध किया कि यह कदम ही कम्युनिस्टों के सर्वनाश का कारण बन गया। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा तक इनका सर्वनाश हो गया। हिन्दुत्व की आज जो शक्ति बढ़ी है, देश पर हिन्दुत्व जो राज कर रहा है उसके पीछे कम्युनिस्टों के अतिरंजित विरोध की ही शक्ति है। क्रिया की विपरीत प्रतिक्रिया होती है। हिन्दूवादियों में भी कम्युनिस्टों के खिलाफ प्रतिक्रिया हुई, हिन्दुओं का एकीकरण भाजपा के प्रति होता चला गया, जिसका सुखद परिणाम नरेन्द्र मोदी की फिर से सरकार है। अभी कम्युनिस्ट एन.आर.सी. जैसे तमाम प्रश्नों पर जनता की इच्छा को समझने के लिए तैयार नहीं हैं। अब तो कम्युनिस्ट सिर्फ विश्वविद्यालयों और तथाकथित एन.जी.ओ. छाप बुद्धिजीवियों के बीच ही सीमित हो गए हैं। विश्वविद्यालयों में भी इन्हें अब राष्ट्रवादी छात्र समूहों से चुनौती मिल रही है। टुकड़े-टुकड़े गिरोह के कारण भी इनकी छवि संदिग्ध बनी हुई है। इनकी विश्वसनीयता भी अब समाप्त होने के कगार पर खड़ी है। फिर भी कम्युनिस्ट अपने पाखंड से विरक्त होने के लिए तैयार नहीं हैं।

 

-राजेश कुमार

(लेखक वरिष्ठ प्रचारक हैं)

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समानता के अधिकार का विरोधाभासी अल्पसंख्यक शब्द

सबसे पहले न्यायालय की नजऱ में अल्पसंख्यक कौन हैं उस पर गौर करते हैं। केरल शिक्षा बिल, 1958 में उच्चतम न्यायालय ने मुद्दा उठाया कि अल्पसंख्यक समुदाय उसे माना जाएगा जिसकी आबादी 50 प्रतिशत से कम होगी। लेकिन यह नहीं कहा कि यह 50 प्रतिशत पूरे देश की आबादी है या किसी राज्य विशेष की। इस सवाल का जवाब गुरुनानक यूनिवर्सिटी, पंजाब के वाद में मिलता है। इसमें न्यायालय ने कहा कि भाषाई अल्पसंख्यक समुदाय को पूरे देश की आबादी के अनुपात में अल्पसंख्यक नहीं मानकर क्षेत्र के कानून के हिसाब से अल्पसंख्यक माना जाये। 2002 में टीएम पाई फ़ाउंडेशन मामले में उच्चतम न्यायालय की आठ न्यायाधीशों की पीठ ने निर्णय दिया कि कोई भी समुदाय जो उस राज्य की आबादी के पचास प्रतिशत से कम है उसे अल्पसंख्यक माना जाये। इस निर्णय के अनुसार नागालैंड, मिज़ोरम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, लक्षदीप, जम्मू कश्मीर और पंजाब में हिन्दू अल्पसंख्यक माने जाने चाहिए।

अब एक रोचक आंकड़ा देखिये जो सारी स्थिति को बयान कर देता है। लक्षदीप में 97 प्रतिशत, कश्मीर में 70 प्रतिशत, असम में 35 प्रतिशत, बंगाल में 28 प्रतिशत, केरल में 27 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 20 प्रतिशत और बिहार में लगभग 19 प्रतिशत मुसलमान हैं। इन प्रदेशों की यह बहुसंख्यक आबादी अल्पसंख्यक कही जाती है। इसके साथ ही ईसाई का आंकड़ा भी रोचक है। नागालैंड में 88 प्रतिशत, मिज़ोरम में 87 प्रतिशत, मेघालय में 75 प्रतिशत, मणिपुर में 42 प्रतिशत, अरुणाचल प्रदेश में 31 प्रतिशत, गोवा में 26 प्रतिशत, अंडमान और केरल में 21 प्रतिशत जनसंख्या ईसाई है। इतनी बड़ी आबादी होने के बावजूद इन सबको अल्पसंख्यक के नाम पर वह अधिकार मिल रहे हैं जो हिंदुओं को नहीं मिल रहे हैं। इसके विपरीत लक्षदीप में 2 प्रतिशत, मिज़ोरम में 3 प्रतिशत, नागालैंड में 8 प्रतिशत, मेघालय में 11 प्रतिशत होने के बावजूद हिन्दू बहुसंख्यक माने जाते हैं और अधिकारों से वंचित हैं। विडम्बना देखिये कि आज़ादी के सत्तर साल बाद भी हम अल्पसंख्यक को परिभाषित करने वाला फॉर्मूला नहीं ढूंढ पाये हैं। जब हर राज्य में अलग अलग धर्मों के लोग भिन्न भिन्न अनुपात में हैं तो अल्पसंख्यक की परिभाषा केंद्र सरकार के स्थान पर राज्य सरकार के द्वारा क्यों नहीं तय होती है। संविधान के द्वारा प्रदत्त समता का अधिकार तब महत्वहीन दिखाई देता है जब लक्षदीप का 97 प्रतिशत मुसलमान अल्पसंख्यक और 2 प्रतिशत हिन्दू बहुसंख्यक कहलाता है। कश्मीर में 70 प्रतिशत मुसलमान अल्पसंख्यक एवं 28 प्रतिशत हिन्दू बहुसंख्यक कहलाता है।

