अंगद किष्किन्धा के राजा बालि के पुत्र थे। उनकी माता का नाम तारा था। अंगद का विवाह मैद नामक वानर की ज्येष्ठ पुत्री के साथ हुआ था। अंगद के पुत्र का नाम ध्रुव था। ध्रुव भी पिता के समान महाबली था। अंगद बड़े ही वाक्पटु थे। इनके इस संक्षिप्त परिचय के उपरान्त श्रीरामकथा में इनके अद्भुत वीरता-प्रतिभा-वाकपटुता के बारे में जानना आवश्यक है। श्रीरामचरितमानस में अंगद का आगमन श्रीराम के द्वारा बालि के हृदय में बाण मारने के बाद होता है। श्रीराम द्वारा बालि को बाण मारा तब बालि ने कहा-
धर्म हेतु अवतेरहु गोसाईं। मारेहु मोहि व्याध की नाई।।
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा। अवगुन कवन नाथ मोहि मारा।।
अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुन सठ कन्या सम ए चारी।।
इन्हहि कूदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछू पाप न होई।।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धाकाण्ड ९-३-४
हे गोसाईं! आपने धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिया है और मुझे व्याध (शिकारी) की तरह छिपकर मारा? मैं बैरी और सुग्रीव प्यारा? हे नाथ! किस दोष से आपने मुझे मारा कहिये? यह सुनकर श्रीरामजी ने कहा- हे मूर्ख! सुन छोटे भाई की स्त्री (पत्नी), बहिन, पुत्र की स्त्री और कन्या- ये चारों समान होती हैं। इनको जो कोई बुरी दृष्टि से देखता है, उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं होता है। तत्पश्चात् बालि की कोमल वाणी सुनकर प्रभु श्रीराम ने बालि के सिर पर हाथ स्पर्श कर उसके शरीर को अचल किया ताकि उसके प्राण शरीर से उस समय निकल न सकें। बालि ने भी अंतिम समय श्रीराम से जो कहा वह मार्मिक है तथा एक पिता मृत्यु के बाद अपने पुत्र के भविष्य की चिन्ता करता है वैसे ही बालि की चिन्ता स्वाभाविक थी-
छन्द- सो नयन गोचर जासु गुन नित चेति कहि श्रुति गावहीं।।
जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुँक पावहीं।।
मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरी रही।
अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु बारि करिहि बबू रही।।
अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।
जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ।।
यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिऐ।
गहि बाँह सुर नर नाह आपनदास अंगद कीजिऐ।।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धाकाण्ड छन्द १०
श्रुतियाँ नेति-नेति कहकर निरन्तर जिनका गुणगान करती हैं तथा प्राण और मन को जीतकर एवं इन्द्रियों को नीरस बनाकर मुनिगण ध्यान में जिनकी कभी कदाचित् ही झलक पाते हैं, वे भी प्रभु (श्रीरामआप) साक्षात् मेरे सामने प्रकट हैं। आपने मुझे अत्यन्त अभिमानवश जानकर यह कहा कि तुम शरीर रख लो किन्तु ऐसा मूर्ख कौन होगा जो हठपूर्वक कल्पवृक्ष को काटकर उसके बबूल के वृक्ष के बाड़ लगावेगा अर्थात् पूर्ण काम बना देने वाले आपको छोड़कर आपसे इस नश्वर शरीर की रक्षा करेगा। तत्पश्चात् बालि ने कहा- हे नाथ! अब मुझ पर दया दृष्टि कीजिए और मैं जो वरदान माँगता हूँ उसे दीजिए। मैं कार्यवश जिस योनि में जन्म लूँ वहाँ श्रीरामजी (आप) के चरणों में प्रेम करूँ। हे कल्याणकारी प्रभो! यह मेरा पुत्र अंगद विनय और बल में मेरे ही समान है, इसे स्वीकार कीजिए। हे देवताओं एवं मनुष्यों के नाथ! बाँह पकड़कर अंगद (इस) को अपना दास स्वीकार कीजिए। इतना कहकर बालि ने श्रीरामजी के चरणों में दृढ़ प्रीति करके शरीर को वैसे ही बड़ी आसानी से त्याग दिया जैसे हाथी अपने गले से फूलों की माला का गिरना भी न जान पाते हैं अर्थात् बिना कष्ट वह श्रीराम के परमधाम पहुँच गया।
श्रीराम न्यायप्रिय एवं सत्यवादी हैं अत: बालि के परमधाम जाने के बाद तत्काल लक्ष्मणजी को समझाकर कहा कि तुम जाकर सुग्रीव को राज्य दे दो। श्रीरामजी की आज्ञा से वहाँ पर उपस्थित सभी उनके चरणों में मस्तक नवाकर चले गए। लक्ष्मणजी ने तुरन्त ही सब नगरवासियों और ब्राह्मणों के समाज को आमंत्रित किया और सबके सम्मुख सुग्रीव को राज्य और अंगद को युवराज पद दिया गया। सीताजी की खोज हेतु सुग्रीव ने वानरों को एकत्रित कर एक माह का समय देकर पता लगाने की आज्ञा दी। यदि कोई वानर दल एक माह में पता नहीं लगा सका तो उनका वध करवा दिया जाएगा। तत्पश्चात सुग्रीव ने अंगद, नल, हनुमानादि प्रधान योद्धाओं को बुलाकर कहा-
सुनहु नील अंगद हनुमाना। जामवंत मतिधीर सुजाना।।
काहु सकल सुभट मिलिदच्छिन जाहू। सीता सुधि पूँछेहु सब काहु।।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धाकाण्ड २३-१
हे धीर बुद्धि और चतुर नील, अंगद, जाम्बवान और हनुमान्! तुम सब श्रेष्ठ योद्धा मिलकर दक्षिण दिशा को जाओ और सब किसी से सीताजी का पता पूछना। सब वन में गए वहाँ उन्हें किसी राक्षस से भेंट होने पर वे एक चपत में उसके प्राण ले लेते थे। एक दिन सभी को अत्यन्त प्यास लगी तथा व्याकुल हो गए। जल की तलाश में एक गुफा में पहुँच गए वहाँ उन्हें श्रीरामभक्त स्वयंप्रभा से भेंट हुई तथा वहाँ उनकी प्यास एवं क्षुधा शान्त हो गई। इसी बीच एक माह का समय व्यतीत हो गया। स्वयंप्रभा को कहने पर उन सब वानरों को उसने समुद्र तट पर छोड़ा और स्वयं बदरिकाश्रम चली गईं। समुद्र तट पर जटायु के बड़े भाई सम्पाती ने इतने वानरों को देखकर अपनी भूख मिटाने के लिए प्रसन्नता व्यक्त की। वानरों ने जटायु के त्याग का प्रसंग सुनाया तब सम्पाती ने सीताजी का पता इस प्रकार बताया-
