न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च में हुई त्रासद एवं अमानवीय हिंसक घटना आतंकवाद का एक नया संस्करण है। इस आतंकी वारदात ने यह बता दिया है कि जब तक नफरत, संकीर्णता और उन्माद इस दुनिया में सक्रिय है। कोई भी पूरी तरह से सुरक्षित एवं संरक्षित नहीं है। हालही में अल नूर मस्जिद और लिनवुड मस्जिद में नमाज पढऩे गए लोगों पर हथियारबंद हमलावरों ने अंधाधुंध गोलीबारी की, जिसमें 50 के आसपास लोग मारे गए और कई घायल हो गए। इस तरह की आतंकी वारदात सिर्फ हमारे भरोसे को ही नहीं हिलाती, बल्कि उन सारी सच्चाइयों को हमारे सामने ला खड़ी करती है, जिनसे चाहे-अनचाहे हम मुंह चुराते रहे हैं। इस प्रकार की यह आतंकी हिंसा एवं विस्फोटों की शृंखला, अमानवीय कृत्य अनेक सवाल पैदा कर रहे हैं। कुछ सवाल लाशों के साथ सो गये। कुछ घायलों के साथ घायल हुए पड़े हैं। कुछ समय को मालूम है, जो भविष्य में उद्घाटित होंगे। इसके पीछे जिस तरह की संकीर्ण मानसिकता, अति दक्षिणपंथी विचारधारा, श्वेत श्रेष्ठता गं्रथि से जुड़ा दिमाग और हाथ है, उसने समूची दुनिया को सकते में डाल दिया है। यह बड़ा षड्यंत्र है इसलिए इसका फैलाव भी बड़ा हो सकता है। जो समूची दुनिया के लिये गहन चिन्ता का कारण बना है।
न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा आर्डर्न ने भले ही इसे आतंकवादी घटना करार देते हुए देश के इतिहास का सबसे काला दिन बताया। लेकिन घोर त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण है कि संकीर्ण एवं स्वार्थी मानसिकता के लोग इसे आतंकवादी घटना मानने से भी इंकार कर रहे हैं। मुख्य हमलावर की पहचान 28 वर्षीय ब्रैंटन टैरेंट के रूप में हुई है जो ब्रिटिश मूल का ऑस्ट्रेलियाई नागरिक है। उसने हमले के पहले ‘दि ग्रेट रिप्लेसमेंट’ शीर्षक से एक सनसनीखेज मैनिफेस्टो लिखा था, जिसमें उसने हजारों यूरोपीय नागरिकों की आतंकी हमलों में गई जान का बदला लेने के साथ श्वेत वर्चस्व कायम करने के लिए अप्रवासियों को बाहर निकालने की बात कही थी। क्या हो गया है इस तरह की आतंकी घटना को अंजाम देने वालों को? विनाश और निर्दोष लोगों की हत्या किस तरह किसी समस्या का समाधान हो सकती है? निर्दोषों को मारना कोई मुश्किल नहीं, कोई वीरता नहीं। पर निर्दोष तब मरते हैं जब पूरी मानवता घायल होती है।
आज ब्रैंटन टैरेंट जैसे अनेक लोग हैं, जो यह मानते हैं कि एशियाइयों-अफ्रीकियों और खासकर मुसलमानों के यूरोप में बसने से कई तरह की सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक समस्याएं पैदा हो रही हैं। वे विशुद्ध श्वेतवाद को पुनस्र्थापित करना चाहते हैं और एकीकृत यूरोप के भी खिलाफ हैं। ऐसे लोगों के जमावड़े के रूप में इटली की रेड आर्मी और ग्रीस की रिवॉल्यूशनरी स्ट्रगल, सीरा (कंटीन्यूटी आईआरए) जैसे नाम आते हैं, हालांकि इनकी गतिविधियां इधर कमजोर पड़ रही थीं क्योंकि मुख्यधारा की पार्टियां ही इनकी बोली बोलने लगी थीं। बहरहाल, टैरेंट जैसे लोगों की सक्रियता चिंताजनक है, त्रासद है। डर इस बात का है कि ऐसी धुर-दक्षिणपंथी कार्रवाइयां कहीं धीरे-धीरे अपनी मौत मर रहे इस्लामिक आतंकवाद को नई जिंदगी न दे दें। इसलिए इस सोच के खिलाफ सबको मिलकर सख्त कार्रवाई करनी होगी। हिंसा से हिंसा को, आतंक से आतंक को, नफरत से नफरत को, घृणा से घृणा को, द्वेष से द्वेष को कभी समाप्त नहीं किया जा सकता। उसके लिये विश्व मानवता के सिद्धान्त को स्थापित करना होगा।
