शिवरात्रि में विभिन्न पूजन सामग्री का उपयोग भक्तजन करते हैं विशेषरूप से पुष्प,धतूरा,बिल्वपत्र,बेरफल,आँकड़ा,दूध,दही,शहद आदि का प्रयोग चन्दन, अक्षत, अबीर,गुलाल के साथ किया जाता है। किन्तु हम शिवजी के द्वारा धारण की जाने वाली विभिन्न वस्तुओं के बारे में यदा–कदा ही ध्यान देते हैं। आइये जरा जानते हैं, कि, भक्तों को क्या सन्देश देते हैं ये प्रतीक।
1 गंगा नदी– शिव के शीश पर प्रवाहमान गंगा का अवतरण इस बात की ओर इंगित करता है कि व्यक्ति आवेग की अवस्था को अपने दृढ़ संकल्प के माध्यम से जीवन में संतुलन बनाए रख सकता है। शिव अपने भक्तों के शान्ति प्रदाता हैं।
2 शीश की जटा – भगवान शिव हम सभी जीवधारियों के रक्षक हैं। जटा श्वास – प्रश्वास का सूक्ष्म स्वरूप है। शिव स्वयं व्योमकेश हैं। उनके केश वायुमंडल के प्रतीक हैं।
3 अर्द्धचन्द्र समुद्र – मंथन के समय निकलने वाले विष को शिवजी ने अपने कंठ में धारण कर लिया था। विष ग्रहण करने के कारण उनका कंठ नीला हो गया था। उनके (नीलकंठ) के शरीर में उष्णता बढ़ गई थी जिसे शीतल करना अति आवश्यक था। स्वयं चन्द्रमा ने शिव से आग्रह किया कि वे उन्हें मस्तक पर धारण कर लें जिससे विष का प्रभाव कम हो सके। शिव का विचार था कि चन्द्रमा इस असहनीय उष्णता को सहन नहीं कर सकेंगे। कई देवतागण के आग्रह को शिव को स्वीकार करना पड़ा और उन्होंने चन्द्रमा को शिरोधार्य कर लिया। कहा जाता है कि पूर्णिमा का पूर्णचन्द्र विष के कारण ही नीला प्रतीत होता है। मानव का मस्तिष्क यदि शीतल रहेगा तो कार्यों में आने वाली बाधाओं का वह शान्ति से निराकरण कर सकेगा। कठिन से कठिन कार्य आसान प्रतीत होंगे।
4 तीसरा नेत्र (त्रिनेत्र) – शिवजी का तृतीय नेत्र खुलने पर सम्पूर्ण विश्व में प्रलयंकारी स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। जब शिवजी को अत्यधिक क्रोध आता है तभी ऐसा होता है। यह ज्ञानचक्षु भी है। सांसारिक वस्तुओं को देखने के लिए दो नेत्र पर्याप्त हैं। संसारेतर वस्तुओं का ज्ञानार्जन तीसरे नेत्र से ही होता है।
5 नीलकंठ– समुद्र मंथन से निकले जहर को अपने कंठ में धारण करने वाले शिवजी को नीलकंठ कहते हैं। पार्वती ने विष को शिवजी के गले तक रोक दिया था। इससे मानव मात्र को यह संदेश प्राप्त होता है कि संसार की बुराईयों को गले में ही धारण कर उन्हें अपने अन्दर समाविष्ट नहीं करना चाहिए। तभी वह कल्याणकारी जीवन व्यतीत कर सकता है।
6 गले में सर्प – शिवजी के गले का सर्प उनके गले में तीन बार लपटा हुआ रहता है। सर्प के ये तीन चक्कर तमोगुण के द्योतक हैं। तमोगुण जीवन के लिए घातक है। तामसी प्रवृत्ति मानव के जीवन को दुखी बना देती है। शिवजी कालों के काल हैं। सर्प के ये तीन चक्कर भूत, भविष्य तथा वर्तमान के प्रतीक हैं। मानव को जीवन में अपने भूतकाल के अनुभव से वर्तमान में शिक्षा लेना चाहिए और भविष्य को भी सुधारना चाहिए।
7 रूद्राक्ष – भगवान शिव का नाम रूद्र भी है। जब ध्यानस्थ शिवजी ने अपने चक्षुओं को उन्मीलित किया तो उनके एक चक्षु से अश्रु बँूद पृथ्वी पर पतित हुई जिससे रूद्राक्ष का पेड़ बना। भगवान शिवजी 108 रूद्राक्ष की माला धारण करते हैं। यह माला ईश्वरीय व्यवस्था को बनाए रखने में प्रमुख भूमिका का निर्वहन करती है।
8 त्रिशूल – त्रिशूल आत्मरक्षा का प्रतीक है। इसे शरीरस्थ तीन नाड़ियों का प्रतीक माना जाता है। ऊर्जा की गति इन नाड़ियों से निर्धारित होती है।
9 डमरू – डमरू की ध्वनि नाद की सूचक है। नाद ब्रह्म है। नाद सृजन का प्रतीक है। अपने नटराज स्वरूप में शिव डमरू का निनाद करते हैं। व्याकरणाचार्य पाणिनि के अनुसार भाषा का सृजन डमरू के स्वरों के आधार पर ही हुआ है।
10 कमण्डल – सूखे कद्दु प्रजाति के फल द्वारा निर्मित यह कमंडल संत संप्रदाय के द्वारा प्रयोग में लिया जाने वाला विशेष पात्र है। यह इस बात का प्रतीक है कि व्यक्ति को भौतिक संसार से लगाव को धीरे – धीरे समाप्त कर आध्यात्मिक जगत् की ओर अग्रसर होना चाहिए।
11 खप्पर – माता अन्नपूर्णा प्राणिमात्र की क्षुधा शान्त करना चाहती थीं। शिवजी ने उनके लिए भिक्षा माँगी थी। यह इस बात का प्रतीक है कि जनकल्याण के लिए यदि याचना की जाय तो यह कार्य निःसंकोच करना चाहिए।
12 विभूति (भभूत–त्रिपुण्ड) – शिवजी के मस्तक पर राख की तीन लकीरें ही विभूति रूप से जानी जाती हैं। यह शिव की महिमा और अमरत्व की प्रतीक हैं। राख कीटाणु नाशक होने से साधु– सन्तों की रक्षा भी करती है। उज्जैन के महाकाल मंदिर में ब्रह्ममुहूर्त में भस्मारती की जाती है।
13 कुंडल – शिवजी के दोनों कानों में धारण किए गये कुंडल शिव तथा शक्ति के प्रतीक हैं। एक कान का कुंडल महिला द्वारा धारण किये जाने वाले कुंडल के समान है तो दूसरे कान का कुंडल पुरूष द्वारा धारण कुंडल के समान है। यह शिवजी के अर्द्धनारीश्वर रूप का प्रतीक है।
14 बैल (नंदी/वृषभ) – भगवान शिव के सबसे विश्वासपात्र सेवक हैं नन्दी। उन्हें शिव मंदिरों के बाहर स्थान दिया गया है। वे शिव की ओर मुँह करके विराजित हैं। दर्शनार्थी भक्त अपनी मनोकामना नन्दी के ही कान में कहते हैं। एक सेवक को अपने स्वामी के लिए नन्दी के समान ही सावधान रहना चाहिये और स्वामी से भेंट करने वालों की बात को सावधानी से सुनना चाहिये।
15 शिवलिंग – यह भगवान शिव के अस्तित्व को प्रकट करता है। यह काले या भूरे रंग का होता है। पारद लिंग तथा स्फटिक लिंग भी हैं। मंदिरों में शिवजी की मूर्ति के स्थान पर शिवलिंग की ही प्राण प्रतिष्ठा की जाती है।
16 मृगचर्म – मृगचर्म पर बैठकर की जाने वाली साधना और तपस्या श्रेष्ठ फल प्रदान करती है। इस पर बैठने से अस्थिर मन शान्त होता है। भगवान शिव मृग चर्म पर आसीन होकर ध्यानस्थ होते हैं।
17 बाघाम्बर – भगवान शिव अपनी कटि पर एक अधोवस्त्र धारण करते हैं। यह बाघ की खाल है। शिव पुराण की कथा के अनुसार एक बार शिवजी पृथ्वी लोक में भ्रमण के लिए आये। मार्ग में वे मुनियों के आश्रम के सामने से निकले। शिवजी वस्त्रहीन थे। मुनियों की पत्नियों ने उन्हें देखा तो वे सभी उनपर मोहित हो गईं। जब मुनियों ने उनकी पत्नियों को देखा तो वे क्रोधित हुए। उन्होंने उस वस्त्रहीन व्यक्ति को सजा देने की सोची।
आश्रम से कुछ दूर उन्होंने गड्ढा खुदवाकर उसमें एक बाघ छोड़ दिया। आगे बढ़ते हुए शिवजी गड्ढे में गिर गये, मुनियों ने सोचा बाघ उसे खा जावेगा। जैसे ही शिवजी गिरे उन्होंने बाघ का वध कर दिया और उसकी खाल (चर्म) को धारण कर लिया। शिवजी जब बाहर आये तो मुनिगण आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने सोचा कि यह कोई असाधारण व्यक्ति है। वे सभी नतमस्तक हो गये और वास्तविकता जानने पर लज्जित भी हुए। शिवजी ने तभी से बाघाम्बर धारण करना प्रारम्भ कर दिया। सांसारिक व्यक्ति को भी आसुरी शक्ति पर हमेशा विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। अहंकार व्यक्ति का पतन करता है।
18 मुंडमाला – मुंडमाला को शिवजी ने गले में धारण कर रखा है। मुंडमाला इस बात का प्रतीक है कि शिवजी ने मृत्यु को गले लगा रखा है। यह सन्देश है कि व्यक्ति को जन्म के साथ मृत्यु भी आवश्यक है अतः श्मशान से डरना नहीं चाहिये।
इस प्रकार के अष्टादश प्रतीक भक्तों को सकारात्मकता का सन्देश तो देंगे ही साथ ही, उनके जीवन में नवजागृति का संचार भी करेंगे।
श्रीमती उमा, डाॅ.नवीन मेहता
एम.ए.(हिंदी)