सभ्यता और संस्कृति पर मंडरा रहे विदेशी हस्तक्षेप और बाज़ार के हस्तक्षेप के खतरों पर एक सफल कार्यक्रम का आयोजन नई दिल्ली में मैथिली भाषा और संस्कृति के लिए संघर्षरत गैरसरकारी संगठन दीपक फाउंडेशन के द्वारा दिनांक 19 फरवरी 2017 को नई दिल्ली के कॉन्स्टीट्युशनल क्लब के मावलंकर हॉल में किया गया। इस कार्यक्रम में डायलॉग इंडिया और ओपन कोर्ट सहित कई अन्य संस्थान भी सम्मिलित थे। कार्यक्रम का शीर्षक था सभ्यता, संस्कृति एवं संरक्षण। कार्यक्रम की शुरुआत कार्यक्रम के शीर्षक के अनुसार ही हुई। कार्यक्रम में मुख्य अतिथियों के आगमन तक दर्शकों के सम्मुख नृत्यांगना अनु सिन्हा के नृत्य समूह ने गणेश वन्दना एवं शिव वंदना प्रस्तुत की। इस वंदना ने कार्यक्रम में जहां एक तरफ दर्शकों को मुख्य अतिथि के आने तक बांधे रखा वहीं उन्होंने अपनी संस्कृति के सबसे प्राचीन रूप के भी दर्शन कराए। जब नन्हे नन्हे कदम इस तरह सधे और आकर्षक क़दमों से नृत्य के मार्ग पर दर्शकों को यात्रा कराते हैं तो कहीं से भी ऐसा नहीं लगता कि सभ्यता या संस्कृति को कोई भी खतरा है या किसी भी संरक्षण की आवश्यकता है। इस नृत्य समूह की विविध प्रस्तुतियों ने नृत्य के माध्यम से नीलकंठ के विविध अवतारों को जीवित कर दिया। इन बालिकाओं ने संस्कृति की आकर्षक छटा बिखेर कर पूरे परिवेश को मंत्रमुग्ध कर दिया।
कार्यक्रम का संचालन करते समय दूरदर्शन के ओपन कोर्ट कार्यक्रम के संचालक श्री नवनीत चतुर्वेदी ने सभ्यता और संस्कृति पर प्रकाश डाला। उन्होंने सभ्यता को रहन सहन तक और संस्कृति को सदियों से चले आ रहे संस्कार के रूप में बताते हुए कहा कि सभ्यता तो हमारी जीवन शैली के द्वारा परिवर्तित होती है, मगर संस्कृति को जीवित रखना आवश्यक है। सभ्यता अर्थात अच्छा खानपान, पहनावा है, तो वहीं संस्कृति अपने लोक और भाषा से जुड़े रहने की इच्छा। नवनीत चतुर्वेदी ने अपनी बात के तर्क में न केवल गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर को उद्घृत किया बल्कि उसके साथ ही भारत के तीनों रूपों जैसे भारत, इंडिया और हिन्दुस्तान के बीच के अंतर को स्पष्ट किया।
कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए दीपक फाउंडेशन के अध्यक्ष श्री दीपक झा ने सभी दर्शकों का स्वागत किया और सभागार में उपस्थित सभी आगंतुकों का आभार व्यक्त किया। उन्होंने भी नवनीत चतुर्वेदी की ही बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि आज भारत में अलग संस्कृति है और इंडिया में अलग। उन्होंने कहा कि उन जैसे कई लोग रोजी रोटी की तलाश में महानगर आए और सफल हुए, प्रगति हुई और सांस्कृतिक मूल्यों से जैसे विमुख होने लगे। यह विमुखता नई पीढ़ी में भी आने लगी। पाश्चात्य संस्कृति की तरफ नई पीढ़ी जिस तरह से आकर्षित हो रही है, वह अपने आप में एक चिंता का विषय है। दीपक झा ने कहा कि हमें समझना होगा कि हमें अपने मूल्यों और संस्कृति की तरफ वापस आना होगा। सभ्यता का संरक्षण करना होगा। हमें यह देखना होगा कि जो भी हमें अपने पूर्वजों से मिला है वह क्या हम अपने बच्चों में हस्तांतरित कर पा रहे हैं। दीपक झा शायद इस हस्तांतरण प्रक्रिया से निराश दिखे और यही कारण था कि उनका गैर सरकारी संगठन मैथिली भाषा और समाज के लिए कार्य कर रहा है।
कार्यक्रम का विधिवत आरम्भ सभी गणमान्य अतिथियों के आगमन के साथ हुआ। इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि भाजपा से राज्य सभा सांसद श्री प्रभात झा, कांग्रेस से राज्य सभा सांसद श्री राशिद अल्वी, आध्यात्मिक गुरु पवन सिन्हा, अभिनवकश्यप, अभिनेता नरेंद्र झा, रेखा अग्रवाल, नृत्यांगना अनु सिन्हा, जीएल बजाज शिक्षण संस्थान की प्रमुख सुश्री उर्वशी कक्कड़, डॉ. कमल टावरी थे। सभी माननीय अतिथियों ने कार्यक्रम का विधिवत आरम्भ दीपप्रज्ज्वलित करने के द्वारा किया। सभी अतिथियों का स्वागत शाल एवं स्मृति चिन्ह देकर किया गया।
दीप प्रज्ज्वलन के उपरान्त कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए देवानंद झा ने मैथिल भाषा में भजन गायन किया। इस भजन को सभी दर्शकों ने मैथिल संस्कृति के अनुसार अपनी सीट पर खड़े होकर सम्मान दिया।
कार्यक्रम में बिहार के अनूठी प्रतिभाओं का सम्मान शाल एवं स्मृतिचिन्ह देकर किया गया। सम्मानित होने वाले मुख्य व्यक्तियों में थे विपिन कुमार, कन्हैया कुमार, भगवान जी मिश्रा, दिवाकर झा, रामप्रीति मंडल, आकाश गौरव, सोनू झा, संजय कुमार कर्ण, संजय चौधरी, राजीव मिश्र, रोहित, दिनेश गुप्त, शैलेन्द्र मिश्र। कार्यक्रम में दो पत्रिकाओं का भी विमोचन किया गया,चौथा तहलका एवं मिथिला मिरर।
कार्यक्रम के अगले चरण में चर्चा का दौर था। चर्चा में प्रभात झा, राशिद अल्वी, आध्यात्मिक गुरु पवन सिन्हा, और अभिनव कश्यप ने भाग लिया। चर्चा का विषय था सभ्यता एवं संस्कृति में सरकार की भूमिका। प्रभात झा के विचारों से चर्चा की शुरुआत हुई। प्रभात झा का स्पष्ट मानना था कि सभ्यता एवं संस्कृति अलग है और सरकार अलग। जहां सरकार का कार्य है संवैधानिक दायरे में रहते हुए क़ानून व्यवस्था को लागू करना तो वहीं संस्कृति जनमानस से जुड़ी होती है। संस्कृति को चोट पहुंचाने का कार्य पहले तो करना नहीं चाहिए और यदि ऐसा कोई करता है तो जनता उसका उत्तर उसे देती है। सरकार की नीयत साफ और स्पष्ट होनी चाहिए। नवनीत चतुर्वेदी ने संजय लीला भंसाली के विषय में प्रश्न किया और उसके चलते राजस्थान सरकार को कठघरे में खड़े करने की कोशिश की तो प्रभात झा ने विरोध करते हुए कहा कि पहले तो ऐसे प्रकरणों से हमारी संस्कृति नष्ट नहीं हो सकती है। और जहां तक सरकार की बात है तो सरकार तो अपने दायरे में ही कार्य करेगी और करणी सेना और संजय लीला भंसाली के बीच समझौता हो गया है तो ऐसे में उस मुद्दे को क्या आगे बढ़ाना।
