अब आप इसे महज एक कोरी धमकी मानें, या फिर एक गंभीर चेतावनी या फिर एक बड़ा खतरा, ये पूरी तरह आप पर है, पर कुछ मान लेने के पहले कुछ जान लेना बेहतर ही होता है। है न?
वाकये तलाशे जाएं तो सदियों पीछे तक के दुनिया के इतिहास में तमाम वाकये मिल जाएंगे, पर उतना पीछे, उतना दूर जाने की जरूरत नहीं दिखती। अपना ही मामला, वो भी सौ साल के अंदर का देखें, वही बहुत कुछ साफ कर देगा।
आजादी के ऐन पहले यानी 1946 में ब्रिटिश इंडिया की प्रांतीय सभाओं (इसे आज की विधानसभा की तरह समझिये) के लिए कुल 1585 सीटों पर चुनाव हुए। यह चुनाव मुख्यतः काँग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच सिमट आया था। मुस्लिम लीग का मुख्य या यूँ कहें कि अकेला चुनावी मुद्दा पाकिस्तान बनाने की अपील थी, जिन्ना का द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत था, जिसके मुताबिक हिन्दू और मुस्लिम, दो अलग-अलग कौमें हैं, जो एकसाथ नहीं रह सकते, अतः दोनो को जनसंख्या में बाहुल्य के आधार पर दो देशों में बंटकर रहना चाहिए। कुल 1585 सीटों में से अलग-अलग प्रान्तों में कुल मिलाकर 492 सीटें मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए आरक्षित थी। जाहिर है, मुस्लिम आरक्षित सीटों पर काँग्रेस या अन्य दलों ने भी मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए और मुस्लिम लीग ने भी। ऐसे में इन आरक्षित सीटों पर गैर-मुस्लिम मतदाता तो पाकिस्तान-परस्त मुस्लिम लीग के उम्मीदवारों को को वोट देने से रहे, जाहिर है, इन सीटों पर पाकिस्तान-परस्त मुस्लिम लीग के उम्मीदवारों की जीत तभी संभव थी जब उस सीट के मुस्लिम वोटर एकमुश्त उसे वोट करें।
आइये, इन्ही सीटों के नतीजे देखे, जिसमें मुस्लिम लीग
असम में 34 मुस्लिम-आरक्षित सीटों में से 31 यानी 91%,
बंगाल में 119 मु.आ. सीटों में से 113 यानी 95%,
बिहार में 40 मु.आ. सीटों में से 34 यानी 85%,
बॉम्बे प्रान्त में 30 मु.आ. सीटों में से 30 यानी 100%,
मध्य प्रान्त में 14 मु.आ. सीटों में से 13 यानी 93%,
मद्रास में 29 मु.आ. सीटों में से 29 यानी 100%
उ.प.सीमांत प्रान्त में 36 मु.आ. सीटों में से 17 यानी 47%,
उड़ीसा में 4 मु.आ. सीटों में से 4 यानी 100%,
पंजाब में 86 मु.आ. सीटों में से 74 यानी 86%,
सिंध में 34 मु.आ. सीटों में से 28 यानी 82%,
यू.पी. में 66 मु.आ. सीटों में से 54 यानी 82%,
यानी कुल 492 मु.आ. सीटों में से 429 यानी 87%,
सीटें जीतकर ये दिखाने में सफल रही कि देश-भर के तमाम राज्यों के अधिकांश मुसलमान जिन्ना, यानी मुस्लिम लीग, यानी द्विराष्ट्रवाद, यानी मजहबी भेदभाव और बंटवारे के हामी हैं।
बात गलत भी नहीं थी। अखंड भारत की पैरोकार अन्य पार्टियों के मुस्लिम उम्मीदवारों को किनारे करते हुए मुस्लिम-आरक्षित सीटों पर मुस्लिम-बाहुल्य मतदाताओं द्वारा दिये गए ये वोट मुस्लिम लीग के लिए थे, पाकिस्तान के लिए थे, द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत के लिए थे, उस नफरत-भरी उन्मादी-धार्मिक सोच के लिए थे, जिसके मुताबिक हिन्दू-मुस्लिम दो ऐसी कौमें हैं, जो साथ-साथ रह ही नहीं सकतीं। जाहिर है, धार्मिक आधार पर नफरत न देश देखब रही थी, न पड़ोसी।
दूसरी तरफ काँग्रेस थी, जो ऐसी नफरत और धार्मिक आधार भारतीयों और भारत के बंटवारे के खिलाफ थी। काँग्रेस ने गैर-मुस्लिम आरक्षित सीटों में से 91% सीटें जीतीं, जो इस बात का साफ संदेश था कि कांग्रेस को कम मुस्लिम आबादी वाली सीटों पर उन लोगों ने समर्थन दिया जो देश के बंटवारे और मजहबी अलगाव के खिलाफ थे, जो चाहते थे कि हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई, सब मिलजुलकर इस देश में रहें।
अब सवाल ये उठता है कि गैर-मजहब यानी काफ़िरों के साथ मिलजुलकर साथ रहने के विरोध में और पाकिस्तान के समर्थन में मुस्लिम लीग को 492 मुस्लिम सीटों में से 87% यानी 429 सीटें जितानेवाले लोग क्या कहाँ हैं?
