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बेरोजगारी है सबसे बड़ी चिन्ता 

दुनिया भर के शासक एवं सत्ताएं अपनी उपलब्धियों का चाहे जितना बखान करें, सच यह है कि आम आदमी की मुसीबतें एवं तकलीफें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। इसके बजाय रोज नई-नई समस्याएं उसके सामने खड़ी होती जा रही हैं, जीवन एक जटिल पहेली बनता जा रहा है। विकसित एवं विकासशील देशों में महंगाई बढ़ती है, मुद्रास्फीति बढ़ती है, यह अर्थशास्त्रियों की मान्यता है। पर बेरोजगारी क्यों बढ़ती है? एक और प्रश्न आम आदमी के दिमाग को झकझोरता है कि तब फिर विकास से कौन-सी समस्या घटती है?

बहुराष्ट्रीय मार्केट रिसर्च कंपनी इप्सॉस के द्वारा इसी माह कराया गया सर्वेक्षण ‘वॉट वरीज दि वल्र्ड ग्लोबल सर्वे’ के निष्कर्ष विभिन्न देशों की जनता की अलग-अलग चिंताओं को उजागर करते हैं। जहां तक भारत का प्रश्न है तो यहां बीते मार्च में किए गए सर्वे में ज्यादातर लोगों ने यह तो माना कि सरकार की नीतियां सही दिशा में हैं, लेकिन आतंकवाद की चिंता उन्हें सबसे ज्यादा सता रही थी। उसके बाद देश के लोग बेरोजगारी को लेकर सबसे ज्यादा परेशान पाए गए, हालांकि आर्थिक और राजनीतिक भ्रष्टाचार की चिंता भी उन्हें परेशान किए हुए है। हमारे देश में सरकारी मशीनरी एवं राजनीतिक व्यवस्थाएं सभी रोगग्रस्त हैं। वे अब तक अपने आपको सिद्धांतों और अनुशासन में ढाल नहीं सके। कारण राष्ट्र का चरित्र कभी इस प्रकार उभर नहीं सका।

इप्सॉस का ऑनलाइन सर्वे 28 देशों के 65 वर्ष से कम आयु के लोगों के बीच किया गया, जिसमें बाजार की दृष्टि से महत्वपूर्ण इन मुल्कों के औसतन 58 प्रतिशत नागरिकों ने माना है कि उनका देश नीतियों के मामले में भटक-सा गया है। ऐसा सोचने वालों में सबसे ज्यादा दक्षिण अफ्रीका, स्पेन, फ्रांस, तुर्की और बेल्जियम के लोग हैं। आर्थिक और राजनीतिक भ्रष्टाचार, गरीबी और सामाजिक असमानता ज्यादातर मुल्कों में बड़े मुद्दे हैं। बेरोजगारी, अपराध, हिंसा और स्वास्थ्य संबंधी चिंता इनके बाद ही आती है। अपनी सरकार में सबसे ज्यादा विश्वास चीन के लोगों का है। वहां दस में नौ लोग अपनी सरकारी नीतियों की दिशा सही मानते हैं। इस नियमित सर्वेक्षण पर तात्कालिक घटनाओं का काफी असर रहता है। जैसे भारत में इस बार का सर्वे पुलवामा हमले के बाद किया गया तो इस पर उस हादसे की छाया थी लेकिन देश के पिछले सर्वेक्षणों को देखें तो आतंकवाद का स्थान यहां की चिंताओं में नीचे रहा है और बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्या के तौर पर देखी जाती रही है। रोजगार की फिक्र भारत में सबसे ऊपर होने की पुष्टि अन्य सर्वेक्षणों से भी हुई है। लेकिन सत्रहवीं लोकसभा के लिए जारी चुनाव अभियान में बेरोजागारी के ज्वलंत मुद्दे की उपस्थिति और उस पर कुछ मंथन होता और नतीजे में शायद आगामी चुनी जाने वाली सरकार से रोजगार की कोई तजबीज भी होते हुए दिख पाती। विकास की वर्तमान अवधारणा और उसके चलते फैलती बेरोजगारी को राजनेताओं ने लगभग भुला-सा दिया है, लेकिन ये ही ऐसे मसले हैं जिनके जवाब से कई संकटों से निजात पाई जा सकती है।

प्रश्न यह भी है कि क्या भारतीय जनता राजनीतिक दलों एवं नेताओं पर मुहर लगाने की बजाय इस तरह के बुनियादी मुद्दों पर कोई कठोर निर्णय लेगी? हर बार वह अपने मतों से पूरा पक्ष बदल देती है। कभी इस दल को, कभी उस दल को, कभी इस विचारधारा को, कभी उस विचारधारा को। लेकिन अपने जीवन से जुड़े बुनियादी मुद्दों को तवज्जों क्यों नहीं देती? मैं जहां तक अनुभव करता हूं भारतीय जनता की यह सबसे बड़ी कमजोरी रही है। शेक्सपीयर ने कहा था- ‘दुर्बलता! तेरा नाम स्त्री है।’ पर आज अगर शेक्सपीयर होता तो इस परिप्रेक्ष्य में, कहता ‘दुर्बलता! तेरा नाम भारतीय जनता है।’ आदर्श सदैव ऊपर से आते हैं। पर शीर्ष पर आज इसका अभाव है। वहां मूल्य बन ही नहीं रहे हैं, फलस्वरूप नीचे तक, साधारण से साधारण संस्थाएं, संगठनों और मंचों तक राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि और नफा-नुकसान छाया हुआ है। सोच का मापदण्ड मूल्यों से हटकर राजनीतिक निजी हितों पर ठहर गया है। राष्ट्रीय चरित्र निर्माण की कहीं कोई आवाज उठती भी है तो ऐसा लगने लगता है कि यह विजातीय तत्व है जो हमारे जीवन में घुस रहा है।

पिछले ही महीने प्यू रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट में 76 प्रतिशत वयस्कों ने बेरोजगारी को बहुत बड़ी समस्या बताया था। दरअसल भारत में सरकार का आंकलन कई मुद्दों को लेकर किया जा रहा है, लिहाजा ज्यादातर लोगों का भरोसा उसकी नीतियों पर बना हुआ है। लेकिन इस बात पर प्राय: आम सहमति है कि वह रोजगार के मोर्चे पर विफल रही है। एक तबका एनएसएसओ के हवाले से कहता है कि 2017-18 में बेरोजगारी की दर 6.1 प्रतिशत तक पहुंच गई जो पिछले 45 साल का सर्वोच्च स्तर है। लेकिन इस आंकड़े को सरकार नहीं मानती। जो भी हो, पर इप्सॉस सर्वे में सरकार के लिए यह संदेश छुपा है कि वह सुरक्षा को लेकर तैयारी पुख्ता रखे, लेकिन लोगों की रोजी-रोजगार से जुड़ी मुश्किलों की भी अनदेखी न करे।

निर्धनता दूर करने का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि सभी के लिए संतोषजनक रोजगार उपलब्ध हो तथा रोजगारों से जुड़ी विभिन्न विषमताओं को कम किया जाए। इस संदर्भ में यदि भारत की स्थिति को देखा जाए तो हमारे देश में रोजगार से जुड़ी विषमताएं अनेक स्तर पर मौजूद हैं व उन्हें दूर करने की दिशा में अभी बहुत कुछ करना शेष है। इनमें से अनेक विषमताओं की ओर हाल ही में जारी की गई वैश्विक एनजीओ ‘आक्सफैम-इंडिया’ की रिपोर्ट में विषमताओं पर ध्यान देते हुए भारत में रोजगार की स्थिति को प्रमुखता से उभारा गया है।

‘स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया-2018’ के अनुसार भारत में 82 प्रतिशत पुरुषों और 92 प्रतिशत महिलाओं की मासिक आय 10,000 रुपये प्रतिमाह से कम है जो एक बहुत चिंताजनक स्थिति है। सातवें वेतन आयोग ने तय किया था कि न्यूनतम मासिक आय 18,000 रुपये होनी चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के लिए कृषि सबसे बड़ा रोजगार बना हुआ है, पर इस क्षेत्र में भी रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं। अनेक दलित महिला मजदूरों की स्थिति बंधुआ मजदूरों जैसी है। शहरी क्षेत्रों में घरेलू-कर्मियों में 81 प्रतिशत महिलाएं व तंबाकू-बीड़ी के कार्य में 77 प्रतिशत महिलाएं हैं। इन दोनों कार्यक्षेत्रों में स्थितियां कई स्तरों पर अन्यायपूर्ण हैं। ‘आक्सफैम’ की इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में बेरोजगारी एक बड़ा संकट है। इस संकट का उचित समय पर समाधान न हुआ तो इसका समाज की स्थिरता और शांति पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। एक ओर जो दसियों लाख युवा श्रम-शक्ति में प्रतिवर्ष आ रहे हैं उनके लिए पर्याप्त रोजगार नहीं हैं, दूसरी ओर इन रोजगारों की गुणवत्ता व वेतन अपेक्षा से कहीं कम हैं। लिंग, जाति व धर्म आधारित भेदभावों के कारण भी अनेक युवाओं को रोजगार प्राप्त होने में अतिरिक्त समस्याएं हैं। इस स्थिति से परेशान युवा एक समय के बाद रोजगार की तलाश छोड़ देते हैं। इन कारणों से सरकार द्वारा रोजगार प्राप्ति की सुविधाजनक परिभाषा के बावजूद बेरोजगारी के आंकड़ें चिंताजनक हो रहे हैं व यह प्रवृत्ति आगे और बढ़ सकती है।

इस चिंताजनक स्थिति को सुधारने के लिए इस रिपोर्ट ने व्यापक स्तर पर सुधार के सुझाव दिये हैं। स्वास्थ्य व शिक्षा में अधिक निवेश से उत्पादकता में सुधार होगा। यह दो क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें भविष्य में बहुत रोजगार सृजन भी हो सकता है। कुशलता बढ़ाने पर बेहतर ध्यान देना चाहिए ताकि अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा में टिक सकें। सरकार को भ्रष्टाचार दूर करना चाहिए। कर-नीतियों में विषमता की दर कम होनी चाहिए। कारपोरेट टैक्स में छूट देने का अतिरिक्त उत्साह उचित नहीं है। इस तरह जो अतिरिक्त राजस्व प्राप्त हो उसका उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य व सामाजिक सुरक्षा सुधारने के लिए करना चाहिए। क्या देश मु_ीभर राजनीतिज्ञों और पूंजीपतियों की बपौती बनकर रह गया है? चुनाव प्रचार करने हैलीकॉप्टर से जाएंगे पर उनकी जिंदगी संवारने के लिए कुछ नहीं करेंगे। तब उनके पास बजट की कमी रहती है। लोकतंत्र के मुखपृष्ठ पर ऐसे बहुत धब्बे हैं, अंधेरे हैं, वहां मुखौटे हैं, गलत तत्व हैं, खुला आकाश नहीं है। मानो प्रजातंत्र न होकर सज़ातंत्र हो गया। क्या इसी तरह नया भारत निर्मित होगा? राजनीति सोच एवं व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन हो ताकि अब कोई गरीब नमक और रोटी के लिए आत्महत्या नहीं करें।

ललित गर्ग

 

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