हमारी पृथ्वी काफी बेहतरीन व सुन्दर है जिसमें सभी जीव-जंतुओं का अपना-अपना अहम योगदान व महत्ता है। हरे-भरे पेड़-पौधे, विभिन्न प्रकार के जव-जंतु, मिट्टी, हवा,पानी, पठार, नदियां, समुद्र, महासागर,आदि सब प्रकृति की देन है, जो हमारे अस्तित्व एवं विकास के लिए आवश्यक है। पृथ्वी हमें भोजन ही नहीं वरन् जिंदगी जीने के लिए हर जरूरी चीजें मुहैया कराती है। असल में सभी जीवों व पारिस्थतिकी तंत्रों की विभिन्नता एवं असमानता ही जैव विविधता कहलाती है। इसलिए यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जैव विविधता का मानव जीवन के अस्तित्व में अहम योगदान है।
जैव विविधता से जहां सजीवों के लिए भोजन तथा औषधियां तो वहीं उद्योगों को कच्चा माल प्राप्त होता है। पिछले वर्ष ग्लोबल हंगर इंडेक्स ने आंकड़े जारी कर कहा था कि दुनियाभर में हर साल जितना भोजन तैयार होता है उसका लगभग एक-तिहाई बर्बाद हो जाता है। आलम तो यह है कि बर्बाद किया जाने वाला खाना इतना होता है कि उससे दो अरब लोगों के भोजन की जरूरत पूरी हो सकती है।
इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट आफ रेफ्रिजरेशन के अनुसार, यदि विकासशील देशों के पास विकसित देशों के समान ही शीत-गृहों की उपलब्धता हो तो वे अपनी खाद्य आपूर्ति का14 प्रतिशत या लगभग 200 मिलियन टन भोजन को बर्बाद होने से बचा सकेंगे।
पूरी धरती के सिर्फ 22 फीसदी भू-भाग पर दुनिया के 95 फीसदी लोगों का पेट भरने लायक खाद्यान्न उपजता है। इसमें से एक तिहाई (करीब 33 फीसदी) अब बंजर हो चुकी है। इसकी मुख्य वजहें कटाव, प्रदूषण और वनों का कटाव है। धरती को इतना नुकसान सिर्फ 50 वर्ष में हुआ है। इसी आधार पर सम्राट भूमिबोल अदुल्यादेज ने संयुक्त राष्ट्र को दिये एक संदेश में कहा था कि खाद्य सुरक्षा की गारंटी के लिए पारिस्थितिकी तंत्र (मिट्टी) से जुड़े मुद्दों का हल करना बेहद जरूरी है।
दुनिया के 17 महत्चवूर्ण जैव विविधता संपन्न देशों में भारत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस विविधता को बनाये रखने के लिए वन एवं वन्य जीवों की रक्षा जरूरी है। यदि वनों की बात की जाए तो पुर्वानुमानों के अनुसार वन विनाश की मौजूदा रफ्तार अगर जारी रहती है तो सन् 2020 तक दुनिया की लगभग 15 प्रतिशत प्रजातियां धरती से लुप्त हो जायेगी। पेड़ों की अंधाधुध कटाई एवं सिमटते जंगलों की वजह से भूमि बंजर और रेगिस्तान में तब्दील होती जा रही है जिससे दुनियाभर में खाद्य संकट का खतरा मंडराने लगा है।
वहीं जल की उपलब्धता को लेकर समूचा विश्व चिन्तित है। जल ही जीवन है। जल के बिना सृष्टि की कल्पना नहीं की जा सकती। मानव का अस्तित्व जल पर निर्भर करता है। पृथ्वी पर कुल जल का अढ़ाई प्रतिशत भाग ही पीने के योग्य है। इनमें से 89 प्रतिशत पानी कृषि कार्यों एवं 6 प्रतिशत पानी उद्योग कार्यों पर खर्च हो जाता है। शेष 5प्रतिशत पानी ही पेयजल पर खर्च होता है। यही जल हमारी जिन्दगानी को संवारता है।
एक रपट में बताया गया है कि दुनिया में करीब पौने 2 अरब लोगों को शुद्ध पानी नहीं मिल पाता। पृथ्वी के इस जलमण्डल का 97.5 प्रतिशत भाग समुद्रों में खारे जल के रूप में है और केवल 2.4 प्रतिशत ही मीठा पानी है। आंकड़े बताते हैं कि पृथ्वी का 70 फीसदी हिस्सा पानी से लबालब है लेकिन इसमें पीने लायक अर्थात मीठा पानी केवल 40घन किलोलीटर ही है।
