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विक्रम संवत् में शामिल है जीवन की वैज्ञानिकता का सार!

विज्ञानसम्मत हैं हिंदू पर्व और मान्यताऐं

भारत एक ऐसा देश है जहां, लगभग हर दिन और हर वार कोई न कोई उत्सव मनाया जाता है। यहां का हर दिन किसी न किसी धार्मिक मान्यता से जुड़ा होता है। यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि, हिंदू धर्म से जुड़े सभी पर्व और इन पर्वों से जुड़ी विभिन्न मान्यताओं का वैज्ञानिक आधार है। हिंदू पंचांग के नववर्ष में जब हम विभिन्न पहलूओं पर चर्चा कर रहे हों, तब इन मान्यताओं की वैज्ञानिकता और भी प्रासंगिक हो जाती है।
हिंदू मान्यताओं और पर्वों का विज्ञानसम्मत होने का एक कारण यह भी है कि, सभी पर्व लगभग 57 ई.पू. प्रवर्तित किए गए, विक्रम संवत् के आधार पर मनाए जाते हैं। यह संवत् प्रकृति आधारित है। विद्वानों का मानना है कि इस संवत् की मान्यताओं में विज्ञान की बातें शामिल हैं।
हिंदू पंचांग जिसे विक्रम संवत् के नाम से जाना जाता है। उसका प्रत्येक माह चंद्रमा की कलाओं पर आधारित होता है। इस तरह से पंद्रह -पंद्रह दिन के अंतराल को शुक्ल पक्ष व कृष्ण पक्ष जैसे पक्षों में विभाजित किया जाता है। हालांकि तिथियों की गणना सूर्योदय और सूर्य की स्थिति के आधार पर की जाती है। इस पंचांग में पृथ्वी पर सूर्य और चंद्रमा से जुड़े परिवर्तनों को आधार बनाकर कालगणना की जाती है।
विक्रम संवत् के आधार पर विभिन्न माह में आने वाली ऋतुओं के अनुसार, उत्सव मनाकर प्रकृति में होने वाले बदलाव का स्वागत किया जाता है और ईश्वर से प्रसन्नता व समृद्धि प्रदान करने की कामना की जाती है। इस संवत् में वर्णित विभिन्न पर्वों, माहों, और उत्सवों की कुछ मान्यताओं, खान – पान और इनमें छिपे वैज्ञानिक महत्व को हम जानते हैं –
संवत् का आरंभ – विक्रम संवत् का प्रारंभ चैत्र प्रतिपदा से होता है। तिथि के तौर पर इसे चैत्र मास शुक्ल पक्ष 1 के रूप में जाना जाता है। इस दिन हिंदू अनुयायी अपना नववर्ष मनाते हैं। विभिन्न प्रांतों में अलग – अलग मतों के अनुसार इस उत्सव को मनाया जाता है। महाराष्ट्र में इसे गुढ़ी पाड़वा के रूप में मनाया जाता है। अनुयायी इस दिन अपने घरों के आगे गुढ़ी बांधकर उसका पूजन करते हैं। प्रसाद के तौर पर नीम और गुड़ का मिश्रण सभी के बीच वितरित किया जाता है।

अधिकांश परिवारों द्वारा इस दिन श्रीखंड का सेवन किया जाता है। दूसरी ओर सम्राट विक्रमादित्य द्वारा इस संवत् का प्रवर्तन करने के कारण मध्यप्रदेश में इसे लेकर जबरदस्त उत्साह होता है। शासकीयरूप से इस दिन के करीब 3 दिन पूर्व से ही विक्रमोत्सव का आयोजन किया जाता है। गीत – संगीत, बौद्धिक आयोजनों के अलावा विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से उत्सव मनाया जाता है। नववर्ष के आगमन पर प्रातःकाल विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ सूर्य को अध्र्य दिया जाता है।
चैत्र मास के प्रारंभ में उत्सवी आयोजन किसी भी कार्य को ईश्वर आराधना के साथ और उल्लास के साथ प्रारंभ करने का प्रतीक है। इस दिन नववर्ष का प्रारंभ होता है जिसके कारण लोगों के मन में उत्साह होता है। कुछ अनुयायियों द्वारा नीम व गुड़ के मिश्रण का सेवन किए जाने से यह स्वास्थ्यवर्धक होता है। नीम की पŸिायों में एंटी आॅक्सीडेंट होता है। जो कि हमारे शरीर के विकारी,जहरीले तत्वों को समाप्त कर देती हैं। नीम का काढ़ा मलेरिया के बुखार की रोकथाम में सहायक सिद्ध होता है। नीम का स्वाद कड़वा होता है, जब इसे गुड़ के साथ मिलाया जाता है तो मीठे और कड़वे दोनों स्वाद से एक रोचक मिश्रण तैयार हो जाता है। चैत्र मास के प्रारंभ होने तक, मौसम में बदलाव आने लगता है। इन दिनों में वातावरण में ठंडक कम होने लगती है और दिन के समय तेज धूप का अनुभव लोगों को होता है। इसी के साथ सूर्यास्त की अवधि अधिक होती जाती है जबकि सूर्योदय भी जल्दी हो जाता है।
ऐसे में श्रीखंड के सेवन से बढ़ती गर्मी से निजात मिलती है। श्रीखंड, दही से बने चक्के और शकर से निर्मित होता है। इसमें सूखे मेवे आदि गुणकारी तत्व भी शामिल रहते हैं जो कि इसका सेवन करने वाले के लिए लाभदायक होता है।
चैत्र नवरात्रि व जत्रा – चैत्र मास से जहां हिन्दू नववर्ष का प्रारंभ होता है वहीं, इसे शक्ति की आराधना का उŸाम समय भी माना गया है। इसका प्रारंभ चैत्र मास के शुक्ल पक्ष को होता है। जबकि नवमी तिथि पर नवरात्रि का समापन होता है। नौ दिनों तक शक्ति की आराधना की जाती है। कुछ क्षेत्रों में यज्ञ, हवन किये जाते हंै तो कहीं भंडारों (सामूहिक भोजन प्रसादी ) का आयोजन होता है। इस आयोजन के पूर्व में होली का पर्व मनाया जाता है। इस तिथि तक खेतों में पकी हुई गेहूँँ, सरसों आदि की फसल पककर कट जाती है। जिसके कारण खेत खाली हो जाते हैं, और दिन में किसानों के पास अधिक कार्य नहीं रहता है, ऐसे में ग्रामीणों को शक्ति आराधना के पर्व के माध्यम से एकत्र किया जाता है और उनके मन को धार्मिक मान्यता से सकारात्मक ऊर्जा प्रदान की जाती है। नवरात्रि के पर्व के दौरान जब यज्ञ और हवन किए जाते हैं तो यह पर्यावरण को शुद्ध करने का कार्य करते हैं। हवन में जो धुँआ उठता है वह वातावरण में मौजूद विभिन्न यौगिकों व तत्वों का संतुलन बनाए रखता है।

राम नवमी – चैत्र मास में ही रामनवमी का उत्सव मनाया जाता है। इस दिन श्रीराम मंदिरों में दोपहर के समय लगभग 12 बजे भगवान श्रीरामचन्द्रजी का जन्मोत्सव मनाया जाता है। जन्मोत्सव के अंतर्गत प्रसादस्वरूप धनिये की पंजेरी का वितरण किया जाता है। यह शुद्ध घी, नारियल, पीसी धनिया या धनिया पावडर आदि से निर्मित होती है। जो कि अत्यन्त लाभकारी है। धनिया एसिडिटी में लाभकारी होता है, पाचनशक्ति भी बढ़ाता है।

शीतला सप्तमी – शीतला सप्तमी का पूजन चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को होता है। कुछ स्थानों पर शीतला अष्टमी, अष्टमी तिथि के दिन मनाई जाती है। इस दिन, शीत प्रभाव वाले व्यंजन बनाकर उनका भोग लगाया जाता है। धार्मिक मान्यताओं में गर्म पकवान अथवा चूल्हे पर आग जलाकर व्यंजन बनाना इस दिन वर्जित माना जाता है। इसका कारण यह है कि, इस दिन तक वातावरण में अधिक गर्मी का अनुभव होने लगता है। दिन में तेज धूप होती है। ऐसे में शरीर की प्रकृति को नियंत्रित करने के लिए दही, रायता आदि शीतप्रभावकारी व्यंजन बनाए जाते हैं और उनका सेवन किया जाता है।

जत्रा व पंचक्रोशी यात्रा – एक ओर जहां चैत्र नवरात्रि से चैत्र पूर्णिमा तक महाराष्ट्र राज्य के विभिन्न देवी मंदिरों में जत्रा(धार्मिक दर्शन यात्रा ) का आयोजन होता है तो दूसरी ओर मध्यप्रदेश के उज्जैन में वैशाख मास में कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि से पंचक्रोशी यात्रा का प्रारंभ होता है जो कि अमावस्या पर समाप्त होती है। यात्रा के दौरान प्राचीन नगर के चारों कोनों पर स्थित शिवमंदिरों के दर्शन व पूजन का कार्य किया जाता है। इन मंदिरों की स्थिति श्री महाकालेश्वर मंदिर से कुछ इस तरह की मानी गई है, जैसे एक वर्गाकार आकृति के मध्य में श्री महाकालेश्वर प्रतिष्ठित हों और वर्ग के चारों कोनों पर ये चार शिवलिंग प्रतिष्ठापित हों। इनमें पिंगलेश्वर,कायावहरोणेश्वर,बिल्वेश्वर,दुर्धरेश्वर महादेव शामिल हैं।
दरअसल चैत्र और वैशाख मास में ग्रामीणों के पास खेती से सम्बन्धित अधिक काम नहीं होता, जिसके कारण वे धार्मिक यात्राऐं करते हैं। इन यात्राओं में वे अपने रिश्तेदारों के साथ गंतव्य तक जाते हैं, ऐसे में संबंधियों का आपस में मिलना भी हो जाता है और यह सामाजिक मेल – मिलाप का एक प्रसंग भी निर्मित करता है। वैशाख मास में ही शुक्ल पक्ष की पौर्णिमा को स्नानदान पूर्णिमा और हनुमानजयंती के तौर पर मनाया जाता है। मान्यता है कि इस दिन किए गए दान से अक्षय पुण्यलाभ होता है। दान के माध्यम से मानव की असंचयी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगता है तो दूसरी ओर व्यक्ति का अहंकार दूर होता है।
वटसावित्री पूजन – यह पूजन ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को किया जाता है। इस दिन वटवृक्ष का पूजन किया जाता है और आम का भोग लगाया जाता है। बड़ व पीपल के पेड़ का पूजन कर उसकी परिक्रमा करने के साथ सूत का धागा बांधा जाता है। यह पूजन वृक्षों के महत्व को दर्शाता है। इस पूजन के माध्यम से मानव को संदेश मिलता है कि, वे वृक्षों का संरक्षण करें और पेड़ों की अवांछनीय कटाई पर रोक लगे।
विक्रम संवत् के अंतर्गत मनाए जाने वाले धार्मिक उत्सव, पूजन कार्य, व्रत, पर्व और त्यौहार तो बहुत से हैं। इन पर्वों और उत्सवों में श्रावण – भाद्रपद मास का पूजन, हरियाली अमावस्या का पूजन, नागपंचमी, आश्विन नवरात्रि, विजयादशमी, दीपावली, वसंत पंचमी, होली आदि शामिल हैं। होली में अबीर,टेसू के फूलों से निर्मित रंग से रंग खेले जाते हैं, यह मानव की त्वचार में निखार लाता है और उसे त्वचार संबंधी रोगों से बचाता है। तो दूसरी ओर वसंत ऋतु ऐसा समय होता है जब वातावरण में न तो अधिक ठंड होती है और न अधिक गर्मी। आम के वृक्षों पर मंजरी (आम बौराना) आने लगती है तो दूसरी ओर खेत पीली सरसों से पट जाते हैं। नागपंचमी नागों की आराधना का पर्व है। नाग प्रकृति में संतुलन का कार्य करते हैं। इस दिन नागों को ईश्वर के समान पूजा जाता है। इस पर्व के माध्यम से मानव को नागों के संरक्षण के प्रति जागरूक किया जाता है।
इन सभी उत्सवों, पर्वों को मनाए जाने और इन अवधियों में किये जाने वाले पूजन का धार्मिक दृष्टि से महत्व तो है ही लेकिन कई बार इन अवसरों के माध्यम से मानव को गूढ़ संदेश प्राप्त होते हैं। यदि इनमें छिपे संदेशों और इनकी वैज्ञानिकता को हम समझकर अपने जीवन में इसे अपनाऐं तो हमारे जीवन की सार्थकता संभव है।
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