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वामपंथी रुदन

फेसबुक पर इन चुनावी दिनों में कई घोषित वामपंथियों (इनमें साहित्यकार, जिन्हें मैं साहित्यविकार कहता हूँ, और रिपोर्टर टाइप पत्रकार आदि शामिल हैं) का रुदन पढ़ रहा हूँ। सभी एक दूसरे को कॉपी पेस्ट किए जा रहे हैं। इसमें उन्हें महारत हासिल है। मौलिक लेखन की प्रतिभा तो कहीं दिखती नहीं है। इनके रुदन को पढ़िए। एक ही बात सभी लिखे जा रहे हैं। पिछले पाँच वर्ष में देश तथा समाज में अनाचार मच गया है। वे अकेले हो गए हैं, जीवन का सारा रस सूख गया है, प्रकृति के प्रति कोई प्रेम कहीं नहीं बचा है। संस्कृति नष्ट हो गई  है, नदी, हवा, पेड़-पौधे, सभी समाप्त हो रहे हैं। सभी लोग एक दूसरे से घृणा करने लगे हैं। इसका कारण एक ही है। एक ऐसा व्यक्ति सत्ता में बैठा है, जो सब रस सोखे ले रहा है, घृणा फैला रहा है, प्रकृति को नष्ट कर रहा है, सौन्दर्य को समाप्त कर रहा है, व्यक्तियों को अकेला कर रहा है।

इस रुदन को पढ़ने से पहले मुझे तो दुनिया पहले जैसी ही प्रतीत होती थी। पाँच वर्ष पहले भी समाज में जितना सौहार्द्र दिख रहा था, आज भी वैसा ही दिख रहा है। कम से कम मैं दिल्ली में जहाँ रहता हूँ और बिहार, झारखंड में जहाँ-जहाँ मैं जाता-आता रहा हूँ, किसी भी स्थान पर मुझे न तो प्रकृति में कोई अंतर दिखा और न ही लोगों में। फिर इन वामपंथियों को ऐसा प्रचंड दुख क्यों हो रहा है? उनका प्रकृतिपरक गैरराजनीतिक लेखन अवरुद्ध क्यों हो गया?

पिछले 30 वर्षों से मैं सार्वजनिक जीवन में हूँ और अहर्निश अध्ययन-लेखन कर रहा हूँ। इन 30 वर्षों में कई सरकारों को आते-जाते देखा। मेरे अध्ययन, लेखन पर इन सरकारों के आने-जाने का कभी कोई फर्क नहीं पड़ा। तब भी मजे से पढ़ता-लिखता था, आज भी मजे से पढ़ता-लिखता हूँ। फिर मैंने अपने साथियों, गुरुजनों और वरिष्ठों का ध्यान किया। वे भी हमेशा आनंद में थे। पढ़ने-लिखने में उन्हें न तब कोई बाधा थी और न ही अभी कोई बाधा है। वामपंथियों को छोड़ दें तो और किसी को मैं रोते नहीं देख पा रहा हूँ।

मैंने विचार करना प्रारंभ किया, आखिर इन्हें इतनी तकलीफ, इतना कष्ट क्यों हो रहा है? इनके शब्दों में कहूँ, तो पढ़िए – “मैं हर दिन खुद से सवाल पूछती हूँ कि मैं सरकार का विरोध क्यों करती हूँ? मेरी प्रतिबद्धता किसी विचारधारा के प्रति नहीं, किसी दल और किसी व्यक्ति के प्रति भी नहीं है।
मेरी प्रतिबद्धता बेंथम के ‘अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख’ के प्रति है। गाँधी के अंतिम व्यक्ति के प्रति है। नेहरू की धर्मनिरपेक्षता और वैज्ञानिकता के आग्रह के प्रति है। अंबेडकर के सामाजिक न्याय और मार्क्स की आर्थिक समानता के प्रति है। मिल की स्वतंत्रता के प्रति है। एवलिन की ‘इक्वेलिटी इन डिग्निटी’ के प्रति है। मेरी प्रतिबद्धता, नदी-पहाड़-हवा-पंछी के प्रति है। आदिवासियों और उनकी संस्कृति के प्रति है। सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक विरासत के प्रति है। इस देश की विविधता के प्रति है। परंपरा, संस्कृति, दर्शन, समाज के प्रति है।”

मैं बहुत प्रभावित हुआ था कि देश के आमजन की चिंता में इन्हें इतना कष्ट हो रहा है। परंतु फिर सोचने लगा कि झारखंड, बिहार और उत्तर प्रदेश के गाँवों में आमजन तो बड़ा प्रसन्न है। उन्हें घर मिले हैं, शौचालय मिले हैं, बिजली मिली है, गैस का चुल्हा मिला है। गाँव-गाँव में औरतें मोदी का गुण का रही हैं। फिर इन्हें किस आमजन की इतनी चिंता है कि इनकी श्वांस अटकी पड़ी है। सोच कर देखिए, ये वामपंथी लेखक बैठते कहाँ हैं? दिल्ली में आईआईसी और प्रेस क्लब जैसे क्लबों में। वहाँ गाँधी का कौन सा अंतिम व्यक्ति बैठा होता है? दिल्ली, मुंबई और कोलकाता के पॉश क्लबों में बैठे ये वामपंथी तड़प रहे हैं, किसके लिए?

वास्तव में ये अंतिम व्यक्ति, नदी-पहाड़-हवा-पंक्षी, आदिवासियों, संस्कृति, अध्यात्म दर्शन आदि के लिए चिंतित हैं ही नहीं। ये सत्तापरजीवी लोग हैं। इनकी चिंता है कि सरकारी आयोजनों में इन्हें बुलाया जाना घट गया है। बंद नहीं हुआ है। परंतु अभी तक जिन्हें इन्होंने दरवाजे की चौखट पर भी चढ़ने नहीं दिया था, वे सरकारी आयोजनों में मंच पर बैठ रहे हैं। यदि इन्हें बुलाया जाता भी है तो इन्हें भी उनके साथ मंच साझा करना होता है। यह उनके लिए घुटन का कारण बन रहा है। उनकी तानाशाही टूट रही है। उनकी सत्ता का खोल दरक रहा है। बंद हवा में जीने वाले ये लोग साफ हवा का प्रवेश सहन नहीं कर पा रहे हैं। लोग उनसे प्रश्न पूछें, उनकी बातों का उत्तर दें, इससे उनका अहंकार चोटिल हो रहा है।

बहुत पहले मैंने रोहित वेमुला के आत्महत्या करने पर एक वामपंथी के ऐसे ही रुदन पर मैंने कुछ पंक्तियां लिखी थीं। उसमें मैंने लिखा था

नहीं, तुम्हें कोई नहीं मारेगा,
कायर अपनी मौत स्वयं मरते हैं।

ये मर रहे हैं। इसलिए नहीं कि देश तथा समाज की हवा में घुटन है, इसलिए कि साफ हवा आने लगी है, जिसकी इन्हें आदत नहीं है। ये अपनी सड़ांध में जीने वाले लोग हैं। इनकी इस प्रतिक्रिया पर मुझे याद आती है यूरोप के अंधकार युग पर एक टिप्पणी जिसमें लेखिका पूछती है कि पाँच-छह सौ वर्ष से नहीं नहाने के कारण क्या किसी को दुर्गंध नहीं आती थी, लेखिका स्वयं उसका उत्तर देती है कि चूँकि सभी दुर्गंध कर रहे थे, इसलिए किसी को दुर्गंध नहीं आती थी। यही इनकी तब की स्थिति थी। यही इनकी आज की स्थिति है।

रवि शंकर

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