भारतीय सांस्कृतिक विरासत की आधारभूत केंद्र बिन्दु में संयुक्त परिवार हुआ करता था। लोग सयुंक्त परिवार में रहकर एक दूसरे के प्रति उत्तरदायित्व का बोध करके परिवार को आगे बढ़ाने का कार्य करते थे। धीरे धीरे यह विचारधारा व भाव समय के साथ घटता गया। समाज मे एकल परिवार की संकल्पना तेजी बढ़ती गई।यद्यपि भारत में एकल परिवार का प्रचलन संयुक्त परिवार से अधिक होता जा रहा है जिसके विविध कारण हैं तथापि व्यक्तिपरक चरित्र में वृद्धि,व्यक्तिगत स्वतंत्रता, व्यक्तिगत जीवन, व व्यक्तिगत स्वार्थ एकल परिवार की बढ़ती प्रवृत्ति का कारण है ।इसके आलावा भौतिकता की अंधी दौड़ में पाश्चात्य संस्कृति के प्रति उन्मुक्तता भी प्रमुख कारण है।
समय के साथ ही भारत की परंपरागत परिवार व्यवस्था में संरचनात्मक तथा कार्यात्मक दोनों प्रकार के परिवर्तन हुए हैं।फलस्वरूप भारत की संयुक्त परिवार व्यवस्था कई कारणों से बाधित हुई है। अंग्रेज़ों के आगमन से उनके साथ लाए गए नए आर्थिक संगठनों, विचारधाराओं तथा प्रशासनिक प्रणालियों के कारण सांस्कृतिक स्वरूप में परिवर्तन अवश्यंभावी था।जिसके कारण भारत में सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक परिवेशों मे तेजी से परिवर्तन होने लगा।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के उदय तथा उदारवाद के प्रसार ने संयुक्त परिवार की भावनाओं के समक्ष चुनौती पेश की। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में संचार माध्यमों के तीव्र साधनों के चलते देश के दूरस्थ हिस्से में लोगों का पारिवारिक जीवन व सामाजिक परिवेश भी एक-दूसरे के निकट आए। ग्रामीण अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर रहने के बजाय अधिक बाज़ारोन्मुख होती जा रही थी तथा नगरों का उदय तेजी से हो रहा था। पाश्चात्य शिक्षा,पाश्चात्य संस्कृति व सभ्यता, नौकरशाही संगठन का परिपालन करती थी। इन परिवर्तनों ने परंपरागत संयुक्त व्यवस्था को बुरी तरह से प्रभावित किया।
*संयुक्त परिवार के विघटन तथा एकल परिवार की बढ़ती प्रवृत्ति के मूल कारणः*
*भारत मेंऔद्योगीकरण* :- भारत एक कृषि प्रधान देश था।भारत में अंग्रेज़ों के आगमन के फलस्वरूप औद्योगीकरण की शुरुआत हुई तथा स्वतंत्रता के बाद इसमें तेज़ी आई, जिसके कारण ग्रामीण जनसंख्या का पलायन रोज़गार तथा बेहतर जीवन स्तर के लिये शहरी क्षेत्रों की ओर तेजी से हुआ। इन उद्योगों व कल कारखानों में रोज़गार के कारण युवाओं की अपने परिवार के ऊपर निर्भरता तो घटी लेकिन वे अपने परिवार के मुखिया के नियंत्रण से मुक्त भी होने लगे।
*शहरीकरण* गांवों से नगरों की तरफ रोजगार हेतु तेजी से पलायन के फलस्वरूप विगत कुछ दशकों में नगरीय जनसंख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई है, जिसकी परिणति एकल परिवार की स्थापना के रूप में होने लगी क्योंकि शहर के निवासियों ने एकल परिवार को चुना है। नगरीकरण ने वैयक्तिकता तथा निजता के ऊपर बल दिया है। ऐसे शिक्षित व्यक्ति जो अच्छे रोज़गार प्राप्त करने में सफल रहते हैं, उनमें देखा गया है कि वे अधिक स्वतंत्रता पसंद करते हैं तथा रिश्तेदारों से सीमित संबंध रखना चाहते हैं। परिणामस्वरूप व्यक्ति अपने व्यावसायिक, शैक्षणिक, धार्मिक, मनोरंजन तथा राजनीतिक जीवन आदि जैसे विभिन्न हितों को पूरा करता है। ऐसा मानना एकल परिवार पद्धति को मानने वालों का है।
*शिक्षा पद्धति* वर्तमान शिक्षा प्रणाली व शिक्षालय ने लोगों की अभिवृत्ति, पारिवारिक भावनाओं, सामाजिक व पारिवारिक धारणाओं तथा विचारधाराओं आदि को अच्छी तरह प्रभावित किया है। यह व्यक्तिवाद को बल देती है तथा लोगों को ऐसे रोज़गार के लिये तैयार करती है जो उन्हें अपने पैतृक स्थान पर नहीं मिल सकता है। परिणामस्वरूप लोग अपने पूर्वजों से अलग हो जाते हैं तथा नए रहन-सहन को आत्मसात कर लेते हैं। व्यक्ति शिक्षित तो होता है परंतु कमोबेश संस्कार विहिन भी हो जाता हैं।
