Shadow

किसने यूपी के दलित नौजवानों को नहीं बनने दिया उद्यमी

मायावती और अखिलेश एक बार फिर से उत्तर प्रदेश के दलितों को छलने के लिए तैयार खड़े हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव के तीन चरण पूरे हो चुके हैं चार बाकी हैं। इन दोनों मुस्लिमपरस्त नेताओं ने फिर से दलितों और मुसलमानों को अपने हक में वोट देने के लिए लुभावानी कसरतें करनी शुरू कर दी है। पर अब उनसे कुछ सवाल पूछने का मन कर रहा है। यह अहम सवाल उनसे उत्तर प्रदेश की जनता  तो जगह-जगह पूछ रही है। उनसे पूछा जा रहा है कि उन्होंने दलितों को आरक्षण का मोहताज क्यों बना दिया? उन्होंने दलित नवजवानों के स्वरोजगार और उद्यम के लिए क्या ठोस पहल की? और उनसे ये भी पूछा जा रहा है कि उन्होंने पसमांदा मुसलमानों को अंधेरे में क्यों रखा? कायदे से देखा जाए तो दलितों, पिछड़ों या समाज के किसी भी अन्य उपेक्षित वर्ग के हितों में बोलना कतई गलत नहीं है। उनके सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक उत्थान की मांग तो आज के समय की मांग है। लेकिन, मायावती की नजरें तो हमेशा दलितों के वोट बैंक पर ही रही है। उन्होंने कभी उनके जीवन के स्तर में बदलाव के संबंध में नहीं सोचा। आप जरा महाराष्ट्र के दलितों को भी देख लीजिये। महाराष्ट्र में हजारों दलित नौजवान सफल उद्यमी बन चुके हैं। वहां का दलित बदल रहा है। वे सिर्फ नौकरी से लेकर शिक्षण संस्थानों में अपने लिए आरक्षण की ख्वाहिश भर नहीं रखते। वे अब बिजनेस की दुनिया में भी अपनी सम्मानजनक जगह बना रहे हैं। वे उद्यमी बन रहे हैं। उन्हें सफलता भी मिल रही है। क्या मायावती ने उत्तर प्रदेश के दलित नवजवानों को आरक्षण जैसे सवालों से कुछ आगे बढ़कर भी सोचने के लिए प्रेरित किया कभी? कतई नहीं!

महाराष्ट्र के दलितों ने तो फिक्की, एसोचैम और सीआईआई की तर्ज पर अपना एक मजबूत संगठन भी बना लिया है। नाम रखा है ‘दलित इंडियन चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री’ (डिक्की)। इसका हेड ऑफिस पुणे में है। जैसे इसमें अधिकतर महाराष्ट्र से संबंध रखने वाले ही दलित उद्यमी ही हैं। महाराष्ट्र के दलित नौजवानों को डिक्की के जरिये पूंजी और तकनीकी सहायता तक मुहैया कराई जा रही है। कुछ समय पहले मुंबई में आयोजित ‘दलित एक्सपो’ में रतन टाटा और आदी गोदरेज जैसे बड़े उद्योगपति भी नजऱ आए थे। टाटा ने तो बहुत शालीन तरीके से कहा कि ‘वह दलित उद्यमियों को सलाम करते हैं।’ क्या मायावती ने उत्तर प्रदेश में भी कभी दलित उद्यमियों की भी फौज खड़ी की, ताकि वे भी  डिक्की की तर्ज पर अपना कोई संगठन बनाते, या कम से कम डिक्की की सदस्यता ग्रहण करने के काबिल ही बन सकें ।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी साल 2015 में (डिक्की) के सम्मेलन में शिरकत की थी। तब मोदी ने कहा कि ‘दलित उद्यमी न केवल अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं बल्कि, अपना और अपने जैसे अन्य लोगों तथा आगे आनेवाली पीढ़ी का भी मार्गदर्शन और विकास कर रहे हैं।’

वैसे, आर्थिक उदारीकरण का दौर दलितों के लिए और खास तौर से दलित उद्यमियों के लिए बेहद फायदेमंद रहा। दलितों में राजनीतिक, सामाजिक और बौद्धिक नेतृत्व तो मौजूद है। क्या उन्हें  व्यापारिक नेतृत्व के लिए तैयार नहीं किया जाना चाहिए था? अफसोस कि उत्तर प्रदेश में अपने को दलितों का प्रवक्ता बताने वाली मायावती इस मोर्चे पर भी पिछड़ गईं।

नदारद यूपी के दलित उद्यमी

कुछ समय पहले डिक्की ने दलित उद्यमियों के लिए एक बड़े ट्रेड फेयर, दलित एक्सपो, का आयोजन पुणे में किया। उस आयोजन को देखने के लिए देश भर से व्यवसायी एकत्रित हुए। इसमें महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा तथा दिल्ली के लगभग सौ दलित व्यवसायी शामिल हुए। पर दुर्भाग्य कि उत्तर प्रदेश से कोई नहीं था। यकीन मानिए अब पढ़े-लिखे महत्वाकांक्षी दलित नौजवान सरकार से नौकरी की भीख नहीं मांग रहे। वे अपने लिए भी अब बिजनेस की दुनिया में नई इबारत लिखने के ख्वाब देखने और उन्हें साकार करने में जुटे हुए हैं। बेशक, इस बदलाव को सेलिब्रेट किया जाना चाहिए। पर उत्तर प्रदेश के दलित को तो छला जा रहा है। एक बार फिर से उन्हें छलने की तैयारी में मायावती अखिलेश जुट गए हैं।

पसमांदा मुसलमानों का दर्द

मायावती लगातार दलितों के सम्मेलन उत्तर प्रदेश में करती रहती हैं। तो फिर उनकी बहुजन समाज पार्टी (बसपा), पसमांदा (पिछड़े) मुसलमानों के सम्मेलन करने से क्यों भागती है, क्या बसपा को पसमांदा मुसलमानों के वोटों की जरूरत नहीं है? उन्होंने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए भारी संख्या में लगभग एक चौथाई जिन मुसलमानों को टिकट दिया है उनमें पसमांदा मुसलमान 10 फीसदी भी नहीं हैं। जबकि, पसमांदा मुसलमानों की आबादी कुल उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की आबादी का 85 फीसदी है। क्या मुसलमानों में पिछड़ेपन और गरीबी के सवाल नहीं है? क्या गरीब मुसलमान दीन-हीन अवस्था में नहीं है?

मायावती और अखिलेश जरा यह तो बता दें कि उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए पसमांदा मुसलमानों के लिए कौन सी बड़ी योजना को लागू किया जिससे उनकी माली हालात में सुधार आ सके। उन्होंने तो पसमांदा मुसलमानों का जी-भरकर शोषण किया। उनकी सारी वोट थोकभाव से लेकर उन्हें दिखा दिया ठेंगा। कहने को तो इस्लाम में जाति व्यवस्था नहीं है। गरीब और दलित हिन्दुओं को सदियों से मुसलमान और ईसाई बनाया तो जाता है, कम से कम यही कहकर। लेकिन, मुसलमान या ईसाई बन जाने के बाद भी वे भेदभाव के चक्कर से उबर नहीं पाते। भारत के मुसलमानों में भी जाति का दीमक समाज को  अंदर तक खा रहा है। वास्तव में पसमांदा मुसलमानों की स्थिति दलित और पिछड़ी  जातियों के हिन्दुओं से कहीं बदतर है। बहुत से शहरों-कस्बों में तो इनके कब्रिस्तान तक अलग हैं। मायावती की ही तरह समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव और उनके सुपुत्र अखिलेश ने भी पसमांदा मुसलमानों को अपने राजनीतिक लाभ के लिए ही इस्तेमाल ही किया है अब तक। उत्तर प्रदेश में सवर्ण कहे जाने वाले मुसलमानों की आबादी 15 फीसदी से कम ही है, जबकि पसमांदा मुसलमानों की आबादी 85 फीसदी है। स्पष्ट है कि सवर्ण मुसलमानों को राजनीतिक क्षेत्र में जरुरत से बहुत अधिक प्रतिनिधित्व प्राप्त है। बावजूद इसके पसमांदा मुसलमानों को बसपा या सपा सरीखे राजनीति दल केवल वोट बैंक की तरह ही इस्तेमाल कर रहे हैं।

