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संतुलन बनाते-बनाते सच का मुंह तो नहीं नोचने लगे हैं हम?

कोरोना चीन से फैला, चीन ने फैलाया, लेकिन इसे चीनी वायरस कहने से यह रेसियल कमेंट हो जाता है।

तबलीगी जमात में दुनिया भर के मजहबी धर्म प्रचारक कोरोना संक्रमण लेकर शामिल हुए और फिर सरकार व प्रशासन से छिपाते हुए घूम-घूम कर पूरे देश में इसे फैला दिया, लेकिन इसके लिए जमात की निंदा करने से यह कम्युनल कमेंट हो जाता है।
कथित प्रोग्रेसिव व सेक्युलर लोग कोरोना की तुलना आए दिन होने वाली सड़क दुर्घटनाओं और अन्य बीमारियों से होने वाली मौतों से कर कर के थक गए, तो अब तबलीगी जमात की बैठक की तुलना तिरुपति बाला जी या वैष्णो देवी के श्रद्धालुओं की भीड़ से की जा रही है, बिना इस बात का जवाब दिये कि उन श्रद्धालुओं में कितने विदेशी थे, कितने कोरोना संक्रमित होने के कारण मर गए, लॉकडाउन के बाद कितनों ने मंदिर में पूजा करने की ज़िद की, कितने मंदिरों में छिपकर बैठे थे, कितनों ने संक्रमण की बात छिपाई और कितनों ने घूम घूमकर दूसरे लोगों में कोरोना फैलाया?
आज तक ने रिपोर्ट किया कि जमात के लोग बस में ले जाए जाते समय थूक रहे थे। क्या यह महज एक इत्तेफाक है कि इंफोसिस में काम करने वाले एक कट्टरपंथी इंजीनियर ने अपने जमात के लोगों से कहा था कि थूक थूक कर पूरे देश में कोरोना फैला दो?
सोचता हूँ, वोट की राजनीति करते करते इस देश में सच का मुंह कितने तरीकों से नोंचा जाने लगा है। आज सच बोलने से हम कितना डरने लगे हैं?
1. सच बोलेंगे तो वोट बैंक नाराज़ हो जाएगा
2. सच बोलेंगे तो किसी को बुरा लग जाएगा
3. सच बोलेंगे तो दंगे भड़क जाएंगे
4. सच बोलेंगे तो देश की एकता और अखंडता खतरे में पड़ जाएगी
5. सच बोलेंगे तो देश का बंटवारा हो जाएगा।
वगैरह वगैरह।
कभी कभी मुझे लगता है कि 10 लाख से अधिक लोगों की लाशों पर आज़ाद हुए इस देश के लिए लाशें गिनना इतना आम हो गया है कि आज हम मजहबी कारणों से हुई हर एक मौत पर परदेदारी करने लगे हैं, विषयांतर करने लगे हैं, दूसरी मौतों का जिक्र कर उसे जस्टिफाई करने लगे हैं, जिसकी ज़िम्मेदारी हो उसे ज़िम्मेदार ठहराने से कतराने लगे हैं, गुनाह किसी का दोष किसी और पर मढ़ने लगे हैं।
मुझे याद है भारत में आतंकवाद की हर घटना के बाद कहा गया कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, जबकि  लगभग तमाम आतंकवादी एक ही धर्म के थे और एक ही धर्म उन्हें लगातार संरक्षण देता रहा। शायद ही ऐसा कोई आतंकवादी हो जिसकी गिरफ्तारी पर, जिसके एनकाउंटर पर या जिसे सज़ा दिये जाने पर उस धर्म के धार्मिक लोगों द्वारा सवाल न उठाए गए हों। जितने दम से सरकार, सेना, पुलिस का विरोध किया जाता रहा, उतने दम से ऐसे किसी धार्मिक व्यक्ति ने कभी आतंकवाद और आतंकवादियों का विरोध किया हो, तो बताइए।
