अभी सोशल मीडिया पर मेरे आदर्श साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद की 140वीं पुण्यतिथि पर तमाम लोगों ने श्रद्धांजलि सुमन अर्पित किया था। *मैंने नहीं किया। क्यों?* क्योंकि मैंने ये व्रत ले रखा है कि *जब तक उच्चतम न्यायालय में हिंदी को मान्यता नहीं मिल जाती तब तक देश,काल की सीमाओं से परे,हिंदी को जन जन का कंठाहार बनाने वाले मुंशीजी ही नहीं हिंदी के किसी भी साहित्यकार को श्रद्धांजलि सुमन अर्पित करने का कोई औचित्य नहीं है वो भी खानापूर्ति के लिए।* आज भारत ऐसे भाषाई संक्रमण काल से गुजर रहा है जिसमें हिंदी तो छोड़िए तमाम उत्तर भारतीय भाषाएं व साहित्य यथा-कश्मीरी, डोगरी,पंजाबी,कुमाउँनी, गढ़वाली,ब्रजभाषा,अवधी,भोजपुरी, मैथिली कुछ कुछ विलुप्तावस्था के कगार पर ही हैं। *आज आप अपने बच्चों से शुद्ध हिंदी अथवा अपने मातृभाषा में बात करके देखिए,व्याकरण तो छोड़िए उच्चारण व शब्दार्थ ही उनके प्राण खींचने के लिए काफी हैं।*
मैंने 1988-89 सत्र में गोरखपुर विश्वविद्यालय से सम्बद्ध बुद्ध स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कुशीनगर में बीएससी(प्राणी विज्ञान) में दाखिला लिया। चूंकि, मेराअध्ययन अध्यापन का सम्प्रेषण माध्यम अंग्रेजी ही थी और अंग्रेजी लिखने,बोलने,पढ़ने व समझने में कोई विषमता नहीं थी। चूंकि, *बचपन से ही हिंदी साहित्य पढ़ने में रुचि थी तो इंटर तक आते आते मुंशीजी की लगभग सभी कृतियाँ पढ़ चुका था।भारतेंदु जी,महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य हजारी प्रसाद,प.चन्द्रधर शर्मा गुलेरी,जयशंकर प्रसाद,महादेवी,निराला,बाबा तुलसी,कबीर,रहीम,दिनकर,मैथिलीशर
*”मां पिता जो कहते हैं उसका अनुपालन बच्चे जबरन करते हैं,परन्तु जो करते हैं उसका अनुपालन स्वयमेव करते हैं।”*
खैर पढ़ने का जुनून सिर चढ़ के ऐसा बोला कि, *मैं मनोहर कहानियां से लेकर मनोहर श्याम जोशी तक को एकसमान भाव से पढ़ता हूँ।*
एक और बात बताता चलूँ कि, आप बिहार, पूर्वांचल या *हिंदी पट्टी में शुरू में तीन चार वाक्य अंग्रेजी के बोल कर एक घण्टा लोगों को हिंदी बोलकर बांधे रह सकते है भले ही आप बकवास क्यों न कर रहे हों।* हमारे क्षेत्र में तो आज भी अंग्रेजी के चार छंद बोलने वाला गज्जब का विद्वान समझा जाता है। तो *इस अतिरंजना का शिकार होने से भला मैं कैसे बचता।*
कुशीनगर भगवान बुद्ध की परिनिर्वाण स्थली होने के कारण सम्पूर्ण विश्व के बौद्ध मतावलम्बियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। चूंकि,हमारे जैसे छात्रावासी के लिए परिनिर्वाण स्थल व 4 किमी में पसरे तथागत के विभिन्न मंदिरों व खंडहरों का दर्शन व उन्हें निहारना प्रतिदिन का आयोजन था। इस बहाने कोरियन,जापानी,चीनी,बर्मीज,थाई, वियतनामी,यूरोपियन, अमेरिकन पर्यटकों से विचारों का आदान प्रदान भी करने का मौका मिलता।सोने पर सुहागा ये था कि अंग्रेजो व अमरीकियों को छोड़कर बाकियों की अंग्रेजी हमसे बदतर थी तो अपना अल्प आंग्लज्ञान उड़ेलने का भरपूर अवसर भी होता था व आनंद भी खूब आता था।
कोई 1990 के दिसम्बर माह की बात होगी। *मुझे एक चीनी भिक्षु महाशय वांग मिले।* उनसे चर्चा हुई। वांग 2 माह के कुशीनगर प्रवास पर थे और एक बौद्ध मठ के आतिथ्यशाला में रुके थे। उनसे तकरीबन रोज घण्टा दो घण्टा बुद्धिज्म व वेदांत पर चर्चा व वाद विवाद होता। मैं भी रोज अभ्यास करके पहुंचता शास्त्रार्थ के लिए। स्वाभाविक है चर्चा दोनों तरफ से निम्न स्तरीय अंग्रेजी में ही होती। *एक दिन हम बातें करते हुए भ्रमण कर रहे थे कि अचानक महाशय वांग ने हिंदी में कहा- श्रीमान! क्या आप हिंदी का प्रयोग नहीं करते हैं? मैं अवाक। मुंह से बोल न फूटे।*
महाशय वांग ने मुझे उनको हिंदी सिखाने का प्रस्ताव रखा जिसे मैने मान लिया और उन्हें हिंदी कि सामान्य शिक्षा दिया और वांग अगले दस वर्षों तक टूटी फूटी ही सही हिंदी में पत्र व्यवहार करते रहे।एक दो बार मुझसे दिल्ली में भी मुलाकात की उन्होंने।
*महाशय वांग के उस एक प्रश्न ने मुझे इतना झकझोरा कि, उस दिन के बाद मैंने हिंदी को ही अपना मुख्य सम्प्रेषण माध्यम बनाया और आज तक सिर्फ हिंदी में ही लिखता हूँ,बोलता हूँ तथा अपनी मातृभाषा भोजपुरी का प्रयोग बहुतायत से करता हूँ बिना किसी लज्जा या संकोच के।*
अभी लल्लनटॉप पर बिहार के *डॉक्टर प्रवीण झा* का साक्षात्कार देख रहा था जो उनके द्वारा हिंदी में लिखित पुस्तक *”गिरमिटिया गाथा”* के संदर्भ में था। डॉ झा अमरीका में रहे व वर्तमान में नार्वे में कार्यरत हैं। *जब उनसे ये सवाल पूछा गया कि उन्होंने हिंदी में ये किताब क्यों लिखा?*
*उनका जवाब अदभुत व प्रेरणादायक था। उन्होंने बताया कि वो इस किताब को अंग्रेजी में ही लिख रहे थे। उसी बीच उन्हें नार्वे से कार्य का आकर्षक प्रस्ताव मिला और उन्होंने स्वीकार कर लिया। लेकिन एक अनिवार्य शर्त ये थी कि उन्हें नार्वेजियन भाषा सीखनी होगी तभी वो वहां कार्य कर सकेंगे क्योंकि वहां सारा कार्य,शिक्षा नार्वेजियन में ही है। डॉक्टर साब को नार्वेजियन सीखने में 1 साल लगा। डॉक्टर साहब ने कहा कि, पटना जिला के क्षेत्रफल के बराबर का एक छोटा देश अपनी भाषा के प्रति इतना सजग व संवेदनशील है तो मुझे क्यों नहीं अपनी भाषा का ही अधिकाधिक प्रयोग करना चाहिए। बस डॉक्टर साहब ने किताब को पुनः हिंदी में लिखना शुरू किया।*
मित्रों,इसीलिए मैं हिंदी में लिखता हूँ व बोलने की भी अधिकाधिक कोशिश करता हूँ।
आप सबसे भी आग्रह है कि हर भाषा को जानें,अच्छी बात है,परन्तु *हिंदी का अनादर ये कह के न करें कि हिंदी बहुत कठिन है,क्लिष्ट है। मुझे सबसे ज्यादा दुख उस समय होता है जब मेरे हिंदी बोलने समझने वाले मित्र मेरी सहज हिंदी को भी क्लिष्ट बताते हुए बोलते हैं कि,लेख तो सुंदर था परन्तु कुछ वाक्य तो सर के ऊपर से गुजर गए।* जिस दिन आप *हिंदी को आदर* देने लगेंगे,समझिये हमारे *मूर्धन्य साहित्यकारों को वही सच्ची श्रद्धाजंलि होगी आपकी।*
अंत में यही कहूंगा:
*निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल,*
*बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय के सूल।*
सादर
सन्तोष पांडेय
अधिवक्ता
दिल्ली उच्च न्यायालय