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घोषणापत्रों में कहीं फिर छूट ना जाये पर्यावरण के सवाल

देश में लोकसभा चुनाव अगले माह ही शुरू होने जा रहे हैं। चुनाव का माहौल अब गरम होता ही जा रहा है। होली के बाद चुनावी रैलियों से लेकर नुक्कड़ सभाओं के दौर भी शुरू हो जाएंगे। इसी के साथ ही सभी दल अपने-अपने मेनिफेस्टो या संकल्प पत्रों को भी जारी करने लगेंगे। उनमें वर्णित तमाम बिन्दुओं पर चर्चा भी होगी, वादे और संकल्प भी दुहराये जाएंगे। लेकिन, अब पर्यावरण से जुड़े सवालों पर भी एक बार फिर से फोकस करने का समय आ गया है। सभी दलों को अपने-अपने घोषणापत्रों में देश को यह तो बताना ही होगा कि उनकी पर्यावरण से जुड़े सवालों पर किस तरह की सोच है। अभी भारत में यूरोपीय देशों की तर्ज पर ग्रीन पार्टी बनाने के संबंध में अब कौन सोचेगा? पर अगर कोई पार्टी सिर्फ पर्यावरण से जुड़े सवालों को लेकर चुनाव मैदान में भी उतरे तो भी उसका स्वागत ही होना चाहिए। यही तो भविष्य के लिए, आने वाली पीढिय़ों के हित में की जाने वाली सार्थक चिंता है। यूरोप और अन्य विकसित देशों में पिछले कुछ सालों में पर्यावरण सुरक्षा के मसलों को उठाने वाले कुछ राजनैतिक समूह सामने आ रहे हैं। इस लिहाज से नीदरलैंड की डच ग्रीन लेफ़्ट पार्टी का नाम अवश्य लिया जाएगा। इसका गठन 1989 में परंपरागत लेफ्ट पार्टियों के विलय से हुआ था और तभी से यह पर्यावरण से जुड़े मुद्दों को मुख्यधारा की राजनीति में लाने के प्रयास में जुटी हुई है। आपको याद दिला दें कि ग्रीन लेफ्ट की पहली बड़ी जीत 2017 के डच राष्ट्रीय चुनावों में हुई जिसमें इसे करीब नौ फीसदी वोट और केंद्रीय व्यवस्थापिका में 14 सीटें मिलीं। इसके नेताओं और कार्यकर्ताओं ने देश  के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में घूम-घूमकर छात्रों को अपने साथ जोड़ा और उनके साथ  पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर व्यापक बहस चलाई। इनमें स्वच्छ ऊर्जा, थर्मल पावर के संयंत्रों को कम करना, कोयले के उपयोग को घटाना प्रदूषण फैलाने वालों पर जुर्माना और अतिरिक्त कर लगाना और साफ ईंधन के लिए होने वाले अनुसंधानों को बढ़ावा देना शामिल था। इसके विपरीत पर्यावरण का मुद्दा अपने देश भारत के अधिकतर राजनीतिक दलों की सोच में मुख्य रूप से शामिल ही नहीं है। ये सभी पार्टियां अपने घोषणापत्रों में पर्यावरण सम्बन्धी किसी भी मुद्दे को जगह देना जरूरी तक नहीं समझते। देश में हर जगह, हर तरफ हर पार्टी विकास की बातें तो खूब करती हैं। लेकिन, ऐसे विकास का क्या फायदा जो लगातार विनाश का कारण ही बनता जाए। देखा जाए तो ऐसा विकास  बेमतलब का है, जिसके कारण समूची मानवता का अस्तित्व ही संकट में आता दिख रहा हो।

