एक हफ्ते पहले मैं महाराष्ट्र में था। वहां के स्थानीय लोगों का मानना था कि शिवसेना और भाजपा अभी ननद-भौजाइयों की तरह लड़ रहे हैं, आखिरकार मान जाएंगे। मुझे भी उम्मीद थी कि सरकार बनाने की तय समय सीमा तक दोनों दल आखिरकार किसी फार्मूले पर सहमत हो जाएंगे और सरकार बन जाएगी। आजाद भारत का संभवतः यह पहला और अनोखा मामला है जिसमें चुनाव पूर्व तय गठबंधन को चुनाव में अच्छा-खासा बहुमत मिला हो लेकिन सत्ता की मलाई ज्यादा कौन खाए इस होड़ में शिवसेना और भाजपा मिलकर सरकार नहीं बना सके। इस गठबंधन को जिताने वाली जनता ठगी रह गई है। महाराष्ट्र में भाजपा की नैसर्गिक सियासी साझीदार कही जाने वाली शिवसेना की महत्वाकांक्षा चुनावी नतीजों के बाद ऐसी जागी कि भाजपा पर इतना दबाव बनाया कि वह आजिज आ गई। शिवसेना शायद यह समझने में चूक गई कि अटल और आडवाणी की भाजपा अब नहीं है। न ही मुरली मनोहर जोशी और राजनाथ की। यह मोदी-शाह वाली भाजपा है। इस हकीकत को अन्य दलों को समझ लेना होगा। यह भाजपा सत्ता संधान के लिए दुश्मन सरीखी महबूबा से भी आशनाई कर लेती है। जहां एक सीट भी नहीं वहां सरकारें बना कर अपना बहुमत साबित कर रही है। चुनाव पूर्व किस दल से किसने क्या वादे किए थे, यह दोनों दलों का नेतृत्व जाने लेकिन जिस बेशर्मी से दोनों दल कुर्सी के लिए लड़े हैं वह देश के सियासी इतिहास में काले अध्याय के रूप में लिखा जाएगा।
सियासी बेशर्मी का प्रदर्शन सिर्फ इन्हीं दो दलों ने ही नहीं किया। महाराष्ट्र में दो अन्य दलों ने भी अपनी नैतिकता और राजनीतिक शुचिता को तिलांजलि दे दी। कहां गया एनसीपी और कांग्रेस का सांप्रदायिकता से लड़ने का संकल्प। क्या सत्ता ऐसी चीज है कि आप उसके लिए सबकुछ त्याग देंगे। पानी पी-पीकर शिवसेना को सांप्रदायिक दल बताने वाले और उसके खिलाफ चुनाव लड़ने वाले अब उसके साथ प्यार की पींगें बढ़ाने में कुछ गलत नहीं समझते तो समझ लीजिए आज की सियासत इतनी गिर गई जिसके लिए टुच्ची शब्द भी हलका पड़ जाता है। अब मान लेना होगा कि सिद्धांत, विचारधारा, वादा, वचनबद्धता, लोकतांत्रिक मूल्य की राजनीति में कोई जगह नहीं बची। अब अवसरवादिता, परिवारवाद, धूर्तता ही सियासत का पर्याय है। राजनीति का हास्य पक्ष देखिए शिवसेना से आए नेता जी कांग्रेस को समझाने में लगे हैं कि शिवसेना जैसी सांप्रदायिक से मेलजोल करना ठीक नहीं होगा। जब तक नेता जी खुद दल विशेष में हैं तो दल गंगा सरीखा और जैसे ही बाहर हुए वह गंगा को परनाला बताने में जरा भी देर नहीं लगाते। जनता को बेवकूफ समझने वाले सियासी दल यह समझ रहे हैं कि जनता उनकी मंशा और नौटंकियों को समझ नहीं रही। ये पब्लिक है, सब जानती है साहब ! ये सबक भी सिखाना जानती है। आप ईवीएम को कोस लीजिए मगर कांग्रेस, सपा और बसपा जैसे सिरचढ़े दल जनता की कैसी मार झेल रहे हैं किसी से छुपा नहीं है। ईवीएम थ्योरी से मैं इत्तेफाक नहीं रखता। मोदी जी जब 2014 में जीते थे तो उस वक्त यूपीए की मनमोहन नीत सरकार थी। अगर मोदी जी में इतनी काबिलियत है कि दूसरों की सरकार में रहकर ईवीएम हैक कराके प्रचंड जीत हासिल कर सकते हैं तो यकीन मानिए आप कभी भी नहीं जीत सकते। सिद्धातों और विचारधारा से किनारा करके आप जनता की आंख में एक बार तो धूल झोंक सकते हैं लेकिन काठ की हांड़ी बार-बार चढ़ पाना मुमकिन नहीं। कस्मे-वादे, प्यार-वफा, सब बाते हैं बातों का क्या, भाजपा ने शिवसेना से चुनाव पूर्व क्या बातें कीं, क्या वादे किए इस पर भाजपा का नेतृत्व मौन है। अब वक्त आ गया है कि दो दलों के बीच का प्री पोल अलायंस लिखित और पब्लिक डोमेन में हो। इसके बाद कौन मुकर रहा है या वादाखिलाफी कर रहा है, आईने की तरह साफ हो जाएगा। महाराष्ट्र में भाजपा जानती है कि दोनों की स्थिति में उसकी पौ बारह है, दसों अंगुलियां घी में और सिर कढ़ाही में। शिवसेना अगर उसकी बातें मान लेती है तो ठीक अगर नहीं मानती है तो कोशियारी जी होशियारी से राष्ट्रपति शासन के नुमाइंदे बनकर शासन चलाएंगे तो एक तरह से भाजपा का ही होगा। पुराने संघी होने के अलावा कोशियारी जी उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और सियासी दांव-पेच के पुराने माहिर शख्स हैं।