राशिद अल्वी ने भी प्रभात झा का समर्थन करते हुए कहा कि देश की तहजीब और राजनीति दोनों में अंतर है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति इतनी कमज़ोर नहीं कि संजय लीला भंसाली जैसों से खतरे में आ जाए। हां, मगर विरोध भी हिंसक नहीं होना चाहिए। सरकार कानून के हिसाब से चलती है, जबकि धर्म भावनाओं के अनुसार। इतिहास अलग है, संस्कृति अलग है। इतिहास को बदला नहीं जा सकता है, जो इतिहास है वह है। मगर हमारी फिल्म निर्माताओं की कल्पनाशीलता के कारण जो चरित्र इतिहास में नहीं भी थे वे इतिहास का हिस्सा बन गए। तो ऐसे में यह स्पष्ट होना चाहिए कि साइंस फिक्शन बनानी है या कोई अन्य।
इस विषय में अभिनव कश्यप का भी यही मानना था कि हालांकि वे संजय लीला भंसाली का समर्थन नहीं करते हैं, मगर वे उनके विरोध के इस तरीके के भी समर्थक नहीं हैं।
पवन सिन्हा ने इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि सभ्यता और संस्कृति दो पक्ष हैं। हमारे यहां इतिहास को हमेशा अनदेखा किया जाता है, और हम तथ्यों को इग्नोर नहीं कर सकते हैं। पवन सिन्हा ने बहुत ही स्पष्ट रूप से यह कहा कि भारत में सभ्यता और संस्कृति को लेकर कोई आधिकारिक परिभाषा नहीं है। आधे से अधिक लोगों को यही नहीं पता होगा कि आखिर सभ्यता और संस्कृति है क्या? संस्कृति के विविध रूपों से परिचय ही नहीं करना चाहते हैं हम भारतीय। भारत के लोग सच्चाई को नहीं अपनाना चाहते हैं। पवन सिन्हा ने धर्म को राजनीति से अलग करते हुए कहा कि क़ानून और व्यवस्था को छोड़कर धर्म के किसी भी क्षेत्र में क़ानून का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।
हालांकि पवन सिन्हा ने यह कहा कि क़ानून और व्यवस्था को छोड़कर धर्म के किसी भी क्षेत्र में सरकार का हस्तक्षेप न हो, मगर ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि कभी कभी कुछ परम्पराएं कब कुरीतियों में बदल जाती हैं और वे कब शोषण का एक जरिया बन जाती हैं, यह समाज को पता नहीं चल पाता।
हालांकि नवनीत चतुर्वेदी कहीं सवालों के चयन में चूक गए और वे अपना पत्रकार धर्म निभाने के लिए चर्चा में राजनीति ले ही आए। जब उन्होंने राशिद अल्वी से पूछा कि आखिर फिल्मी कलाकार भाजपा में क्यों जाते हैं? उन्होंने यह सवाल हाल ही में भाजपा में शामिल रवि किशन के सन्दर्भ के साथ पूछा था।
सवालों के भटकने के कारण दर्शक निराश भी हुए, मगर उनकी निराशा को वक्ताओं ने अपनी हाजिऱ जवाबी से गायब कर दिया। शायद राजनीति में सक्रियता का यही लाभ होता है कि आपको पता होता है कि जनता कब ऊब रही है, कब उसे नए विचारों की आवश्यकता है। राशिद अल्वी की मधुर आवाज़ ने जनता के मन के अनुसार ही उत्तर दिया। उन्होंने कहा कि जो भाजपा में जा रहे हैं, यह सवाल उनसे होना चाहिए। उन्होंने ‘हम सब’ का विस्तार से परिचय देते हुए कहा
ह से हिन्दू
म से मुस्लिम
स से सिख
ब से बाकी सब
तो सभ्यता में हम सब शामिल हैं।
इस सवाल पर कि भाजपा ने तो किसी मुस्लिम को उत्तर प्रदेश के चुनावों में टिकट नहीं दिया, राशिद अल्वी का कहना था कि इस सवाल के लिए यह मंच नहीं है। अगर वे चाहें तो वे जवाब दे सकते हैं, मगर वे मंच की गरिमा बनाए रखने के लिए चुप ही रहना चाहेंगे!
प्रभात झा ने भी इस मंच से राजनीति न करने की अपील की। मगर शायद संचालक को विवादास्पद मुद्दे ही पसंद होते हैं।
चर्चा में आगे पवन सिन्हा ने कहा कि भारत में फिल्में कल्पना और इतिहास का मिश्रण होती हैं, भारत में एक स्पष्ट लाइन होनी चाहिए कि आखिर हम क्या बना रहे हैं। क्या हम साइंस फिक्शन की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं, हम ऐतिहासिक फि़ल्म बना रहे हैं, या कल्पना! जिससे बाद में परेशानी न हो।
राशिद अल्वी ने अनारकली का उदाहरण देते हुए कहा कि इतिहास में अनारकली नामक कोई चरित्र ही नहीं और अनारकली पर कितनी यादगार फि़ल्म बन गयी। इसी प्रकार जोधा नाम का भी कोई चरित्र इतिहास में नहीं, जबकि फिल्मों में जोधा को ही एक ऐतिहासिक चरित्र के रूप में स्थापित कर दिया।
चर्चा में अभिनव कश्यप ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि पहले फिल्मों का कार्य होता था मनोरंजन करना और मीडिया का यथार्थ खोजना जबकि अब एकदम उलटा हो गया है, इस समय मीडिया मनोरंजन के लिए कार्य कर रहा है और फिल्मों से यथार्थ की उम्मीद की जाती है। संस्कृति और सभ्यता दोनों ही पश्चिम में ढल रहे हैं। अब लोग यह नहीं देखते कि उनके पास क्या है, अब वे ये देखते हैं कि उनके पास क्या नहीं है। भोगवाद बढ़ रहा है, पहले लोग इंसानों से प्रेम करते थे और वस्तुओं का प्रयोग, जबकि अब इंसानों का प्रयोग होता है और वस्तुओं से प्रेम। तो यह मूल्यों का टकराव है, यह बहुत ही सहज है। हम समाज के अनुसार ही फिल्में बनाते हैं। लोगों के पास जैसे जैसे पैसा आता गया वैसे वैसे वे मूल्यों से विमुख हुए और भोगवादी होते गए। ऐसे में फिल्मों का क्या दोष!
कश्यप ने विमुद्रीकरण की प्रशंसा करते हुए कहा कि इस कदम से जैसे ही नकद की कमी हुई, परिवार और दोस्तों में निकटता आई। और वे सभी मूल्य पुनर्जीवित हुए जो इस धन संस्कृति के कारण गुम हो गए थे।
हालांकि राजनीति उन्होंने भी खेली और पहले ही स्पष्ट कर दिया कि वे न तो भाजपा का प्रचार कर रहे हैं और न ही कांग्रेस की आलोचना।
उन्होंने कहा जैसे जैसे पैसे का पूजन कम होता जाएगा, वैसे वैसे सभ्यता और संस्कृति के संरक्षण की आवश्यकता नहीं होगी। चर्चा में हालांकि कई ऐसे सवाल भी पूछे गए जो विषयांतर कर रहे थे जैसे उन्नीस सौ चौरासी के दंगों पर राशिद अल्वी से सवाल या विमुद्रीकरण की कथित विफलता पर सवाल। हालांकि सभ्यता एवं संस्कृति और इसमें सरकार की भूमिका के दायरे में इनमें से कोई भी प्रश्न नहीं था, मगर शायद अपना पत्रकार धर्म निभाने के चक्कर ने संचालक महोदय ने आतुरता दिखला दी। जिसे न तो दर्शकों ने ही और न ही अतिथियों ने स्वीकार किया। प्रभात झा ने संचालक से स्पष्ट और कड़े शब्दों में मंच से राजनीति को अलग करने की बात करते हुए मैथिल संस्कृति का हवाला दिया और कहा कि कार्यक्रम में जिन्हें हमने बहुत मान से बुलाया है वे हमारे पवित्र देव हैं, और देव का अपमान करना हमारी संस्कृति नहीं है। सभ्यता और संस्कृति के संरक्षण के बीच सरकारी प्रयासों में राजनीति को न लाएं।
इस चर्चा का अंत इसी आम सहमति के साथ हुआ कि राजनीति अलग है और सभ्यता और संस्कृति को बचाने के प्रयास अलग, तो दोनों को एक दूसरे से पृथक रखा जाए। दर्शकों का भी मत प्रभात झा के साथ था।
राशिद अल्वी ने कहा कि हालांकि न तो वे प्रभात झा की विचारधारा का सम्मान कर सकते हैं और न ही प्रभात झा उनकी विचारधारा का। मगर यह राजनीतिक विरोध अपनी जगह और व्यक्तिगत आदर अपनी जगह।
ऐसे कार्यक्रम में संचालक के लिए मंच का संचालन करना किसी भी व्यक्ति के लिए एक दोधारी तलवार पर चलने के समान होता है। संचालक को न केवल रोचकता बनाए रखना होता है बल्कि साथ ही उसे सवाल ऐसे पूछने चाहिए जो अतिथि को अपमानजनक भी न लगें और अतिथि उनका रोचक जवाब देने के लिए बाध्य हो जाएं।
चर्चा के इस सत्र के बाद दर्शक मनोरंजन की तलाश में थे, शायद बौद्धिक चर्चा बहुत हो गयी थी, और अब उन्हें अपने मस्तिष्क को अगले सत्र में होने वाली गर्मागर्म बहस के लिए ताज़ा करना था।
सांस्कृतिक कार्यक्रम के दूसरे चरण में अनु सिन्हा के नृत्य समूह ने रंगारंग प्रस्तुति दी और दर्शकों के मस्तिष्क की बौद्धिक बोझिलता को कम किया। दर्शक एक बार फिर से गीत और संगीत की धारा में बह निकले। नृत्य प्रस्तुत करने वाले कलाकारों रितिका धर, आनन्द कुमार, सुशांत बहरा, श्रिशठा भट्टाचार्य, दीपिका मुरारी, दीक्षा मुरारी, हिमांशु गौतम आदि थे। इसके अतिरिक्त महामाया ग्रुप ऑफ फ्यूजन डांस के कलाकारों ने भी फ्यूजन के माध्यम से परिवेश को चमकदार बना दिया।
मनोरंजन के इस दौर के बाद मुख्य अतिथि प्रभात झा ने सभी कलाकारों को स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया। अब समय था गर्मागर्म बहस के एक और सत्र का। हालांकि दूसरे सत्र में दो चर्चाएं निर्धारित थीं, मगर समयाभाव के कारण दो चर्चाओं को एक में ही मिला दिया गया। इस सत्र में नारीवाद और छद्म नारीवाद और सभ्यता एवं बाज़ार का शिक्षा में प्रभाव पर चर्चा हुई। इस चर्चा में बरखा त्रेहान, रेखा अग्रवाल अधिवक्ता उच्चतम न्यायालय, नृत्यांगना अनु सिन्हा, जीएल बजाज शिक्षण संस्थान की प्रमुख सुश्री उर्वशी मक्कड़ एवं उच्चतम न्यायालय के अधिवक्ता ईशकरण टंडन ने भाग लिया। चर्चा के मूल में हालांकि छद्म नारीवाद और उसके कारण प्रभावित होने वाली सभ्यता रही, मगर संचालक नवनीत चतुर्वेदी ने पहला सवाल महिला आरक्षण की आवश्यकता पर पूछा। उन्होंने मंच पर बैठे हुए पैनल से सवाल किया कि चूंकि स्त्री आधी आबादी है, और जब उसे कानूनन हर अधिकार प्राप्त हैं तो उसे मेट्रो में आरक्षण क्यों चाहिए। यहां भी ऐसा लगा कि शायद संचालक ने प्रश्न को सही प्रारूप में प्रस्तुत न करते हुए केवल अपने पत्रकार धर्म का पालन किया। क्योंकि नारीवाद का कोई भी संबंध इस प्रश्न से नहीं था। जब आरक्षण की बात की तो उच्चतम न्यायालय में अधिवक्ता रेखा अग्रवाल ने उत्तर दिया कि स्त्री को आरक्षण नहीं बल्कि समान अवसर चाहिए। स्त्री अपने आप में सक्षम है और स्त्री आज हर क्षेत्र में आगे है। मगर यह भी बात सच है कि पुरुष के मुकाबले उसके सामने अवसर कम हैं। हालांकि स्त्री और पुरुष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और उन्हें किसी भी तरह से एक दूसरे के विरोध में खड़ा नहीं किया जा सकता है। मगर स्त्री को अपनी एक पहचान की आवश्यकता है। स्त्री एक स्वतंत्र इकाई है और स्त्री को महज़ बेटी, माँ, बहन आदि के रूप में ही देखते रहेंगे तो हम स्त्रियों के साथ न्याय नहीं कर पाएंगे।
सुश्री अग्रवाल ने इस बात पर जोर दिया कि संविधान में स्पष्ट रूप से दिए गए अधिकारों के बावजूद स्त्री को अधिकार नहीं मिले हैं और स्त्री अपने अधिकारों के प्रति संघर्षरत है। स्त्री के इस संघर्ष का ही परिणाम है कि वे मौक़ा मिलने पर अपनी कामयाबी के झंडे गाढ़ देती हैं। सारा सवाल उन्हें मौक़ा मिलने का है। स्त्री को शिक्षा हासिल करनी चाहिए और स्त्री सशक्तिकरण के लिए आवश्यक है कि वे आर्थिक रूप से मजबूत हों। साथ ही उन्होंने यह प्रश्न भी किया कि आखिर सभ्यता के निर्वहन की पूरी जिम्मेदारी केवल स्त्री के ही कन्धों पर क्यों हो?
चर्चा में आगे बोलते हुए उच्चतम न्यायालय में अधिवक्ता श्री ईशकरण भंडारी ने अपने कुछ भिन्न मत रखते हुए कहा कि स्त्री आज हर क्षेत्र में टॉप कर रही हैं, स्त्री की सफलता का आकाश बढ़ रहा है, शिक्षा में देखें तो हर साल टॉप टेन में केवल और केवल स्त्रियां ही रहती हैं। लड़कियां आज ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था में बहुत आगे हैं। सवाल उन्हें समान अवसर मिलने का है, जो समय के साथ उन्हें मिलेंगे, मगर आरक्षण की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने राजनीति में ममता बनर्जी, मायावती और जयललिता का उदाहरण देते हुए कहा कि ये वे स्त्रियां हैं जिन्होंने राजनीति में अपना मुकाम अपने आप बनाया है और आज उनकी पार्टी में उनके बिना एक पत्ता नहीं हिलता।
नवनीत चतुर्वेदी के द्वारा प्रियंका गांधी का सवाल उठाए जाने पर उन्होंने इसे कांग्रेस का अंदरूनी मामले करार दिया।
नारीवाद और छद्म नारीवाद पर बोलते हुए बरखा त्रेहान ने अपनी ख्याति अनुसार ही प्रश्नों का उत्तर दिया। उन्होंने कहा कि नारीवाद के नाम पर केवल धोखा हो रहा है और स्त्रियां अधिकतर पुरुषों को झूठे केस में फंसा रही हैं। ये झूठा नारीवाद केवल देश को बांट रहा है, परिवार तोड़ रहा है। लड़कियों पर उन्होंने गंभीर आरोप लगाते हुए लिव इन रिलेशन में रहने और उसके बाद रेप का आरोप लगाने के गंभीर आरोप लगाए।
सामाजिक कार्यकर्ता बरखा त्रेहान जितना अधिक स्त्रियों के विरोध में बोलती जा रही थी, उतना ही अधिक सभागार में तालियां बजती जा रही थीं। समझ नहीं आ रहा था कि पुरुष वाकई में उतने ही त्रस्त हैं या महज़ उन्हें स्त्री विरोध का मौक़ा चाहिए था। किसी भी सभ्य समाज में इस प्रकार का आचरण काफी गंभीर प्रश्न उठाता है और इस तरह के एकतरफा वाद पर प्रश्न उठने चाहिए थे, मगर यह दुर्भाग्य रहा कि दर्शकों में से किसी ने भी इस एकतरफा संवाद का विरोध नहीं किया। संचालक ने चर्चा में हस्तक्षेप न करते हुए इसमें और आग में घी डालने का अपना कार्य किया।
जी एल बजाज की संचालक सुश्री उर्वशी मक्कड़ का उत्तर सर्वाधिक संवेदनशील रहा, जब उन्होंने बहुत ही नपे तुले शब्दों में स्त्री की आरंभिक सफलता की बात की। उन्होंने कहा कि आज उनके संस्थान में लड़कियां लड़कों से बेहतर कर रही हैं। लड़कियां कक्षा दस और बारह में बहुत ही अच्छे अंक लाती हैं, वे संस्थान में दी गयी हर प्रकार की जिम्मेदारी को बहुत ही जिम्मेदारी से निभाती हैं। अगर उन्हें भी समान अवसर मिलें तो वे उपलब्धियों की नई इबारत लिख सकती हैं।
रेखा अग्रवाल के अनुसार क़ानून का दुरूपयोग बहुत हो रहा है। ग्रामीण और शहरी सेक्टर में स्थिति अलग है। जो क़ानून स्त्री की सुरक्षा के लिए बनाए गए थे, स्त्रियां अब उनका जमकर दुरूपयोग कर रही हैं। वो जमाने गए जब स्त्रियों के साथ दहेज़ के हादसे होते थे, हमेशा कोई बहू ही गैस या स्टोव का शिकार होती थी। अब समय बदल रहा है और पुरुष वर्ग प्रताडि़त हो रहा है।