जवाब ये है कि ये वही लोग हैं जो कल तक राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मानने की बात कर रहे थे, पर अब तथाकथित बाबरी मस्जिद के ध्वंस का बदला लेने की बात कर रहे हैं, मंदिर तोड़कर फिर से मस्जिद बनाने की धमकी दे रहे हैं, कार्यवाही केवल जरूरी ताकत और तादाद जुटाने तक के लिए रोकी गई है। और कार्यवाही कैसी हो सकती है, इसके लिए मक्का, ख़ैबर या न बनू क़ुरैज़ा तक जाने की जरूरत है, और न औरंगजेब और पाकिस्तान, और न वर्ल्ड ट्रेड सेंटर, न शार्ली हेब्दों। अपने कलकत्ता का डायरेक्ट एक्शन और अपने ही कश्मीर से पण्डितों को खदेड़ा जाना याद कर लीजिए। इंटरनेट पे खबरें और तस्वीरें, दोनो मिल जाते हैं।
इन मज़हबी सिरफिरों को हल्के में लेना ख़तरनाक है। कोर्ट, सरकार, प्रशासन, पुलिस, समाज, सबको इस चेतावनी, इस धमकी, इस खतरे को गंभीरता से लेना होगा, इनसे संभलकर रहना होगा, इस खतरे से बचने के लिए तैयार रहना होगा। और देश के आम हिन्दू-मुस्लिमों के बीच एक पुरअमन माहौल बनाये रखने के मामले में सबसे ज्यादा जिम्मेदारी उस समाज की है, जिनके बीच से ये सरफिरे आते हैं। इस भारतभूमि को रसखान, जायसी, दारा शिकोह, अशफाक उल्ला खान, अब्दुल हमीद, ब्रिगेडियर उस्मान, कलाम साहब जैसे नायाब लोग देनेवाले अमनपसंद-वतनपरस्त मुस्लिम समुदाय को ऐसे सिरफिरों को जोरदारी से नकारना जरूरी है, साथ ही मुस्लिम समाज को हर मामले में रास्ता दिखाने वाले आलिमों, मौलानाओं, मौलवियों को भी इनकी मज़म्मत करनी चाहिए, और हर मसलक के मुफ्तियों को ऐसे जहरीले बोल बोलने वालों के खिलाफ फ़तवे भी जारी करने चाहिए, क्योंकि इन जैसों के लिए कोर्ट के आदेश से ज्यादा अहम फतवे ही होते हैं।
अब हमें कोई साफ-साफ धमकाए और हम उसकी तरफ ध्यान भी न दें, ये भी कोई समझदारी हुई? क्या हम सब तभी जागेंगे, जब हमारे दरवाजों पर भी वही पर्चे चिपके मिलें, जो 1990 के पहले हफ्ते में ही कश्मीरी पंडितों के दरवाजों पर इस्लाम के नाम पर चिपका दिए गए थे?
(डिस्क्लेमर: यह पोस्ट किसी विद्वेष से नहीं लिखी गई है। संगीन मौकों पर अक़्सर शुतुरमुर्गी रवैया अपनाने वाले वाले इस देश में मन में उठती आशंकाओं का प्रकटीकरण-भर है ये पोस्ट। अगर कोई गलत बात लिख दी गई हो तो जरूर ध्यान दिलाएं।)
Anuj Agrawal, Group Editor