चूंकि हमने भारतवर्ष में पर्यावरण जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र की घोर अनदेखी की है, इसी का नतीजा है कि हमारी सड़कों पर सुबह-शाम दौडऩे वाले लाखों वाहनों से निकलने वाला जहरीले गैसों का गुबार हमारी सेहत का सत्यानाश कर रहा है। हमारी नदियां नालों में तब्दील हो चुकी हैं। हमने सुबह-शाम सेहत बनाने के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले पार्कों को गाडिय़ों की पार्किंग में तब्दील करना चालू कर दिया है। हरियाली तो लगातार खत्म ही होती जा रही है। शहरों को कंक्रीट का जंगल बना दिया है। आप छोटे-बड़े किसी भी शहर के किसी खास या आम चौराहे पर खड़े हो जाइये। मेरा दावा है कि आप वहां पर पांच मिनट भी बिना धूल और धुंआ फांके खड़े नहीं रह सकते। चारों तरफ से आने-जाने वाले वाहन हॉर्न बजाते हुए और प्रदूषण फैलाते हुए आपके सामने से लगभग 24 घंटे गुजर रहे होंगे। हॉर्न बजाना तो फैशन सा बन गया है। जाहिर है कि यह सब इसलिए हो रहा है कि हमने कभी सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को मजबूत करने के संबंध में कोई दीर्घकालिक नीति कभी बनाई ही नहीं है। जब हालात बेकाबू होने लगते है,तब हम थोड़ी देर के लिए कुम्भकर्णी नींद से जाग जाते हैं। तब हम हड़बड़ी में कुछ फायर- फाईटिंग सा करने लगते हैं। तात्कालिक नीतियां बनाने लगते और उसे हड़बड़ी में लागू करने का अभियान सा करने लगते हैं। इसलिए उन नीतियों के भी अपेक्षित परिणाम कभी सामने नहीं आ पाते हैं। सड़कों से निकलने वाले जहर का एक इलाज यह भी है कि देशभर में सड़कों के किनारे चौबीसों घंटे ऑक्सिजन छोडऩे वाले पीपल और बरगद के वृक्ष लगाये जाएं और साइकिल ट्रैक बनें। हमें ऐसे साइकिल ट्रैक बनाने होंगे जो एक खूबसूरत हरियाली भरे सर्विस लेन से गुजरें जहां प्रदूषण और शोरगुल नाम मात्र का हो। सिर्फ फ्लाईओवर बनाने से तो बात नहीं बनेगी। साइकिल चलाने को आंदोलन का रूप देने से तीन लाभ होंगे। पहला, गाडिय़ों से निकलने वाला जहर कम होगा। दूसरा, देश की सेहत सुधरेगी। तीसरा खर्च कम होगा और तेल के आयात में भी कमी आयेगी। कुल मिलाकर साइकिल चलाने की संस्कृति तो देश में पुन: विकसित करनी ही होगी। हमारे टाउन प्लानर्स को इस तरफ गंभीरता से देखना होगा। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कारों की बिक्री पर पूरी तरह रोक लग जाए। यह संभव भी नहीं है। हमारे देश में अनेकों विदेशी कार निर्माता कंपनियों ने लाखों करोड़ रुपये का निवेश कर रखा है। लाखों की संख्या में रोजगार भी पैदा हो रहे हैं। क्या हम उन्हें यह कह सकते हैं कि वे अपनी दूकानें बंद कर दें या कारों का उत्पादन कम कर दें? कतई नहीं। हमें एक तरह से बीच का संतुलन बनाना होगा। बैटरी, इलेक्ट्रॉनिक और सौर ऊर्जा से चालित गाडिय़ां तेजी से विकसित करनी होंगी। प्रदूषण रहित गाडिय़ों के उत्पादन और उपयोग को सरकारी प्रोत्साहन देना होगा। यह हम तब ही कर सकते हैं जब सभी राजनीतिक दल यह संकल्प ले लें कि प्रदूषण रहित गाडिय़ों का निर्माण करेंगे और वे सभी प्रमुख सड़कों के बगल में ही साइकिल ट्रैक बनाएंगे। जहां जगह कम हो वहां सड़कों को ही साइकिल ट्रैक में बदलना होगा और वाहनों के लिए एलिवेटेड रोड बनाने होंगे। तमाम शहरों में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था में भी गुणात्मक सुधार करना होगा। अब इस बात को भी गंभीरता से समझना होगा कि वाहनों से निकलने वाला धुआं धीमा जहर है, जो हवा, पानी, धूल आदि के माध्यम से न केवल मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर उसे रुग्ण बना देता है, बल्कि यह सारे जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों और वनस्पतियों को भी सड़ा-गलाकर अस्वस्थ कर देता है जिससे वे धीरे धीरे दम घुटने से समाप्त हो जाते हैं। बहरहाल, देर-सवेर हमारे यहां भी पर्यावरण की रक्षा को केन्द्र में रखकर राजनीति करने वाला कोई न कोई राजनीतिक दल सामने आ ही जाएगा। मेरी तो यही कामना है कि मोदी जी इस ओर ध्यान दे दें। बहरहाल, जब मौजूदा सियासी दल अपने घोषणापत्रों में पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर गंभीरता से ध्यान देने लगेंगे तभी वास्तविक रूप से भविष्य की पीढ़ी की सही चिंता हो पायेगी। फिलहाल पर्यावरण जैसे इन अति महत्वपूर्ण मसलों पर कुछ दल अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए परस्पर विरोधी नीति अपनाते रहते हैं। अब ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को ही ले लीजिए। वो नयाचार तटीय इलाक़े में रसायन उद्योग का विरोध तो जमकर करती हैं, जो कि होना भी चाहिए, लेकिन लगे हाथों पुराने वाहनों को हटाने का विरोध भी करती है, जबकि उनके अपने प्रिय शहर कोलकाता समेत बंगाल के सभी नगरों में भारी प्रदूषण फैलता जा रहा है।

