Shadow

क्यों अपनी कब्र खोदने पर आमादा है कांग्रेस

भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में सक्रिय और जिम्मेदार विपक्ष का होना नितॉंत अनिवार्य है।  जाहिर है कि जिम्मेदार विपक्ष से जनता की यह अपेक्षा रहती है कि वह सरकार से  ज़िम्मेदाराना सवाल पूछता रहे। सरकारी कामकाज पर अपनी निष्पक्ष राय  दे। सरकार की जन विरोधी नीतियों का विरोध करे और कल्याणकारी और राष्ट्र हित में लिए गए फैसलों का समर्थन भी करे। पर कांग्रेस लोकतांत्रिक प्रक्रिया की  इस छोटी सी बात को भी भूल गई है। उसे विपक्षी धर्म का निर्वाह करने में पसीना छूट रहा है। उसे तो लगता है कि विपक्ष में रहकर सिर्फ सरकार की आलोचना  ही करते रहनी चाहिए।

कांग्रेस की इस तरह की नकारात्मक नीति के मात्र दो उदाहरण यहां रखना चाहता हूं। जहां सरकार का जम्मू-कश्मीर में धारा 370 और 35 ए हटाने को लेकर सारा देश खुलेआम अतिउत्साहपूर्वक  समर्थन कर रहा था, वहीं कांग्रेस  इतने अहम राष्ट्र हित के मसले पर सरकार को पानी पी- पीकर  कोस रही थी। इसके चलते कांग्रेस के भीतर भी विद्रोह जैसे हालात बन गये।

कांग्रेस के मध्य प्रदेश के दमदार नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया, हरियाणा के    दीपेन्द्र हुड्डा, महाराष्ट्र के मिलिंद देवड़ा से लेकर   जनार्दन द्विवेदी जैसे नेता  सरकार के साथ खड़े नजर आए। दीपेंद्र हुड्डा ने तो इस अनुच्छेद को लेकर ट्वीट किया कि 21वीं सदी में इसकी कोई जगह ही नहीं है।देवड़ा ने  कहा कि दुर्भाग्य से आर्टिकल 370 के मसले को लिबरल और कट्टर की बहस में उलझाया जा रहा है। पार्टियों को अपने वैचारिक मतभेदों को किनारे कर भारत की संप्रभुता, कश्मीर शांति, युवाओं को रोजगार और कश्मीरी पंडितों के लिए न्याय के लिहाज से सोचना चाहिए।

बेशक,यह स्थिति तो होनी ही है क्योंकि जब आप देश की जनता की भावनाओं के विपरीत चलेंगे तो पार्टी में विरोध के स्वर तो उभरेंगे ही!  कांग्रेस में आज यही तो हो रहा है।कायदे से जम्मू-कश्मीर पर सरकार के फैसले का कांग्रेस को समर्थन करना चाहिए था।नेहरू द्वारा सत्तर साल पहले की  गई ग़लती को मान लेने में शर्म कैसा?

 अब एक दूसरा उदाहरण ले लीजिए। कांग्रेस  के राज्य सभा सदस्य और पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह देश की अर्थव्यवस्था की स्थिति पर चिंतित नजर आ रहे हैं।  उन्होंने विगत दिनों कहा कि देश की अर्थव्यवस्था की हालत खराब है । पर अर्थशास्त्री डा.मनमोहन सिंह ने यह बताना सही नहीं समझा कि उनके मुताबिक़ अर्थ व्यवस्था ख़राब कैसे है और  सरकार अर्थव्यवस्था  में सुधार कैसे कर सकती है। यानी सरकार की सिर्फ निंदा के लिए निंदा करना ही कांग्रेस  का एकमात्र मक़सद  रह गया है।इसी कारण से वह समाप्त और अप्रासॉंगिक हो रही है।

 कांग्रेस के साथ सबसे बड़ा संकट तो  यह है कि वहां सारे फैसले 10 जनपथ पर ही लिए जाते हैं। कांग्रेस के शेष नेताओं ने हाथ खड़े कर दिए हैं।  उन्हें महसूस होने लगा है कि गांधी परिवार के अतिरिक्त कांग्रेस की कमान किसीको सौंपी ही नहीं जा सकती।  वहां पर नए और युवा चेहरों के लिए शिखर पर जगह बना पाना नामुकिन सा  हो चुका है।

 विगत लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को देश की जनता ने ने जड़ से उखाड दिया। उसे 17 राज्यों में एक भी सीट नहीं मिली। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में मात्र एक सीट प्राप्त हुई। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी चुनाव हार गए। लोकसभा चुनावों की हार के बाद राहुल गांधी ने अपने पद से इसीफा दे दिया। अब शुरू हुआ कांग्रेस में असली खेल। वहां पर लंबे समय तक  शेष नेता उनसे अपने पद पर बने रहने का आग्रह करते रहे। वे नहीं माने। फिऱ उनकी मां सोनिया गांधी को कांग्रेस का अंतरिम अध्यक्ष बना दिया गया। यानी लेकर देकर नेतृत्व 10 जनपथ में ही रह गया।

 कांग्रेस  आला कमान को  पता ही नहीं है , या है भी तो वह मानने को तैयार ही  नहीं है कि  अब उसके नेता तो छोड़िए उसके कार्यकर्ता तक भी अन्य दलों  का रुख कर रहे हैं। इन्हें कांग्रेस  में अपने लिए कोई संभावना नजर नहीं आती।  कुछ साल पहले तक बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के सुदूर गांवों में भी कांग्रेस का छोटा-मोटा दफ्तर हुआ करता था। उस पर पार्टी का झंडा लगा होता था और कुछ पार्टी  कार्यकर्ता वहां पर बैठे नज़र आते   थे। अब वह भी नहीं दिखाई देता। यानी कांग्रेस अपने गढ़ समझे जाने वाले राज्यों से पूरी तरह से बाहर हो चुकी है।

 कांग्रेस के नेताओं में पार्टी को छोड़ने की होड़ सी मची हुई है। कुछ समय पहले तेलंगाना में कांग्रेस के 18 में से 12 विधायकों ने पार्टी को एक झटके में छोड़ दिया।ये सब के सब तेलंगाना राट्रीय समिति से जुड़ गए। कांग्रेस नेतृत्व को अब यह समझना ही होगा  कि उसे भारत की जनता क्यों सिरे से खारिज कर  रही है। पिछले लोकसभ चुनावों में उसे मात्र 52 सीटें मिलीं और भारतीय जनता पार्टी ( भाजपा) को पूरे 303 सीटें। यानी अब वो भाजपा के सामने कहीं है ही नहीं।

 यह भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटे है कि एक इतनी पुरानी पार्टी आज समाप्ति की ओर तेज़ी से  बढ़ रही है। उसमें फिर से अपने को  जनता के बीच में स्थापित करने का जज्बा ही खत्म हो गया है। कांग्रेस की हर जगह स्थिति पतली नजर आती है। राजस्थान में उसकी ख़ुद की सरकार है। पर लोकसभा चुनाव में उसे 25 में से एक भी सीट नहीं मिली। अब वहां पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को हटाने की खबरें आ रही हैं। हरियाणा और महाराष्ट्र में भी पार्टी के भीतर भारी कलह है। हालाकि इन दोनों राज्यों में जल्दी विधान सभ चुनाव होने हैं। दिल्ली में कांग्रेस शीला दीक्षित जी के स्थान पर अबतक अपना नया अध्यक्ष तक नहीं चुन पाई है।

 दरअसल बड़ा सवाल यह नहीं है कि कांग्रेस क्यों  अपनी कब्र खोद रही है। बड़ा सवाल यह है कि उसके नेतृत्व की  कमियों के कारण देश एक सशक्त विपक्ष से वंचित है। कांग्रेस के आला नेताओं को  लगता है कि उनका तो जन्म ही सरकार चलाने के लिए हुआ है। इसी मानसिकता के कारण वे विपक्ष में आते ही परेशान हो जाते हैं। उन्हें विपक्ष  में बैठने में कठिनाई पैदाहोने लगती है। यह सब देश की स्यानी जनता देख रही है।  उसने देखा है कि  कश्मीर से लेकर अर्थव्यवस्था के सवालों पर केन्द्र सरकार की आंखें बंद करके निंदा करने वाली कांग्रेस विपक्ष की भूमिका की जिम्मेदारी सही तरह से निभा नहीं पाई। राफेल रक्षा सौदे को याद कर लीजिए। लोकसभा चुनाव से पहले राहुल गांधी और दूसरे नेता केन्द्र सरकार पर राफेल सौदे में मोटे घोटाले के आरोप लगा रहे थे। पर लोकसभा चुनावों में पराजय के बाद उन्होंने इस मसले को उठाया तक नहीं । तो यह है कांग्रेस।

आर.के. सिन्हा

 (लेखक राज्य सभा सदस्य हैं)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *