स्वर्गीय डॉ मदन मोहन जी : जीवन वृत
सनातनी, सेवाभावी व कर्मयोगी डॉ मदन मोहन अग्रवाल
एक समाजसेवी, व्यवसायी व गृहस्थ के रूप में
एक क्षेत्रीय बैंक के लिपिक बाबू धनप्रकाश गुप्ता और उनकी पत्नी द्रौपदी देवी के घर पर बिजनौर जिले के धामपुर कस्बे के आवास में 13 अगस्त 1938 को पुत्र ‘मदन’ का जन्म हुआ तो मानो समय ही बदल गया। भाग्य लक्ष्मी ने घर में डेरा डाल दिया। पिता धन प्रकाश कुछ ही दिनों में बैंक के प्रबंधक बन गए और गरीबी में जी रहे परिवार के तो जैसे दिलद्दर ही दूर हो गए। एक ओर जहां धन प्रकाश के घर खुशियों की बरसात होने लगी वहीं कुल 6 बहन (मिथलेश, राजेश्वरी, लक्ष्मी, सुमन, नीरजा, साधना) व एक भाई (रामअवतार) के आगमन के साथ ही अगले कुछ वर्षों में ‘मदन’ एक बड़े किंतु प्रतिष्ठित परिवार के लाडले व केंद्र बिंदु बनते गए। धामपुर के प्रसिद्ध कॉलेज एस एन इन्टर कॉलेज से 12वीं तक पढ़ाई करने के बाद प्रतिभाशाली मदन, जो अब ‘मदन मोहन’ हो चुके थे, डॉक्टरी की पढ़ाई करने बाहर चले गए।
बचपन से ही तहेरे भाई सुरेश चंद जी के प्रभाव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े मदन मोहन में सेवा भावना कूट कूट कर भरी थी। इसीलिए किसी शहर में प्रैक्टिस न शुरू कर उन्होंने ग्रामीण अंचल में स्थित पिछड़े कस्बे ठाकुरद्वारा को अपना कार्य क्षेत्र बनाया। कुछ ही वर्षों में वे इस क्षेत्र के सर्वाधिक लोकप्रिय व सफल चिकित्सक बन गए। ‘पैसा नहीं सेवा’ के भाव के कारण वे 24 घंटे मरीजों के इलाज व सेवा के लिए उपलब्ध रहते थे। शायद ही कोई रात होती होगी जब वे किसी न किसी गांव में किसी गंभीर रूप से बीमार जरूरतमंद का इलाज करने व उनकी जान बचाने न जाते हों, वह भी पैदल, साइकिल या बैलगाड़ी से ही।
उनके साथ ही उनकी सेवाधर्मी पत्नी ‘सत्यभामा’ जो चांदपुर के एक जमींदार परिवार से थीं, भी दिनरात समाज व मरीजों की सेवा में लगी रहती थी। समय के साथ ही डॉ मदन मोहन अग्रवाल आस पास के क्षेत्र के अत्यंत लोकप्रिय चिकित्सक व समाजसेवी के रूप में उभरते गए व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ ही भारतीय जनसंघ (तत्कालीन भाजपा) के एक कद्दावर नेता के रूप में उभरते गए। उनके घर व क्लीनिक पर राष्ट्रवादी नेताओं का जमावड़ा लगने लगा व उनके नेतृत्व में 70 के दशक में उस क्षेत्र में भारतीय जनसंघ की सदस्यता पूरे देश में सर्वाधिक हो गयी थी।
इन सब कार्यों व जिम्मेदारियों के बीच उनके व्यक्तित्व का बहुआयामी विकास होने लगा और वे एक कुशल वक्ता, संगठनकर्ता व चुनाव प्रबंधक बनते गए। उनके नेतृत्व में सैकड़ों बड़े बड़े सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक कार्यक्रम संपन्न हुए व समाज में चेतना का संचार हुआ। वे संघ परिवार के प्रदेश स्तर के नेताओं में गिने जाने लगे व उनकी सलाह हर जगह महत्वपूर्ण स्थान लेने लगी। उनको जनता से मिलने वाला मान सम्मान व स्नेह अभिभूत कर देने वाला था व वे सभी कार्यकर्ताओं का नाम याद रखते थे। न जाने कितने गांव, उनके लोग व रास्ते उनको जुबानी याद थे। हर विवाद व झगड़े में वे पंच बना दिए जाते थे तो न जाने कितने लोगों को रोजगार व जीवनसाथी चुनने में वे मददगार साबित हुए। एक तटस्थ व्यक्ति के लिए भी उनकी प्रसिद्धि ईष्या का विषय थी और बहुत से लोग उनसे ईष्या करते भी थे। किंतु अनेक विरोधों के बाद भी वे तीन दशकों तक निर्णायक भूमिका में रहे।
इसी बीच सन 1961 से 1971 के मध्य वे सात बच्चों के पिता बन चुके थे। 4 बेटियां व 3 बेटे। भरे-पूरे परिवार के बाद भी उनका सेवा का जुनून बढ़ता ही गया व सन 1975 में देश में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल लगाया तो संघ से जुड़े नेताओं की धर पकड़ होने लगी, तब उनको 2 साल भूमिगत होना पड़ा। इस समय उनके व उनसे जुड़े लोगों के ठिकानों पर पुलिस व गुप्तचर विभाग की छापेमारी व यातनाएं आम बात थीं। परिवार ने आर्थिक और मानसिक रूप से अनेक प्रताडऩा इस दौर में झेली। बीच मे वे पकड़े गए व जेल भी गए किंतु अपनी विचारधारा व सिद्धान्तों से समझौता कभी नहीं किया। अपने हिंदुत्ववादी विचारों के बीच भी वे मुस्लिम बहुल कस्बे के मुसलमानों में भी समान रूप से लोकप्रिय थे, सभी प्रतिष्ठित मुस्लिम परिवारों से उनके घनिष्ठ संबंध थे। 1977 के आम चुनावों में वे क्षेत्र की राजनीति में किंग मेकर बनकर उभरे। किस को सांसद, विधायक, जिला परिषद व नगर पालिका अध्यक्ष या पंचायत व नगर पालिका सदस्य बनना है, इसमें वे ही प्रमुख भूमिका निभाया करते थे। उस समय उनके प्रयत्नों से पूरे देश में सबसे ज्यादा सड़के उनके क्षेत्र में बनी व सबसे ज्यादा ट्यूबवेल भी लगे जिस कारण विकास व समृद्धि की एक नई बयार ही आ गयी और देखते देखते पूरा क्षेत्र बड़े बदलाव का गवाह बन गया। इस समय क्षेत्र की सभी सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक संस्थाए यथा आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद, आर्य समाज, भारतीय जनता पार्टी, सनातन धर्म हिंदू इंटर कॉलेज, आर्य शिशु मंदिर व विद्या मंदिर, अग्रवाल समाज व सभा, मढ़ी मंदिर जीर्णोद्धार समिति आदि डॉ मदन मोहन जी के नेतृत्व व नियंत्रण में आ गयी और उन्होंने बिना किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार व गड़बड़ी के अत्यंत कुशलता से दो दशकों तक इनका नेतृत्व किया। उनके सारे बच्चे भी यथा संभव उनके इन कार्यों में नींव का पत्थर बन साथ देते रहे। इस बीच उनको अनेक बार विधायक, सांसद व मंत्री बनने का भी दबाव जनता व पार्टी द्वारा आया किंतु अपने सिद्धांतों के कारण उन्होंने जीवनपर्यंत कोई सरकारी पद नहीं लिया। अस्सी के दशक में देश को हिलाने वाले व पूरे राजनीतिक परिदृष्य को ही बदल देने वाले ‘रामजन्म भूमि’ आंदोलन के वे सूत्रधारों में थे। इस विचार के प्रणेता दाउ दयाल खन्ना को तत्कालीन विभाग प्रचारक दिनेश त्यागी के माध्यम से संघ के शीर्ष नेतृत्व से मिलवाने व इस मुद्दे को संघ के एजेंडे में शामिल करवाने में उनकी प्रारंभिक व निर्णायक भूमिका रही। बाद में इसी मुद्दे के कारण पूरे देश में राष्ट्रवादी सनातनी शक्तियां राजनीति की मुख्यधारा में आ गयी और अंतत: देश की सत्ता पर काबिज हो गयीं। वे स्वयं इस आंदोलन में सक्रिय रूप से लगे रहे और उनकी मृत्यु से पूर्व ही राम मंदिर पर उच्चतम न्यायालय का फैसला हिंदुओं के पक्ष में आने व राम जन्मभूमि न्यास के गठन होने की उनको अत्यंत खुशी थी।
