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मोदी सरकार में हिन्दी को प्राथमिकता मिले

देश के लोकतांत्रिक इतिहास में सबसे चमत्कारी एवं ऐतिहासिक जीत के साथ भारतीय जनता पार्टी श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनाने जा रही हैं। संभावना की जा रही है कि मोदी के नेतृत्व में बनने वाली सरकार राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय प्रतीकों मजबूती प्रदान करेंगी। जैसे राष्ट्रभाषा हिन्दी, राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गीत, राष्ट्रीय पक्षी आदि को सम्मानजनक स्थान प्रदत्त किया जायेगा। मूल प्रश्न राष्ट्रभाषा हिन्दी को सशक्त बनाने का है। चुनाव में प्रचार का सशक्त माध्यम हिन्दी ही बनी, लेकिन जिस हिन्दी का उपयोग करके प्रत्याशी संसद में पहुंचते हैं, वहां पहुंचते ही हिन्दी को भूल जाते हैं, विदेशी भाषा अंग्रेजी के अंधभक्त बन जाते है, यह लोकतंत्र की एक बड़ी विसंगति है, राष्ट्रभाषा का अपमान है।
हिन्दी की दुर्दशा एवं उपेक्षा आहत करने वाली है। इस दुर्दशा के लिये हिन्दी वालों का जितना हाथ है, उतना किसी अन्य का नहीं। इसका ताजा उदाहरण पिछले दिनोें आए यूपी बोर्ड के दसवीं-बारहवीं के परीक्षा परिणामों में हिंदी की बदतर हालत है। इस हालत ने न केवल एक शर्मनाक तस्वीर पेश की है, बल्कि इस विषय में हमें और अधिक गंभीरता से सोचने को विवश भी किया है। इस बार यूपी बोर्ड के दसवीं-बारहवीं में लगभग दस लाख विद्यार्थी हिंदी की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गए हैं। इसमें दसवीं में 5,74,107 यानी 19 फीसद छात्र एवं बारहवीं की सामान्य हिंदी की परीक्षा में 2,30,394 लाख छात्र अनुत्तीर्ण हुए हैं। लगभग दस लाख छात्र ऐसे रहे हैं जो राजभाषा और राष्ट्रीय और संपर्क भाषा के रूप में स्वीकृत हिंदी में उत्तीर्ण होने लायक अंक भी अर्जित नहीं कर सके। हालांकि पिछले साल की तुलना में वह आंकड़ा कम है, जब दसवीं तथा बारहवीं दोनों कक्षाओं में करीब 11 लाख छात्र हिंदी विषय में अनुत्तीर्ण हुए थे। इसके अलावा इस बार लगभग साढ़े चार लाख छात्र ऐसे भी रहे जिन्होंने हिंदी की परीक्षा ही छोड़ दी। अगर इनका भी आंकड़ा जोड़ दिया जाए तो हिंदी में अनु़त्तीर्ण छात्रों का आंकड़ा चैदह लाख पहुंच जाएगा। अंग्रेजों के राज में यानी दो सौ साल में अंग्रेजी उतनी नहीं बढ़ी, जितनी पिछले सात दशकों में बढ़ी है। इस त्रासद स्थिति की पड़ताल के लिये हिन्दी वालों को अपना अंतस खंगालना होगा, नई सरकार की कार्ययोजनाओं एवं संकल्पों में यह एक बड़ा मुद्दा बनना चाहिए। यह खुशी की बात है कि नरेन्द्र मोदी सरकार ने अपने पहले प्रधानमंत्री के शासनकाल में हिंदी को प्रोत्साहन देने की लिये व्यापक प्रयास किये हैं, न केवल भारत बल्कि विदेशों में भी उनके प्रयासों से हिन्दी का गौरव बढ़ा है। प्रश्न फिर भी खड़ा है कि उन्होंने कोई बड़ा निर्णय लेते हुए क्यों नहीं राजकाज की भाषा के रूप में हिन्दी को प्रतिष्ठित किया? प्रश्न यह भी है कि उत्तर प्रदेश में उनकी ही सरकार है, योगीजी भी हिन्दी के समर्थक हैं, फिर क्या कारण रहे कि हिन्दी स्कूली शिक्षा में इतनी कमजोर परिणामों के साथ त्रासद स्थिति में पहुंची है।
उत्तर प्रदेश हिन्दीभाषी प्रांत है, हिन्दी को इसी प्रांत से बल मिलता रहा है, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, कहानीकार प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, मैथिलीशरण गुप्त, हरिवंश राय बच्चन जैसे हिंदी के अनेक महान हस्ताक्षरों की जन्मभूमि भी यही प्रांत है, फिर इस प्रांत में दस लाख छात्रों का हिंदी की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाना अपनी भाषा के प्रति हमारी नीयत एवं निष्ठा को लेकर गंभीर सवाल खड़े करता है। यूपी बोर्ड में इतनी बड़ी संख्या में छात्रों के असफल होने के पीछे कई कारण नजर आते हैं, जिनमें एक प्रमुख कारण हिंदी के प्रति गंभीरता का अभाव होना है। हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी विषय को लेकर अभिभावकों और अध्यापकों से होते हुए छात्रों तक में यह मानसिकता गहरे पैठी हुई है कि हिन्दी का क्या है? यह बहुत आसान विषय है और इसके अध्ययन में बहुत अधिक समय एवं श्रम खर्च करने की क्या जरूरत है?
हिंदी के प्रति इस उपेक्षा की मानसिकता का ही परिणाम है कि न केवल परीक्षाओं में बल्कि राजकाज एवं जीवन व्यवहार में भी हिन्दी पिछड़ रही है। पिछली सरकारें तो नहीं चाहती थी कि हिन्दी आगे बढ़े, लेकिन वर्तमान सरकार के लिये तो हिन्दी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। अब भी यदि हिन्दी को सम्मान नहीं मिलता, उसकी प्रतिष्ठा नहीं होती है तो यह घोर चिन्तनीय है। पिछले दिनों पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने अंग्रेजी के सार्वजनिक इस्तेमाल पर कड़ा प्रहार किया है, जैसा कभी गांधीजी और लोहियाजी किया करते थे। विपक्षी नेता बिलावल भुट्टो के पाकिस्तान की संसद में अंग्रेजी में बोलने पर इमरान ने आपत्ति की। उनका कहना है कि उन्हें राष्ट्रभाषा उर्दू में बोलना चाहिए। पाकिस्तान की संसद में अंग्रेजी में बोलना 90 प्रतिशत पाकिस्तानी जनता का अपमान है, जो अंग्रेजी नहीं समझती। यह बात हिंदुस्तान पर भी लागू होती है लेकिन हमारे किसी प्रधानमंत्री ने आज तक क्यों नहीं ऐसे साहस का परिचय दिया। यदि डाॅ. लोहिया प्रधानमंत्री बन गए होते तो वे तो संसद में अंग्रेजी के प्रयोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगा देते। आजादी के सत्तर वर्ष बाद भी भारत में कानून अंग्रेजी में बनते हैं और अदालत की बहस और फैसलों की भाषा भी अंग्रेजी ही है। उच्च शिक्षा में भी अंग्रेजी माध्यम का बोलबाला है। नौकरशाही सारा प्रशासन अंग्रेजी में चलाती है, ये स्थितियां हमारी राष्ट्रीयता पर प्रश्नचिन्ह खड़े करती है।
गतदिनों उपराष्ट्रपति वैंकय्या नायडू ने हिन्दी के बारे में ऐसी बात कही थी, जिसे कहने की हिम्मत महर्षि दयानंद, महात्मा गांधी और डाॅ. राममनोहर लोहिया में ही थी। उन्होंने कहा कि ‘अंग्रेजी एक भयंकर बीमारी है, जिसे अंग्रेज छोड़ गए हैं।’’ अंग्रेजी का स्थान हिंदी को मिलना चाहिए, लेकिन आजादी के 70 साल बाद भी सरकारें अपना काम-काज अंग्रेजी में करती हैं, यह देश के लिये दुर्भाग्यपूर्ण एवं विडम्बनापूर्ण स्थिति है। वैंकय्या नायडू का हिन्दी को लेकर जो दर्द एवं संवेदना है, वही स्थिति नयी बनने वाली सरकार से जुडे़ हर व्यक्ति की होनी चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी राष्ट्र एवं राज भाषा हिन्दी का सम्मान बढ़ाने एवं उसके अस्तित्व एवं अस्मिता को नयी ऊंचाई देने के लिये अनूठे उपक्रम किये हैं। हिन्दी राष्ट्रीयता एवं राष्ट्र का प्रतीक है, उसकी उपेक्षा एक ऐसा प्रदूषण है, एक ऐसा अंधेरा है जिससे छांटने के लिये ईमानदारी से लड़ना होगा। क्योंकि हिन्दी ही भारत को सामाजिक-राजनीतिक और भाषायिक दृष्टि से जोड़नेवाली भाषा है। हिन्दी को सम्मान एवं सुदृढ़ता दिलाने के लिये नयी सरकार एवं विभिन्न प्रांतों की सरकारों को संकल्पित होना होगा।
हिन्दी भाषा का मामला भावुकता का नहीं, ठोस यथार्थ का है, राष्ट्रीयता का है। हिन्दी विश्व की एक प्राचीन, समृद्ध तथा महान भाषा होने के साथ ही हमारी राजभाषा भी है, यह हमारे अस्तित्व एवं अस्मिता की भी प्रतीक है, यह हमारी राष्ट्रीयता एवं संस्कृति की भी प्रतीक है। भारत की स्वतंत्रता के बाद 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी। इस महत्वपूर्ण निर्णय के बाद ही हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रचारित-प्रसारित करने के लिए 1953 से सम्पूर्ण भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है। गांधीजी ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की वकालत की थी। वे स्वयं संवाद में हिन्दी को प्राथमिकता देते थे। आजादी के बाद सरकारी काम शीघ्रता से हिन्दी में होने लगे, ऐसा वे चाहते थे। राजनीतिक दलों से अपेक्षा थी कि वे हिन्दी को लेकर ठोस एवं गंभीर कदम उठायेंगे। लेकिन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से आक्सीजन लेने वाले दल भी अंग्रेजी में दहाड़ते देखे गये हैं। हिन्दी को वोट मांगने और अंग्रेजी को राज करने की भाषा हम ही बनाए हुए हैं। कुछ लोगों की संकीर्ण मानसिकता है कि केन्द्र में राजनीतिक सक्रियता के लिये अंग्रेजी जरूरी है। ऐसा सोचते वक्त यह भुला दिया जाता है कि श्री नरेन्द्र मोदी की शानदार एवं सुनामी जीत का माध्यम यही हिन्दी बनी हैं। हिन्दी राष्ट्रीयता की प्रतीक भाषा है, उसको राजभाषा बनाने एवं राष्ट्रीयता के प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठापित करना मोदी सरकार की प्राथमिकता होना ही चाहिए। हिंदी को दबाने की नहीं, ऊपर उठाने की आवश्यकता है। लेकिन अंग्रेजी के वर्चस्व के कारण आज भी हिन्दी भाषा को वह स्थान प्राप्त नहीं है, जो होना चाहिए। चीनी भाषा के बाद हिन्दी विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा है। भारत और अन्य देशों में 70 करोड़ से अधिक लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। राष्ट्र भाषा सम्पूर्ण देश में सांस्कृतिक और भावात्मक एकता स्थापित करने का प्रमुख साधन है। महात्मा गांधी ने सही कहा था कि राष्ट्र भाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।’ यह कैसी विडम्बना है कि जिस भाषा को कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे भारत में समझा जाता हो, उस भाषा के प्रति घोर उपेक्षा व अवज्ञा के भाव, हमारे राष्ट्रीय हितों में किस प्रकार सहायक होंगे। हिन्दी का हर दृष्टि से इतना महत्व होते हुए भी प्रत्येक स्तर पर इसकी इतनी उपेक्षा क्यों? इस उपेक्षा को नयी सरकार कुछ ठोस संकल्पों एवं अनूठे प्रयोगों से ही दूर कर सकेगी। इसी से देश का गौरव बढ़ेगा, ऐसा हुआ तो यह मोदी सरकार द्वारा एक स्वर्णिम इतिहास का सृजन कहा जायेगा।

(ललित गर्ग)

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