अब कुछ लोग जहां चलते फिरते कोरोना बम बनकर देश भर में महामारी को अधिक मारक बनाने के प्रयास में हैं, वहीं हर बात का दोष सरकार के मत्थे मढ़ने की तैयारी भी उतनी ही पुख्ता है। लेकिन याद रखिए, जिस देश की जनता ज़िम्मेदार नहीं होती, उस देश की सरकार भी कभी आदर्श नहीं बन पाती।
इसलिए, कथित सेक्युलरिज्म के नाम पर किसी समुदाय विशेष की कट्टरता, धर्मान्धता या बेवकूफी को इतना अधिक बढ़ावा मत दीजिए कि पूरा देश बारूद के ढेर पर बैठ जाए। मजहबी कट्टरता के तराजू पर अलग अलग मजहबों को बराबर तौलने का पाप भी मत कीजिए, क्योंकि सभी मजहबों में कुछ न कुछ मात्रा में कट्टरपंथी तत्व मौजूद होने का मतलब यह भी नहीं कि उनकी संख्या, प्रतिशतता, विध्वंसक शक्तियां और गतिविधियां भी बराबर ही हैं।
देश को साम्प्रदायिकता, कट्टरता, हिंसा, आतंक, दंगों, मौतों से छुटकारा मिले, और सभी समुदाय के लोग धार्मिक भावनाओं से ऊपर उठकर ज़िम्मेदारी और समानता के बोध के साथ देश के विकास के लिए समान रूप से योगदान कर सकें, इसके लिए ज़रूरी है कि सच बोला जाए और जब जिसे आईना दिखाने की ज़रूरत हो, दिखाया जाए।
तब्लीगी जमात होती क्या है आइये थोड़ा समझते हैं, जिसे लेकर इतना बवाल मचा हुआ है।
तब्लीग जमात इस्लाम के सुन्नी मजहब के हनफी विचारधारा के कट्टर देओबंदी समुदाय के मेवाती गिरोह से ताल्लुक रखते हैं। हरियाणा के मेवात में 1926 में इसकी शुरुआत हुई और आज समूचे संसार में ये मेवाती इस्लाम का प्रचार करते हैं। इनका मुख्य जोर भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और इंडोनेशिया मलेशिया में है। एक अनुमान के मुताबिक करीब पांच करोड़ मुसलमान तब्लीग को फॉलो करते हैं।
ये तब्लीगी जमात इस्लाम के बाकी सभी स्कूलों को सही नहीं मानता और तब्लीगी जमात के अलावा बाकी हर मुसलमान को काफिर मानता है। ये शिया या फिर सुन्नी समुदाय के दूसरे मौलवियों और मौलानाओं को खारिज करते हैं और मुसलमानों से कहते हैं कि अपने और अल्लाह के बीच में पैगंबर के अलावा कोई मध्यस्थ न रखें।
इनकी एक खास जीवनशैली होती है जिसका आधार है गैर मुस्लिमों से दूरी। गैर मुस्लिम इनके लिए अछूत होता है और ये उसे देखना भी पसंद नहीं करते। ये लोग समूह में घूम घूमकर मुसलमानों के बीच ही अपना प्रचार करते हैं जो तीन दिन से लेकर चालीस दिन तक का होता है। इनके प्रचार का मुख्य आधार है दावा जिसका अर्थ है निमंत्रण देना।
तब्लीगी जमात मुसलमानों के बीच बहुत सम्मान से नहीं देखी जाती क्योंकि ये अपने अलावा बाकी हर मुसलमान को खारिज करते हैं। फिर वो शिया हो या बरेलवी, सूफी हो या चिश्ती। तब्लीगी जमात इनको सच्चा मुसलमान नहीं मानती।
बीते कुछ दशकों में भारत और पाकिस्तान में जिस कट्टरपंथी इस्लाम का जोर बढ़ा है उसमें तब्लीगी जमात का बड़ा योगदान है।
-अभिरंजन कुमार-

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