दरअसल, अब तक टैरेंट जैसे हमलावरों को ‘पागल’ और ‘मानसिक रूप से विक्षिप्त’ कहा जाता है और घटनाओं को महज ‘गन अटैक’। मगर विद्रुप मानसिकता वाले ये लोग चूंकि एक खास किस्म की विचारधारा से प्रेरित होते हैं और अतिवादी राजनीति का शगल पालते हैं, इसलिए इन्हें आतंकी मानने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए। इनकी क्रूरता एवं बर्बरता का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि न्यूजीलैंड के हमलावर ने गोलीबारी का वीडियो शूट किया और फेसबुक पर उसको ‘लाइव’ दिखाया। ऐसे कोई दो-चार आतंकी व्यक्ति कभी भी पूरी दुनिया की शांति और जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर सकते हैं। कोई दुनिया का उद्योग, व्यापार ठप्प कर सकते हंै। कोई दुनिया की शांति-व्यवस्था को गूंगी बना सकते हैं। इसका मुकाबला हर स्तर पर दुनिया की बड़ी शक्तियां एक होकर और सजग रहकर ही कर सकती हैं। यह जो घटना हुई है इसका विकराल रूप कई संकेत दे रहा है, उसको समझना है। कई सवाल खड़े कर रहा है, जिसका उत्तर देना है। इसने मानवता के लिये प्रदत्त जीने के अधिकार पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया।
आतंकवाद समूची दुनिया के सम्मुख एक बड़ा संकट है। श्वेत नस्ल की श्रेष्ठता ग्रंथि का उन्माद, आक्रोश एवं विद्रोह अब न सिर्फ बढ़ रहा है बल्कि कई जगह हिंसक, खौफनाक एवं आतंकवादी वारदात के रूप में सामने आ रहा है। हर समाज में ऐसे लोग होते हैं जो नीचे की कंकरी निकाल कर अपनी भूमिका अदा करते हैं। और ऐसे लोगों की भी कमी नहीं होती, जिनकी आंखों की कोशिकाएं जीवन के रंग नहीं देखकर सब काला ही काला देखती हैं। ऐसे लोग जीवन के हर मोड़ पर मिलेंगे बस सिर्फ चेहरे बदलते रहते हैं। ऐसे लोगों के पास खोने को कुछ नहीं होता। इसलिए नुकसान में सदैव वे होते हैं, जिनके पास खोने को बहुत कुछ होता है। ऐसी घटनाएं और इन घटनाओं को अंजाम देने वाले लोग समूची मानवता को तार-तार कर देते हैं, आहत एवं घायल कर देते हैं। ऐसे लोगों की सोच से पार पाने के लिए हमारे राजनेता गंभीर नहीं हैं। खासतौर से ताकतवर देशों के मुखिया अब भी इस तरह की घटनाओं को ‘साधारण’ मानकर खारिज कर देते हैं। न्यूजीलैंड की मुखिया जेसिंडा अर्डर्न भले ही इसे आतंकी घटना मान रही हैं, लेकिन उनके ऑस्ट्रेलियाई समकक्ष स्कॉट मॉरिसन की नजरों में हमलावर सिर्फ ‘शूटर’ हैं। क्वींसलैंड के सीनेट फ्रेजर अनिंग तो निंदा जारी करते हुए महज इतना कहकर चुप हो जाते हैं कि ‘दुनिया भर में मुस्लिमों के खिलाफ दुर्भावना तेजी से बढ़ रही है, जो दुखद है।’ अमेरिकी राष्ट्रपति भी श्वेत श्रेष्ठता ग्रंथि के रथ पर सवार होकर ही सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे हैं। जाहिर है, कोई राजनेता ऐसी मानसिकता के खिलाफ मुंह नहीं खोलना चाहता, क्योंकि अप्रवासियों के खिलाफ नफरत का यही माहौल उनके लिए वोट बैंक का काम करता है। सभी राजनैतिक दल अपनी-अपनी कुर्सियों को पकड़े बैठे हैं या बैठने के लिए कोशिश कर रहे हैं। कब तक सत्ता में आने या सत्ता में बने रहने के लिये इस तरह के खूनी मंजर को होने दिया जाता रहेगा?
