चुनाव नजदीक आते ही विविध राजनैतिक दलों व नेताओं में वाकयुद्ध प्रारम्भ हो जाता है। एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते हुए अनेक बार, शब्दों की सीमाएं, न सिर्फ संसदीय मर्यादाएं बल्कि, सामान्य आचार संहिता का भी उल्लंघन कर जाती हैं। राजनैतिक दलों के सिद्धांतों, कार्यों व कार्यशैली पर प्रश्नचिन्ह लगाना तथा एक दूसरे की कमियों को उजागर करते हुए स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने की चेष्टा तो ठीक है किंतु उनकी शब्द रचना भारतीय संस्कृति, संवैधानिक व्यवस्थाओं व लोकाचार के भी परे, जब भारत की एकता व अखंडता के साथ उसकी संप्रभुता पर भी हमला करने लग जाए तो पीडा का असहनीय होना स्वाभाविक ही है।
यूँ तो कश्मीर से सम्बंधित अलगाववादी संवैधानिक धारा 370 व 35 A को हटाने की मांग दशकों पुरानी हैं तथा वर्तमान सत्ताधारी दल इनको हटाने के लिए प्रारम्भ से ही कृत संकल्पित है. इस सम्बंध में एक याचिका भी माननीय सर्वोच्च न्यायालय में लंवित है। हाल ही में देश के वित्तमंत्री श्री अरूण जेटली ने कहा था कि धारा 370 व 35 A का हटाया जाना न सिर्फ कश्मीर समस्या के समाधान बल्कि वहाँ व्याप्त भेदभाव को समाप्त कर कश्मीर समस्या के सम्पूर्ण समाधान व अलगाववाद को समाप्त करने में कारगर कदम होगा और हम 2020 तक इस लक्ष्य को पूरा कर लेंगे।
इतना कहने पर जहां एक ओर देशभर में एक आशा की किरण जागी कि चलो! शायद कश्मीर समस्या का समाधान अब निकट ही है, तो वहीं दूसरी ओर, कश्मीरी अलगाववादियों के पक्षधर पूर्व मुख्यमंत्री व घाटी के प्रमुख राजनेता फारुख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला तथा महबूबा मुफ्ती इत्यादि अलगाववादी नेताओं के बयानों ने देश की एकता और अखंडता पर गहरी चोट करते हुए घाटी में बहुसंख्यक मुसलमानों व वहां के अल्पसंख्यकों के बीच गहरी दरार पैदा कर दी। उन्होंने धमकी भरे स्वरों में जिस प्रकार भारत जैसे महान व दुनिया के सर्वोच्च लोकतंत्र की संप्रभुता पर सीधा हमला करते हुए संविधान के अनुच्छेद 370 व 35 A को हटाने पर जम्मू कश्मीर के भारत से अलग हो जाने की धमकी देने का जो दुस्साहस किया, वह किसी भी देश भक्त के लिए बेहद कष्टकारक था. उनके द्वारा एक नहीं अनेक भाषणों में कश्मीर घाटी के अलगाववादी वातावरण में जिस प्रकार तीखा जहर घोला गया उससे न सिर्फ देशद्रोहियों के हौसले बुलंद हुए, आतंकवादियों और अलगाववादियों को प्रोत्साहन मिला बल्कि लगे हाथ पाकिस्तान ने भी उनके इन बयानों पर तालियां बजाते हुए एक बार पुनः कश्मीरी राग अलाप डाला।
ध्यान रहे ये वही राजनेता हैं जिन्हें भारत के कर दाताओं के खून पसीने की कमाई से दिये गए कर में से वेतन, भत्ते, गाडी-बंगले, पेंशन व सुरक्षा के साथ अनेक प्रकार की प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष सुविधाएं मिलती हैं। भारत सरकार द्वारा जारी पासपोर्ट ही इनकी पहचान है। किन्तु फिर भी ये राजनेता स्थानीय जनता को सांप्रदायिक आधार पर भड़काकर वोट बटोरने का जो बेहद ओछा व गहरा षडयंत्र रचते हैं वह न सिर्फ चुनाव आचार संहिता का गंभीर उल्लंघन है बल्कि देश की संवैधानिक संस्थाओं, संसद व संविधान पर भी सीधा हमला है।
संपूर्ण भारत इन नेताओं की भारत विरोधी धमकियों से बेहद आहत है। किन्तु फिर भी देश को तोड़कर अलग विधान, अलग निशान व अलग प्रधान की बात करने वालों के विरुद्ध, मात्र एक राजनैतिक दल को छोड़कर, किसी भी अन्य राजनैतिक दल या उनके कथित गठबंधन के किसी भी सदस्य ने आज तक एक शब्द तक नहीं बोला कि देश तोड़ने की बात कहने का उनका दुस्साहस कैसे हुआ? आखिर क्यों? हम जानंते हैं कि ऐसी ही एक चुप्पी ने एक बार भारत विभाजन को जन्म दिया था। स्वतंत्रता से पूर्व काँग्रेस के एक अधिवेशन में मुस्लिम लीग ने जब वंदेमातरम का विरोध किया तब तत्कालीन नेताओं ने उसका मुखर विरोध कर उसे गाने को विवश किया होता तो न तो माँ भारती के टुकड़े होते और न ही आज शायद ये दिन देखने पड़ते।
खैर! इन नेताओं की देश विरोध पर चुप्पी का कारण तो देश की जनता समझ ही रही है. किंतु, संवैधानिक संस्थाओं की इतने सम्वेदनशील मुद्दे पर गहरी चुप्पी भी समझा से परे है. बात बात पर राजनेताओं व राजनैतिक दलों तथा यहाँ तक कि गैर राजनैतिक संस्थाओं को भी आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के नाम पर जाने कितने कितने नोटिस, एफआईआर और उनसे भी अधिक कड़े कदम उठाते हुए भारत के चुनाव को हमने देखा है. 1999 में तो बाला साहेब ठाकरे का मताधिकार व चुनाव में खड़े होने तथा चुनाव प्रचार करने का अधिकार तक सिर्फ इसलिए 6 वर्षों के लिए चुनाव आयोग ने छीन लिया था क्योंकि उन्होंने एक चुनाव सभा में मुस्लिम समुदाय के विषय में कोई टिप्पणी कर दी थी.
राजनीति में सुचिता, स्वक्षता व पारदर्शिता बनी रहे तथा उसका अपराधीकरण न होने पाए इस सम्बन्ध में चुनाव आयोग द्वारा समय-समय पर उठाए गए कदम नि:संदेह प्रशंसनीय हैं. किन्तु कोई राजनेता चुनावों की घोषणा के बाद भी यदि यह कहने का दुस्साहस करे कि “ना समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिंदुस्तान वालो. तुम्हारी दांस्ता तक नहीं रहेगी दास्तानों में” और दूसरा कहे कि “हमारा तो अलग विधान, अलग निशान, व अलग प्रधान होगा” तो क्या इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में यूं ही नजरंदाज किया जा सकता है.
हालांकि टुकडे-टुकडे गेंग के पक्षधर देश के सबसे पुराने राजनैतिक दल ने तो अपने घोषणा पत्र में पहले से ही लिख दिया है कि वे देश द्रोह से सम्बन्धित कानून को सत्ता में आते ही समाप्त कर देंगे. जिससे कोई कुछ भी देश विरोधी बोलो, कुछ भी करो, सब चलेगा. किन्तु, अभी तो यह कानून ज़िंदा है ना. चुनाव आचार संहिता नामक चाबुक चुनाव आयोग के पास भी है ना? ये लोग ठीक वही भाषा तो बोल रहे हैं ना जो हमारा दुश्मन पडौसी पाकिस्तान बोलता है. तो फिर, इन नेताओं के स्वयं के मताधिकार तथा चुनावों में खड़े होने के अधिकार व चुनावी सभाओं में भाषण देने के अधिकार का आखिर क्या अर्थ शेष रह जाता है? क्या भारत को ललकारने वाले देश के नेता बनकर इसी भारत पर राज्य करेंगे? जो पहले से ही संविधान, संसद व संप्रभुता को चुनौती दे रहे हैं, क्या उन्हें कानून निर्माता बनाया जाना स्वीकार्य होगा?
इससे पहले कि ये देश में वैमनष्य को और बढ़ाकर अलगाववादियों की सहायता से एक और भारत विभाजनकारी पाकिस्तानी मंशा को आसानी से पूरा करने में सफल हो सकें, इन पर अविलम्ब कड़ा प्रतिबन्ध लगाना चाहिए. साथ ही चुनाव आयोग को इन सभी राजनेताओं का मताधिकार सदा सर्वदा के लिए छीन लेना चाहिए जिससे आगे कभी कोई भारत माता का ही खाकर उसी को ललकार कर उसी पर शासन करने का दिवास्वप्न न देख पाए.
– विनोद बंसल