मजदूर दिवस/मई दिवस समाज के उस वर्ग के नाम है जिसके कंधों पर सही मायने में विश्व की उन्नति का दारोमदार होता है। कर्म को पूजा समझने वाले श्रमिक वर्ग के लगन से ही कोई काम संभव हो पाता है चाहे वह कलात्मक हो या फिर संरचनात्मक या अन्य लेकिन विश्व का शायद ही कोई ऐसा हिस्सा हो जहां मजदूरोें का शोषण न होता हो। बंधुआ मजदूरों खासकर महिला और बाल मजदूरों की हालत और भी दयनीय होती है जिन्हें अपनी मर्जी से न अपना जीवन जीने का अधिकार होता है और न ही सोचने का। ऐसे में मजदूरों की स्थिति में सुधार आवश्यक भी है और उसका अधिकार भी। दुनियाभर के मजदूरों को कई श्रेणियों में बांटा जाता रहा है जैसे कि संगठित-असंगठित क्षेत्र के मजदूर, कुशल-अकुशल आदि। समय-दर-समय मजदूरों की स्थिति में कुछ सुधार आया तो कुछ मामलों में स्थिति और भी बदतर हुई है। सुधारवाद की बात करें तो मजदूरों का पारिश्रमिक तय किया जाने लगा, उसके अधिकारों की बात होने लगी और इसके लिए कई कानून एवं संगठन भी बने वहीं दूसरी ओर मजदूरों की हालत और भी बदतर होती चली गई। तकनीक ने लोगों की आवश्यकता को कम कर दिया। जो काम पहले 100 मजदूर मिलकर करते थे, वह काम अब एक रोबोट/मशीन करने लगी जिससे अकुशल श्रमिकों की जमीन खिसकती चली गयी, लोग बेरोजगार होते चले गये। दूसरी ओर कुशल मजदूरों की मांग में इजाफा हुआ और नौकरी प्रायः उन तक सीमित होकर रह गयी। वेतन के आधार पर मजदूरों की स्थिति का आकलन करें तो हम पाते हैं कि अकुशल मजदूरों की पारिश्रमिक कुशल मजदूरों से कहीं ज्यादा है और सुविधा भी। कुल मिलाकर मजदूर संगठित क्षेत्र के हों या असंगठित क्षेत्र के या फिर कुशल हो या अकुशल, उनका शोषण होना निश्चित माना गया है।
प्रायः मजदूर विवशता से काम करने पर विवश होते हैं। यदि वेतन समय पर न मिला या कम मिला तो भी मालिक का अधिकतर मामलों में मजदूर कुछ बिगाड़ नहीं पाता। मालिक जब चाहे तब बिना कारण के भी नौकरी से निकाल सकता है और ऐसा वह करता भी है। यदि काम के दौरान मजदूरों का शारीरिक नुकसान हो जाए तो अधिकतर मामलों में कोई खास मदद या भरपाई करने की कोशिश मालिकों के द्वारा नहीं की जाती। इस पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से लड़ने, अपने अधिकारों को पाने और उनकी सुरक्षा करने के लिए मजदूरों को जागरूक एवं संगठित करने का श्रेय साम्यवाद के जनक कार्ल माक्र्स को जाता है। कार्ल माक्र्स ने समस्त मजदूर-शक्ति को एक होने एवं अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना सिखाया था। उनका सिद्धांत पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का विरोध करने एवं मजदूरों की दशा सुधारने के लिए था। चूंकि शोषण को रोकने के लिए कई सारे कानून एवं अधिकार मजदूरों को प्रदान किए गए हैं जिसका लाभ बहुत कम ही लोगों को मिल पाता है या यूं कहें कि मिल ही नहीं पाता है। क्योंकि शोषित मजदूरों को पहली बात तो जानकारी नहीं होती दूसरी यह कि वह इन उलझनों में पड़ना भी नहीं चाहता जिससे कि उसका और शोषण हो। चूंकि इनके अधिकारों एवं रोजगार के लिए विश्व के लगभग सभी देशों में कई कानून बने हैं जैसे कि भारत में डाॅक वर्कस कानून, रोजगार गारंटी कानून, मनरेगा आदि। लेकिन इन कानूनों की क्रियान्वयन की स्थिति और असफलता किसी से छुपी नहीं है।
कार्ल मार्क्स का नारा ‘‘संगठित बनो व अधिकारों के लिए संघर्ष करो’ आज के दौर में भी उतना ही प्रासंगिक बना हुआ है जितना कि उनके समय में था। मजदूरों के संगठन के नाम पर दुनियाभर में ढ़ेर सारे संगठन हैं लेकिन मजदूरों की स्थिति में कितना सुधार हो पाता है, यह बात भी किसी से छुपी नहीं है। वास्तविकता यह है कि अधिकतर संगठन निजी स्वार्थ की रोटियां सेंक रहे हैं और अधिकारों के संघर्ष का सौदा करते हैं। मजदूर लोग अपने अधिकारों को लेकर जहां एक ओर धरना-प्रदर्शन कर अपना विरोध दर्ज कराते हैं तो दूसरी ओर अधिकतर संगठनों के नेता निजी स्वार्थपूर्ति के चलते राजनेताओं व पूंजीपतियों के हाथों अपना ईमान तक बेचने से नहीं हिचकते। ऐसे में आसानी से समझा जा सकता है कि श्रमिकों के अधिकारों की सुरक्षा भगवान भरोसे ही है। देखा जाए तो इन सभी मामलों में प्रवासी मजदूरों को दोहरी मार झेलनी पड़ती है। ये ऐसे मजदूर होते हैं जो काम की तलाश में अपना घर-द्वार छोड़कर अन्य शहरों/देशों की ओर कूच कर जाते हैं।
मानवाधिकार समूह वाक फ्री फाउंडेशन ने ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स-2018 रिपोर्ट जारी किया। वाक फ्री फाउंडेशन और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुमान के मुताबिक 2016 तक दुनिया भर में चार करोड़ से अधिक लोग गुलाम हैं। भारत इनमें शीर्ष पर है, जबकि उत्तर कोरिया में हर 10 में से एक इंसान आधुनिक युग का गुलाम है। सबसे ज्यादा गुलामों वाले शीर्ष पांच देशों में भारत के बाद चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश और उजबेकिस्तान शामिल हैं। इससे पहले भी फाउंडेशन ने कहा था कि शीर्ष पांच देशों के भीतर दुनिया के कुल 58 फीसदी लोग गुलामी के वातावरण में अपना जीवन बिता रहे हैं। इंडेक्स के मुताबिक उत्तर कोरिया, अफ्रीकी देश इरिट्रिया और बुरुंडी में वहां की जनसंख्या की दर के हिसाब से गुलाम लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है।
यहां यह समझ लें कि गुलामी की आधुनिक परिभाषा में बंधुआ मजदूरी, जबरन शादी और मानव तस्करी शामिल है। गौर करें तो हम देखते हैं कि अरब देश खुद सस्ते श्रम की लालच में नेपाल/भारत सहित अन्य एशियाई देशों के श्रमिकों को अपने यहां आमंत्रित करते हैं और इनसे अति जोखिम वाला कार्य कराते हैं। इन मजदूरों को वहां के श्रम कानूनों के बारे में कोई जानकारी नहीं होती है जिससे उन्हें औरों की अपेक्षा अधिक शोषण से दो-चार होना पड़ता है।
यदि मजदूरों को भी मनोरंजन/मजे से जोड़ना है और शोषण से निजात दिलाना है तो सबसे पहले इनके अधिकारों और वेतन को समान रूप से दिलाने के लिए किसी भी कीमत पर हर संभव प्रयास करने होंगे। श्रमिकों की पहचान कर पंजीकरण पद्धति पर जोर देना होगा। सरकार और पूंजीपति लोग स्वयं ही मजदूरों के अधिकारों का ध्यान रखें। और इस सबसे अधिक जरूरी है कि मजदूरों को अपने अधिकारों के लिए खुद आगे आना होगा और कार्ल मार्क्स के नारा ‘‘एक होने पर तुम्हारी कोई हानि नहीं होगी, उल्टे तुम दासता की जंजीरों से मुक्त हो जाओगे’’ को बुलंद करते हुए अपने वर्गीय विचार एवं सिद्धांतों को प्रमुखता देनी होगी, तभी जाकर पूंजीवादी के शोषण, दमन से मुक्त एक शोषणविहीन समाज के सपनों को पूरा किया जा सकेगा और कार्ल मार्क्स की आत्मा को शांति।
निर्भय कर्ण