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राजनीतिक बोझ बनती काग्रेस

Dom's Take: Will Congress see Acche Din? - Rediff.com India News

कोरोना संक्रमण की शुरूआत से अब तक जो राजनैतिक पार्टी सबसे ज़्यादा प्रताड़ित है वह कांग्रेस पार्टी है। मार्च में जब कोरोना संक्रमण के मामले आने शुरू ही हुए थे कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सत्ता चली गई, जब संक्रमण अपनी चरम पर आया तो राजस्थान में पार्टी में भगदड़ मच गई और अब बिहार चुनाव के साथ अनेक राज्यों में उपचुनाव सम्पन्न हुए, जिसमें पार्टी का निराशाजनक प्रदर्शन जारी है। देश में लगभग साठ वर्षों तक सत्ता सम्हालने वाली पार्टी अब क्षेत्रीय दलों पर भी बोझ हो गई है।

बिहार विधानसभा चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन पिछले चुनाव से भी खराब रहा, 2015 में भी कांग्रेस राष्ट्रीय जनता दल के साथ गठबंधन में थे और केवल चालीस सीटों पर लड़कर 27 सीटों पर जीत हासिल की थी। इस चुनाव में भी महागठबंधन के सहयोगी होकर 70 सीटों पर चुनाव लड़ी लेकिन जीतने में सफल केवल 19 सीटों पर मिली। इसका मतलब है कि कांग्रेस पार्टी केवल 27 प्रतिशत सफलता पा सकी, वैसे शैक्षिक दृष्टि से कांग्रेस फेल हो गई है।

ऐसा नहीं कि कांग्रेस पार्टी का निराशाजनक प्रदर्शन केवल बिहार तक सीमित है, देश के 11 राज्यों में 59 विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव हुए। इनमें से केवल 12 सीटों पर कांग्रेस को जीत मिली। उत्तरप्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, ओडिशा, मणिपुर में तो एक सीट नहीं मिली। गुजरात और कर्नाटक में जहां कांग्रेस ने तीन साल पहले अच्छा प्रदर्शन किया था, वहां भी लुटिया डुब गई।

अब एन डी ए और महागठबंधन के बीच तुलना करें तो 2015 की तुलना में एन डी ए की बड़ी सहयोगी जद (यू) का प्रदर्शन कमजोर हो गया, उनकी सीट आधी के करीब हो गई लेकिन भाजपा ने अपने कंधे उस कमी को पूरा कर दिया। जबकि महागठबंधन में राजद को सीटें तो लगभग उतनी ही रही, कांग्रेस की सीटें कम ही गई, हालांकि कम्युनिस्टों पार्टियों ने सोलह सीटें जीतकर कुछ सहयोग किया लेकिन यह नाकाफी रहा। पंद्रह साल की एंटी इंकमबेंसी तत्व, कोरोना संक्रमण से उपजी अव्यवस्था और बाढ़ की परेशानी का लाभ भी महागठबंधन नहीं उठा पाया। यहां तक कि पिछले बार महागठबंधन का पाला बदलकर भाजपा के साथ सरकार बनाने के मुद्दे का भी कोई असर नहीं हुआ। इसका मतलब यह है कि जनता ने नरेंद्र मोदी को अपना समर्थन दिया है। लेकिन कांग्रेस पार्टी चुनाव दर चुनाव हार का सामना कर रही है, यह न तो राहुल गांधी और न ही पार्टी के भविष्य के लिए अच्छा है।

कांग्रेस पार्टी की बदहाली को लेकर पार्टी के वरिष्ठ नेता भी चिंतित हैं, उन्हें भी लगने लगा है कि कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी का जैसा आचार-विचार रहा और जैसे होना चाहिए वैसा अब नहीं रहा। एक तो कांग्रेस पार्टी भारत की कम्यूनिस्ट पार्टियों के एजेंडे में भी उलझी हुई दिखाई देती है। ऐसा लगता है मानो कांग्रेस को कम्यूनिस्टों ने हाईजैक कर लिया है। यह बात भी खांटी कांग्रेसियों को पसंद नहीं आ रही है। गांधी परिवार के चारों ओर जे एन यू के पढ़े एक्टिविस्ट समूह दिखाई देते हैं। क्या देश में महात्मा गांधी के सिद्धांतों पर चलने वाली कांग्रेस का अचानक मार्क्सवाद के सिद्धांत पर चलने लगे तो जनता स्वीकार करेगी? अगर भारत की जनता को भारतीय चिंतन और गांधी के सिद्धांतों के स्थान पर मार्क्स और माओ के सिद्धांत भा जाते तो देश में कम्युनिस्टों का राजनीतिक पतन क्यों होता?

उधर कम्यूनिस्ट भाजपा और नरेंद्र मोदी का डर दिखाकर एनडीए विरोधी पार्टियों को अपने हित में उपयोग कर रही है। बिहार चुनाव में मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्यूनिस्ट पार्टी ने 13 सीटों पर जीत इस तथ्य की पुष्टि करती है‌। पिछले चुनाव में एक भी सीट नहीं जीत पाए सीपीआई और सीपीएम को तीन-तीन सीटों पर जीत हासिल हुई। एक तरफ कांग्रेस अपने गठबंधन के लिए बोझ बनती जा रही है वहीं कम्यूनिस्ट कांग्रेस व अन्य सहयोगियों पर जोंक की तरह चिपक उनकी ताकत चूसकर अपना प्रभुत्व बढ़ाने में लगी हैं। यह विचार का विषय है कि कम्यूनिस्ट पार्टियां कांग्रेस पर वैचारिक कब्जा कर अपनी शक्ति देशव्यापी बढ़ाने का ख्वाब तो नहीं देख रही हैं? कांग्रेस और देश को भविष्य के लिए सतर्क रहना चाहिए।

शशांक शर्मा, रायपुर
9425520531

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