अब क्या इन आंकड़ों के बाद भी किसी और तथ्य को सार्वजनिक करने की आवश्यकता है? हर वह भावना जो बहुसंख्यक आबादी के मन में विभेद पैदा करती हो उस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। एक तरफ हम भारत के सेकुलर देश की बात करते हैं और दूसरी तरफ अल्पसंख्यक के द्वारा विभेद पैदा करते हैं। भारत में रहने वाले हर नागरिक को समान अधिकार मिलना उसका संवैधानिक अधिकार है। इस बात को संविधान के अनु0-32 में स्पष्ट कर दिया गया है। इसके बावजूद भारत में राजनीतिक व्यवस्था ने भारत की एकता और अखंडता को ताक पर रखते हुये अल्पसंख्यक शब्द और अल्पसंख्यकों का भरपूर राजनीतिक इस्तेमाल किया। क्या अल्पसंख्यक शब्द के राजनीतिक इस्तेमाल की पुष्टि उपयुक्त आंकड़ों से नहीं होती है? क्या इस तरह की असमानता और इस असमानता की पैरवी करने वालों से देश की एकता और अखंडता की भावना को खतरा नहीं है? आप स्वयं विचार करिए।

 

– अमित त्यागी (लेखक संवैधानिक मामलों के जानकार हैं। )

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मुगलों का सीमित शासन एवं अंग्रेजों की जातिगत भ्रांतियां 

विषय समझने के लिए मध्य प्रदेश की बात लेते हैं। ग्वालियर का राज्य लगभग इंग्लैंड के बराबर राज्य था और यहां मराठों का शासन था। उससे पूर्व तोमरों ,प्रतिहारों आदि का। इंदौर राज्य में भी मराठों का शासन था। रीवा में बघेल शासकों का शासन था और उसके पहले कलचुरीयों ,चंदेलों, प्रतिहारों तथा अन्य क्षत्रियों का शासन था। पूरे प्रदेश और उत्तर भारत में तोमरों, चौहानों आदि वीर वंशों ने दीर्घकालिक शासन किए हैं। भोपाल जो मध्य प्रदेश की राजधानी बना है उस भोपाल में गोंडों का शासन था। जिनमें से एक गोंड रानी की सहायता के लिए उनका एक मुसलमान सिपाही आगे आया और बहादुरी से रक्षा की जिसके एवज में उसको थोड़े से गांव की जागीर दे दी गई। जहां बाद में उस व्यक्ति ने भयंकर अत्याचार किए और कभी भी कृतज्ञता नहीं दिखाई। बस उस थोड़े से समय को छोड़कर यहां तो भोपाल भी गोंडों के अधीन था तथा उसके पहले परमारो और अन्य वीर क्षत्रियों का शासन था। मालवा में एक से एक श्रेष्ठ और विश्वविख्यात राजा रहे हैं। ऐसी ही स्थिति प्रदेश के अन्य क्षेत्रों की है। ऐसे में मान लो कोई कहे कि मध्यप्रदेश मुसलमानों के अधीन था तो वह कितना बड़ा झूठा होगा और दंडनीय अपराध भी होगा। स्वयं सिंधिया लोगों, होलकर लोगों, बघेलों, चंदेलों, परमारो, कलचुरी लोगों के वंशज और साथ ही उनको श्रद्धा से अपना शासक मानने वाले ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य सहित सभी शिल्पी जातियां और सभी सेवक जातियों के वंशज सभी उन लोगों को तो मौका लगने पर पीटेंगे जो कहते हैं कि मध्य प्रदेश मुसलमानों के अधीन था। इसी तरह जाति व्यवस्था का है। वस्तुत: जाति को लेकर जितनी भ्रांति गोरे अनपढ़ लोगों और गोरे और रंगीन दोनों प्रकार के दुष्टों ने फैलाई है, वह एक नकली मायावी अंधेरा है। उसको दूर करने का सबसे सरल तरीका यह है कि इस वर्तमान में नकली अर्थ में प्रचलित शब्द ‘जाति’ को हटा दिया जाए। कानूनन ‘जाति’ नामक शब्द का उल्लेख या प्रयोग प्रतिबंधित कर दिया जाए और सब लोग उसके स्थान पर अपने अपने कुल का स्मरण करें और कुल सूचक नाम लगाएं क्योंकि कुल सनातन सत्य हैं। जाति एक नकली और जालसाजी भरी संज्ञा है। परन्तु राजनीति के दुकानदार लोग यह शायद ही करने दें। मूल संस्कृत में जात का अर्थ है उत्पन्न हुआ। जात:उत्पन्न:। जो जहां उत्पन्न हुआ ,वह उसकी जाति। इसी अर्थ में खानदान अर्थ में फारसी में जात शब्द चलता था। मुस्लिम शासन में फारसी का प्रयोग बहुत फैला तो उसमें ‘तुम कौन जात हो’ यानि तुम किस खानदान के हो, किस कुल के हो, यह मुसलमान शासक लोग और जमीदार लोग दूसरों से पूछने लगे और यह शब्द इस रूप में फैला। यूरोपीय लोगों के आने पर पुर्तगाली भाषा का कास्ता शब्द चला जो उनके यहां व्यापक था। उसी से अंग्रेजी में कास्ट शब्द चल पड़ा।

-रामेश्वर मिश्र ‘पंकज’

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