वियतनाम में आज दुनिया की अब तक की सबसे बड़ी आर्थिक संधि संपन्न हुई। इस संधि में आसियान देशों का ही प्रमुख रूप से योगदान रहा। चीन के साथ व्यापारिक विरोध के कारण भारत इसका हिस्सा नहीं बना और अमेरिका भी इस संधि से बाहर ही रहा। जापान दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने इस संधि में हस्ताक्षर किए। चीन इस प्रकार की संधि को अंजाम देकर विश्व पटल पर ऐतिहासिक कदम उठाया है। परिस्थितियां इस प्रकार की है कि लगभग सारी दुनिया का 30% व्यापार इस संधि में सिमट कर आ गया है। एक प्रकार का आर्थिक शीत युद्ध अमेरिका और उसके सहयोगियों के खिलाफ चीन द्वारा चलाया गया है। जिसमें अमेरिका के साथ-साथ भारत को भी शामिल किया गया है। आसियान देशों का प्रमुख देश होने के कारण भारत के सामने कुछ विकल्प खुले हैं, लेकिन वर्तमान संधि में भारत के ना होने से मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट पर गहरा असर पड़ने की संभावना है। क्योंकि जो वर्तमान समझौते में साथ रहेगा वह समझौते के अनुसार अपनी वस्तुओं का व्यापार उन्हीं देशों के साथ करेगा को समझौते में सहभागी हैं।ऐसा नहीं है कि भारत इस संधि में शामिल नहीं होना चाहता था। भारत भी चाहता था कि वह इस संधि का हिस्सा बने लेकिन सीमा पर जिस प्रकार की गतिविधियां चीन के साथ हुई। उसके कारण भारत में चीन की बनी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन चला।भारत सरकार ने भी आनन-फानन में कुछ ऐसे कदम उठाए जिसमें यह दिखा कि सरकार चीन से आयात किए जाने वाले वस्तुओं पर रोक लगा रही है। लेकिन यह सारे कदम जोश और कुछ गुस्से में उठाए गए कदम थे। कुछ प्रतीकात्मक थे। इसलिए भारत चाह कर भी इस संधि में शामिल नहीं हो सकता। क्योंकि राजनीतिक रूप से इसका बहुत बुरा असर पड़ेगा। इस संधि का असर प्रथम तो यह होगा कि जिन 15 देशों ने फिलहाल इस संधि में हस्ताक्षर कर दिए हैं उनकी अर्थव्यवस्था को एक बड़ा बूम मिलेगा। लेकिन कोरोना महामारी के कारण भारत जैसे कृषि प्रधान देश की अर्थव्यवस्था खिचड़ी बनने की स्थिति में रहेगी। क्योंकि आज कृषि भी पूर्ण रूप से मुक्त नहीं है। व्यापार के क्षेत्र में भारत नए सिरे से नए दोस्तों के साथ काम करने को मजबूर रहेगा। भूमंडलीकरण की आर्थिक नीतियों के परिणाम स्वरूप भारत जैसे देश उस व्यवस्था को इसलिए तोड़ पाने में सफल नहीं है क्योंकि भूमंडलीकरण के लाभ को देखकर एन केन प्रकारेण किसी भी प्रकार से सारे नियम कायदों को ताक पर रखकर भारत में व्यापार की नीतियां बनाई गई है। जापान जैसे देशों में ऐसा नहीं है। लेकिन भारत में व्यापार के लिए विदेशों से आने वाली कंपनियों की गतिविधियों और नीतियों के संदर्भ में सब कुछ खिचड़ी है। अव्यवस्थित है। अस्पष्ट है। भारत में कंपनियों की नीतियों से परेशान व्यक्ति न्यायालय में जाकर भी न्याय की उम्मीद बहुत ज्यादा कर नहीं पाता क्योंकि अब सरकारें भी आम व्यक्ति के बजाय कंपनी और उद्योगपतियों के हित का ख्याल रखती हैं। ऐसे में न तो भारत पूंजीवादी राष्ट्र की तरफ पूरी तरह बढ़ रहा है।न ही कृषि प्रधान देश की उस व्यवस्था में बना रह पाया है। न ही यहां कोई समाजवाद है। न ही अपनी सनातनी परंपराओं के आधार पर स्थापित कारोबार और व्यवसाय रह गया है।
चीन की विस्तार वादी नीतियां सारी दुनिया के सामने जगजाहिर है। ऐसा नहीं है कि चीन ही विस्तार वादी है।दुनिया के बड़े माने जाने वाले देश जो शक्ति संपन्न है। सभी विस्तार वादी हैं, भारत को छोड़कर। ऐसी परिस्थितियों में भारत को अगर अब आगे भी विकास के नाम पर उसी खिचड़ी और सड़ी गली विकासवादी व्यवस्था की तरफ घसीटा गया तो भारत का आर्थिक विनाश ही होगा। भारत बर्बादी की ओर ही बढ़ेगा। भारत की जीडीपी बढ़ेगी। भारत में पूंजी प्रति बढ़ेंगे। लेकिन एक व्यक्ति के करोड़पति बनने पर हजारों व्यक्ति भूखे नंगे दूसरी राह पर खड़े होंगे। भारतीय अर्थव्यवस्था का पैमाना ही अलग है। और उस पैमाने को समझ कर के अगर भारतीय अर्थव्यवस्था के अनुसार भारत के गांव को संपन्न बनाया जाए बनिस्पत शहरों को संपन्न बनाने के, भारतीय यंत्र संयंत्र की अपेक्षा प्राकृतिक ज्ञान पर और अपनी देसी क्षमता पर आग्रह रखें। साथ साथ नई नई देसी तकनीक और व्यवस्था के साथ आगे बढ़े। तभी वह विश्व की सारी कुटिल चालों का सामना कर सकने में सक्षम है। लेकिन जिस प्रकार से हम आज दुनिया के आर्थिक और राजनीतिक षड्यंत्र की चपेट में फंसते चले जा रहे हैं। इससे मजबूर होकर उन्हीं की गोद में जाकर गिरने का खतरा मंडरा रहा है। हम अमेरिका के तरफ इतने ज्यादा झुकते चले गए हैं कि अब अमेरिका की परिस्थितियां भारत को सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं। मुस्लिम देशों से हमें कोई अपेक्षा ही नहीं है। भारत दोराहे नहीं चौराहे पर खड़ा है। इस देश का दुर्भाग्य है कि देश के वास्तविक समझ रखने वाले लोग शांत बैठे हैं। वह पीढ़ी जो आने वाले खतरों से देश को आगाह करती थी। या तो समाप्त हो गई, या समाप्त होने की कगार पर है। भारत के स्थापित राजनेता ही विचारक है। भारत के स्थापित संगठन ही देशभक्त हैं। भारत में दूसरा भी कोई अच्छा और सही सोच सकता है। या देश में और भी समझने सोचने वाले लोग हो सकते हैं ऐसा आज मानने और कहने वाले लोग नहीं रहे। अंग्रेजों के षड्यंत्रों का मारा भारत पूंजीपति मानसिकता के गुलामी की तरफ मजबूरी वश बढ़ेगा क्योंकि अंग्रेजीअत का विकास ही उसका मॉडल है। वही विकास उसकी सोच है।
भारत को भारत बनाना पड़ेगा। भारत की सोच, समझ, व्यापार, व्यवहार सब का तरीका दुनिया से अलग होगा। क्योंकि भारत की प्रकृति और भारत का भूगोल ही अलग है। जब तक भारत की समझ, भारत की जड़ों की समझ सही ढंग से नहीं बनेगी तब तक भारत वैश्विक षड्यंत्र में फंसता ही रहेगा।
सतीश कुमार त्रिपाठी