सुश्री अग्रवाल की ही बात को आगे बढ़ाते हुए ईशकरण भंडारी ने कहा कि वे स्त्री विरोधी नहीं हैं, क्योंकि निर्भया मामले में सबसे दुर्दांत बलात्कारी को किशोर ठहराने पर उन्होंने ही विरोध किया था। मगर यह भी बात सच है कि आजकल स्त्रियां क़ानून का दुरूपयोग कर रही हैं। बलात्कार की परिभाषा इतनी बढ़ा दी है कि पुरुषों के लिए जीवन बहुत ही दूभर हो गया है क्या पुरुषों के लिए कोई संरक्षण का नियम नहीं होना चाहिए?
इसी कड़ी में बरखा त्रेहान ने पुरुष अधिकारों की तमाम वकालतें कीं। शायद मंच पर नारीवाद का विरोध होते होते कब नारी का विरोध होने लगा यह मंचासीन अतिथियों को भी समझ नहीं आ पाया। सभ्यता और नारीवाद को बहुत ही खूबसूरत मोड़ दिया जा सकता था, मगर छद्म नारीवाद को गलत ठहराने के चलते कब मंच स्त्री विरोध का मंच बन गया, इस के विषय में शायद संचालक भी अनजान रहे।
रेखा अग्रवाल ने कहा कि समय आ गया है कि स्त्रियों की रक्षा में बनाए हुए कानूनों में संशोधन किया जाए और उन्हें पुरुष विरोधी न बनाया जाए।
इसी क्रम में ईशकरण भंडारी ने कहा कि क़ानून विक्टिम के जब हथियार बन गए हैं। उन्होंने लिव इन का उदाहरण दिया और कहा कि आज कल लड़कियों ने नया फैशन बना लिया है कि वे कई बरसों तक तो अपने मनचाहे पुरुष के साथ रहती हैं और जब मन ऊब जाता है तो वे तुरंत ही पुलिस के पास पहुंच जाती हैं। उन्होंने कहा कि उनके पास ऐसे कई मामले आए हैं जिसमें लड़कियों ने लड़के और उसके पूरे परिवार को बर्बाद कर दिया।
इस बहस में जब स्त्री को कोसा जा रहा था, उस पर भारी भरकम आरोप लगाए जा रहे थे, उस समय सभा में उपस्थित लोगों की तालियों की आवाजें पुरुष वर्ग के उस खोखलेपन को दिखा रही थीं, जो वे सभ्यता और संस्कृति के आवरण में दबाए थे।
काश उस पुरुष वर्ग से कोई खड़ा होकर यह कहता कि आप आंकड़े दिखाइये, जितने भी लोग वहां पर स्त्रियों को क़ानून तोडऩे वाला साबित कर रहे थे, उनमें से किसी ने भी कोई आंकड़े प्रस्तुत नहीं किये। यदि ये सभी आरोप आंकड़ों के साथ प्रस्तुत किए जाते तो शायद बात कुछ अलग होती। हवा में तीर मारकर स्त्री को सभ्यता का विरोधी या यूं कहें संस्कृति को स्त्री विरोधी ठहराना भी कहीं की संस्कृति नहीं थी। इस चर्चा के बाद दर्शकों से सवाल जवाब का दौर भी हुआ, जिसमें कई लोगों ने वक्ताओं से अपने प्रश्न किए। मंच पर स्त्री विरोधी होने का भी आरोप लगा।
इस आरोप का समर्थन करते हुए सुश्री उर्वशी मक्कड़ ने कहा कि जब यह प्रश्न उठा कि लड़कियों को मेट्रो में क्यों अपना एक डिब्बा चाहिए तो स्त्री विरोधी स्वरों पर यहाँ मौजूद सभागार में बजने वाली तालियाँ इस बात का पर्याप्त उत्तर है कि आखिर क्यों लड़कियों को अपना अलग डिब्बा चाहिए।
