सबसे व्यापक और प्रचण्ड अवतार है परशुरामजी का झूठी है उनके क्रोधी होने और क्षत्रिय क्षय की बातें
–रमेश शर्मा
पृथ्वी पर सत्य, धर्म और न्याय की स्थापना के लिये भगवान् नारायण ने अनेक अवतार लिये हैं। इनमें परशुरामजी का अवतार पहला पूर्ण अवतार है । जो सर्वाधिक व्यापक है । संसार का ऐसा कोई कोना, कोई क्षेत्र या कोई देश ऐसा नहीं जहाँ भगवान् परशुरामजी की स्मृति या चिन्ह नहीं मिलते हों । उन्होंने संसार में शाँति और मानवता की स्थापना के लिये पूरी पृथ्वी की सतत यात्राएँ की । यदि यह कहा जाय कि विश्व में आर्यत्व की स्थापना भगवान् परशुरामजी ने की तो यह सच्चाई का महत्वपूर्ण तथ्य होगा ।
भगवान् परशुरामजी का चरित्र वैदिक और पौराणिक इतिहास में सबसे प्रचण्ड और व्यापक है । उन्हे नारायण के दशावतार में छठे क्रम पर माना गया । वे पहले पूर्ण अवतार हैं । उन्हे चिरंजीवी माना गया इसीलिए ऊनकी उपस्थित हरेक युग में मिलती है । उनका अवतार सतयुग के समापन और त्रेता युग आरंभ के संधि क्षण में हुआ । वह वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया थी । चूँकि उनका अवतार अक्षय है इसलिये यह तिथि अक्षय तृतीया कहलाई । इस तिथि का प्रत्येक पल शुभ होता है । उनका अवतार एक प्रहर रात्रि के शेष रहते हुआ इसलिये यह ब्रह्म मुहूर्त कहलाया । उनकी उपस्थिति सतयुग के समापन से आरंभ होकर कलियुग के अंत तक रहने वाली है । इतना व्यापक और कालजयी चरित्र किसी देवता, ऋषि अथवा अवतार का नहीं मिलता । उन्होंने ही वह शिव धनुष राजा जनक को दिया था जिसे भंग करके रामजी ने माता सीता का वरण् किया । परशुराम जी ने ही वह विष्णुधनुष रामजी को दिया था जिससे लंकापति रावण का उद्धार हुआ । इसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र और गीता का ज्ञान भी देने वाले भी परशुरामजी ही हैं। पुराणों यह भी उल्लेख है कि धर्म रक्षा केलिये कलयुग में कल्कि अवतार होगा तब उन्हें शस्त्र और शास्त्र का ज्ञान देने के निमित्त भी भगवान परशुराम जी ही होंगे ।
भगवान् परशुरामजी का अवतार ऋषिकुल में हुआ हैं । भगवान परशुराम जी के पिता महर्षि जमदग्नि हैं और माता रेणुका सूर्यवंशी प्रतापी सम्राट राजा रेणु की पुत्री हैं । भगवान् परशुरामजी पांच भाई और एक बहन हैं । भगवान् परशुरामजी के सात गुरू हैं । पहली गुरू माता रेणुका हैं, दूसरे गुरु पिता महर्षि जमदग्नि । तीसरे गुरू महर्षि चायमान, चौथे गुरु महर्षि विश्वामित्र, पाँचवे गुरु महर्षि वशिष्ठ, छठें गुरु भगवान् शिव और सातवें गुरु भगवान् दत्तात्रेय हैं । भगवान् शिव की भक्ति तो पूरा संसार करता है पर उनके एक मात्र शिष्य भगवान् परशुरामजी ही हैं । वे मन की गति से भ्रमण करते हैं । इसे मन व्यापक गति कहते हैं । उन्हे चिर यौवन का वरदान है अर्थात वे कभी वृद्ध नहीं होंगे । संसार को “श्रीविद्या” का ज्ञान भगवान् परशुरामजी ने दिया । शक्ति की उपासना भी भगवान परशुराम जी से आरंभ हुई । भगवान परशुराम जी ने ही शक्ति आराधना का महर्षि सुमेधा को दिया । महर्षि सुमेधा ने ही आगे शक्तिसाधना के ग्रंथ रचे । परशुराम जी के