*स्त्रियों का सशक्तीकरण की अवधारणा* शिक्षित भारतीय महिलाएँ आधुनिक व पाश्चात पारिवारिक जीवन से पूरी तरह प्रभावित हैं, अपने अधिकारों के प्रति सचेत हैं तथा पुरुषों के साथ बराबरी का दर्ज़ा चाहती हैं, वे अपना खर्च स्वयं उठा सकती हैं, जो कि उनमें स्वतंत्रता की भावना का संचार करता है और अंततः व्यक्तिवाद के रूप में परिणत होता है। परिवार मे व्यष्टि की भावना अति तेजी से बलवती होती है फलस्वरूप समष्टि के समाप्त होते जाते है।
*पाश्चात्य संस्कृति की प्रचुरता* यह धारण व्यक्ति के अंदर स्वतंत्रता तथा समानता की शिक्षा देती है जो कि व्यक्तिवाद को बढ़ावा देती है, साथ ही यह भौतिकवाद को भी बढ़ावा देती है। यही स्वतंत्रता कभी कभी व्यक्ति मे स्वछंदतावाद की ओर भी ले जाती है।
*भारतीय विवाह-व्यवस्था व स्वरूप में परिवर्तन*ः विवाह की आयु में परिवर्तन, जीवनसाथी चुनने की आज़ादी तथा विवाह के प्रति अभिवृत्ति में परिवर्तन ने संयुक्त परिवार को बुरी तरह से प्रभावित किया है तथा परिवार के ऊपर पितृसत्तात्मक पकड़ धीरे- धीरे ढीली हुई है। एक समय था परिवार का मुखिया पिता, ताऊ व चाचा हुआ करते थे।
*सामाजिक दायित्व*:- हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1929य हिंदू महिला संपत्ति का अधिकार अधिनियम, 1937य विशेष विवाह अधिनियम, 1954य हिंदू विवाह अधिनियम, 1955य दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 इत्यादि अधिनियमों ने पारस्परिक संबंधों, परिवार के संयोजन तथा संयुक्त परिवार की स्थिरता को प्रभावित किया है।लोग भारतीय परंपरा और मर्यादा मे बधें रहते थे और उन्हीं अनवरत रुढियों के सहारे जीवन जिया करते थे परंतु वर्तमान मे प्रासंगिक नहीं है।
*जनसंख्या में हो रही बृद्धि*ः भारत की बढ़ती जनसंख्या ने कृषि तथा आवासीय भूमि के ऊपर अत्यधिक दबाव का निर्माण किया है। लोगों की भूंमि दिन प्रतिदिन हिस्सा बाट के कारण कम होती गई। निर्धन तथा बेरोज़गार लोग जब दूरस्थ स्थानों पर रोज़गार पाते हैं तो स्वतः ही वे पृथक परिवार बनाते हैं तथा धीरे-धीरे उनका संयुक्त परिवार कमज़ोर हो जाता है।
*आवास की कठिन समस्या*:- ग्रामीण क्षेत्रों के बजाय शहरों में यह विकट समस्या है, जो लोगों को एकल परिवार के निर्माण की ओर प्रेरित करती है। शहरवासियों में भूंमि की कमी होती है फलस्वरूप एकल परिवार को ही प्राथमिकता देते है।
*कृषि तथा ग्रामोद्योग का पतन*:- संयुक्त परिवार का उदय कृषि समाज के उत्पाद के रूप में हुआ था तथा इसके विघटन की ज़िम्मेदारी औद्योगीकरण तथा नगरीकरण को दी जा सकती है।
संचार तथा परिवहन का प्रसार
पारिवारिक झगड़ेः पारिवारिक झगड़ों के कारण संयुक्त परिवार का विघटन हो रहा है। संपत्ति, पारिवारिक आय तथा व्यय, कार्यों का असमान वितरण इत्यादि झगडे़ की वज़ह हैं।
*निष्कर्ष* :
ऊपरोक्तदिये गये प्रमाणों तथा तर्कों से यह स्पष्ट है कि समाज के व्यक्तिवादी घटनाओं तथा एकल परिवार की बढ़ती प्रवृत्ति के लिये कई कारक ज़िम्मेदार हैं। भारतीय समाज व्यक्तिवाद की ओर विवशता में बढ़ रहा है न कि विकल्प के तौर पर।
इसके बावजूद भारतीय समाज समूहवादी तथा सामाजिक एकजुटता और परस्पर निर्भरता को बढ़ावा देता है। भारतीय समाज समूहवाद का सार, मूल्यों तथा लाभों को जानता है। आज भी परिवार एक संसाधन की तरह है। यद्यपि संयुक्त परिवार से एकल परिवार की प्रवृत्ति बढ़ रही है परंतु परिवार अपने साथ एक समृद्ध विरासत रखता है।
-बीरेंद्र सिंह पत्रकार