एक समाजसेवी, व्यवसायी व गृहस्थ के रूप में जीवन यापन के लिए धनोपार्जन, यह कभी डॉ मदन मोहन जी की प्राथमिकता नहीं रही। वे एक सफल चिकित्सक अवश्य रहे व एक अच्छा चलने वाले मेडिकल स्टोर के मालिक भी, किंतु अपनी समाजसेवा व राजनीति के कारण इस पर लंबे समय तक ध्यान नहीं दे पाए। अक्सर गरीब लोगों का निशुल्क या कम कीमत पर इलाज करना या सस्ते में दवाइयां देना उनकी आदत थी। साथ ही सामाजिक कार्यों में अधिक ध्यान देने से अक्सर क्लीनिक व मेडिकल स्टोर को पर्याप्त समय न देना उनकी आदत व मजबूरी बनती गयी। ऐसे में स्वयं के सात बच्चों (चार पुत्रियों मीनाक्षी, नीरजा, रंजना व सीमा और तीन पुत्र विवेक, मधुर व अनुज) के साथ ही सेवानिवृत्त माता-पिता व तीन अविवाहित बहनों की जिम्मेदारी का निर्वाह उनके लिए आसान न था। अनेकों चुनौतियां व वित्तीय दबावों के बीच भी अंतत: वे अपनी तीनों बहनों का अच्छे परिवारों में विवाह करवाने में सफल रहे व अपनी चारों बेटियों को भी उच्च शिक्षा के लिए देश के प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों में पढऩे भेजा। उनकी चारों बेटियां ही बहुत संस्कारी व गुणी होने के साथ ही बहुमुखी प्रतिभा की धनी निकली व उनकी शादियां भी प्रतिष्ठित परिवारों में करने में वे सफल रहे। क्रमश: कपिल देव, विजय, राजीव व आदित्य के रूप में उनको शिक्षित व सफल व्यवसायी दामाद मिले। वर्तमान में उनके 9 धेवते-धैवतियां (उविका, भुवन, शशांक, निकुल, अपूर्व, सांची, वनिका, जाह्नवी व कनिष्क) हैं। अपनी पुत्री सीमा के वैवाहिक जीवन की परेशानियों व फालिश पड़ जाने के कुछ वर्षों बाद असामयिक मृत्यु का दंश उनको जीवन भर सालता रहा।
अपने व्यावसायिक जीवन के मध्यकाल मे डॉ साहब भारतीय जीवन बीमा निगम से भी एजेन्ट के रूप में जुड़े। समाजसेवा को अधिक समय देने के कारण जब वे आर्थिक परेशानियों से घिरे तो यही व्यवसाय उनकी जीवन रेखा बन गया। कुछ ही वर्षों में वे निगम के सबसे प्रतिष्ठित ‘चेयरमैन क्लब’ के सदस्य बन गए व जीवन पर्यंत इस पद पर बने रहे। वे निगम के देशभर के सबसे प्रतिष्ठित व वयोवृद्ध अभिकर्ता रहे और इस कार्य को भी व्यवसाय के रूप में कम और सेवा के रूप में अधिक लिया और हजारों गरीब व मध्यम वर्ग के लोगों को बचत की आदत डलवाई व उनकी जरूरत के समय क्लेम दिलवाए। वित्तीय स्थिति खराब होने के कारण अपने पुत्रों के कैरियर बनाने में पूरी मदद न कर पाने का उनको हमेशा दुख रहा किंतु उनके तीनों ही बेटे कुछ वर्षों के संघर्ष के बाद व्यावसायिक व पारिवारिक रूप से सफलतापूर्वक स्थापित हो गए। विभा, रेशु व सारिका के रूप में उनको गुणी बहुएं मिली।
एक वानप्रस्थ के रूप में जीवन का संध्या काल
जीवन के अंतिम 10-12 वर्षों में डॉ साहब ने चिकित्सा कार्य छोड़ दिया व जीवन बीमा के व्यवसाय को ही आय का जरिया बना लिया। वे अब सक्रिय राजनीति से भी दूर हो गए व जीवन बीमा के काम के साथ ही वे अध्ययन व धार्मिक-सामाजिक कार्यों में ही अधिक लग गए। उनके पास उत्कृष्ट पुस्तकों का बड़ा संग्रह हमेशा रहा। एक ओर उन्होंने अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा अपने क्षेत्र के सरस्वती विद्या मंदिर को देकर उसे विकसित करने में खर्च करना शुरू कर दिया वहीं मंदिरों के निर्माण व जीर्णोद्धार में उनकी रुचि रहने लगी। वे अपने ऊपर बहुत कम खर्च करते थे व समाज के जरूरतमंदों पर अधिक। घरेलू खर्च के लिए पर्याप्त पैसा नहीं देने के झगड़े अपनी पत्नी से पूरे जीवन चलते रहे। यही शिकायत उनके बच्चों को भी हमेशा रही। पूरा जीवन उन्होंने एक कर्मयोगी की तरह ही जिया। हमेशा पुस्तकों, समाचारों व देश दुनिया के घटनाक्रमों में रुचि रखने वाले डॉ साहब इसी बीच नोएडा में अपने छोटे पुत्र अनुज के पास अधिक रहने लगे। जब वे जन्मे थे तब दुनिया में दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ था और इस समय कोरोना संकट के बीच दुनिया में तीसरे विश्व युद्ध की आहट है। बदलते घटनाक्रमों व पतन की ओर बढ़ते विश्व से वे खासे निराश थे। इन्हीं निराशाओं के बीच सनातन संस्कृति ही विश्व की समस्त समस्याओं का निदान है, यह संदेश देते हुए नोएडा में 1 मई 2020 को उन्होंने जीवन की अंतिम सांस ली। वे अक्सर अपने बच्चों व पोती-पोतों (मानवी, कुशाग्र, सम्यक, एकाग्र व सहज) से कहते थे कि जीवन में कमाना है तो संबंध कमाओ पैसा तो कोई भी कमा लेता है। उनको चाहने व प्यार करने वाले देश के कोने कोने में हैं, ऐसे लाखों लोग हैं जो उनकी प्रेरणा से सनातन संस्कृति के मार्ग पर चल रहे हैं। उनकी मृत्यु पर नम लाखों आंखे यह तथ्य स्वयं ही अभिव्यक्त कर रही हैं और बता रही हैं कि डॉ साहब कभी मर नहीं सकते। वे हमेशा जिंदा रहेंगे हमारी यादों में, हमारे संस्कारों में और हमारे हरेक सेवा भाव में। ठाकुरद्वारा में एक मुख्य मार्ग का नामकरण उनके नाम पर किया गया तो उनके प्रयासों से विकसित विद्यालय भी अब ‘डॉ मदन मोहन अग्रवाल सरस्वती विद्या मंदिर’ बन गया है। उनके बच्चों ने भी उनकी स्मृति में ‘डॉ मदन मोहन समृति न्यास’ के गठन का संकल्प लिया है ताकि उनके सेवा कार्यों व विचारों को आगे बढ़ाया जा सके।
प्रस्तुति – अनुज अग्रवाल (पुत्र)
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अच्छे दिन यूं ही नहीं आते, लगना पड़ता है
सन 1983 में जब उत्तर प्रदेश की कांग्रेस पार्टी की सरकार में मंत्री व कांठ से विधायक रहे दाऊ दयाल खन्ना जी ने काशीपुर की एक सभा में पहली बार अयोध्या में रामजन्म भूमि से ताला खुलवाने का मुद्दा उठाया था तब उससे पहले इस संबंध में विस्तृत चर्चा के लिए दाऊ दयाल जी के नेतृत्व में जो बैठक हुई थी वह काशीपुर से 11 किलोमीटर दूर ठाकुरद्वारा में मेरे पिता डॉ मदन मोहन अग्रवाल के निवास पर आयोजित की गई थी। इसके बाद पिता जी की पहल और मुरादाबाद के विभाग प्रचारक दिनेश त्यागी जी के माध्यम से आरएसएस प्रमुख परमपूज्य बालसाहेब देवरस व अन्य प्रमुख लोगों के सम्मुख दाऊ दयाल जी की बैठक करवा यह प्रस्ताव रखवाया जो संघ को अच्छा लगा और फिर काफी चिंतन मनन के उपरांत विश्व हिंदू परिषद को इस आंदोलन की बागडोर दी गई। तभी से हमारा पूरा परिवार इस आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़ गया। मेरे पिताजी के साथ ही मेरे बड़े भाई विवेक अग्रवाल ने भी इस आंदोलन में अपनी गिरफ्तारी भी दी। अन्तत: इसी आंदोलन ने सोए हिंदुओं को जगाया व अपने पुराने गौरव को वापस पाने के लिए उद्धृत किया। राजनीतिक रूप से भाजपा की वापसी व सेकुलर राजनीति को हाशिए पर लाने में इसी आन्दोलन की प्रमुख भूमिका रही। राज भी मिल गया व राम मंदिर भी, बस अब राम राज्य स्थापित करने का समय है।
पिताजी आपातकाल में भी लगभग 18 माह तक भूमिगत रहे व कुछ समय तक जेल भी गये।
1983 : काशीपुर में दाऊदयाल खन्ना ने राम जन्मभूमि मुक्ति का मुद्दा उठाया।
7-8 अप्रैल 1984 : दिल्ली में विहिप द्वारा आयोजित प्रथम धर्म संसद में राम जन्मभूमि मुक्त कराने का संकल्प लिया।
18 जून 1984 : दिगंबर अखाड़ा, अयोध्या में आयोजित संतों की सभा में दाऊदयाल खन्ना को जन्मभूमि मुक्ति अभियान समिति का संयोजक बनाया गया।
21 जुलाई 1984 : महंत अवैद्यनाथ राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति के अध्यक्ष, रामचंद्र दास परमहंस उपाध्यक्ष और ओंकार भावे मंत्री बने।
-मधुर अग्रवाल (पुत्र)
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प्रिय स्नेहीजन,
जीवन एक सतत यात्रा है व मृत्यु एक भ्रम है। इस सत्य के मध्य हमारे पूजनीय पिताजी डा मदन मोहन जी के आकस्मिक निधन पर आपके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शोक संवेदनाओं के हम आभारी हैं। इस विपत्ति काल में आपके साथ ने हमारी पारस्परिकता को एक गहराई दी है जिसके हम आभारी हैं। हमें गर्व है कि हम उस पिता की संतान हैं जिन्होंने अपने जीवन पर्यन्त (13 अगस्त 1938 से 1 मई 2020 तक) सनातन संस्कृति के मापदंडों पर जीवन जिया व लाखों लोगों के प्रेरक व मार्गदर्शक बने।
-आपके अपने
विवेक-मधुर-अनुज (पुत्र)
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श्रीमान डॉ मदन मोहन अग्रवाल जी (पूर्व नगर बौद्धिक प्रमुख एवं पूर्व तहसील कार्यवाह, ठाकुरद्वारा) के आकस्मिक निधन पर सभी स्वयंसेवक एवं कार्यकर्ता शोक संवेदना व्यक्त करते हैं। भगवान उनकी आत्मा को सद्गति प्रदान करें एवं शोक संतप्त परिवार को दुख सहन करने की शक्ति प्रदान करें। समस्त संघ परिवार डॉ मदन मोहन अग्रवाल जी को श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
मा. जयपाल जी
जिला संघचालक
जिला ठाकुरद्वारा
एवं समस्त स्वयंसेवक
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राजीव मार्केट ठाकुरद्वारा में व्यापार मंडल आर्य समाज सरस्वती विद्या मंदिर के पदाधिकारियों की बैठक में ठाकुरद्वारा निवासी डॉक्टर मदन मोहन जी के आकस्मिक निधन पर शोक प्रकट किया गया तथा उनकी आत्मा की शांति के लिए 2 मिनट का मौन रखा गया। बैठक में संजीव सिंघल, मयंक सिंगल, मनोज चौहान, आशुतोष अग्रवाल, नवनीत अग्रवाल, इंदु कांत अग्रवाल, मोहित सिंघल, राजा वर्मा, कमलेश कुमार, दीपक शर्मा, दीपक अग्रवाल आदि ने भाग लिया।
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शोक समाचार
यह जानकर अत्यन्त दु:ख हुआ कि सरस्वती विद्या मंदिर ठाकुरद्वारा के पूर्व प्रबन्धक डॉ मदनमोहन अग्रवाल जी का निधन आज दिनांक 01.05.2020 को दोपहर 12.30 बजे हो गया है। प्रबन्ध समिति एवं विद्यालय परिवार श्री मदनमोहन अग्रवाल जी के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए इस दिवंगत आत्मा को शत शत नमन करता है, परमात्मा उनकी आत्मा को सद्गति व शांति प्रदान करे एवं ईश्वर उनके परिवारजनों को इस गहरे दु:ख को सहन करने की शक्ति प्रदान करे।
प्रधानाचार्य
सरस्वती विद्या मंदिर, ठाकुरद्वारा, मुरादाबाद
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एक विराट व्यक्तित्व मेरे दादा जी का
हमारे प्यारे दादू का देहांत मई की पहली तारीख को हुआ। उस समय मैं उनको अस्पताल ले जा रहा था व रास्ते में ही उन्होंने दम तोड़ दिया। जब डॉक्टर ने उनको मृत घोषित किया तो मेरे लिए यह सदमे जैसा था, यही कुछ हमारे पूरे परिवार के लिए भी। मैं कई घंटों तक बोल भी नहीं पा रहा था। पूरे परिवार में सब गहरे अवसाद में डूब गए कि यह क्या हो गया। जिसको भी फोन करके खबर दी बस रोने की आवाज़ सुनाई दी, ऐसा था हमारे दादू का लोगों के जीवन पर असर। पापा व ताऊ जी बताते हैं हम बच्चों को उनके किस्से, कैसे ठाकुरद्वारा में उनका बोलबाला था, कितनी प्रसिद्द हस्ती थे वह वहां के, और यह सब उन्होंने कमाया बस लोगों के दिल में बस कर, जनता की सेवा करके, पूरे दिन बस जनता की खुशहली सोचने वाले दादू अपने ऊपर एक रुपया भी खर्च नहीं करते थे, अपने जीवन की कमाई का एक हिस्सा ठाकुरद्वारा मे एक स्कूल की स्थापना करने में लगा दिया और लोगों की भलाई के साथ-साथ एक सच्चे हिन्दू भी थे। अनेक मंदिरो व हनुमान धाम की स्थापना के लिए भी उन्होंने अपनी कमाई का बड़ा अंश दान किया। कितने ही लोगों का मुफ्त उपचार किया और रातदिन किसी भी समय पर रात के बारह बजे तो कभी सुबह के पांच बजे भी वे मरीजों के लिए उपलब्ध रहते थे। आरएसएस से भी दादू बहुत अच्छे से जुड़े थे, चुनाव में भी जिस उम्मीदवार के सिर पर उन्होंने हाथ रख दिया, वह इलेक्शन जीत जाता था। उनके सम्मान में ठाकुरद्वारा की एक मेन सड़क का नाम भी उनके नाम पर रखा है।
मुझे अफ़सोस है कि दादू का वैसा फेस मैं नहीं देख पाया। जब मैंने उन्हें जाना तो मुझे वह एक बहुत ही ज्ञानी और उदार व्यक्तित्व लगे। उनके साथ मैंने एक साल रूम शेयर किया है, हां कहने को वह मेरे रूम पार्टनर भी थे, साफ सफाई का बहुत शौक था और साहित्य पडऩे की भूख बहुत बड़ी थी, रात रात भर किताबें, अखबार, उपन्यास आदि पड़ते रहते थे।
मेरी भगवान से आशा है कि वह जहां भी हो बस खुश रहे, हमारी चिंता ना करें और दादी की भी नहीं, उनका ध्यान हम बहुत अच्छे से रखेंगे। चाहे उन्होंने अपना मानवीय शरीर छोड़ दिया हो पर अभी भी वह हमारे दिल में बसते हैं।
-सम्यक
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मैं और मेरे दादू
अभी कुछ दिन पहले मेरे दादू अपनी स्वर्ग की यात्रा पर चले गए। वह बहुत ही दयालु थे। मैं रोज़ सुबह उनके पास जाता, फिर उनको जगाता, इसके बाद उनके काम करता। फिर उनको किसी भी चीज़ की ज़रूरत होती तो वो उनको दिया करता, इसके बाद तो मैं कभी उनके पैर दबाता तो कभी हाथ या कभी सिर।
जब मुझे पता चला कि वे नहीं रहे तब मुझे और मेरे पूरे परिवार को बहुत दुख हुआ।
मेरे दादू बहुत ही नेक व दयालु थे। मैं जब भी उनके पास जाता तो वे मुझे खूब सारी ज्ञान से भरी बातें बताया करते। कभी मेडिकल साइंस के बारे में तो कभी अपने जीवन के कुछ अनोखे पल व अनुभव जिसको सुनकर मैं आश्चर्यचकित रह जाता। उन्हें मिठाई, नमकीन व चिप्स खाने का भी शौक था। इसके अलावा वह दानी भी थे। वह कभी भी कहीं भी खाना मुफ्त में नहीं खाते थे, न ही किसी से मुफ़्त सहायता लेते थे। अपने बच्चों से भी नहीं। उन्होंने खूब सारा दान भी किया जिससे एक स्कूल भी खड़ा हो गया व उन्होंने हनुमान धाम बनाने में भी दान दिया। इसके अलावा उनके आंखिरी समय में उन्हें ज्ञात हो गया था कि वह अब नहीं रहेंगे तो उन्होंने सब से कहा था कि मेरी कोई भूल हो तो मुझे माफ़ कर देना व मैं भी सब को माफ़ करता हूं। उनके नाम पर एक सड़क का भी नाम रखा गया है। उन्होंने यह भी बताया था कि कभी भी किसी भी परिस्थिति में हार नहीं माननी चाहिए व हर स्थिति में मजबूत रहना चाहिए। भले ही वे हम से दूर चले गए हो पर हमेशा हमारे साथ हमारे दिल व हमारी यादों में हमारे साथ रहेंगे। श्रद्धांजलि।
-सहज
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मेरे प्यारे दादू
मेरे दादू अब अपनी नई यात्रा के लिए प्रस्थान कर चुके हैं और उन्हीं की याद में मैं कुछ व्याख्या करता हूं।
मेरे दादू बहुत ही ज्ञानी, सिद्धान्तवादी, दयालु व नेक व्यक्ति थे। वे हमें अपने जीवन के किस्से सुनाया करते थे, उनकी बातों से उनकी बुद्धिमत्ता तो झलकती थी ही पर जीवन के अनुभव व उसमें छुपे ज्ञान, कठिनाइयां व सही रास्ते को मापने के लिए भी वे उत्तम थीं। उनसे बात करके हमेशा बुद्धि का विस्तार ही हुआ है, क्योंकि, उनके शब्दों में उस समय के किस्से, दर्द व रहस्य छुपे होते थे जिसे हम स्वयं अनुभव न कर सके। देश की आज़ादी में अनेक अवर्णित गुटों का योगदान, नेहरू जी की बातें, संघ की नीतियां व योगदान, इमरजेंसी का काला समय, इतिहास पर चर्चा, भारत की आधुनिकता, यह सब आज भी मुझे याद हैं और यह इसलिए क्योंकि इन्हें बयां करने वाले व्यक्ति मेरे दादू थे। उनके पास ज्ञान के साथ-साथ उसकी उत्तम व्याख्या करने की कला भी थी, जो हर चर्चा को किसी पुस्तक में वर्णित वही बातों से भी ज़्यादा रोचक बना देती थी।
उनकी जीवन शैली ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। अपनी उम्र को उन्होंने कभी बंधन बनने नहीं दिया, वे जहां भी होते, उनके लिए अपना कार्य करना प्रथम प्राथमिकता होती। मैंने उनसे ही सीखा है कि कैसे आप साहित्य की दुनिया में खो सकते हैं, वे बताते थे कि वे कभी-कभी इतने मगन हो जाते कि वे सुबह के 4 बजे तक पढ़ते रहते। यदि आपको दस्तावेजों व मूल्यवान कागज़ को सही तरीके से रखना सीखना है तो उनकी जीवन शैली से प्रेरणा ज़रूर लें। उन जैसा कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति मैंने नहीं देखा है। उनका प्रभाव इतना ज़्यादा है कि उनकी कर्मभूमि ठाकुरद्वारा में उनके नाम पर एक मार्ग का नाम रखा गया।
आशा है कि दादू अपनी नई यात्रा में सुखी होंगे। दादू आपकी बहुत याद आएगी, आकाश में जब भी देखूंगा, हर तारे में आपकी ही झलक आएगी।
-एकाग्र
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ऐसे थे हमारे दादू
धर्म और दान के प्रति उनके मन में सादा लगाव था। उन्होंने बहुत ही साधारण जीविका जी और खूब दान किया।
उन्होंने अपनी अंतिम श्वास 1 मई 2020 को दोपहर 12 बजे ली, वो घड़ी हमारे पूरे परिवार के लिए बहुत ही दुखद थी। हमारे छोटे भाई सम्यक और आदरणीय चाचाजी को यह खबर सबसे पहले मिली। उन्होंने हमें व्हाट्सएप द्वारा सूचित किया। जिसे देख हुम सब लखनऊ से तुरंत नोएडा के लिए रवाना हुए। पिताजी की बहुत आशा थी कि वह एक अन्तिम बार दादू को देख लें लेकिन परिस्थितियां अनुकूल न होने के कारण ऐसा नहीं हो सका।
हमारे दादू ने आपने जीवन में बहुत संघर्ष किया था और पिता जी भी अक्सर बताते थे कि कैसे बड़ा परिवार होने और अनेक दिक्कतों के बाद भी उन्होंने कभी भी किसी को किसी भी चीज़ की कमी न होने दी।
जब भी हम उनके पास रहने आते वह हमें ज्ञान की बातें बताते, जीवन में और बेहतर इंसान बनाने की शिक्षा देते। उन्हें किताबें और पेपर पढऩे की भी बहुत रुचि थी जिस वजह से उन्हें बहुत ज्ञान था और हमें भी जीवन को और बेहतर जीने की शिक्षा देते थे। जब भी हम उनके पास रहने जाते या जब भी वह लखनऊ आते हम सबके लिए कुछ न कुछ भेंट अवश्य लाते। हमारे दादू जैसा कोई न था।
उनकी महानता का लोहा तो लोगों ने भी माना है। यहां तक कि उनके नाम पर मार्ग का नाम निर्धारित किया गया है। ऐसे व्यक्ति बहुत कम ही जन्म लेते हैं यह हमारा शुभ भाग्य है कि हमें ऐसा परिवार का हिस्सा होने को मिला।
दादू आप बहुत याद आओगे। कुछ शब्दों में दादू की महानता का वर्णन करने के मैं योग्य नहीं हूं परंतु यह कुछ पल थे दादा पोते के रिश्ते के जो हमेशा याद रहेंगे हमें।
-कुशाग्र
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मेरे पापाजी
……..और देखते देखते पिताजी पितर बन गए। जिनकी गोदी में पिंड रूप से मानव रूप में परिवर्तित हुआ, उनका पिंडदान करना पड़ा। पढ़ा है कि जीवन-मृत्यु प्रकृति का शाश्वत नियम है पर अपने सर से पिता का साया उठना क्या होता है अब धीरे धीरे जान पा रहा हूं।
52 वर्ष के जीवन काल में कभी भी पारिवारिक, सामाजिक कार्यों में किसी निर्णय लेने की आवश्यकता ही नहीं महसूस हुई। शादी-ब्याह, पारिवारिक, सामाजिक निर्वहन उनके द्वारा या उनके आदेशानुसार होते रहे थे।
पलट कर देखता हूं जब स्मृतियों के झरोखे में तो जीवन के हर पल में उनकी छवि पाता हूं। कृतत्व में, व्यक्तिव में उनकी छाप बिखरी पड़ी है।
बालपन की ओझल स्मृतियों में लाडले को प्यार दुलार और फिर अनुशासन का पाठ पढ़ाते हुए पिता द्वारा की गई डांट और पिटाई भी बहुत बार खाई और उस प्रसाद को खाकर मानसिक व शारीरक रूप से सुदृढ़ हुए।
दृढ़ आदर्शों को समर्पित जीवन में पापाजी ने न केवल स्वयं को अपितु सारे परिवार को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्कारित व मर्यादित जीवन सांचे में ढाला, वही संस्कार हमारी थाती हैं।
उच्च मध्यमवर्गीय कस्बाई जीवन में सन 1975 में लगे आपातकाल में संघ पर लगे प्रतिबंध पर, संघ के उच्च पदासीन होने के कारण गिरफ्तारी ना देने की योजनानुसार पहले भूमिगत और फिर जेल यात्रा के दो संघर्षपूर्ण वर्षों में मम्मी ने हम सात बहन भाइयों को पाला पर उस काल में हम सब भाई बहनों के छोटे होने के कारण व मम्मी की घरेलू जीवनशैली के कारण परिवार का आर्थिक ढांचा जो तबाह हुआ, उसे वापस पूर्व स्थिति में लाने को पापाजी सतत संघर्ष करते रहे। उस संक्रमण काल के बाद भरे पूरे परिवार की सारी जिम्मेदारियों को उन्होंने बहुत गरिमामय ढंग से निर्वहन किया। चारों दीदियों का विवाह भी उच्च कुलीन परिवारों में बिना दहेज व आडंबर के हुए। फिर जब हम तीनों भी अपने कैरियर बनाने को उद्यत हुए, तब तक पापाजी आर्थिक मोर्चे पर काफी कमजोर हो गए थे, जीवन के उस अहम मोड़ पर पापाजी से वांछित सहयोग न मिलने का काफी समय रोष रहा पर शायद नियति को कुछ और ही मंजूर था। उत्साह व आत्मविश्वास से लबरेज हम भाइयों ने अपने संघर्षों से स्वयं को गरिमामय रूप से स्थापित किया, इसके पीछे पापाजी का आशीर्वाद व प्रेरणा ही थी।
कोरोना महामारी काल में उनके बीमार होने पर व मेरे आवासीय परिसर के सील होने पर आवागमन अवरुद्ध रहा तो लगभग 20 दिन एक शहर में होने पर भी अनुज के वास पर उनसे मिल नहीं पाया। इसी समय उन्हें निमोनिया हो गया, कोरोना टेस्ट होने से नकारात्मक टेस्ट रिपोर्ट आने तक का मानसिक द्वंद्व और इस काल में उनसे न मिल पाने पर मन बहुत व्यथित रहा, इस समय में अनुज ने भयंकर मानसिक व शारीरिक यंत्रणा झेलते हुए पापाजी की बहुत सेवा की, मधुर के पापाजी की अंतिम क्रिया में, अप्रत्याशित रूप से जल्दी पहुंचने के आश्वासन के बावजूद सामाजिक व पारिवारिक जनों द्वारा कहने पर उसकी अनुपस्थिति में दाह संस्कार की पीड़ा व अंत समय में उनके पास न होने की पीड़ा हमें सदा सालती रहेगी।
प्रेम, करुणा, स्वाभिमान, पारिवारिक व सामाजिक उत्तरदायित्व में समरस, देश व धर्म प्रेम आदि उनके उच्च गुणों का किंचित तो मुझमें आ जाये, ऐसी मेरी प्रार्थना है।
परिवार के बड़े पुत्र की आसन्न जिम्मेदारियों का मैं उनके अंश के रूप में निर्वहन कर पगड़ी की लाज रख सकूं इतनी मुझमें क्षमता देना।
….पापाजी आप बहुत याद आएंगे।
विवेक कुमार अग्रवाल
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विनम्र श्रद्धांजलि पापाजी को उनकी पुत्रवधुओं की तरफ से
विभा – मैं पापाजी के बारे में अपने उद्गार व्यक्त करना चाह रही हूं। अपनी सोच को शब्दों में व्यक्त करना मेरे लिए काफी मुश्किल है लेकिन मैंने इस बार कुछ कोशिश की है।
24 साल 6 महीनों में मैंने जो उनके साथ महसूस किया है उसके बारे में थोड़े से शब्दों में व्यक्त कर रही हूं। शादी के बाद जब मैं एक नए परिवार में आयी जिसमें सारे रिश्ते नए थे उन सब में पापजी के रूप में मुझे पिता मिले, जो अत्यधिक स्नेही थे। शादी के एक दिन बाद जब मेरे मायके से फोन आया तो पापा से वे बोले, ‘तुम्हारी लड़की ने तो सब कुछ संभाल लिया, हमारा घर स्वर्ग बना दिया।’ नए परिवार में आने के पश्चात इतना वॉर्म वेल्कम मिला कि मुझे अपने परिवार की कमी ही नहीं पता चली। पापाजी के लिए सब बोलते कि उनका गुस्सा बहुत ज़्यादा है परन्तु उन्होंने हमें कभी कुछ नहीं कहा। कुछ भी उनके लिए करते थे हमेशा बहुत तारीफ करते थे। उन्होंने हमें बहुत स्नेह दिया।
पापाजी एक जीवंत व्यक्ति थे, सामाजिक कार्य में हर तरह से सक्रिय, शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ, हसमुख, सबके लिए बहुत करना चाहते थे, करते भी थे।
पापाजी को देख कर हमेशा सकारात्मक विचार ही आते हैं। हमेशा सक्रिय रहे, वे किसी पर किसी प्रकार से निर्भर नहीं थे। उनका जीवन काल हम सबके लिए एक उदाहरण है, उन्होंने एक अच्छी जिंदगी निर्वाह की है पर उन्हें हमें हमेशा अपने पास चाहने की कामना है। अभी भी ऐसा नहीं लगता कि पापाजी हमारे बीच नहीं हैं, यही लगता है कि दूसरे कमरे में हैं या बाहर टहल रहे हैं, थोड़ी देर में आ जाएंगे। लेकिन ऐसा नहीं है, वे हमें छोड़ कर चले गए, ऐसा लिखते हुए मुझे रोना भी बहुत आ रहा है परन्तु यही हकीकत है। हमें पूर्ण विश्वास है कि वो हमारे दिलों में और हमारी यादों में हमेशा हमारे पास हैं।
यह कुछ शब्द ही मैं व्यक्त कर पाई हूं, उनके विशाल व्यक्तित्व के बारे में यह मेरी तरफ से श्रद्धांजलि है।
रेशू – मैं पापाजी के लिए लिखना कहां से शुरू करूं शब्द नहीं मिल रहे। सबसे पहले तो यह विश्वास ही करना मुश्किल है कि वे हमारे बीच न रहे। पापाजी से हमेशा पिता कि तरह प्यार पाया, उनका बेटे-बेटे कह कर पुकारना आज भी जैसे कानों को सुनाई देता है। जब भी उनके लिए कुछ भी बनाया, हमेशा तारीफ व प्रोत्साहन ही पाया। हैदरगढ़ या लखनऊ आते तो मेरे माता-पिता से मिलना होता तो उन्हें बहुत सम्मान देते व गर्व महसूस करवाते। एक बार की बात है, मेरे चाचाजी उनसे मिलने आए तो पापाजी ने कहा आपकी बेटी बहुत संस्कारी है, आपने बहुत अच्छे संस्कार दिए हैं, तो मेरे चाचाजी ने कहा कि यह तो आपकी महानता है कि आप गलतियों को न देख हमारी बेटी को हमेशा प्रोत्साहित करते हैं। उनका सबके लिए प्यार व लगाव दिल को छू जाता है। सबके बारे में वे हाल चाल पूछते व घंटों वार्तालाप करते।
पापाजी की अपने काम की तरफ निष्ठा और इस उम्र तक काम करना उनको औरों से अलग करती है। वे अपने अंतिम समय तक काम करते रहे, किसी पर आश्रित नहीं रहे। उन्होंने हमेशा दिया ही है, कुछ लेने की चेष्ठा नहीं रखी। ऐसे थे हमारे कर्मयोगी, स्नेही, सामाजिकता से भरपूर पापाजी जो अग्रिम पीढ़ी और हम सबके लिए प्रेरणा स्त्रोत हैं व हमेशा रहेंगे।
सारिका – मैं पापाजी के लिए अपने उद्गार व्यक्त करना चाह रही हूं। पापाजी बहुत ही कर्मठ, दयालु व ङ्क्षजदादिल इंसान थे। वैसे तो पापाजी से जुड़ी बहुत सारी यादें हैं पर एक घटना जो मुझे याद आ रही है वह यह है कि वे सब के लिए बहुत कुछ करना चाहते थे। वह एक बार मेरे साथ सब्ज़ी लेने साप्ताहिक बाज़ार गए। हमने बहुत सारी सब्जियां लीं और हमारे थैले भर गए, पापाजी सारे थैले खुद उठाना चाहते थे, एक दिल के मरीज़ व इतने उम्र दराज होने के बावजूद। यह छोटी सी घटना उनके सहज व्यक्तित्व के बारे में बहुत कुछ कहती है। पापाजी को खाना खिलाना अत्यंत सुखद लगता था, व हमेशा तारीफ करते थे, प्रोत्साहित करते थे। मेरी उनसे आंखिरी वार्तालाप भी खाने के संबंध में ही हुई थी जिसमें भी उन्होंने सांभर की तारीफ की थी। हमेशा सामाजिक कार्य करते रहते थे। उनका जीवन सभी के लिए अत्यंत प्रेरणादायक है। वे हम सबको बहुत स्नेह करते थे, उनकी याद हमेशा आएगी।
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मेरे दादाजी की स्मृतियां
दादाजी की लंबी जिंदगी और उनकी ढेर सारी यादें संक्षिप्त में बताना आसान नहीं है। मेरे दादा और दादी जी दोनों का ही व्यक्तित्व इंसान की सीमित जिंदगी से बहुत अधिक विशाल रहा है।
दादा जी से बहुत कुछ सीखने को मिला है। उनके देहांत के दो दिन तक मन के किसी कोने में यह विश्वास था कि उनकी आवाज कहीं से सुनाई पड़ेगी, अब एक हफ्ते बाद जब एहसास होता है कि वह अब नहीं आएंगे तो दिल में एक खौफ बैठ जाता है, पर उनकी यादें मेरे जेहन में पता नहीं कितने सालों तक प्रबल रहेंगी।
एक इंसान अपने जीवन के अंत के बाद अपनी परछाई अपने जाने वालों में छोड़ जाता है। लोग कहते हैं कि इंसान तब याद बनता है जब वह जीवन भर कई पुण्य काम करे पर दादा जी के जीवन से मैंने अच्छी और बुरी दोनो बातें सीखी हैं।
बिना वक्त सफाई करना और दादी से डांट खाना, चैस के 3 घंटे के गेम के बाद भी मेरा उन से हार जाना, या अपने ही मन का करना, चाहे दुनिया जो भी कहे। पढऩे का शौक जो उनके सभी बच्चों में है, मेरे चिप्स खाने की लत, या उनका गुस्सा जो कभी-कभी अपनी झलक सब में दिखा जाता है।
उनके खाने की आदतों के भी अलग किस्से हैं। खाने के समय हर तरह का मीठा चखना; या फिर एक कटोरी में, चाहे कम सब्जी हो उसे ज़्यादा समझ कर, उसे अलग करना और फिर उसे भी खा लेना; और चाहे कोई दिन हो पानी-पूरी के लिए हमेशा तैयार रहना, उनको यादगार बनाता था।
मुझे वह दिन याद है जब उन्होंने मुझे इनसाइक्लोपीडिया दी थी और वह दिन भी जब उन्होंने बताया कि अपने राजनीतिक कार्यों के कारण वह कैसे अपने कंधे पर साइकिल रखकर नदिया पार करते और दूर गांव में प्रचार करने जाते थे।
उन्हें देखकर मुझे उनकी बुद्धि से ईष्र्या होती थी और एक महत्वाकांक्षा भी थी कि एक दिन मैं शायद उन्हें टक्कर दूंगी। उनके काम की तरफ उनकी असीमित ऊर्जा हर इंसान के लिए एक आदर्श रहेंगी। मैं उम्मीद करूंगी कि हम सब उस आदर्श को अपने जीवन में उतार पाएंगे।
ऐसी बहुत सी चीजें हैं जो हम अपने पास नहीं समेट पाएंगे पर जिंदगी हमेशा ऐसी ही थी। पंचतत्व में लीन होने के बाद, मुझे विश्वास है कि उनकी अस्थियों से निकली जड़ें एक और याद बनेंगी। हमारे परिवार का वृक्ष उनके और हमारी दादी के आशीर्वाद से आज और हमेशा मजबूत और पल्लवित रहेगा।
प्यार जीवन को संरचना देता है, दादू और दादी से प्यार करने वाले लोग चाहे जितने भी हों, उनके प्यार में हमेशा सच्चाई रही है। इस प्यार को उन्होंने भी अपने अंदाज में सभी को दिया। इस प्यार के कारण ही दादू हमेशा हम में और आगे आने वाली हमारी पीढिय़ों में जीवत रहेंगे।
Formed in clay, and moulded by water,
Body as such that is inspired by nature,
In us is breathed fire,
and wings given to help us fly,
And yet grounded are we.
Through the hands of mother,
to holding hands of a wife,
To children in our arms to leaving
through their hands,
Life is striving forward and coming
back to life itself.
Happiness on days spent working hard,
Anguish of soul on days parting hearts,
On wrinkles where sadness has dug,
And in eyes through which bliss has sunk.
Experiences illuminated in the
halls of memories,
Acts sculpted on ground,
Withered by time and by time again,
And so we go on, in life and in death.
Now asleep at last, my mother, my earth,
Rooted in sky, and floating on the wisps of shadows eternal,
We will come back again through time, in time.
-मानवी
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मेरे पापा
पापाजी आज हमारे बीच नहीं रहे, बस उनकी यादें ही हमारे साथ हैं। पापाजी का स्वभाव बिल्कुल नारियल की तरह था, ऊपर से कठोर, अन्दर से उसकी मलाई की तरह मुलायम और नारियल के पानी की भांति निर्मल। गुस्सा होते थे, लेकिन उसके बाद प्यार भी बहुत करते थे।
याद है 1982 में, जब मैं बहुत बीमार हुई थी कैसे पापाजी मेरे पास बैठे रहते थे। मैं उस वर्ष बहुत बीमार हो गई थी। कुछ खाया नहीं जाता था। जो एक समय अच्छा लगता था, दोबारा मैं उसको खा ही नहीं पाती थी, सब कड़वा लगता था। कभी नमकीन बिस्कुट अच्छा लगता था, कभी मीठा। ठाकुरद्वारा में ज्यादा वैरायटी मिलती नहीं थी। पापाजी बहुत परेशान थे। एक दिन मुरादाबाद गए और दुकानदार के पास जितनी भी वैरायटी थी सब लेकर आ गये।
ऐसे ही एक बार की बात है। मीनू जीजी की तब शादी हो चुकी थी और नीरजा जीजी व सीमा दोनों हॉस्टल में थीं। रोज अमरूद आते थे लेकिन यह मालूम होने पर कि मैं अमरूद इसलिए नहीं खाती क्योंकि वो मुलायम होते हैं, अगले ही दिन से सबके लिए सख्त अमरूद आने लगे।
कौन कहता है बेटी के विदा होने पर केवल मां दुखी होती है। मैंने पापा को रोते देखा है। नहीं भूलते वो आंसू।
हम सात बहन भाई थे, चार बहन तीन भाई। लेकिन पापाजी का प्यार सबके लिए बराबर था। न बेटों के लिए ज़्यादा, न बेटियों के लिए कम।
कहने को तो इतना है कि ज़िन्दगी कम पड़ जाएगी, पर बातों का अन्त नहीं होगा। पापाजी थे ही ऐसे, सब के नायक।
-रंजना
(पापाजी की याद में मेरी ओर से पापाजी को समर्पित)
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ठाकुरद्वारा की बचपन की यादें नानाजी के साथ
जैसा कि हमारे देश में सभी बच्चों का बचपन होता है, हम भी हमारी गर्मियों की छुट्टियों में जाते थे, नाना नानी के घर- ठाकुरद्वारा। शहर में पढ़े – बढ़े जाने वाले हम बच्चों को ठाकुरद्वारा की गलियों में घूमने का अनुभव एक छोटे से एडवेंचर के बराबर होता था।
हमारा रोज़ का एक रास्ता तय था। नाना नानी के घर से निकलते हुए, बड़ी नानीजी के यहां जाना, फिर वहां से कुछ देर सबको परेशान करके, आशु मामाजी की दुकान पे चले जाना। वहां से वापस घर जाके, दोपहर का खाना खाना, आखिर में, नानाजी के क्लीनिक चले जाना।
हमारे नानाजी डॉक्टर थे। और उनकी क्लीनिक में हमारे 3 काम होते थे – 1. नानाजी की कुर्सी पे बैठ कर स्टेथेस्कोप के साथ खेलना; 2. इंजेक्शन सिरींज के साथ पेपर गन बनाना; ओर 3. नानाजी को परेशान कर कर के, वापस घर चलने को कहना।
वापस जाते हुए हम ठाकुरद्वारा की गलियों से आम और छत्ते खरीदा करते थे। घर आकर रात को लाइट चले जाने के बाद उनके साथ ऊपर छत पे सोया करते थे।
एक बार ठाकुरद्वारा में मेला लगा था, और नानाजी हमें, शाम को जल्दी आकर, वहां घुमाने ले गए थे। यह पहली बार था जब हम किसी मेले में गए थे। ये दिन हमें आज भी याद है जैसे किसी पुरानी हिंदी किताब का एक छोटा सा किस्सा हो। कैसे हम मेले जाकर, झूले झूलकर, खिलौना खरीदकर, गोल गप्पे खाकर, आखिर में थक हार कर नानाजी के साथ, सुरज ढलते हुए, वापस पैदल घर आए, और घर आते ही अपने खिलौनों से खेलते हुए सो गए।
ऐसे ही एक बार सुबह सुबह, आर.एस.एस. की एक शाखा ले गए थे नानाजी हमें। खाखी रंग क्या होता है, ये पहली बार उस दिन पता लगा था। आज भी उस शाखा के बारे में हम दोस्तों को बताते हैं। तब तो नहीं पता था, लेकिन उस शाखा में जाकर सुबह सुबह कसरत करना एक गर्व की बात है हमारे लिए।
कन्नू को आज भी याद है, एक बार ठाकुरद्वारा में शाम को नानाजी के साथ बाज़ार जा रहा था और उसने दो बार छींका। नानाजी ने दूसरी छींक के बाद कहा, अब दो हो गयी, अब आ जाओ। उस दिन पता चला कि छींक दो बार आती है। वह आज भी दो बार छींकने का इंतज़ार करता है!
कब बड़े हुए, कब हम अपने अपने काम में गुम हो गए, उसका तो कोई ठिकाना नहीं।
लेकिन नानाजी के साथ उनकी क्लीनिक में, उनके साथ मेलों में, आर.एस.एस. की शाखाओं में, ये कुछ यादें हैं जो बस यादें ही रह जाएंगी। और हर बाद याद करने पर एक मुस्कान और एक आंसू, दोनों साथ ले आएंगी।
-शशांक, अपूर्व, कनिष्क
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कैसे होते हैं पिता
जिन्दगी आनी जानी है, यह तो सब को पता है लेकिन जब अपना कोई जाता है तो दिल यही यही सोचता है, यह साथ थोड़े दिन का और क्यों नहीं हो सकता था! पापाजी का दु:ख भी भी हम सबके लिए ऐसा ही है।
पापाजी के साथ बिताए ऐसे कितने ही पल हैं जो भूलते नहीं। अपने से ज्यादा हमारे लिए सोचा है। ऐसा ही एक किस्सा जो मैं कभी नहीं भूल सकती। जो बातें तब नहीं समझ आती थीं, अब आती हैं।
यह बात तब की है जब मैं और नीरजा वनस्थली पढ़ते थे। हमारी छुट्टियां हो गईं थीं और हमें दिल्ली तक अकेले आना था। हम दोनों मुरादाबाद तक का टिकट लेकर ट्रेन में बैठ गए। जब जयपुर में टीटीई आया तो देखा टिकट गायब। अब हमारी हालत खस्ता, हम क्या करें। हमारे पास और पैसे भी नहीं थे।
उस ट्रेन में ही एक अंकल जी ने हमारे दिल्ली तक के पैसे दे दिए, जो हमने इस वादे के साथ लिए कि हम वो पैसे पापाजी से दिला देंगे और जो हमने दिला भी दिए।
हम बहुत डरे हुए थे लेकिन पापाजी ने हमें कुछ नहीं कहा और हम दोनों का मुरादाबाद का टिकट भी ले लिया। ट्रेन में हमें खाना भी खिलाया लेकिन पापाजी ने नहीं खाया, कह दिया भूख नहीं है। जब आधी रात को हम घर पहुंचे तो मम्मी से कहा मेरे लिए खाना बना दो बहुत भूख लगी है।
ये बातें तब अल्हड़ उम्र में समझ नहीं आईं थीं लेकिन आज समझ आया है। क्योंकि उस समय हमारे टिकट लेने के कारण उनके पास पैसे नहीं बचे थे इसलिए खुद भूखा रहना मंजूर किया और बच्चों को अहसास भी नहीं होने दिया। ऐसे थे मेरे पापा।
– मीनू
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नानाजी के साथ मैंने ज्यादा समय नहीं बिताया पर हर बिताया हुआ पल जहन में बसा हुआ है। कोचिंग के लिए आती थी तो मुझसे काफी बातें करते थे। वह कुछ महीने मुझे हमेशा याद रहेंगे। यह गम शायद हमेशा रहेगा कि बचपन से उनके साथ और ज्यादा समय नहीं बिताया। छुट्टियों में ठाकुरद्वारा में नानी के हाथ का खाना नहीं खाया। कहानियां नहीं सुनी। सीखें जो छूट गईं। कभी-कभी ईष्र्या भी महसूस होती है, कि बाकी के बच्चों की तरह मैं अपनी छुट्टियां नाना नानी के साथ क्यों नहीं बिता पायी। पर जो भी हो, कॉलेज में ही सही उनके साथ कुछ समय मिला और उसके लिए मैं हमेशा शुक्रगुजार हूं। मुझे अपनी मां के बारे में काफी कुछ नहीं पता, पर वह अपने मम्मी पापा से कितना प्यार करती थी, यह सबको जरूर पता है। मुझे उनकी बहुत याद आएगी पर अब दोनों शायद कहीं मिलेंगे, और खुश होंगे यही आशा है।
-जाह्नवी
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आज मुझे अपने पापा जी के विषय में पापा जी के साथ अपने जीवन के अनुभव पर अपने भाव साझा करो, ऐसा कुछ कहा गया है। पिता के बारे में कोई क्या अपने अनुभव साझा कर सकता है, मेरा तो पूरा जीवन ही पूरा व्यक्तित्व ही उनकी देन है। एक सरल व्यक्तित्व के धनी जिन्होंने अपने जीवन की शुरुआत ठाकुरद्वारा जैसे छोटे कस्बे मे मेडिकल प्रैक्टिस से शुरू की क्योंकि मन में गरीबों की सेवा का भाव था। उनका राजनीतिक झुकाव राष्ट्रीय स्वयंसेवक की तरफ था और उन्हें अटल विश्वास था सन 1975 में भी कि भाजपा देश पर राज करेगी। हमेशा राजनीति में अति सक्रिय रहे । और उस समय जब हम बहुत छोटे थे तब भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक के सभी कार्यकर्ता और नेता हमारे घर आते जाते रहते थे और प्रवास भी करते थे। उनके साथ ही हम भी बचपन में इसी तरह पले बढ़े प्रबुद्ध जनों के साथ उनके सरल सानिध्य में। परंतु उनकी सोच उस कसबे तक ही सीमित नहीं थी, हम सात भाई-बहनों के साथ भी उन्होंने सीमित साधनों के बावजूद हम सबको पढऩे के लिए बाहर भेजा। सन 1976-77 में मैं पढ़ाई के लिए वनस्थली विद्यापीठ गई जो कि देश का सबसे प्रतिष्ठित स्कूल था। उनकी यही सोच थी कि जब कुछ दीर्घकालिक बीमारी से जूझते हुए उन्होंने मुझे 1983 में मास्टर्स करने पंतनगर विश्वविद्यालय भेजा। वह मेरी उपलब्धियों पर बहुत गर्व करते थे और मुझसे बहुत बातें करते थे हालांकि पिछले कुछ समय से सक्रिय राजनीतिक जीवन से वह दूर थे परंतु राजनीतिक समझ और दूरदर्शिता और सरलता अभी भी उनमें विद्यमान थे। कुछ दिन पहले ही बता रहे थे कि किस तरह राम जन्मभूमि आंदोलन की नीव उनके ही ड्राइंग रूम से प्रारंभ हुई थी और बस कुछ इसी तरह वक्त निकलता गया और ऐसा लगा कि जैसे उनके साथ बिताए हुए पल कुछ कम पड़ गए कुछ कम रह गए। आज जब हमारे बीच नहीं है, तो मन में कितनी यादें, कितने विचार, कितने भाव आ जा रहे हैं काश कि मैं उन्हें कलम लेकर पन्नों पर उतार पाती, उनका मुस्कुराता हुआ चेहरा और जब वह परिवार के साथ होते थे तो खुशी वह महसूस करते थे वह सब आंखों के आगे घूम रही है। वह हमेशा हमेशा हममें और हमारी यादों में रहेंगे।
-नीरजा
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My fondest memories of Nanaji are of going to thakurdwara house and him taking me to his clinic and i would play with the stetho and empty syringes, taking me to chote nanaji’s toy store and let me have my heartfull of toys. I have found inspiration in him for being hardworking, always giving, present concerned and ever so caring.
Nikul raj gupta
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जब भी नानाजी को याद करती हूं तो सबसे अधिक उनकी सहनशीलता ज़हन में आती है। नानाजी आर्य समाज के सिद्धांतों का पालन करते थे और नानीजी सनातनी हैं। परिणामत: हमारी ननिहाल में हर उत्सव में दोनों रीतियों का समागम बहुत ही सहजता से होता था। गर्मियों की छुट्टियों में जब हम ननिहाल जाते थे तो नानाजी शाम को घूमने के लिए हमें मंदिर ले जाते थे और वहां के शिल्प, प्रथा और इतिहास हमें समझाते थे। मंदिर से लौटते हुए कमल कट्टे ले कर हम घर पहुंचते थे।
आज जब दुनिया भर में लोग अपना वर्चस्व ज़माने के लिए लड़ते हैं और बुद्धिजीवी सहनशीलता की दुहाई देते हैं तो मुझे एहसास होता है कि सहनशीलता परिवार से आरम्भ होती है। संबंधों को अहम से अधिक महत्व देना ही चाहिए, यही पूंजी मुझे नानाजी से मिली।
-सांची देव
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It’s very difficult to wrap up my memories about nanaji in just a few words because the grandeur of his life that I had the honour to witness for 26 years of my lifetime cannot be summed up in a few words.
There are so many memories with him, so many lessons learned, but if there is one thing I learned from him, it was Passion. The passion to live your life fully, passion towards your beliefs and faith. I believe that if I can live my life with half the passion he had till his last breath, I may be able to say that I truly lived life to its best.
Thank you nanaji, for blessing us with your presence and passion..
Vanika Gupta
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कुछ दिन पहले नाना जी के देहांत की सूचना मिली। कोरोना वायरस के प्रतिबंधों के चलते उन के अंतिम दर्शन नहीं हो पाए, तो मन को शांत करने के लिए अपनी बिटिया को नाना जी के साथ बीते दिनों की यादें सुनाई।
अपने ननिहाल में बीते दिनों को याद करके मन शांत हुआ। सबसे बड़ी पौत्री होने के नाते उनके साथ सब से ज़्यादा समय बिताने का मौका मुझे मिला। नाना जी का मेरे जीवन में दो चीज़ों पर सर्वाधिक प्रभाव रहा- आहार और आचार।
जब भी हम गर्मियों की छुट्टियों में ठाकुरद्वारा जाते थे, नाना जी फल खाने पर सर्वाधिक ज़ोर देते थे। हर दोपहर जब वे भोजन के लिए घर आते थे तो अपने साथ किसी ना किसी फल वाले को ज़रूर लाते। मौसम के ताज़े फल खाने में उनकी विशेष रूचि थी। आम, केले, सिंघाड़े और तरबूज़, यही हमारा एक समय का भोजन हो जाया करता था। आज जब दुनिया परिष्कृत भोजन के चक्कर काट कर पुन: ताज़े, मौसमी एवं स्थानीय भोजन का मंत्र गाती है तो नाना जी की बहुत याद आती है। नाना जी सदैव अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहे और इस दिशा में उन्होंने सतत प्रयास किए।
नाना जी एक जाने माने चिकित्सक थे। उनके पेशे के अधिकतर लोग उत्तम विचार तो रखते हैं परंतु अपनी आरामदायक जीवनशैली को बचाने के चक्कर में विचारों को कार्यान्वित नहीं करते हैं। राष्ट्रवादी विचारों वाले नाना जी ने विचार और आचार में सदैव तारतम्य बनाया। अपने विचारों को व्यक्त करने में तथा उन्हें कार्यान्वित करने में नाना जी सदैव अग्रणी रहे। शायद बहिर्मुखी गुण हमने उन्हीं से पाया है।
मेरा सौभाग्य है कि कुछ दिन पहले नाना जी मुम्बई में कुछ दिन हमारे यहां रहे और मेरी बिटिया को भी उनके साथ हंसने -खेलने और उनसे सीखने का मौका मिला। आशा है कि उनके आदर्श सदैव हमारा मार्ग प्रकाशित करते रहेंगे।
उबिका देव
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जब बचपन में आप होते हो और दुनिया की कोई समझ नहीं होती, तब पढ़ाई के बाद का समय किसी ना किसी खेल कूद में या टीवी देखने में ही निकलता है। ऐसे समय मेरे बचपन में, गर्मियों की छुट्टियां ही एक ऐसा समय होती थी, जब या तो बुआजी और उनके बच्चों के आने का इंतजार होता था या नानी जी के घर जाने का।
अजीब बात है कि सब लोग हमेशा नानीजी का घर कहकर ही बुलाते हैं। क्या यही बात है कि नानाजी हमारे पीछे इतनी मेहनत किया करते थे कि ताकि हम उसे नानाजी का घर भी कह पाएं।
दो बड़े तरबूज दोपहर में लेके आना हो, जिसे आमतौर पर मैं और शेंकी उठाके लाते थे, या वो एक फल जो नानाजी कि क्लीनिक पर हम खाते थे, जिसका नाम कभी याद नहीं रहता, पर ठेले पर कोई व्यक्ति सुबह सुबह लाता था। शायद आप में से कोई बता पायेगा। अच्छा यह भी पहली बार हमने नानाजी को ही देखा कि दोपहर में खाने के लिए घर आते समय क्लीनिक बंद नहीं किया करते थे।
खैर, समय बीता तो नानीजी के घर जाना तो बंद ही हो गया, पर नानाजी की भारी और तेज़ आवाज़ हमेशा याद रही। किसी भी अवसर पर जब उनसे मिलते थे तो, पैर इसलिए भी छू लेते थे कि उनकी ज़ोर की आवाज़ से डर लगता था।
कुछ और वक्त बीता तो यह डर ख़त्म हो गया। दुनियादारी की समझ आयी तो नानाजी से राजनीति और देश की समस्याओं पर चर्चा भी करने लगे। कभी लगा ही नहीं की वह बराबर का नहीं मानते ऐसी चर्चाओं में। मेरा सवाल और उनका चट्ट तर्कपूर्ण जवाब आता था।
जानकारी हर विषय की इतनी थी कि किसी से भी बात कर पाएं। मेरे इंजीनियरिंग में कैसे विषय हैं और किस विषय में क्या पढ़ाया जाता है, इसकी भी बड़ी कौतूहल पूर्ण चर्चा करते थे।
बहुत स्नेह करा हमेशा पर एक बात में विफल हो गए। हम आज भी नानीजी का ही घर कहते हैं। पर सफलता यही है कि सारे मामाजी और तीनों मौसियों ने हमेशा स्नेह किया और हमेशा ही जितना सोचा उससे ज़्यादा सहारा दिया।
अब मैं अपने विचारों की श्रृंखला को रोकता हूं और ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि हुतात्मा को मोक्ष प्राप्ति दे।
भुवन देव