कारण कोई भी हो, मगर जिस देश में स्त्री को देवी माना जाता है, उस देश में स्त्री विरोध पर इतना हर्ष कोई भी शुभ संकेत नहीं है। चर्चा का अंत बहुत ही गर्मागर्म रहा। इस चर्चा से जो एक तथ्य गायब रहा वह था इसका मूल विषय। चर्चा काफी ज्वलंत रही और शायद इसने उन पहलुओं को छूने की कोशिश की जहां तक शायद समाजशास्त्री जाने की हिम्मत नहीं कर पाते। कोई न कोई सामाजिक टैबू उन्हें रोकते हैं। यह चर्चा वाद से दूर रही और उसने एक नए ही वाद को स्थापित करने की कोशिश की, वह था पीड़ावाद। यह पीड़ा ही है जिसने पुरुष और नारी को पीडि़त में बदल दिया है। और आज समय है इस पीड़ा के वाद को स्थापित करने का, इस पीड़ा के वाद को नया रूप देने का। और हमारे सामने यह चुनौती है कि किस तरह से वास्तविक पीडि़त को पहचाना जा सके, वास्तविक पीडि़त की पहचान की जा सके। क्योंकि यह भी एक कड़वा सच ही है कि जितना अधिक यह प्रचारित होगा कि स्त्रियां झूठे मुकदमे कर रही हैं, वास्तविक पीडि़त न्यायालय में न्याय नहीं पा पाएंगे। आज जरूरत है इस छद्म आवरण से बाहर निकलने की।
सभ्यता संस्कृति और संरक्षण कार्यक्रम में चर्चा के इस दौर के बाद समय था जलपान और सांस्कृतिक कार्यक्रम का।
कहते हैं हर आने वाले दिन में एक नयी मंजिल हमारे सामने होती है, एक नया इश्क हमारे सामने होता है। हमारे सामने प्रेम होता है। इसी प्रेम में हर सभ्यता और संस्कृति का समावेश हो जाना चाहिए। हर संस्कृति हमें आपस में एक होना सिखाती है, और उस पर हमारा देश तो संस्कृति की अनूठी मिसाल है। हमारे देश में एक तरफ कबीर के राम हैं तो एक तरफ तुलसी के राम। हमारे देश में कबीर राम राम रचते हुए पंडितों पर प्रहार कर सकते हैं। ऐसी अनूठी सभ्यता और संस्कृति को सहेज कर रखने वाला देश कैसे संस्कृति विहीन हो सकता है। हर दौर की संस्कृति अलग होती है, मगर दिल में वह इश्क बसाए रखती है। हमारी ज़मीन है ही ऐसी कि जहां से अलग होने की कल्पना से लोग कांप जाते हैं। इसी देश की ज़मीन के लिए ही बहादुर शाह जफ़र ने लिखा था
‘कितना है बदनसीब जफर दफ्न के लिए, दो गज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में’
हमारा देश महबूब है, हमारा देश कृष्ण के रूप में प्रेम का सन्देश देता है, यहां राम की मर्यादा है तो काली की शक्ति। सभ्यता के तमाम रूप इस कार्यक्रम में सहेजे गए और यहां आए दर्शकों ने हर छटा को अपनी आंखों में बसा लिया।
इस सफल कार्यक्रम का संयोजन अनुज अग्रवाल, संचालन नवनीत चतुर्वेदी और अध्यक्षता दीपक झा ने की। कार्यक्रम में अन्य प्रमुख व्यक्तियों में श्री संजीव सिन्हा, माखन लाल चतुर्वेदी से सौरभ मालवीय एवं समाजसेवी तथा भाजपा से जुड़े अमरनाथ झा जी भी उपस्थित थे। इस कार्यक्रम का सीधा प्रसारण साधना टीवी पर किया गया एवं चर्चा को दूरदर्शन के ओपन कोर्ट में टेलीकास्ट किया जाएगा।
सोनाली मिश्रा