ज्ञान, साधना, ओजस्विता और तेजस्विता के आगे कोई नहीं ठहर पाया । उनके आगे चारों वेद चलते हैं । पीठ पर अक्षय तीरों से भरा तूणीर रहता है । एक हाथ में शास्त्र हैं तो दूसरे में शस्त्र । वे श्राप देने और दंड देने दोनों में समर्थ हैं । यह क्षमता किसी और अवतार में या ॠषि में नहीं । उन्होंने यदि प्रत्यक्ष युद्ध करके आतताइयों का हनन् किया है तो तप करके शिवजी को प्रसन्न भी किया है । उन्होंने समाज निर्माण केलिये दो बार विश्व की यात्रा की है । ऋषि रूप वेद ऋचाओं का सृजन भी किया है । ऋग्वेद के दसवें मंडल का एकसौ दसवां सूक्त भगवान् परशुरामजी द्वारा ही सृजित है । लेकिन मध्यकाल में जिस भारत के मानविन्दुओं को कलंकित किया गया उसी प्रकार भारत के आदर्श चरित्र गाथा में अनेक कूटरचित कथाएँ जोड़कर विवादास्पद बनाने का कुचक्र चला । आक्रामण कारियों का घोषित नारा था “बाँटो और राज करो” इसके अंतर्गत ही भगवान परशुराम जी की गाथा में कुछ प्रसंग जोड़े। जो पूरी तरह असत्य और भ्रामक हैं ।
असत्य और भ्रामक आक्षेप
भगवान् परशुरामजी पर दो आक्षेप लगाये जाते हैं एक तो यह कि उन्होंने क्षत्रियों का क्षय किया दूसरा यह कि वे बहुत क्रोधी थे । ये दोनों आक्षेप असत्य हैं और समाज में भेद पैदा करने के लिये कुछ विदेशी षडयंत्रकारियों द्वारा रचित हैं । ताकि भारतीय समाज को विभाजित कर भारत को दास बना सकें । वे अपने षडयंत्र में सफल भी हुये । लेकिन अब हमें स्वयं अध्ययन करके समस्त भ्रांतियों का निवारण करना चाहिए । इन दोनों प्रश्नों पर शास्त्रों में पर्याप्त प्रमाण है । श्रीमद्भागवत में स्पष्ट है कि दुष्टं क्षत्रम् शब्द आया है । अर्थात “दुष्ट राज्य” । पुराण कथाओं में तीन शब्द आतें हैं क्षत्र, क्षत्रप और क्षत्रिय । इन तीनों शब्दों में अंतर होता है । क्षत्र यनि राज्य, क्षत्रप यनि राजा और क्षत्रिय यनि राज्य के लिये समर्पित । यदि शब्द दुष्ट क्षत्रम् है तो उसका अर्थ हुआ ऐसे राज्य जो दुष्टता करते थे । महाभारत के एक प्रसंग में भगवान् शिव ने आदेश दिया कि “तुम मेरे समस्त शत्रुओं का वध करो”। संस्कृत में शब्द चाहे “क्षत्र” आया हो या “क्षत्रप” लेकिन हिन्दी अनुवाद में सीधा क्षत्रिय ही करके भ्रम फैलाया गया। परशुराम जी के संदर्भ में क्षत्रिय शब्द का पहली बार कालिदास के रघुवंश में हुआ और यहीं से ने क्षत्रिय विनाश के किस्से चल पड़े । इसके बाद जो साहित्य रचा गया उसमें इसके वर्णन में विस्तार होता गया । भला बताइये भगवान् परशुरामजी नारायण के अवतार हैं क्षत्रिय की उत्पत्ति नारायण के बाहुओं से हुई तो क्या नारायण स्वयं अपनी बाहुओं का विनाश करने के लिये अवतार लेंगे? इसके अतिरिक्त उनकी माता देवी रेणुका क्षत्रिय, उनकी दादी देवी सत्यवती क्षत्रिय, भृगु वंश की अनेक ऋषि कन्याएं क्षत्रियों को ब्याहीं तब भला कैसे वे क्षत्रिय विरोधी अभियान छेड़ सकते हैं । इसके अतिरिक्त एक बात और नारायण जब भी अवतार लेते हैं । उनके अवतार के जीवन की प्रत्येक कार्य का कहीं न कहीं निमित्त होता है । यदि किसी अवतार में पत्नि वियोग होना है, वानरों का साथ लेना है, एक ही विवाह करना या एक से अधिक विवाह करना या रणछोड़ का आक्षेप लगना सब निर्धारित होता है । इसीलिए नारायण के अवतार के कार्यों को कर्म नहीं लीला कहा जाता है । नारायण के किसी प्रसंग में किसी शास्र में यह उल्लेख नहीं आया कि कभी वे क्षत्रिय हंता बनेंगे । अतएव यह भ्रामक बात समाज को मन से निकालनी होगी । समाज को बाँटने के यूँ भी कम षडयंत्र नहीं हो रहे । अतएव हमें जाग्रति के साथ सत्य को समझाना चाहिए ।
उन पर दूसरा आक्षेप लगता है क्रोधी होने का । लोग कहते हैं कि भगवान परशुरामजी बहुत क्रोधी हैं । यह आक्षेप भी तथ्य हीन है । क्रोध राक्षसों को आता है दैत्यों को आता है । क्रोध तमोगुण है । हमारे प्रत्येक शास्त्र में क्रोध से दूर रहने को कहा गया है । क्रोध को अग्नि कहा गया है । जिस प्रकार अग्नि सबसे पहले अपने ही केन्द्र को जलाती है ठीक उसी प्रकार क्रोध भी उसी व्यक्ति को पहले नष्ट करता है जो क्रोध करता है । परशुरामजी नारायण का अवतार हैं । नारायण तो सदैव मुस्कुराते हैं कभी क्रोध नहीं करते । तब नारायण का कोई अवतार क्रोध करेगा ? वह शब्द रोष है । रोष में भरकर उन्होंने दुष्टों का नाश किया । गुस्सा तीन प्रकार का । माता का और गूरू का गुस्सा सतोगुणी होता है जिसे रोष कहते हैं । पिता और राजा का गुस्सा रजोगुणी होता है जिसे कोप कहते हैं । जबकि दुष्टों और दानवों का गुस्सा अहंकार से उत्पन्न होता है यह तमोगुणी होता है इसे क्रोध कहते है । भगवान् परशुरामजी नारायण का अवतार हैं, ऋषि हैं गुरू हैं उनका गुस्सा रोष है । संस्कृत में रोष शब्द ही आया है जिसका हिन्दी अनुवाद क्रोध के रूप में हुआ और भ्रान्तियाँ फैली । जिन्हे समाज को बाँटने के लिये योजना पूर्वक प्रचारित किया गया ।
पूरे विश्व में चिन्ह
भगवान परशुराम जी से संबंधित प्रसंग पूरे विश्व में मिलते हैं। उनके विभिन्न नामों में एक नाम भृगुराम भी है । यह शब्द अपभ्रंश होगा बगराम बना । अफगानिस्तान में भी बगराम नामक स्थान है यहां विमानतल भी बना है । एक बगराम नगर ईराक में भी है । लैटिन अमेरिका की खुदाई में श्रीयंत्र जैसी आकृति निकली है । भगवान परशुराम जी के कहने पर मय दानव पाताल गया था । संभवतः मय दानव से ही लैटिन अमेरिका की “मायन सभ्यता” विकसित हुई होगी । रोम की खुदाई में पत्थर पर उकेरी गई एक ऐसी आकृति निकली जिसके कंधे पर धनुष बाण है और परशु जैसा शस्त्र भी । यद्यपि इस आकृति के सिर पर टोप तो रोमन ही पर परशु और धनुष बाण धारण करने वाले एक मात्र परशुराम जी हैं। संभव है कि रूस नाम ऋषिका का अपभ्रंश हो । पर इसपर व्यापक शोध की आवश्यकता है । मैक्समूलर की एक पुस्तक है “हम भारत से क्या सीखें” इस पुस्तक के अनुसार संसार का ज्ञान भारत से ईरान पहुँचा और ईरान से पूरे विश्व में। इस कथन से भी यह धारणा प्रबल होती है कि विश्व में जो परशुराम जी से मिलते जुलते शब्द या चिन्ह मिलते हैं वे सब परशुराम जी से ही संबंधित हो सकते हैं।
इस प्रकार भगवान परशुराम जी अवतार विश्व व्यापक है, सबसे प्रचण्ड है ।और संसार में अधर्म का नाश करके सत्य की स्थापना करने वाला है ।