इसे आप मन पर अंकित संस्कारों की अमिट छाप कहें या मूल की ओर लौटने की स्वाभाविक मानवीय प्रकृति, त्योहारों के आते ही मन-प्राण अकुलाने लगता है, चित्त की सारी वृत्तियाँ गाँव-घर की ओर अभिमुख हो उठती हैं, शहरों की आबो-हवा से दूर गाँव की गलियों में मन-प्राण ठौर ढूंढ़ने लगता है | पहले मैं सोचा करता था कि आख़िर क्यों कोई आजीवन देश-परदेश रहने के बाद भी अपना अंतिम समय अपनी माटी, अपने परिवेश, अपने लोगों के संग-साथ ही बिताना चाहता है? अब समझ में आया कि माटी माटी को पुकारती है; हर पल हमें हमारा मूल पुकारता रहता है, भीतर बहुत भीतर अपना कोई आवाज़ दे रहा होता है|यह बार-बार लौटने की, मूल की ओर, जड़ों की ओर लौटने की प्रवृत्ति है कि छूटे न छूटतीं! और गाँव के वे खेत-खलिहान, कूल-कछार, ताल-तलैया त्योहारों के आते ही हमारी स्मृतियों में नए सिरे से आकार लेने लगते हैं, नितांत नए संदर्भों और अर्थों के साथ| एक-एक करके संस्कारों में बैठीं वे सारी आदतें, रीतियाँ, परंपराएँ सम्मोहित करने लगती हैं और हम अनायास उन विधियों, रीतियों, तरीकों का पालन करने लगते हैं, जिन्हें हमारे पुरखे या पूर्वज करते आए हैं|संभव है प्रारंभ में हमें वे रीतियाँ, वे परंपराएँ, कुछ अटपटी लगती हों..! हर भारतीय को अपने पुरखों-परिवारों से कुछ संस्कारों-त्योहारों की विरासत मिली है , जिनका पालन हमें सुखी और समृद्ध करता है|
लोक-आस्था का महापर्व छठ भी मेरी स्मृतियों में ऐसे ही गहरे पैठा है| मैकॉले प्रणीत शिक्षा-पद्धत्ति का दोष कहें या छीजते विश्वास का दौर हमारा मन अपने ही त्योहारों, अपने ही संस्कारों, अपनी ही परंपराओं के प्रति सशंकित रहता है, सर्वाधिक सवाल-जवाब हम अपनी परंपराओं से ही करते हैं; भले ही वे परंपराएँ वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरे उतरते हों; सामूहिकता-सामाजिकता को सींचते हों; समय के शिलालेखों पर अक्षर-अक्षर उत्कीर्ण और जीवंत हों! स्वाभाविक है कि बचपन में मुझे भी लगता था कि छठ के अवसर पर हर सूप या डगरे में अर्घ्य के रूप में चढ़ाया गया गौ-दुग्ध या गंगा-जल एक प्रकार की फिजूलखर्ची है| लाखों-करोड़ों लोगों का एक साथ नदियों में डुबकी लगाना, पूजन के पश्चात उच्छिष्ट पदार्थों को विसर्जित करना, एक प्रकार का प्रदूषण है| आज उम्र के इस पड़ाव पर यह समझ आया है कि मैं कितना ग़लत था| हर सूप, हर गमले या हर डगरे में दूध या जल का दान बर्बादी नहीं बल्कि अर्घ्य-दान है, कृतज्ञ मानव का प्रकृति के प्रति यह अपनी ही तरह की श्रद्धाभिव्यक्ति है, जीवन को पोषण देने वाले भगवान सूर्य के प्रति कृषक-संस्कृति की यह आदरांजलि है; हम देंगे नहीं तो पाएँगे कहाँ से? कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है| यह कृतज्ञता की संस्कृति है| जिसने हमारे लिए कुछ किया उन सबके प्रति श्रद्धा हमारा स्वाभाविक धर्म है| अभावों के बीच भी देने का यह भाव अमूल्य है| जब हमारे पास बहुत कुछ हो, उसमें से कुछ दे दिया तो क्या दिया? जब हमारे पास कम है, थोड़ा है, अपनी आवश्यकता भर का है, उसमें से जो दिया वही तो वास्तविक देना है| जैसे कोई किसान ढेर सारा अन्न उगाने के लिए