मायावती से इस बार चुनाव में उत्तर प्रदेश में मायावती जहां भी जा रही हैं, जनता यह पूछ रही है कि क्या यह सच नहीं है कि उन्होंने उत्तर प्रदेश के पांच साल (2007-12) तक मुख्यमंत्री रहते हुए अनुसूचित जातियों की पदोन्नति में आरक्षण की बहाली के लिए इलाहबाद हाई कोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट में मामले की उचित पैरवी क्यों नहीं की जिस के फलस्वरूप हजारों दलित अधिकारियों को पदावनत होकर बेइज्जत होना पड़ा। उन्हें इस सवाल का जवाब देने में पसीने छूट रहे हैं।

दरअसल मायावती का दलित प्रेम एक बड़ा धोखा है। उन्होंने साल 2001 में मुख्यमंत्री के रूप में उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति एवं जन जाति अत्याचार निवारण अधिनियम के लागू करने पर रोक लगा दी थी, जिससे दलितों का भारी नुकसान हुआ था। उनके इसी आदेश के कारण दलितों के उत्पीडऩ के मामले इस एक्ट के अंतर्गत दर्ज नहीं हो सके, जिसके फलस्वरूप न तो उन्हें कोई मुआवजा मिल सका और न ही दोषियों को उचित और त्वरित दंड ही दिया जा सका।

 नोटबंदी और करप्शन

और, मायावती से यह भी सवाल जरूर ही पूछा जाएगा कि जब सारा देश नोटबंदी का, आम जनता के कतारों में खड़ा होने के बावजूद, दिलो जान से समर्थन कर रहा था, तो वे नोटबंदी का इतना कड़ा विरोध क्यों कर रही थीं। उनका इतने अहम राष्ट्र हित के मसले का पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और राहुल गांधी के साथ विरोध दर्ज कराना गहरे निहितार्थ के संकेत देता है। मायावती का नोटबंदी की मुखालफत करने के दो ही कारण हो सकते हैं। पहला, उन्हें काले धन और नकली करेंसी से देश को होने वाले दुष्परिणामों को लेकर दूर-दूर तक कोई जानकारी ही नहीं थी। दूसरा, निजी हानि भी कारण हो सकती है। अब मायावती को लेकर तो दूसरा कारण ही ज्यादा समझ आता है। यदि उनके पास कालेधन का भंडार नहीं था, तो उनके चेहरे पर साफ झलकती बेचैनी का और क्या कारण हो सकता था? उन पर करप्शन के पहले से ही अनेकों आरोप हैं। उनकी अपनी पार्टी के नेता ही उन पर भ्रष्टाचार के खुल्लमखुला आरोप लगाते रहे हैं। मायावती जी जब कांशीराम जी के सम्पर्क में आई थीं, उस समय एक प्राथमिक विद्यालय में टीचर थीं। लेकिन, उनकी कुल सम्पत्ति 2012 के राज्यसभा चुनावों के लिए नामांकन भरते हुए 111.64 करोड़ रूपये हो गई थी। यह अब और बढ़ गई होगी। जैसे कि 2007 में उत्तर प्रदेश के विधान परिषद् का नामांकन भरते समय उन्होंने अपनी आय मात्र 51 करोड़ रूपये घोषित की थी। आखिरकार, ऐसा क्या चमत्कार हो गया कि उनकी आय पांच साल में दुगनी से भी ज्यादा हो गई? यह चमत्कार तो उन्हें देश के सारे दलितों को बता देने की जरूरत है। वैसे, सभी जानते हैं कि जिनकी आय का कोई निश्चित स्रोत नहीं है ऐसे जन प्रतिनिधियों की सम्पत्ति कितनी होती है और चुनाव आयोग के सामने ये शपथ लेकर घोषणा कितने की करते हैं यह एक बड़ा सवाल है। बहरहाल, अब उत्तर प्रदेश की जनता मायावती समेत उन सभी नेताओं से सवाल कर रही है जिन्होंने उन्हें धोखा दिया है, जाति और धर्म के नाम पर।

(लेखक राज्य सभा सांसद हैं)

R K Sinha

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *