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शाहीन बाग ‘धरना जिहाद’

दिल्ली में यमुना के साथ-साथ बसी अवैध कालोनी शाहीन बाग पिछले एक माह (15.1.2020) से निरंतर चर्चा में बनी हुई है। यहां पर केंद्र सरकार द्वारा विधिवत पारित ‘नागरिकता संशोधन अधिनियम’ के विरोध में मिथ्या प्रचार करके कुछ असामाजिक तत्वों का साथ लेकर विरोधी पक्ष के नेता व सेकुलर बुद्धिजीवी धरना-प्रदर्शन करवा कर देश में शांति व्यवस्था व साम्प्रदायिक सद्भाव को बिगाडऩे का कुप्रयास कर रहे हैं।

प्राप्त सूत्रों के अनुसार यह अवैध कालोनी ‘शाहीन बाग’ मुख्यत: मुस्लिम बहुल कालोनी है। निस्सन्देह अगर सघन जांच की जाए तो यहां बांग्लादेशी, पाकिस्तानी, अफगानी व म्यांमार के मुस्लिम घुसपैठियों की अधिक संख्या होगी। यह संशोधित कानून ऐसे अवैध नागरिकों व घुसपैठियों को भी सबसे अधिक प्रभावित करेगा। यहां एक विशेष ध्यान देना होगा कि हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र व प्रदेश सरकार को बार-बार यह निर्देश दिए हैं कि ऐसे घुसपैठियों को देश से निकालना राष्ट्रहित में होगा। इसीलिए पहले ही पर्याप्त देर होने पर भी अब यह कानून बनाया गया है। जिसके अंतर्गत पड़ोसी मुस्लिम देशों के पीडि़त गैर मुस्लिमों को नागरिकता दी जाएगी और मुस्लिम घुसपैठियों को देश से बाहर भेज कर दशकों पुरानी समस्या का समाधान होगा।

इस अवैध कालोनी शाहीन बाग में धरना देने वालों में अधिकांश छोटे-छोटे मुस्लिम नाबालिग बच्चे व बुजुर्ग मुस्लिम महिलाओं को बैठाया गया है। कुछ समाचारों से ज्ञात हो रहा है कि दैनिक भत्ते के रूप में धरने में बैठने वालों को प्रतिदिन पांच सौ रुपये तक दिए जाने के अतिरिक्त भोजन आदि की भी पूरी व्यवस्था की गई है। इस सबके पीछे कौन षड्यंत्रकारी है जो लाखों-करोड़ों रूपया इन घुसपैठियों/आतंकवादियों व उनके समर्थकों पर खर्च कर रहे हैं? समाचार पत्रों व समाचार चैनलों द्वारा ज्ञात हो रहा है कि इन प्रदर्शनकारी बच्चों व महिलाओं को इस कानून के बहाने सरकार को मुस्लिम विरोधी बता कर उकसाया जा रहा है। जिससे अज्ञानी बच्चे व बुजुर्ग महिलाएं मुस्लिम कट्टरपन के पूर्वाग्रहों के कारण सरलता से बहकावे में आ जाते हैं।

यह सर्वविदित ही है कि ‘इस्लामिक कट्टरता’ ही विश्व में शान्ति स्थापित करने में सबसे बड़ी बाधा बनती जा रही है। जिहादियों को जुनूनी बना कर एकजुट करने में मजहबी कट्टरता ही उत्प्रेरक का कार्य करती है। शाहीन बाग का यह धरना लाखों नागरिकों की दिनचर्या में बाधक बन चुका है। ऐसा प्रतीत होता है कि दिल्ली का यह क्षेत्र जिहादियों ने बंधक बना लिया है। जबकि उच्च न्यायालय के आदेश के उपरांत भी पुलिस अभी कोई कठोर निर्णय लेने से बच रही है। सोची समझी रणनीति के अंतर्गत नाबालिग बच्चों व महिलाओं को आगे करके ये प्रदर्शनकारी स्वयं किसी भी दंडात्मक कार्यवाही से बचना चाहते हैं। लेकिन इस संभावना को भी ध्यान करना होगा कि अगर इन धरना-प्रदर्शनों में सम्मलित बुरके वाली महिलाओं की भीड़ में कोई आतंकवादी घुसा हुआ हो तो उसका उत्तरदायी कौन होगा? ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में पुलिस को अपने विवेक से अविलंब आवश्यक निर्णय लेने ही होंगे।

इस धरने-प्रदर्शन से सम्बंधित अनेक वाद-विवाद टीवी चैनलों पर पक्ष-विपक्ष में नित्य प्रसारित किए जा रहे हैं, परन्तु पूर्वाग्रहों से ग्रस्त कई प्रवक्ता कोई सार्थक तथ्य देने के स्थान पर उल्टा भ्रम पैदा कर रहे हैं। जिससे वातावरण  दूषित हो रहा है और समाज में घृणा भी फैल रही है। इन विभिन्न तथाकथित ज्ञानी प्रवक्ताओं व राजनैतिक विश्लेषकों की टी.वी.डिबेट्स से तो राष्ट्रहित के स्थान पर इन प्रदर्शनकारियों, घुसपैठियों व राजनैतिक विरोधियों का ही उत्साहवर्धन हो रहा है।

प्राय: दशकों से ऐसे समाचार आते रहे हैं कि ये घुसपैठिये अनेक आपराधिक व आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त पाए जाते हैं। साथ ही इनके द्वारा देश के सीमित संसाधनों पर अतिरिक्त बोझ पडऩे से स्थानीय नागरिकों का सामान्य जीवन भी अस्तव्यस्त हो रहा है। देश में बढ़ती जनसंख्या में भी इन घुसपैठियों की षड्यंत्रकारी भूमिका है। बिगड़ते जनसंख्या अनुपात के कारण लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भी निकट भविष्य में बढ़ते संकट को नकारा नहीं जा सकता।

विशेष ध्यान करना होगा कि इस्लामिक कानून शरिया से चले दुनिया की महत्वाकांक्षा वाले जिहादी अपने लक्ष्य को पाने के लिए ही जगह-जगह मुस्लिम घुसपैठियों को दशकों से बसाने में लगे हुए हैं। भारत में भी इसी एजेंडे के अंतर्गत वर्षों से मुस्लिम घुसपैठ बढ़ायी जा रही है।

इस संशोधित कानून से मुस्लिम घुसपैठियों को नागरिकता न देने व इस्लाम से पीडि़त गैर मुस्लिमों को देश में बसाने से स्थानीय मुस्लिम नागरिकों को किसी भी प्रकार से कोई हानि नहीं होने वाली। यह कानून किसी भी भारतीय नागरिक पर लागू ही नहीं होता। इस कानून के द्वारा मुस्लिम घुसपैठियों व अवैध नागरिकों को देश से बाहर निकालने के कारण बढ़ते अपराध व आतंकवाद को नियंत्रित किया जा सकेगा। साथ ही अनेक भारतविरोधी षड्यंत्रों पर अंकुश लगेगा और राष्ट्रीय सुरक्षा में भी अहम भूमिका निभाएगा।

इस कानून का अनावश्यक विरोध करने के लिए शाहीन बाग धरने को मॉडल बना कर देश के अन्य नगरों में मुस्लिम समाज को भी भड़काने का कार्य विभिन्न षड्यंत्रकारियों द्वारा किया जा रहा है जिससे कुछ नगरों में षड्यंत्रकारी मुस्लिम महिलाओं व बच्चों में पैठ बनाने में सफल भी हुए हैं। परिस्थितिवश ऐसा माना जा सकता है कि इस कानून की आड़ में जिहादी शक्तियां, विपक्षी राजनैतिक दल, विदेशी सहायता प्राप्त सामाजिक संगठन व सेकुलर बुद्धिजीवियों का गठजोड़ अपने-अपने निहित स्वार्थों के लिए सक्रिय हो गया है। इसीलिए सेकुलर व वामपंथी बुद्धिजीवी एवं पत्रकार सबसे आगे रह कर इस जिहादी सोच को पोषित कर रहे हैं। वहीं सत्ताहीन राजनैतिक दल सत्ता सुख के लिए विचलित हैं और सशक्त भाजपानीत सरकार पर आक्रामक होने का कोई अवसर छोडऩा नहीं चाहते।

इसी दूषित मानसिकता से ग्रस्त तत्वों के कारण ही पिछले दिनों जामिया, जेएनयू व अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालयों आदि में  हिंसा भड़की, जो सड़कों से होते हुए मस्जिदों को भी प्रभावित करके कट्टरपंथियों को उकसाने में सफल हुई। परिणामस्वरूप 20 दिसम्बर 2019 को जुम्मे की नमाज के बाद जिस तरह से देश के अनेक नगरों में एक साथ हिंसात्मक प्रदर्शन किये गए उससे किसी गहरे षड्यंत्र का आभास होना स्वाभाविक है। अनेक स्थानों पर फैज की नज्म ‘हम देखेंगे…’ के सहारे भारतीय संविधान को चुनौती देकर ये जिहादी देश को क्या संदेश देना चाहते हैं?

इस कानून की सत्यता को समझने के स्थान पर ये कट्टरपंथी लोग मिथ्या दुष्प्रचार को सत्य मान कर भड़क रहे हैं। जिहाद में आज़ादी के नारे लगाने का बहुत पुराना सिलसिला अभी भी जारी है। क्या कोई मुसलमान भारत में गुलाम है या असुरक्षित है? जबकि वह किसी भी मुस्लिम राष्ट्र से अधिक भारत में सबसे ज्यादा सुखी व समृद्ध है।

चिंतन करना चाहिये कि जहां मुसलमान अल्पसंख्यक होते हैं तो जिहाद के लिये आज़ादी के नारे लगाते है, परंतु जहां बहुसंख्यक होते हैं तो वहां के गैर मुस्लिमों (अल्पसंख्यक) को (जैसे पड़ोसी मुस्लिम देशों व अन्य मुस्लिम देशों में भी होता है) कोई आज़ादी नहीं देते। यह दोहरापन भी जिहादी शिक्षा है। इसीलिए जगह-जगह आज़ादी के नाम पर विभिन्न प्रकार के नारे लगा कर उकसाया जाना जारी है। एक नारा ‘जिन्ना वाली आज़ादी’ का क्या अर्थ है? क्या इन प्रदर्शनकारियों को एक और पाकिस्तान चाहिये? क्या ऐसी अभिव्यक्ति के नाम पर देशद्रोह का वातावरण बनाया जाना उचित है?

नागरिकता संशोधन कानून का झूठा व भ्रमित प्रचार करके उसकी वास्तविकता को छिपाने के लिए किये जा रहे ऐसे धरने-प्रदर्शन व आंदोलन जिहाद के अंतर्गत ही सिखाये जाते हैं। अत: दिल्ली की अवैध कालोनी शाहीन बाग के इस न थमने वाले धरने प्रदर्शन को राष्ट्रव्यापी बनाने का दु:साहस करने वालों के ऐसे राष्ट्रविरोधी धरना-प्रदर्शनों को केवल ‘धरना जिहाद’ ही माने तो कोई अतिश्योक्ति न होगी।

विनोद कुमार सर्वोदय

 

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शाहीन बाग में प्रदर्शनकारियों का जमावड़ा

शाहीन बाग में महिलाओं और बच्चों सहित सैकड़ों प्रदर्शनकारी पिछले लगभग डेढ़ महीने से आठों पहर धरना दिए बैठे हैं। प्रदर्शन स्थल पर सर्वधर्म प्रार्थना चल रही है। खीर पक रही है, बिरयानी बंट रही है। लोहड़ी मनायी जा रही है। तिरंगे लहरा रहे हैं, क्रांतिकारी काव्य-पाठ हो रहा है। मुशायरा भी आयोजित हो रहा है।

दिल्ली-नोएडा को जोडऩे वाली एक मुख्य सड़क महीने भर से बंद पड़ी है। दिल्ली पुलिस प्रदर्शनकारियों को नागरिक सुविधाओं का हवाला देकर कम से कम एक रास्ता खाली करने के लिए मिन्नतें कर रही है। प्रथम दृष्ट्या ऐसा लगता है कि देशभक्ति से ओत-प्रोत साम्प्रादायिक सौहार्द के बीच सत्याग्रह का स्वर्णिम दौर आ गया है। लेकिन क्या सच में ऐसा है?

पूरा जमावड़ा संसद से पारित नागरिक संशोधन कानून के विरुद्ध है, जिसका अल्पसंख्यकों सहित भारत के एक भी नागरिक पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं होने वाला।

तख्तियां उस एनआरसी के विरोध में भी दिख रही हैं, जिस पर सरकार ने यह कई बार स्पष्ट किया है कि अभी ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं आया और न ही उस पर विचार हुआ है। तो फिर विरोध भला क्यों हो रहा है?

सीएए/ एनआरसी के विरोधी शाहीन बाग की भीड़ को स्वत: स्फूर्त बताते नहीं थक रहे। वहीं ऐसी भी खबरें हैं कि प्रदर्शनकारियों को दिहाड़ी पर लाया जा रहा है और प्रदर्शनकारी शिफ्ट ड्यूटी कर रहे हैं। महिलाएं घर का काम निबटाकर प्रदर्शन स्थल पर ऐसे आ रही हैं, जैसे वो कार्यस्थल ही हो। वहीं शाहीन बाग के कई स्थानीय निवासियों ने अपना रोजी-रोजगार चौपट होने की शिकायतें भी की हैं।

लहराते तिरंगों के बीच ‘आजादी’ की भी बात हो रही है। आशा है कि आजादी का यह जुमला सिर्फ सरकार की तथाकथित प्रताडऩा से आजादी तक ही सीमित हो। संसद के बनाए कानून के विरुद्ध प्रदर्शन में देशभक्ति थोड़ा अटपटा लगता है। कानून से असहमति के विधायी रास्ते भी हो सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय में इस पर विचार करने के लिए याचिकाएं डाली गयी हैं। उस पर सुनवाई और न्यायालय के मत की ही प्रतीक्षा क्यों नहीं कर लेते ये लोग?

असहमति और विरोध के तार दिल्ली विधान सभा के आगामी चुनाव से भी जुड़े हो सकते हैं। कहा जा रहा है कि पंजाब से किसान अपना घर-द्वार और खेती-किसानी छोड़कर दिल्ली में संघर्ष कर रही अपनी बहनों का साथ देने दिल्ली आए हैं। शाहीन बाग में उनके संग लोहड़ी मनाकर प्रदर्शनकारी उनका धन्यवाद ज्ञापन कर रहे हैं। यह भाईचारा और सौहार्द टू मच ही नहीं बल्कि मैनुफैक्चर्ड भी प्रतीत होता है।

दूसरी ओर मीडिया एवं बॉलीवुड अथवा मनोरंजन व्यवसायों से संबद्ध कुछ लोग शाहीन बाग के आंदोलन को सभी धर्मों से जोड़ कर दिखाने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं। लेकिन यह बात भी निराधार नहीं है कि विभिन्न भित्ति पत्रों में स्वास्तिक के टूटने से लेकर महिलाओं के लिए एक विशेष ड्रेस कोड तक कहीं न कहीं एक धर्म के लिए सॉफ्ट कॉर्नर एवं दूसरे धर्म के प्रति घृणा का भाव भी दिखता है।

वहीं खुद को समाज का सबसे जागृत और समझदार हिस्सा बताने वाले लोग यह शायद नहीं समझ पा रहे कि उन्हें धरने पर बिठा खुद विदेशों में पैसा कमाने भाग रहे मसखरों से लेकर व्यंग्यकार तक सिर्फ और सिर्फ एक प्रोपेगंडा के तहत उन्हें बेवकूफ बना रहे हैं या वे स्वयं जानबूझकर बेवकूफ बन रहे हैं।

2019 के लोकसभा चुनावों के समय सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ, वीडियो में कांग्रेस की एक बड़ी नेत्री को कुछ बच्चे घेरे खड़े थे और प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के लिए अभद्र नारे लगा रहे थे। हाल ही में कुछ बच्चों की वीडियो सोशल मीडिया पर पुन: वायरल हुई हैं। वीडियो में कुछ बच्चों ने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के लिए ऐसी बातें कहीं जो विचलित करती हैं। ब्रेनवॉशिंग में सपनों का डिटेंशन सेन्टर भी बन गया है और उसके आचार भी तैयार कर दिए गए हैं। तभी तो वीडियो में एक बच्ची यह कह रही है कि डिटेंशन सेन्टर में सिर्फ एक समय खाना दिया जाएगा और मेरे परिवार वालों को मुझसे दूर कर दिया जाएगा।

यह ठीक है कि लोकतंत्र सिर्फ बहुमत का शासन नहीं है और उसमें असहमति को भी सुनने की जगह होनी चाहिए पर असहमति की अभिव्यक्ति का भी एक तरीका होता है, एक सीमा होती है। सरकार का या किसी कानून का विरोध करने के लिए घृणा निर्माण का यह तरीका दूर का कोई खतरा तो नहीं दिखा रहा? देश को इस पर विचार करना चाहिए।

प्रदर्शनकारियों के पक्ष में एक बात तो कही ही जा सकती है कि विरोध के सॉफ्ट उद्देश्य चाहे जो भी हों पर यह अब तक शांतिपूर्ण है।

हां, प्रदर्शन ने नागरिक सुविधाओं को बुरी तरह प्रभावित किया है। इसके बावजूद पुलिस ने अब तक धैर्य का परिचय दिया है। हालांकि आजकल न्यायालय तमाम मुद्दों पर जनहित में स्वतत्न संज्ञान लेते हैं लेकिन इस मामले पर माननीय उच्च न्यायालय ने कोई साफ आदेश नहीं दिया और शाहीन बाग को दिल्ली पुलिस पर छोड़ दिया।

प्रदर्शन कर रहे लोगों के लिए केंद्र सरकार दमनकारी है, शाहीन बाग पर केन्द्र के अब तक का ट्रीटमेंट कुछ लोगों को धैर्य लग सकता है तो कुछ लोगों को सरकार की अकर्मण्यता दिखेगी लेकिन सरकार और पुलिस के लिए फैसला इतना आसान भी नहीं है। फिर भी उन्हें कुछ तो करना ही होगा, सड़क कितने दिनों तक जाम रहेगी? या तो प्रदर्शनकारी स्वयं हटें या थककर हट जाएं या पुलिस उन्हें हटाए।

सूर्यांश शर्मा साभार

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शाहीनबाग के शातिरों को शर्म कहां!

दिल्ली के शाहीनबाग और लखनऊ के घंटाघर पर पाकिस्तानियों, बांग्लादेशियों, रोहिंग्याओं और उनके सरपरस्त धर्मनिरपेक्ष-मानवतावादी मुसलमानों और प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं की भीड़ जमा है। इस भीड़ के हाथ में भारत का झंडा है। यह खास रणनीति है। जब उन्हें सड़क से हटाने की कार्रवाई शुरू होगी, तब इस झंडे का डंडा पुलिस के खिलाफ हथियार बनने वाला है। धर्मनिरपेक्ष-मानवतावादी मुसलमानों की धर्मनिरपेक्षता और मानवीयता केवल बांग्लादेशी, पाकिस्तानी और रोहिंग्या घुसपैठिए मुसलमानों के लिए है। और प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं की तो बात ही छोडि़ए, यह भारतवर्ष की संदिग्ध नस्ल है। शाहीनबाग या घंटाघर पर जमा अवांछित तत्वों को गुस्सा इस बात पर है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में गैर-मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचार पर क्यों उंगली उठाई गई, क्यों सवाल उठे! पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में बर्बर धार्मिक-अत्याचार का शिकार हो रहे गैर-मुस्लिमों को भारत में नागरिकता देकर उन्हें संरक्षण देने का फैसला भारत सरकार ने क्यों किया! आप सोचिए कितने घिनौने लोग हैं ये! भारत सरकार ने पाकिस्तानी, बांग्लादेशी और रोहिंगिया मुसलमान घुसपैठियों के लिए भारत की नागरिकता देने का रास्ता खोला होता, तो जरा भी विरोध नहीं होता। यह है भारत के धर्मनिरपेक्ष-मानवतावादी मुसलमानों और प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं की असलियत। यह जमात उन दिनों की तैयारी कर रही है, जब पाकिस्तान और बांग्लादेश की तरह भारत में भी एकधर्मी-अधर्म का पाप सड़कों पर पसरेगा और गैर-मुस्लिमों का खून और सम्मान सड़कों पर बिखरेगा। सड़क घेर कर बैठे लोगों की मंशा और तैयारी उन दिनों की है। ये बस अपनी संख्या बढ़ाने की जुगत में हैं।

मेरी बातें अतिरंजना नहीं हैं। इसमें एक शब्द भी बढ़ा-चढ़ा कर नहीं कहा जा रहा। सारे शब्द नपे-तुले और सोच-समझ कर लिखे जा रहे हैं। यह आप भी समझते हैं, लेकिन खुल कर बोलने से डरते हैं कि कोई क्या कह देगा। यह मनोवैज्ञानिक भय बड़े ही शातिराना तरीके से हममें पीढ़ी दर पीढ़ी इंजेक्ट किया गया है। वो खुल कर एकधर्मी-अधर्मिता पर उतारू हों तो वे धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील। हम स्वाभाविक मानवीयता, सर्वधर्मीय समग्रता और राष्ट्रीय प्रतिबद्धता की बात कहें तो हमें हाशिए पर डालने की कार्रवाइयां तेज गति से चालू! इसे हम कब तक बर्दाश्त करेंगे? हम उचित बात इसलिए न कहे कि धर्मनिरपेक्षता और प्रगतिशीलता की नकाब ओढ़े गुंडों और अवांछित तत्वों की एकजुट जमात हमसे नाराज हो जाएगी! गुंडे और असामाजिक तत्वों को हम अपने समाज पर कब तक और क्यों हावी होने दें? इसे सोचिए। इस प्रश्न पर विचार करिए। इस मसले पर मुखर होइए। इस पर विचार करिए कि सड़क घेरे बैठी भीड़ का कोई भी एक धर्मनिरपेक्ष-प्रगतिशील शख्स आज ही के दिन वर्ष 1990 में कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के साथ हुए भीषण नरसंहार, बलात्कार और आगजनी के शर्मनांक एकधर्मी-अधार्मिक बर्बर कृत्य को लेकर एक शब्द भी बोला? 19 जनवरी 1990 को कश्मीर घाटी में मुसलमानों ने जो घोर घृणित कृत्य किए थे, उसे लेकर शाहीन-बाग के समर्थक क्या किसी एक भी व्यक्ति ने शोक जताया? कश्मीरी पंडितों के शोक में शरीक होने और उनके प्रति सहानुभूति जताने की जरूरत समझी? नहीं न! आप समझिए कि वे कितने क्रूर हैं। अगर कोई यह कहता है कि सीएए का विरोध कर रहे लोग डरे हुए लोग हैं। तो आप समझ लीजिए कि ऐसा कहने वाला बेहद मक्कार है। ये डरे हुए लोग नहीं, ये समझे हुए शातिर लोग हैं। हिन्दुओं, सिखों और अन्य गैर मुस्लिमों को बेरहमी से काटते हुए, गैर-मुस्लिम महिलाओं के साथ बेगैरत हरकतें करते हुए, सार्वजनिक ऐलान कर गैर-मुस्लिम कश्मीरियों को कश्मीर से बाहर निकालते हुए जो लोग डरते नहीं, वे सीएए से डर रहे हैं? किस गलतफहमी में हैं आप? ये जब अपने देश के नागरिकों के नहीं हुए तो आप क्या यह सोचते हैं कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में गैर-मुस्लिमों पर हुए बर्बर अत्याचार पर वे संजीदा होंगे? यह भारतवर्ष का नाकारा-नपुंसक सत्ता-चरित्र है कि यहां राष्ट्रविरोधी तत्वों को सड़क घेरने की आजादी रहती है और वे सड़क घेर कर खुलेआम आजादी-आजादी का नारा लगा सकते हैं। क्या किसी भी अन्य देश में इस तरह राष्ट्र-विरोधी नारे लगाने की इजाजत है? पाकिस्तान-परस्त लोग जो शाहीनबाग की मुख्य सड़क घेरे बैठे हैं, वे क्या पाकिस्तान में ऐसी हरकतें कर सकते हैं? शाहीनबाग धरना को पाकिस्तान खुलेआम समर्थन दे रहा है। इससे क्या सत्ता को बात समझ में नहीं आती? सामूहिक-बलात्कार, सामूहिक-हत्याएं और सामूहिक अग्निकांडों के बाद 19 जनवरी 1990 को करीब चार लाख कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोडऩे पर विवश होना पड़ा था। ऐसी जघन्य और हृदय-द्रावक घटना क्या कभी भूली जा सकती है? शाहीनबाग के शातिरों को यह घटना क्यों नहीं याद आई? उस एकधर्मी-अधर्मी वारदात के 14 दिन पहले चार जनवरी 1990 को उर्दू अखबार ‘आफताब’ में कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़ देने की चेतावनी-घोषणा प्रकाशित हुई थी। फिर दूसरे उर्दू अखबार ‘अल-सफा’ ने भी यही घोषणा छापी। श्रीनगर के चौराहों और मस्जिदों में लगे लाउड-स्पीकरों से कश्मीरी पंडितों को तत्काल घर छोड़ कर चले जाने की धमकियां दी गईं। कश्मीरी पंडितों को घाटी से चले जाने और अपनी औरतों को छोड़ जाने, ‘असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान’ (हमें पाकिस्तान चाहिए, पंडितों के बगैर, लेकिन उनकी औरतों के साथ) की लगातार सार्वजनिक धमकियां दी गईं। इन हरकतों पर शाहीनबागी धर्मनिरपेक्ष-मानवतावादी मुसलमानों और प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं को क्या आज भी शर्म आती है? तब नहीं आई तो अब क्या आएगी? सत्ता और न्यायिक व्यवस्था को भी शर्म कहां आती है!

‘रूट्स ऑफ कश्मीर’ संस्था वर्ष 1990 में हुई कश्मीरी पंडितों की सामूहिक हत्या के 215 मामलों की जांच की लगातार मांग कर रही है। सुप्रीमकोर्ट ने कहा कि मामले पुराने हो गए। जबकि मई 1987 में मेरठ के हाशिमपुरा में हुए दंगों पर सुप्रीम कोर्ट ने बाकायदा सुनवाई की और दोषियों को सजा भी सुनाई। इसे ही तो विडंबना कहते हैं..! ऐसे ही दोगले सत्ताई-प्रशासनिक-न्यायिक-वैचारिक कुचक्र में फंसे हैं भारतवर्ष के वास्तविक-स्वाभाविक प्रतिबद्ध लोग, जिन्हें सच बोलने से डर लगता है।

प्रभात रंजन दीन

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