राष्ट्र और संस्कृति के रक्षा के लिये समर्पित जीवन और बलिदान
— रमेश शर्मा
दसवें सिख गुरु गोविन्द सिंह जी की गणना यदि हम अवतार की श्रेणी में करें तो अनुचित न होगा। उनका पूरा जीवन भारत राष्ट्र, सत्य, धर्म और संस्कृति की रक्षा केलिये समर्पित रहा । मानों वे इस राष्ट्र के लिये ही संसार में आये थे । उन्होंने मुगल सल्तनत द्वारा भारत के इस्लामिक रूपान्तरण अभियान रोकने में एक महत्वपूर्ण भूमिका रही।
गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म पौष शुक्ल पक्ष सप्तमी को बिहार के पटना नगर में हुआ था । यह 1666 ईस्वी का वर्ष था । इस वर्ष यह तिथि 29 दिसम्बर को पड़ रही है । पर उस वर्ष यह पौष शुक्ल पक्ष की सप्तमी 22 दिसम्बर को थी । उनके पिता गुरू तेग बहादुर नौंवे सिख गुरु थे । उन्होने भी धर्म रक्षा केलिये बलिदान दिया था । उनकी माता का नाम गुजरी देवी थी। जिनका भी क्रूर यातनाओं के साथ बलिदान हुआ था । गुरु गोविन्द सिंह जी के बचपन का नाम गोविंदराय था । अपने जीवन के आरंभिक 4 वर्ष उन्होंने पटना में ही रहे । 1670 में उनका परिवार पटना से पंजाब के आनंदपुर साहब नामक स्थान पर रहने आ गया था। जो पहले चक्क नानकी नाम से जाना जाता था। यह हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों मे स्थित है। गोविन्द सिंह जी की आरंभिक शिक्षा चक्क नानकी में हुई थी। उन्होने बचपन से ही युद्ध कला सीखी। इसके साथ ही उन्होने संस्कृत, और फारसी भाषा का अध्ययन किया । उन्होंने न केवल विषम और विपरीत परिस्थियों से सामना करने के लिये बालवय में ही अपने संघर्षशील बच्चों की एक टोली बनाई थी। जहाँ कहीं अत्याचार के समाचार आते तो यह टोली पीडितों की रक्षा करने तुरन्त पहुँचती थी । ये अत्याचार सल्तनत के सैनिकों अथवा सल्तनत से पोषित असामाजिक तत्वों द्वारा ही होती थी । उन दिनों गोविन्द सिंह जी ने गुरु गद्दी नहीं संभाली थी गद्दी पर उनके पिता गुरु तेग बहादुर थे । फिर भी उनकी टोली अत्याचार का प्रतिकार पूरी शक्ति से करती थी । इस नाते सिख गुरु परंपरा और विशेषकर गोविंद सिंह जी ख्याति दूर दूर तक फैल गई थी ।
उनकी ख्याति सुनकर एक बार कश्मीरी पंडितों का एक समूह श्री गुरु तेग बहादुर के दरबार में आया। कश्मीरी पंडितों ने कश्मीर में बल पूर्वक धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बनाए जाने और न मानने पर क्रूरतम यातनाएँ देने की शिकायत की । पंडितों के इस समूह ने यह भी बताया कि ये शर्त रखी जाती है कि यदि अगर धर्म परिवर्तन नहीं किया तो हमें प्राणों से हाथ धोने पड़ेंगे। पंडितों ने यह भी कहा कि यदि कोई महापुरुष अपना बलिदान दे तो कश्मीर में यह अत्याचार रुक सकता है ।
उस समय गोविंद सिंह जी की आयु मात्र नौ वर्ष थी । उन्होंने अपने पिता गुरु तेग बहादुर जी से कहा आपसे बड़ा महापुरुष और कौन हो सकता है । कश्मीरी पण्डितों का दर्द सुनकर गुरु तेग बहादुर ने बलपूर्वक इस धर्म परिवर्तन अभियान के विरुद्ध संघर्ष किया और उनका बलिदान हुआ । उन्हे 11 नवम्बर 1675 को मुगल बादशाह औरंगज़ेब के आदेश दिल्ली के चांदनी चौक में पहले यातनाएँ दीं गई फिर आम लोगों के सामने उनके पिता गुरु तेग बहादुर का सिर धड़ से अलग कर दिया। 29 मार्च 1676 में श्री गोविन्द सिंह जी को सिखों का दसवां गुरु घोषित किया गया। तब उनकी आयु मात्र दस वर्ष थी। ग्यारह वर्ष की आयु में उनका विवाह 21 जून, 1677 को माता जीतो के साथ आनन्दपुर से 10 किलोमीटर दूर बसंतगढ़ में हुआ । गुरु गोविंद सिंह और माता जीतो के 3 पुत्र हुए जिनके नाम जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फ़तेह सिंह थे। 17 वर्ष की उम्र में दूसरा विवाह माता सुन्दरी के साथ 4 अप्रैल 1684 को आनन्दपुर में ही हुआ। उनका एक बेटा हुआ, जिसका नाम अजित सिंह था। उसके बाद 33 वर्ष की आयु में तीसरा विवाह 15 अप्रैल, 1700 में माता साहिब देवन के साथ किया। उनकी कोई सन्तान नहीं थी । इस प्रकार से गुरु गोविंद जी की कुल 3 शादियां हुई और कुल चार पुत्र हुये ।
खालसा पंथ की स्थापना
सन 1699 में बैसाखी के दिन गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की । जिसके अंतर्गत सिख धर्म के अनुयायी विधिवत् दीक्षा प्राप्त करते है। खालसा पंथ की सदस्यता केवल उन्ही युवकों को दी जाती थी जो राष्ट्र, धर्म और संस्कृति रक्षा के लिये अपने प्राणों का बलिदान दे सकें। एक प्रकार से धर्म रक्षकों की एक सेना थी। इसके लिये इसी प्रकार आयोजित एक सभा में गुरू गोविंद सिंह जी ने सबके सामने पूछा कि– “कौन अपने सर का बलिदान देना चाहता है”? जो हाँ कहे वह सामने आये ।
उसी समय एक युवक सामने आया । गुरु गोविंद सिंह उस युवक को अपने तम्बू में ले गए और कुछ देर बाद वापस लौटे । उनके हाथ में एक रक्त रंजित तलवार थी । गुरु जी ने दोबारा उस भीड़ में वही प्रश्न दोहराया और पुनः उसी प्रकार एक और युवक आगे आया । उनके साथ वह भी तंबू के भीतर गया । गुरुजी पुनः तम्बू से जब बाहर निकले तो उनके हाथ में फिर रक्त रंजित तलवार थी । इस तरह एक एक करके पाँच युवक उनके साथ तंबू के भीतर गये । लेकिन पाँचवी बार जब गुरु गोविन्द सिंह बाहर आये तब उनके साथ वे पाँचों युवक जीवित बाहर लौटे। उन्होने इन पाँचो को “पंज प्यारे” नाम दिया । इस प्रकार बलिदान की शपथ संकल्प के साथ खालसा पंथ की यात्रा आरंभ हुई ।
उसके बाद गुरु गोविंद सिंह जी ने एक लोहे का कटोरा लिया और उसमें पानी और चीनी मिला कर दो-धारी तलवार से घोल कर अमृत का नाम दिया। पहले 5 खालसा बनने के बाद उन्हें छठवां खालसा का नाम दिया गया । उन्होने खालसा के लिये पाँच संकल्प निर्धारित किये जिसे पांच ” ककार” कहा गया । ये पाँच ककार हैं- केश, कंघा, कड़ा, कृपाण और कछैरा अर्थात कच्छा । तभी से सिख समुदाय अपने साथ केश, कंघा, कड़ा, कृपाण, और कछैरा कच्छा रखते है
खालसा पंथ की बढ़ती शक्ति से मुगलों द्वारा बल पूर्वक धर्मान्तरण अभियान में गतिरोध आया । इससे पूरी मुगल सत्ता बौखला गई। और बादशाह ने सरहिन्द के नबाब वजीर खान को गुरु गोविन्द सिंह के पीछे लगाया । वजीरखान एक बड़ी फौज लेकर निकल पड़ा। जब फौज से काम न चला तो उसने गुरुजी के पीछे कुछ लोग लगा दिये ताकि धोखे से उनकी हत्या कर सकें। इस तरह वजीर खान के दो लोग गुरुजी के खालसा पंथ में शामिल हो गये और विश्वास अर्जित कर गुरुजी के विश्वस्त भी हो गये । इन दो आदमियों ने ही गुरु जी पर धोखे से वार किया, जिससे 7 अक्टूबर 1708 को उनका बलिदान हो गया । वे दिव्य ज्योति मेंविलीन हो गये । गुरू गोविन्द सिंह जी बलिदान नांदेड में हुआ । यहाँ नांदेड़ साहिब गुरुद्वारा बना है ।
वे सिख परंपरा के अंतिम गुरू थे । उन्होंने अपने अंत समय में सिक्खों को “गुरु ग्रंथ साहिब” को अपना गुरु मानने को कहा था और स्वयं भी “गुरु ग्रंथ साहिब” के समक्ष नतमस्तक हुए। गुरुजी के बाद बंदासिंह बहादुर ने सरहिंद पर आक्रमण किया और अत्याचारियों के ईंट का जवाब पत्थर से दिया । बंदा बहादुर को गुरु गोविन्द सिंह ने ही सिख परंपरा की दीक्षा दी थी ।
गुरु गोविंद सिंह जी के उपदेश
गुरु गोविन्द सिंह जी द्वारा सिख पंथ को दिये गये उपदेश आज भी महत्वपूर्ण हैं। इनमें राष्ट्र और संस्कृति रक्षा का संकल्प है । और एक प्रकार से स्वाभिमान संपन्न जीवन जीने के सूत्र हैं । इसमें सबसे पहला है अपने वचन का पालन करना । वे कहते थे कि अगर आपने किसी को वचन दिया है तो उसे हर कीमत में निभाना होगा।
दूसरा किसी की निंदा, चुगली, और ईर्ष्या न करना किसी की चुगली व निंदा करने से हमें हमेशा बचना चाहिए और किसी की उपलब्धि से ईर्ष्या करने के बजाय स्वयं परिश्रम करके उपलब्धि अर्जित करना।
तीसरी बात जो काम करो वह पूरी मेहनत से करो । काम में खूब मेहनत करें और काम में कोई कोताही न बरतें।
चौथी बात गुरुबानी कंठस्थ करनी
दसवंड देना ।
पाँचवी बात थी अपनी कमाई का दसवां हिस्सा पंथ के हित में दान में दें।
गुरु गोविंद सिंह जी की रचनाएं
गुरु गोविंद सिंह जी ने न केवल सशस्त्र खासला पंथ की स्थापना या समय समय पर पंथ को सही मार्गदर्शन ही नहीं किया अपितु उन्होने भविष्य का आकलन करने महान उपदेश भी दिये । कुछ ऐसी रचनाओं का सृजन किया जो आज भी मानव जीवन के लिये एक महान संदेश हैं। वे धर्म सुधारक और एक महान राष्ट्र उन्नायक थे। उन्होंने लोक – परलोक , धर्म-अध्यात्म, जीवन- जगत तथा शस्त्र और शास्त्र का समन्वय करते हुए अपने पंथ को एक प्रतिमान बनाया ।
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने अपनी रचनाओं में अरबी फारसी और उर्दू शब्दों का प्रयोग किया है। ऐसी कालजयी रचनाओं में “जपुजी साहब”, “विचित्र नाटक” चण्डीचरित्र” “ज़फ़रनामा” और “हिक़ायत” प्रसिद्ध कृतियाँ हैं , जो खालसा पंथ में पूज्य दशम ग्रंथों में शामिल हैं।