अब जरा दिल्ली की बात भी कर लीजिए। यहां की सदियों से आम जन की जीवनरेखा रही यमुना नदी किसी नाले से भी बदतर हालत में है। पर जरा दुर्भाग्य तो देखिए कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने पिछले पांच वर्षों में इसकी सफाई के लिए कभी यमुना के निर्मल और अविरल बनाने का कभी कोई ठोस प्रयास ही नहीं किया। देश की आईटी राजधानी बेंगलुरू में भी पानी की प्राथमिक स्रोत ‘वर्तुर झील’ पूरी तरह प्रदूषित हो चुकी है।  इसी तरह, हैदराबाद की हुसैन सागर झील भी गम्भीर पर्यावरणीय ह्रास की चपेट में है। पर इस तरफ कोई ध्यान नहीं दे रहा। अगर आजादी के सत्तर सालों में शासक राजनीतिक दल पर्यावरण से जुड़े सवालों को लेकर सजग रहते तो यह स्थिति ही नहीं आती कि हम अपनी ही अगली पीढिय़ों का जीवन अंधकार में धकेल देते।

उम्मीद की जाए कि साल 2019 का लोकसभा चुनाव इस लिहाज से शायद मील का पत्थर साबित होगा कि कोई राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्रों में पर्यावरण से जुड़े सवालों पर अपनी सोच का इजहार कर दें। चुनावी घोषणा पत्र में राजनीतिक दलों को यह तो बताना ही चाहिए कि वे सरकार में आने के बाद पर्यावरण को बचाने के लिए क्या कारगर उपाय करेंगे। यह मुद्दा तो दलगत राजनीति से ऊपर ही रखा जाना चाहिए। एक अंतिम बात कृषि और खाद्य पर्यावरण को लेकर भी। हमें यह भी सोचना होगा कि आखिरकार हम क्या खा रहें हैं और क्या पी रहे हैं? मुझे यह कहने में हिचक नहीं, परन्तु मुझे यह लिखते घोर शर्मिंदगी महसूस होती है कि हम आज के दिन जो कुछ भी खा रहे हैं या पी रहे हैं, वह शुद्ध रूप से विष ही तो है।

रासायनिक उर्वरकों और विषैले कीटनाशकों के बल पर जो भी अन्न, सब्जी, फल और दूध ग्रहण कर रहे हैं वह विषैला है और वही विष हमारे शरीर में जा रहा है जिससे तरह तरह के ऐसी बीमारिया सुनने में आ रही हैं जिसका पहले नामोनिशान तक नहीं था। कैंसर, थैलीसिमिया, हीमोफीलिया, औरिज्म, किडनी, लिवर का फेल होना किसने सुना था? यह सब रोकना है तो प्राकृतिक (जैविक) कृषि, देसी गायों पर आधारित कृषि व्यवस्था की ओर ही वापस लौटना होगा।

(लेखक राज्य सभा सांसद हैं)

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