वनों एवं अन्य की तरह जैव विविधता में जीव-जंतुओं का योगदान उल्लेखनीय है। भिन्न-भिन्न प्रकार के जीव-जंतुओं की प्रजाति में लगातार कमी आ रही है। अपने स्वार्थ के चलते मानव द्वारा किए गए प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के कारण बीते 40 सालों में पशु-पक्षियों की संख्या घट कर एक तिहाई रह गई है। आईयूसीएन जो प्रकृति के संरक्षण के लिए बनाए गए, ने ऐसे जानवरों की सूची 2018 में जारी की जिन पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। इस सूची के अनुसार, 5583 ऐसी प्रजातियां हैं जिन्हें बचाने के लिए गंभीर रूप के काम किए जाने की जरूरत है।
वहीं कम से कम 26 ऐसी नई प्रजातियां हैं जिन्हें साल 2017 में इस लिस्ट में शामिल किया गया। ये प्रजातियां एक साल पहले तक खतरे के निशान से ऊपर थीं।
दिलचस्प बात यह है कि जब भी जीवों के संरक्षण की योजनाएं बनती हैं तो बाघ, शेर और हाथी जैसे बड़े जीवों के संरक्षण पर खास ध्यान दिया जाता है लेकिन पक्षियों एवं अन्य जी जंतु के संरक्षण को अपेक्षित महत्व नहीं मिल पाता।
जैव विविधता को कमजोर करने में कई कारकों का हाथ है जिसमें से ग्लोबल वार्मिंग भी प्रमुख है। ग्लोबल वार्मिंग ने मौसम को और भी मारक बना दिया है और आने वाले वर्षों में मौसम में अहम बदलाव होने की पूरी संभावना है जिससे चक्रवात, लू, अतिवृष्टि और सूखे जैसी आपदाएं आम हो जाएंगी। धरती पर विद्यमान ग्लेशियर से पृथ्वी का तापमान संतुलित रहता है लेकिन बदलते परिवेश ने इसे असंतुलित कर दिया है। लगातार तापमान में बढ़ोतरी ने जैव विविधता को संकट में ला खड़ा किया है। लगातार बढ़ते तापमान से ग्लेशियर पिघलने लगा है और वह दिन दूर नहीं जब पूरी पृथ्वी को जल प्रलय अपने आगोश में ले लेगा। दूसरी ओर हम अपने परिवेश को इतना दूषित करते जा रहे हैं कि जीना दूभर होता जा रहा है। ऐसा कोई तत्व शेष नहीं रहा जो प्रदूषित होने से बचा हो चाहे वायु, जल, भूमि प्रदूषण हो या फिर अन्य।
हम सभी जानते हैं कि पर्यावरण और प्राणी एक-दूसरे के पूरक हैं। पर्यावरण और प्रकृति के पारिस्थितिक तंत्र के असंतुलन से होने वाले दुष्प्रभावों से हमारी आबादी के मस्तिष्क पर चिंता की शिकन आना लाजिमी है जिसके लिए मानव जगत ही जिम्मेदार है। इतना सबके बावजूद मानव ने ही प्रकृति संरक्षण के प्रेरणादायी उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं, जिनसे जैव विविधता संरक्षण के प्रयासों को मजबूती मिली है। मानव का कर्तव्य बनता है कि अपने स्वार्थ को त्यागते हुए प्रकृति से निकटता बनाकर पृथ्वी को प्रदूषित होने से बचाए तथा विलुप्त होते जंगलों और उसमें रहने वाले पशु-पक्षियों की संपूर्ण सुरक्षा की जिम्मेदारी लें। वृक्षों की संख्या में इजाफा, जैविक खेती को प्रोत्साहन, माइक्रोवेव प्रदूषण में कमी करने जैसे अहम मुद्दों पर काम करने पर विशेष जोर देना होगा। मानव को अपनी गतिविधियों पर सोच-समझकर काम करना होगा जिससे कि इंसान प्रकृति से दुबारा जुड़कर उसका संरक्षण कर सके अन्यथा वह दिन अब ज्यादा दूर नहीं जब जैव विविधता पर मंडराता यह खतरा भविष्य में हमारे अस्तित्व पर भी प्रश्नचिह्न लगा दें।
निर्भय कर्ण