विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस प्रत्येक वर्ष 3 मई को मनाया जाता है। प्रेस किसी भी समाज का आइना होता है। 1991 में यूनेस्को की जनरल असेंबली के 26वें सत्र में अपनाई गई सिफारिश के बाद, संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) ने दिसंबर 1993 में विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस की घोषणा की थी। प्रेस की आजादी से यह बात साबित होती है कि किसी भी देश में अभिव्यक्ति की कितनी स्वतंत्रता है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में प्रेस की स्वतंत्रता एक मौलिक जरूरत है। आज हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं, जहाँ अपनी दुनिया से बाहर निकल कर आसपास घटित होने वाली घटनाओं के बारे में जानने का अधिक वक्त हमारे पास नहीं होता। ऐसे में प्रेस और मीडिया हमारे लिए एक खबर वाहक का काम करती हैं, जो हर सवेरे हमारी टेबल पर गरमा गर्म खबरें परोसती हैं। प्रेस केवल खबरे पहुंचाने का ही माध्यम नहीं है बल्कि यह नये युग के निर्माण और जन चेतना के उद्बोधन एवं शासन-प्रशासन के प्रति जागरूक करने का भी सशक्त माध्यम है। प्रेस देश एवं दुनिया की राजनीति और उसके लिए आवश्यक सदाचार का माध्यम रही है। हिंसा, विपत्तियां और भ्रष्टाचार को लेकर भी अनेक पक्ष उसने समय-समय पर प्रस्तुत किये हैं। ”आज हर हाथ में पत्थर है। आज समाज में नायक कम खलनायक ज्यादा हैं। प्रसिद्ध शायर नज़मी ने कहा है कि अपनी खिड़कियों के कांच न बदलो नज़मी, अभी लोगों ने अपने हाथों से पत्थर नहीं फंेके हैं।“ प्रेस ने समय-समय पर ऐसी स्थितियों के प्रति सावधान किया गया है, ‘डर पत्थर से नहीं, डर उस हाथ से है जिसने पत्थर पकड़ रखा है।’ महावीर, बुद्ध एवं गांधी का उदाहरण देते हुए बहुत सफाई के साथ प्रेस ने समाज को सजग किया है।
विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस प्रेस की स्वतंत्रता के मौलिक सिद्धांतों का जश्न मनाने के साथ-साथ दुनिया भर में प्रेस की आजादी का मूल्यांकन करने का अवसर है। यह दिवस मीडिया की आजादी पर हमलों से मीडिया की रक्षा करने तथा मरने वाले पत्रकारों को श्रद्धांजलि अर्पित करने का कार्य करता है। इस दिन के मनाने का उद्देश्य प्रेस की स्वतंत्रता के विभिन्न प्रकार के उल्लंघनों की गंभीरता के बारे में जानकारी देना भी है। यह दिन प्रेस की आजादी को बढ़ावा देने और इसके लिए सार्थक पहल करने तथा दुनिया भर में प्रेस की आजादी की स्थिति का आकलन करने का भी दिन है। प्रेस की आजादी का मुख्य रूप से यही मतलब है कि शासन की तरफ से इसमें कोई दखलंदाजी न हो, लेकिन संवैधानिक तौर पर और अन्य कानूनी प्रावधानों के जरिए भी प्रेस की आजादी की रक्षा जरूरी है। यह दिवस प्रेस के सम्मुख उपस्थित विभिन्न झंझावातों एवं संकटों के बीच अपने प्रयासों के दीप जलाये रखने का आह्वान हैं।
भारत जैसे विकासशील देशों में मीडिया पर जातिवाद और सम्प्रदायवाद जैसे संकुचित विचारों के खिलाफ संघर्ष करने और गरीबी तथा अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लड़ाई में लोगों की सहायता करने की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, क्योंकि लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग पिछड़ा और अनभिज्ञ है, इसलिये यह और भी जरूरी है कि आधुनिक विचार उन तक पहुंचाए जाएं और उनका पिछड़ापन दूर किया जाए, ताकि वे सजग भारत का हिस्सा बन सकें। न केवल भारत में बल्कि दुनिया में प्रेस की स्वतंत्रता को लहूलुहान और जंजीरों में जकड़ने की कोशिशें हो रही हैं। इन त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थितियों में कैसे भरेगी कलम उड़ान! यही विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर यह एक चिन्तनीय विषय है।
भारत में पत्रकारिता लोकतंत्र का चैथा स्तंभ माना गया है। अकबर इलाहाबादी ने इसकी ताकत एवं महत्व को इन शब्दों में अभिव्यक्ति दी है कि ‘न खींचो कमान, न तलवार निकालो, जब तोप हो मुकाबिल तब अखबार निकालो। उन्होंने इन पंक्तियों के जरिए प्रेस को तोप और तलवार से भी शक्तिशाली बता कर इनके इस्तेमाल की बात कह गए हैं। अर्थात कलम को हथियार से भी ताकतवर बताया गया है। पर खबरनवीसों की कलम को तोड़ने, उन्हें कमजोर करने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को निस्तेज करने के लिए बुरी एवं स्वार्थी ताकतें तलवार और तोप का इस्तेमाल कर रही हैं। दुनियाभर में पत्रकारों को सच की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी है और पड़ रही है। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है बांग्लादेश में समलैंगिक अधिकारों से जुड़े कार्यकर्ता और देश की एकमात्र एलजीबीटी पत्रिका ‘रूपबान’ के संपादक जुल्हान मन्नान की हत्या। पिछले दिनों बांग्लादेश में ब्लॉगर्स और बुद्धिजीवियों की हत्या की जो घटनाएं सामने आई हैं, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वहां पत्रकार कितने सुरक्षित हैं। यह कहानी सिर्फ बांग्लादेश की नहीं, कमोबेश संपूर्ण विश्व की है, जहां कलम के सिपाही जान जोखिम में डालकर लगातार अपना काम कर रहे हैं। हमारे देश में पंजाब एवं कश्मीर में इसी तरह पत्रकारों को अपना बलिदान देना पड़ा है। हिंसा और आतंकवाद से उबरने का रास्ता न तो हिंसक तरीके हैं और न जेल की सलाखें। विकृत मानसिक चरित्र के लिए ये सारे उपादान व्यर्थ हैं। उन्हें रास्ते पर लाकर मनुष्यता की धर्मरेखा को समझाने के लिए एक लक्ष्मण रेखा जरूर खींचनी होगी। यह कार्य प्रेस एवं पत्रकार ही कर सकते हैं। पुरानी कहावत गलत नहीं है कि तलवार से कलम में अधिक शक्ति होती है।
तलवार से भी धारदार कलम इतनी प्रभावी है कि इसकी वजह से बड़े-बड़े राजनेता, उद्योगपतियों और सितारों को अर्श से फर्श पर आना पड़ा। इसी कलम की धार ने 70 के दशक में अमेरिका के मशहूर वाटरगेट कांड का फंडाफोड़ कर राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को व्हाइट हाउस से बाहर का रास्ता दिखाया था। इस तरह मशहूर पत्रकार एन. राम और चित्रा सुब्रमण्यम की पत्रकारिता ने जब बोफोर्स तोपों की आड़ में हुए घोटाले को जनता के समक्ष पेश किया तो भारतीय राजनीति में हंगामा मच गया। इसीलिये प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने कहा भी है कि ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस एक आजाद एवं जीवंत प्रेस के प्रति हमारे अविश्वसनीय समर्थन को दोहराने का दिन है जो लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी है। आजकल के दौर में सोशल मीडिया संपर्क के एक सक्रिय माध्यम के रूप में उभरी है और इससे प्रेस की आजादी को और बल मिला है।’
यह दिवस पत्रकारों के लिये भी आत्म-मंथन का दिवस है। आज हमारा मीडिया अपना दायित्व ठीक तरीके से नहीं निभा रहा है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया टी आर पी बढ़ाने के लिये खबरों में तड़का लगाने से परहेज नहीं करता। प्रेस के जिन माध्यमों से नैतिकता मुखर हो रही है, वे बहुत सीमित हैं या दायित्वविमुख हैं। प्रभावक्षीण तथा चेतना पैदा करने में काफी असमर्थ हैं। हम देख रहे हैं कि माध्यमों की अभिव्यक्ति एवं भाषा में एक हल्कापन आया है। ऐसे में एक गम्भीर पत्रकारिता के साथ आगे आना ही एक साहस है। हम यह भी महसूस कर रहे हैं कि प्रकाशन एवं प्रसारण के क्षेत्र में ताकतवर संस्थान युग की नैतिक विचारधारा को किस तरह धूमिल कर रहे हैं। जबकि समय यह मानता है कि जब-जब नैतिक क्षरण हो, तब-तब प्रेस, पत्रकारिता एवं अभिव्यक्ति का माध्यम और ज्यादा ताकतवर व ईमानदार हो। क्योंकि प्रेस जहाँ एक तरफ जनता का आइना होता है, वहीं दूसरी ओर प्रेस जनता को गुमराह करने में भी सक्षम होता है इसीलिए प्रेस पर नियंत्रण रखने के लिए हर देश में अपने कुछ नियम और संगठन होते हैं, जो प्रेस को एक दायरे में रहकर काम करते रहने की याद दिलाते हैं। प्रेस की आजादी को छीनना भी देश की आजादी को छीनने की तरह ही होता है। चीन, जापान, जर्मनी, पाकिस्तान जैसे देशों में प्रेस को पूर्णतः आजादी नहीं है। यहां की प्रेस पर सरकार का सीधा नियंत्रण है। इस लिहाज से हमारा भारत उनसे ठीक है। आज मीडिया के किसी भी अंग की बात कर लीजिये, हर जगह दाव-पेंच का असर है। खबर से ज्यादा आज खबर देने वाले का महत्त्व हो चला है। लेख से ज्यादा लेख लिखने वाले का महत्त्व हो गया है। पक्षपात होना मीडिया में भी कोई बड़ी बात नहीं है, जो लोग मीडिया से जुड़ते हैं, अधिकांश का उद्देश्य जन जागरूकता फैलाना न होकर अपनी धाक जमाना ही अधिक होता हैं। कुछ लोग खुद को स्थापित करने लिए भी मीडिया का रास्ता चुनते हैं। कुछ लोग चंद पत्र-पत्रिकाओं में लिखकर अपने समाज के प्रति अपने दायित्व की इतिश्री कर लेते हैं। आज यह समझना भी जरूरी है कि क्यों मीडिया की आजादी बहुत कमजोर है? यह भी जानना जरूरी है कि अभी यह सभी की पहुंच से क्यों बाहर है? हालांकि मीडिया की सच्ची आजादी के लिए माहौल बन रहा है, लेकिन यह भी ठोस वास्तविकता है कि दुनिया में कई लोग ऐसे हैं, जिनकी पहुंच बुनियादी संचार प्रौद्योगिकी तक नहीं है। प्रेषकः
(ललित गर्ग)