कुछ सुंदर-सुगठित अन्न के दाने का बीज के रूप में दान करता है, वैसा ही है यह अर्घ्य; और इन त्योहारों मुख्यतः छठ की सामूहिकता ऐसी कि किसी के पास सूप-गमले-डगरे में अर्घ्य के लिए गौ-दुग्ध न हो तो गाँव से बिन माँगे आपके पास दूध पहुँचाने वालों की कमी नहीं; ‘व्रती’ के ‘पारण'(भोजन) में लौकी की सब्ज़ी अनिवार्य रहती है, मुझे ध्यान आता है कि ‘पारण’ से बहुत पूर्व ही गाँव के किसान लौकी तोड़ना बंद कर देते हैं, क्योंकि हर व्रती तक लौकी पहुँचाना उनके लिए एक पुनीत कर्त्तव्य-सा है; अव्वल तो महीनों पूर्व छठ की तैयारी प्रारंभ हो जाती है, फिर भी कोई कोर-कसर या अभाव हो तो सामूहिकता ऐसी कि किसी के पास प्रसाद आदि के लिए सामग्री न हो तो हर कोई उसकी मदद को तत्पर रहता है| सामग्री भी कैसी, प्रकृति जनित-गन्ना, हल्दी, मूली, नारियल, डाभ, अंकुरित चना, अमरूद, सिंघाड़ा, ठेकुआ आदि-आदि; प्रकृति से प्राप्त इन तमाम चीजों को कृतज्ञ हृदय भगवान सूर्य को अर्पित कर धन्य-धन्य हो उठता है, आख़िर उनके कारण ही तो यह सब संभव हुआ! प्रकृति से प्राप्त सामग्री को प्रकृति-माता को अर्पित करना कैसा तृप्तिदायक अनुभव है! तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा का यह भाव कितना अनूठा है! ”प्रकृति की ओर लौटें, प्रकृति के साथ चलें!’- यह हमारे लिए केवल नारा नहीं, जीवन-शैली का हिस्सा रहा है|
बाज़ार तमाम नकली त्योहार पैदा करते हैं, पर चाहकर भी वे उन त्योहारों को लोगों की आत्मा में नहीं उतार पाते…पर छठ में जन-भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ता है| देश-परदेश में काम कर रहे लाखों लोग इस अवसर पर बाट जोह रहे अपनों की आस को पूरा करने के लिए अपने घर लौट आते हैं| वे लाख मुसीबत उठाकर भी हर हाल में लौटना चाहते हैं, ट्रेन के जेनरल कोच में धक्के खाकर हो या बसों में लदकर वे व्रतियों के संकल्प को मज़बूती देने के लिए उनके साथ खड़े रहना चाहते हैं| वे इस महापर्व में शामिल होकर वर्ष भर के लिए ऊर्जा का संचय कर लेना चाहते हैं| यह ऊर्जा अपनों से दूर भी उन्हें गतिमान बनाए रखती है| और कामकाजी बेबसी के कारण मुझ जैसे कुछ अभागे जो नहीं जा पाते, उनके भी मन-प्राण पूँजीभूत होकर वहीं केंद्रित हो जाते हैं|
एकता के स्लॉगनी इंटलेक्चुअल्स को यह अद्भुत सोशल इंजीनियरिंग या सांस्कृतिक एकता का विज्ञान समझ में नहीं आता! वे किसी कृत्रिम या आयातित विचार के आधार पर अनेकता में एकता के ख़्वाब संजोते हैं, पर लोक की सामूहिक चेतना से जन्मीं-उपजीं इन अनूठी परंपराओं को हिकारत से देखते हैं| वे भूल जाते हैं कि ये परंपराएँ ही हमें ”मैं” से ”हम” बनाती हैं| वे लाखों श्रद्धालुओं की डुबकी या पूजन में प्रदूषण तो ढूँढ़ लेते हैं, पर महीनों पूर्व से घाटों, नदियों, ताल-तालाबों की साफ-सफ़ाई उन्हें नहीं दिखती| शुचिता/शुद्धता के प्रति सतर्क-सन्नद्ध लोकचेतना का ऐसा उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है| स्त्री-विमर्श चलाने वाले तथकथित नारीवादी प्रायः यह प्रश्न उठाते हैं कि स्त्रियाँ ही क्यों व्रत करें? उन्हें शायद नहीं मालूम या वे जानना नहीं चाहते कि छठ जैसे त्योहारों में हजारों-लाखों पुरुष भी व्रत रखते हैं, वे अपने घर से घाट तक की सारी व्यवस्था सँभालते हैं, घाट की साफ-सफाई से लेकर ठेकुआ के लिए पिसान हो, प्रसाद के लिए सामग्री जुटान हो, घर से कोसों दूर घाट पर प्रसाद की टोकरी लेकर जाना हो या कुछ और..ये सारी व्यवस्था घर के पुरुषों के कंधों पर ही होती हैं| घर के तमाम पुरूष सदस्य घर से घाट तक भगवान सूर्य को दण्डवत प्रणाम देते हैं और ये सब खुशी-खुशी; व्रती स्त्रियाँ उनकी श्रद्धा की सर्वोच्च केंद्रबिंदु होती हैं, उनका हर आदेश-आग्रह उनके लिए ब्रह्म-वाक्य की तरह होता है| मजाल क्या कि लाखों की भीड़ में भी किसी महिला के साथ कोई बदसलूकी का दुःसाहस करे? दरअसल ये त्योहार, ये परंपराएँ जनमानस के अंतर्प्रक्षालन या नवीनीकरण की अद्भुत प्रक्रिया है| स्वाभाविक रूप से त्योहार एक-दूसरे के लिए त्याग का भाव जगाते हैं, एक-दूसरे के लिए जीना सिखाते हैं, परस्पर प्रेम और आदर का भाव पैदा करते हैं| न केवल पारिवारिक स्तर पर, अपितु सामाजिक जीवन में भी ये त्योहार समरसता की मिसाल पेश करते हैं| छठ में जिन सूप, डगरे, दउरे में प्रसाद रखा जाता है, उन्हें बनाने वाले समाज के अति तिरस्कृत-उपेक्षित-वंचित वर्ग से आते हैं, उन्हीं के हाथों से बने हस्त-निर्मित पात्रों को शुद्ध समझा जाता है| यह समरसता का अनूठा उदाहरण नहीं तो और क्या है?
जब सारी दुनिया उगते हुए सूरज की पूजा-परिक्रमा में जुटी हो, यह महापर्व हमें ढलते हुए सूरज के सम्मान की भी अनूठी सीख देता है| ढलते हुए सूरज की ऐसी सहेज-सँभाल पूरब की पश्चिम को देन है| समृद्धि के शिखर पर आरूढ़ सत्ता के समक्ष तो सभी नतमस्तक होते हैं, वैशिष्ट्य तो इसमें है कि जो ढलान पर है, संघर्षरत है, यात्रा में है, बुझता-टिमटिमाता, डूबता-उतराता है, उसका भी मानवोचित स्नेह-सम्मान हो! हर अस्त का उदय होता है! जो आज डूब रहा है, वह कल उगेगा; पूरी आभा, ऊर्जा और प्रखरता के साथ- इस विश्वास और संदेश का अनूठा-अनुपम पर्व है- छठ! आइए, इन अनूठी परंपराओं पर गर्व करना प्रारंभ करें| आधुनिकता का अभिप्राय अपनी परंपराओं के प्रति हीनता-ग्रन्थि पालना नहीं, बल्कि उनके पीछे के विज्ञान को समझना है| इन परंपराओं ने ही हमें अनंत वर्षों से एक राष्ट्र के रूप में मज़बूती से बाँधे-थामे रखा है; बढ़-चढ़कर इनका हिस्सा बनें, इन्हें आगे बढ़ाएँ….अपनी संततियों को इनके बारे में बताएँ…! सच मानिए तो ये त्योहार हमें जीना सिखाते हैं, इनमें उल्लास और जीवन के गीत हैं| क्या आपको सनातन संस्कृति का एक भी ऐसा त्योहार ध्यान आता है, जिस पर मातम मनाया जाता हो; शायद ही किसी को श्रीराम, श्रीकृष्ण या हमारे अन्य आराध्यों का मृत्यु-दिवस ज्ञात हो? हम जीवन का गीत गाने वाले लोग हैं| नैराश्य और पलायन हमारे लिए अपराध है| जीवन का ध्येय स्वयं जीवन है| हमारा हर क्षण उत्सव का क्षण है, बल्कि मृत्यु भी सनातन संस्कृति में एक उत्सव है| आइए, अपनी उत्सवधर्मिता को इन त्योहारों और परंपराओं के रूप में अक्षुण्ण रखें| पुनश्च, परंपराएँ हैं तो हम हैं, इन्हें हर हाल में सुरक्षित और समृद्ध रखना हमारा धर्म है, दायित्व है|
प्रणय कुमार