टैरेंट ने संकीर्णता एवं स्वार्थान्धता से ग्रस्त होकर इस घटना के मैनिफेस्टो में लिखा है, ‘आक्रमणकारियों को दिखाना है कि हमारी भूमि कभी भी उनकी भूमि नहीं होगी। वे कभी भी हमारे लोगों की जगह नहीं ले पाएंगे।’ उसका कहना है कि यूरोपीय लोगों की संख्या हर रोज कम हो रही है इसलिए यूरोपीय लोगों को अपनी जन्मदर बढ़ाने की जरूरत है वरना वे अपनी ही जमीन पर अल्पसंख्यक हो जाएंगे। यह पश्चिमी जगत के धुर-दक्षिणपंथ का घोषणापत्र है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप से ऐसे मिजाज के लोगों की एक तरह से विदाई हो गई थी, लेकिन पिछले डेढ़-दो दशकों से वे दोबारा सिर उठाने लगे हैं, इस अमानवीय सोच का उभरना एक विडम्बना एवं त्रासदी ही कही जायेगी। क्योंकि इतिहास में सब कुछ सुन्दर और श्रेष्ठ नहीं होता। उसमें बहुत कुछ असुन्दर और हेय भी होता है। सभी जातियों और वर्गों एवं पार्टियों के इतिहास में भी सुन्दर और असुन्दर, महान और हेय, गर्व करने योग्य और लज्जा करने योग्य भी होता है। अतीत को राग-द्वेष की भावना से मुक्त करने के लिए समय की एक सीमा रेखा खींचना जरूरी होता है। क्योंकि इतिहास को अन्तत: मोह, बैर से परे का विषय बनाना चाहिए। उदार समाज इतिहास की इस अनासक्ति को जल्दी प्राप्त करता है और पूर्वाग्रहित, धर्मान्ध समाज देरी से। लेकिन इस अनासक्ति को प्राप्त किये बगैर कोई समाज, कोई देश आगे नहीं बढ़ सकता। अतीत चाहे जितना भी आदरणीय क्यों न हो, उसे जीया नहीं जा सकता। जरूरत है कि हम मनुष्य को नहीं बांटें, सत्य को नहीं ढकें।
ललित गर्ग
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आतंकवाद की मासूमियत और नव-मीरजाफर
एक ख्यातिनाम वकील ने पुलवामा हमले को अंजाम देने वाले आतंकवादी के लिये कहा था ”सेना के जवानों ने उसे अकारण थप्पड मारा था इसलिये आतंकवादी बन गया।’’ उनके इस बयान का प्रयोग अनेक देसी वामपंथी बुद्धिजीवियों और पाकिस्तान की मीडिया ने यह बताने के लिये किया कि कश्मीर में आतंकवाद का कारण क्या है? न्यूजीलैण्ड में हुई आतंकवादी घटना को इसी आलोक में देखिये। ऑस्ट्रेलियन आरोपी ब्रेंटन टैरंट ने दो इबादतगाहों में हमला कर चालीस से अधिक हत्या की जिसके पीछे उसका तर्क था कि ”एब्बा एकरलैंड का बदला लेने के लिए यह हमला किया जा रहा है।’’ एब्बा एकरलैंड केवल बारह वर्ष की बालिका थी जो वर्ष 2017 में स्टॉकहोम में हुए एक आतंकवादी हमले में मारी गयी थी, आतंकवादी रख्मत अकिलोव ने आह्लेंस डिपार्टमेंट स्टोर में बियर की लॉरी भिड़ा दी थी। इस आतंकवादी घटना में एब्बा सहित पांच लोगों की जघन्य हत्या की गयी थी। मेरा प्रश्न पुलवामा हमले के आरोपी के साथ सहानुभूति रखने वालों के लिये है कि एब्बा की हत्या क्या ब्रेंटन टैरंट को आतंकवादी होने का कारण मुहैय्या कराती है? क्या इस तरह उसे सैंकड़ों लोगों की जान लेने का लाइसेंस मिल जाता है? हत्यारे अपने मानसिक पागलपन का कोई भी कारण सामने रखे वह भत्र्सनायोग्य ही है।
हम सभी जानते हैं कि ब्रेंटन टैरंट की आतंकवादी सोच के पीछे एक किस्म की नस्लीय सोच भी थी। हम सभी जानते हैं कि भटके हुए युवक नहीं बल्कि खाये-अघाये और धन-पोषित आतंकवादी कश्मीर के खूनखराबे के पीछे का यथार्थ हैं। हम सभी जानते हैं कि कोई रमन्ना कोई गणपति किसी किस्म की क्रांति-फ्रांति नहीं कर रहा बल्कि उनकी खून की होली खेलने के पीछे पूरा अर्थशास्त्र है। इस सबके बाद भी हमारा भारत एक विचित्र देश है। यहां नक्सली हत्या पर हत्या करते फिरते हैं और यहां की कथित बौद्धिजीविक जमात, हत्यारों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न करने के लिये सामाजिक आर्थिक कारण और तर्क सामने रखती है। कंधे पर एके-सैंतालीस बांध कर बेगुनाहों से जीवन का अधिकार छीनने के लिये सड़क पर निकला दैत्य ‘भटका हुआ नौजवान’ बना दिया जाता है।
जरा सोचिये! वामपंथी उग्रवादी हों अथवा देश के विभिन्न हिस्सों में सक्रिय आतंकवादी, सभी को अपने पक्ष में खड़ी ‘भारत तेरे टुकडे होंगे’ चीखने वाली आवाजें कैसे हासिल हो जाती हैं? जवानों की मौत पर जाम टकराने वाले कुकुरमुत्तों की तरह ऊग रहे नव-मीरजाफर कौन हैं? क्या हमें इस पर विमर्श नहीं करना चाहिये? हत्या और आतंकवाद का कोई सम्मान जनक स्थान कभी नहीं हो सकता, चाहे वे किसी भी तरह के कारण का कैसा भी झुंझुना बजा रहे हों। इसके साथ ही साथ आतंकवाद के समर्थन में खडी कुछ चतुर आवाजों की विवेचना कीजिये, आपको स्वयं अहसास होगा कि माओवादियों तथा आतंकवादियों का शहरी नेटवर्क कार्य कैसे करता है।
राजीव रंजन प्रसाद