गिरि त्रिकूट ऊपर बस लंका। तहँ रह रावन सहज असंका।।
तहँ असोक उपबन जहँ रहई। सीता बैठि सोच रत अहई।।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धाकाण्ड २८-६
त्रिकूट पर्वत पर लंका बसी हुई है। वहाँ स्वभाव से ही निडर रावण रहता है। वहाँ अशोक नाम का उपवन (बगीचा) है, जहाँ सीताजी रहती हैं। इस समय भी वे सोच में मग्न हैं। सम्पाती ने कहा कि मैं बूढ़ा हो गया हूँ दूर तक देख सकता हूँ नहीं तो तुम्हारी सहायता अवश्य करता। उसने कहा कि जो सौ योजन (चार सौ कोस) समुद्र लाँघ सकेगा और बुद्धिमान होगा, वही श्रीरामजी का कार्य कर सकेगा। जाम्बवानजी ने वृद्धावस्था होने से इस कार्य को कठिन बताया, अंगद ने समुद्र पार करने का कहा किन्तु लौटते समय कुछ सन्देह बताया तब जाम्बवान्जी ने कहा कि अंगद तुम हमारे दल के प्रमुख दलपति हो अत: तुम्हारा जाना ठीक नहीं होगा। अंत में हनुमान्जी को उनके बल की स्मृति बताकर उन्हें समुद्र पार करने का कहा गया। हनुमान्जी लंका गए तथा सीताजी को श्रीराम का सन्देश तथा अँगूठी देकर चूड़ामणि लेकर वापस आ गए। हनुमान्जी द्वारा लंका दहन तथा विभीषण के श्रीराम के पास पहुँच जाने के उपरान्त रावण ने शुक नामक गुप्तचर (दूत) भेजा। उसे पहचान लिया तथा दया कर छोड़ दिया। शुक ने वानरों के नाम तथा हाथियों के बल से अधिक है उनके नाम रावण को बताए उसमें अंगद का नाम भी है।
दोहा- द्विबिद मयंद नीलनल अंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि।।
श्रीरामचरितमानस सुन्दरकाण्ड-५४
सेतु निर्माण हो जाने के बाद प्रात:काल श्रीराम सुबेल पर्वत पर जाग गए और उन्होंने सब मंत्रियों को परामर्श कर पूछा कि अब शीघ्र उपाय क्या करना चाहिए। जाम्बवान्जी ने कहा हे प्रभु! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार सलाह देता हूँ कि बालिकुमार (अंगद) को लंका दूत बना कर भेजना उचित होगा।
नीक मंत्र सबके मन माना। अंगद सन कह कृपानिधाना।।
बालितनय बुद्धि गुन धामा। लंका जाहुतात मम कामा।।
बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊँ। परम चतुर मैं जानत अहऊँ।।
काजु हमार तासू हित होई। रिपु सन कोहु बतकही सोई।।
श्रीरामचरितमानस लंकाकाण्ड १७ (क) ३-४
अंगद को भेजने की सलाह सबको पसंद आई। कृपानिधान श्रीराम ने अंगद से कहा हे बल, बुद्धि और गुणों के धाम बालिपुत्र! हे तात! तुम मेरे कार्य के लिए लंका जाओ। तुमको समझाकर क्या कहूँ। मैं जानता हूँ, तुम परम चतुर हो। शत्रु से वही बातचीत करना, जिससे हमारा काम हो और उसका कल्याण हो। यह श्रीराम की आज्ञा से ज्ञात होता है कि इतना सब कुछ होने पर भी श्रीराम शान्तिप्रिय थे तथा कल्याण की बात करते थे। अंगद के लंका में प्रवेश करते ही रावण के पुत्र से भेंट हो गई जो कि वहाँ खेल रहा था रावण के पुत्र ने अंगद पर लात उठाई तब अंगद ने उसके पैर पकड़कर उसे घुमाकर जमीन पर दे पटका। यह देखकर राक्षस भयभीत होकर चीखते-पुकारते भागने लगे।
श्रीरामजी के चरणकमलों का स्मरण करके अंगद रावण की सभा के द्वार पहुँच गए। अंगद ने रावण को उनके आने की सूचना एक राक्षस द्वारा भेज दी। रावण ने तुरन्त ही हँसते हुए अंगद को बुलाने का कहा। अंगद रावण के दरबार में पहुँच गए। अंगद ने रावण को ऐसे बैठा हुए देखा मानो कोई काजल का पहाड़ हो, यह देखकर रावण को बड़ा क्रोध हो गया। तत्पश्चात् श्रीरामजी के प्रताप का हृदय में स्मरण करके अंगदजी निर्भय होकर सभा में सिर नवाकर बैठ गए। रावण ने कहा- अरे बंदर! तू कौन है? अंगद ने कहा हे दशग्रीव! मैं श्रीराम का दूत हूँ। मेरे पिता और तुममें मित्रता थीं। इसीलिए हे भाई! मैं तुम्हारी भलाई के लिए आया हूँ। तुम्हारा उत्तम कुल है, पुलस्त्य ऋषि के तुम पौत्र हो। तुम शिवजी और ब्रह्माजी के भक्त हो, तुम उनकी बहुत पूजा करते हो। तुमने उनसे वर पाए हैं। राजमद या मोहवश तुम जगज्जननी सीताजी को हर लाए हो। अब तुम मेरे शुभ वचन (मेरी हित भरी सलाह) सुनो प्रभु श्रीराम तुम्हारे सब अपराध क्षमा कर देंगे। दाँतों में तिनका दबाओ, गले में कुल्हाड़ी डालो और कुटुम्बियों सहित अपनी स्त्रियों को साथ लेकर आदरपूर्वक सीताजी को आगे करके, इस प्रकार सब भय त्याग कर चलो। श्रीराम शरणागत के पालनहार मेरी रक्षा कीजिए, ऐसी आर्त प्रार्थना करो। यह आर्त पुकार सुनकर श्रीराम तुम्हें निर्भय कर देंगे। यह सुनकर रावण ने कहा अरे बंदर के बच्चे! संभालकर बोल मूर्ख। अरे भाई। अपना और अपने बाप का नाम तो बता। किस नाते से मित्रता मानता है? तब अंगद ने कहा-
अंगद नाम बालि कर बेटा। तासों कबहुँ भई ही भेटा।
अंगद बचन सुनत सकुचाना। रहा बालि बानर मैं जाना।।
मेरा नाम अंगद है, मैं बालि का पुत्र हूँ। उनसे कभी तुम्हारी भेंट हुई थी। अंगद के वचन सुनते ही रावण कुछ सकुचा गया और बोला हाँ मैं जान गया, बालि नाम का एक बंदर था। यह सुनकर रावण ने अंगद को कुलनाशक, कुलरूपी बाँस के अग्रिरूप पैदा हुआ। गर्भ में ही क्यों न नष्ट हो गया? तू व्यर्थ पैदा हुआ। अपने आपको तपस्वियों का दूत कहता आदि कहा। यह सब सुनकर अंगद ने रावण से कहा मैं तो कुल का नाश करने वाला हूँ और हे रावण! तुम कुल के रक्षक हो। अंधे-बहरे भी ऐसी बात नहीं करते तुम्हारे तो बीस नेत्र और बीस कान है, अंगद ने आगे कहा- तुम्हारी धर्मशीलता मैंने भी सुनी है वह यह कि तुमने परायी स्त्री की चोरी की है। और दूत की रक्षा की बात तो अपनी आँखों से देख ली। ऐसे धर्म के व्रत को धारण करने वाले तुम डूबकर मर क्यों नहीं जाते?
रावण ने अंगद से कहा कि तुम्हारी सेना में मुझसे कोई भी युद्ध नहीं कर सकता, तुम और सुग्रीव वट के वृक्ष हो, विभीषण डरपोक है, जाम्बवान् बूढ़े हो गए, तेरा मालिक तो स्त्री के वियोग में बलहीन हो गया है और उसका छोटा भाई श्रीराम के दु:ख से दु:खी और उदास रहता है। यह सुनकर अंगद ने कहा हे रावण! एक छोटे से वानर ने लंका जला दी थी याद करो। हनुमान् ने जो कुछ कहा था, उसे लंका में आकर मैंने प्रत्यक्ष देख लिया कि तुम्हें न लज्जा है न क्रोध है और न चिढ़ है। रावण बोला- अरे वानर! जब तेरी ऐसी बुद्धि है तभी तो तू बाप को खा गया। ऐसा वचन कहकर रावण हँसा। अंगद ने कहा- पिता को खाकर फिर तुमको भी खा डालता। अंगद ने बालि के रावण के घुड़साल में बँधा रहने का, सहस्त्रबाहु आदि के साथ उसके पूर्व निन्दनीय प्रसंग कह सुनाये, जब रावण ने अपनी प्रशंसा और श्रीरामजी की निन्दा की, तब तो कपिश्रेष्ठ अंगद अत्यन्त क्रोधित हुए क्योंकि शास्त्र ऐसा कहते हैं कि जो अपने कानों से भगवान् विष्णु और शिव की निन्दा सुनता है, उसे गोवध के समान पाप होता है। अंगद ने बहुत जोर से दाँत कटकटाए और उन्होंने जोर से अपने दोनों भुजदण्डों को पृथ्वी पर दे मारा। पृथ्वी हिलने लगी, जिससे रावण की सभा में बैठे हुए सभासद गिर पड़े। रावण गिरते-गिरते सँभलकर उठा। उसके अत्यन्त सुन्दर मुकुट पृथ्वी पर गिर पड़े। कुछ तो उसने उठाकर अपने सिरों पर सुधारकर रख लिया और कुछ अंगद ने उठाकर प्रभु श्रीराम के पास फेंक दिये। मुकटों को आते देखकर वानर उल्कापात समझकर इधर भागने लगे। श्रीराम ने वानरों से हँसकर कहा कि डरो मत। ये न उल्का हैं न वज्र हैं और न केतु या राहु ही हैं। अरे भाई ये तो रावण के मुकुट हैं। इसे अंगद ने फेंका है।
सभा में रावण क्रोधित होकर बोला कि- बन्दर को पकड़ लो और पकड़कर मार डालो। यह सुनकर अंगद हँसने लगे। रावण फिर बोला- इसे मारकर सब योद्धा तुरन्त दौड़ों और जहाँ कहीं रीछ वानर पाओ, वहीं खा जाओ। पृथ्वी को बंदर रहित कर दो और जाकर दोनों तपस्वी भाईयों (राम-लक्ष्मण) को जीते जी पकड़ लो। यह सुनकर अंगद क्रोधित होकर बोले। अरे कुलनाशक। गला काटकर मर जा। मेरा बल देखकर भी क्या तेरी छाती नहीं फटती है। रे दशकन्ध! जिसने एक ही बाण से बालि को मार डाला, वह मनुष्य कैसे है? अरे जड़! बीस आँखें होने पर भी तू अन्धा है। तेरे जन्म को धिक्कार है। यह सुनकर रावण ने अंगद से कहा- बालि ने तो कभी ऐसा गाल नहीं मारा। जान पड़ता है तू तपस्वियों से मिलकर लबार हो गया है।
इतना सुनकर अंगद ने कहा- अरे मूर्ख! यदि तू मेरा चरण हटा दे तो रामजी लौट जाएंगे। मैं सीताजी को हार गया। रावण ने कहा- हे सब वीरों सुनो। इसके पैर पकड़कर बंदर को पृथ्वी पर पछाड़ दो।
इन्द्रजीत आदिक बलवाना। हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना।
झपटहिं करि बल बिपूल उपाई। पद न टरइ बैठहिं सिरुनाई।।
श्रीरामचरितमानस लंकाकाण्ड ३४ (क) ६
मेघनाद आदि अनेकों शक्तिशाली योद्धा जहाँ-जहाँ से हर्षित होकर उठे। वे पूरे बल से बहुत से उपाय करके झपटते हैं किन्तु पैर टलता नहीं, तब सिर नीचा करके फिर अपने-अपने स्थान पर जा बैठे। अंगद का बल देखकर सब हार गए तब अंगद के ललकारने पर रावण स्वयं उठा। जब वह अंगद का चरण पकड़ने लगा तब बालिकुमार अंगद ने कहा मेरा चरण पकड़ने से तेरा बचाव नहीं होगा। अरे मूर्ख! तू जाकर श्रीराम के चरण क्यों नहीं पकड़ता। इतना सुनकर रावण सकुचाकर लौट गया। फिर वह सिर नीचा करके सिंहासन पर जा बैठा। इस प्रकार शत्रु का बल मर्दन कर बल की राशि बालिपुत्र अंगदजी हर्षित होकर आकर श्रीरामजी के चरणकमल पकड़ लिए। श्रीराम ने अंगद से कहा कि तुमने उसके चार मुकुट फेंके। हे तात! बताओ उनको किस प्रकार से पाया तब अंगद ने कहा- हे सर्वज्ञ! हे शरणागत को सुख देने वाले। सुनिये ये मुकुट नहीं हैं। वे तो राजा के चार गुण हैं-
साम दान अरू दंड बिभेदा। नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा।।
नीति धर्म के चरन सुहाए। अस जियँ जानि नाथ पाहैं आए।।
हे नाथ! वेद कहते हैं कि साम, दान, दण्ड और भेद- ये चारों राजा के हृदय में बसते हैं। ये नीति-धर्म के चार सुन्दर चरण हैं किन्तु रावण में धर्म का अभाव है। ऐसा मन में जानकर ये नाथ आपके पास आ गए फिर अंगद ने लंका के सब समाचार बता दिए।
युद्ध में वानरों के प्रबल दलों को देखकर रावण ने माया प्रकट की। वह युद्ध के मैदान से अदृश्य हो गया। फिर उसने अनेकों रूप प्रकट किए। श्रीरामजी की सेना में जितने रीछ वानर थे उतने ही रावण चारों ओर प्रकट हो गए। यह देखकर सारे वानर भयभीत होकर इधर-उधर लक्ष्मण को पुकारते दौड़ने लगे। यहाँ तक की देवता भी डर गए। अत्यन्त बलवान् रणबाँकुरे हनुमानजी, अंगद, नील और नल लड़ते हैं और कपटरूपी भूमि से अंकुर की भाँति उपजे हुए कोटि-कोटि योद्धा सब रावणों को मसलते हैं। यह दृश्य देखकर श्रीराम हँस पड़े और एक बाण चढ़ाकर माया के रावणों को मार डाला। अब एक ही रावण देखकर देवताओं ने पुष्पवर्षा की। यह देखकर क्रोध हो गया-
हाहाकार करत सुर भागे। खलहु जाहु कहँ मोरे आगे।।
देखि बिकल सुर अंगद धायो। कूदि चरन गहि भूमि गिरायो।।
श्रीरामचरितमानस लंकाकाण्ड ९७-४
देवता हाहाकार करते हुए भागे। रावण ने कहा दुष्टों! मेरे आगे से कहाँ जा सकोगे? देवताओं को व्याकुल देखकर अंगदजी दौड़े और उछलकर रावण का पैर पकड़कर उन्होंने उसको पृथ्वी पर गिरा दिया। इस प्रकार अंगद बहुत बलशाली थे। उन्होंने लंका के युद्ध में अनेकों राक्षसों को मार गिराया था।
वाल्मीकि रामायण में भी अंगद एवं राक्षस वज्रदंष्ट्र के युद्ध का रोमांचक वर्णन है। रावण की सेना में वज्रदंष्ट्र नामक राक्षस बहुत शक्तिशाली और पराक्रमी था। उसने अपने बाणों एवं तलवार से हजारों वानरों को घायल एवं वध कर दिया। यह देखकर अंगदजी युद्ध के मैदान में आ गए तथा उस राक्षस पर एक विशाल चट्टान दे मारी। उस चट्टान से घोड़े सहित रथ चकनाचूर हो गया तथा राक्षस रथ से कूद पड़ा। यह देखकर अंत में-
निर्मलेन सुधौतेन खड्गेनास्य महच्छिर:।
जधान व्रजदंष्ट्रस्य बालिसूनुर्महाबल:।।
महाबली बालिकुमार (अंगद) ने अपनी निर्मल एवं तेज धारवाली चमकीली तलवार से वज्रदंष्ट्र का विशाल मस्तक काट डाला। इस प्रकार उसका वध ही कर दिया। वानर सेना में भय समाप्त हो गया तथा प्रसन्नता छा गई।
सुग्रीव, जाम्बवान्जी और नील आदि सबको श्रीराम ने अपने राज्याभिषेक उपरान्त कुछ दिनों के बाद स्वयं भूषण-वस्त्र पहनाकर विदा किया। वे सब अपने हृदयों में श्रीरामचन्द्रजी के रूप को धारण करके उनके चरणों में मस्तक नवाकर चले गए। अंत में अंगद उठकर सिर नवाकर, श्रीराम से अलग होने के कारण नेत्रों में जल भरकर और हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्र तथा मानो प्रेम के रस में डूबोए हुए मधुर वचन बोले-
सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिंघो। दीन दयाकर आरत बँधो।।
मरती बेर नाथ मोहि बाली। गयउ तुम्हारेहि कोंछें घाली।।
श्रीरामचरितमानस युद्धकाण्ड १८ (क)।
हे सर्वज्ञ! हे कृपा और सुख के समुद्र! हे दीनों पर दया करने वाले! हे आर्तों के बन्धु। सुनिये। हे नाथ! मरते समय मेरा पिता बालि मुझे आपकी ही गोद में डाल गया था। अत: हे भक्तों के हितकारी। अपना अशरण-शरण विरद (बाना) याद करके मुझे त्यागिये नहीं। मेरे तो स्वामी, गुरु, पिता और माता सब कुछ आप ही हैं। आपके चरणकमलों को छोड़कर मैं कहाँ जाऊँ। हे महाराज! आप ही सोचविचार करके कहिये प्रभु आपको छोड़कर घर में मेरा क्या काम है? हे नाथ! इस ज्ञान और बुद्धि से हीन बालक तथा दीन सेवक को शरण में रखिए। मैं महल की सब नीची से नीची सेवा करूँगा और आपके चरणकमलों को देख-देखकर भवसागर से तर जाऊँगा। ऐसा कहकर अंगदजी श्रीरामजी के चरणों में गिर पड़े। फिर उन्होंने कहा हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिए। हे नाथ! अब यह न कहना कि अंगद तुम घर जाओ।
दोहा- अंगद बचन बिनीत सुनि रघुपति करुना सींव।
प्रभु उठाइ उर लायउ सजल नयन राजीव।।
निज उर माल बसन मनि बालितनय पहिराइ।
बिदा कीन्हि भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड दोहा १८ (क), १८ (ख)
अंगदजी के विनम्र वचन सुनकर करुणा की सीमा प्रभु श्रीरघुनाथजी ने उनको उठाकर हृदय से लगा लिया। प्रभु के नेत्रकमलों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया। फिर भगवान ने अपने हृदय की माला, वस्त्र और मणि (रत्नों के आभूषण) बालि के पुत्र अंगद को पहनाकर और बहुत प्रकार से समझाकर उनकी विदाई की। अंगद का प्रभु से मिलन भी दु:ख में हुआ तथा विदा भी दु:खमय रहा किन्तु अंगद-श्रीराम के प्रिय हैं। अंगदजी के विदा का मार्मिक वर्णन श्रीरामचरितमानस में अद्भुत है। श्रीराम ने भी बालि को दिये वचन का पालन करके अंगद को युवराज पद तथा सम्मान दिया। अंगद बलशाली, बुद्धिमान, दूरदर्शी एवं श्रीराम के अनन्य सेवक एवं भक्तों में सदा-सदा याद रहेंगे। अन्त में श्रीरामचरितमानस की यह चौपाई सदा मन, मस्तिष्क में रखना चाहिए।
सोई गुनग्य सोई बड़भागी। जो रघुबीर चरन अनुरागी।।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धाकाण्ड २३-४