मैथिली रामायण में कालरूपी तापस का श्रीराम के पास आना तथा लक्ष्मण का स्वर्ग जाना
श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
मैथिली रामायण में कालरूपी तापस का श्रीराम के पास आना तथा लक्ष्मण का स्वर्ग जाना
भारत के अतीत में सम्पूर्ण उत्तर भारत में लगभग एक ही भाषा थी। आज भी वैसा ही है। समय के चक्र के साथ धीरे-धीरे वैभाषिक अन्तर में वृद्धि हो गई और आज से लगभग एक हजार वर्ष पहले आधुनिक स्थानीय भाषाओं का उद्भव एवं विकास हुआ। बिहार राज्य के पूर्वोत्तर कोने से गंगा, गण्डक और कोसी नदियों से घिरे विशाल क्षेत्र की भाषा मैथिली है। इस भाषा का साहित्य लगभग बारहवीं सदी से उपलब्ध है। विद्यापति प्रभूति अनेक विद्वानों के साहित्य से समृद्ध यह भाषा हिन्दी से प्राय: मिलती जुलती है। इस भाषा में कवि चन्द्रा झा ने मैथिली रामायण की रचना की है। उनका रचनाकाल १८८० के आसपास और प्रकाशनकाल १८९०-९१ है। इनकी रामायण अध्यात्मरामायण एवं श्रीरामचरितमानस पर आधारित है। कहीं-कहीं इनके कथा प्रसंग अलग भी हैं। इन्होंने मैथिली रामायण के मंगलाचरण और प्रस्तावना में लिखा है-
भवति भवतु लोके सत्कथाया: प्रचारो
जनकनृपति – पुत्री मातृभाषाञ्चिताया:।।
मैथिलीरामायण चन्द्रा झा बालकाण्ड-अध्याय। -१३
राजा जनक की बेटी की मातृभाषा अर्थात मैथिली में लिखी गई इस सत्कथा मैथिली भाषा रामायण का लोगों में प्रचार हों। इस लक्ष्य को आधार बनाकर ही उन्होंने अपनी लोकप्रिय रचना की है। चन्द्रा झा का जन्म दरभंगा जिले के चिंडारूछ गाँव में १८३१ ई. में हुआ था तथा इनका देहावसान १९०६ ई. में माना गया है। इन्होंने दरभंगा नरेश के दरबार में रहकर ही साहित्य साधना की है। इनके चार पुत्र थे। अपने चारों पुत्रों की मृत्यु के दु:ख से दु:खी होकर वे संसार से विरक्त हो गए। वे एक संत बन गए तथा श्रीराम की भक्ति में लीन हो गए। मिथिला के पुरातत्व की भू-खोज के लिए इनके योगदान को देखते हुए इन्हें मैथिली साहित्य और इतिहास के आधुनिककाल का प्रवर्तक या पुरोधा कहा गया है।
एक समय की बात है कि जब श्रीराम अयोध्या के राजा थे। काल एक तापस का रूप धारण कर अयोध्यापुरी पहुँचा। लक्ष्मण उस समय श्रीराम के द्वारपाल थे। तापस मुनि ने लक्ष्मण से पूछा कि राजा श्रीराम इस समय कहाँ है? उन्हें जाकर मेरे आगमन की सूचना दीजिए और उनसे अनुमति प्राप्त कर मुझे वहाँ उनसे भेंट करने ले जाइए। इतना सुनकर लक्ष्मण वहाँ गए जहाँ देवों के देव श्रीराम विराजमान थे। लक्ष्मण ने श्रीराम से कहा- आपके दर्शन के लिए एक तापस द्वार पर प्रतीक्षा कर रहे हैं। आपकी क्या आज्ञा है? तब श्रीराम ने कहा वत्स तुम शीघ्र वहाँ जाकर उन तापस को आदरपूर्वक साथ ले आओ। श्रीराम ने पूरी विधि-विधानपूर्वक उनकी बड़ी आवभगत और पूजा की। तत्पश्चात् उनसे सहज भाव से पूछा- आप यहाँ किस कार्य से पधारे हैं यदि यह मैं जानूँ तो उसे पूरा करने का प्रयास करूँगा। मुनि ने कहा-
ओ कहलनि शुनु रधूवर भूप। कानहिं कहब एकान्ते चूप।
शुनथि न जन पुन देख न नयन। शुनल वचन रह मानस शयन।।
जौ जन तेहि अन्तर हठि अयत। अपने क हाथ मरण तनि हयत।।
यहन प्रतिज्ञा करू प्रतिपाल। तखन कहब अभिमत महिपाल।।
मैथिली रामायण रचयिता चन्द्रा झा अध्याय-७-२६ से २९
हे राजा राम, सुनिए। यह बात मैं कान में चुपके से अकेले में कहूँगा। इस बात को कोई सुने नहीं, कोई आँखों से देखे नहीं। सुनी हुई बात मन में समाकर रखे। यदि कोई व्यक्ति सहसा (एकाएक) भीतर आएगा तो आप अपने हाथ से मार डालेंगे। हे राजा आप पहले ऐसी प्रतिज्ञा कीजिए, तब मैं अपने मन की बात कहूँगा। यह सब सुनकर राम ने लक्ष्मण से कहा- ‘तुम हाथ में तलवार लिए द्वार पर पहरा दो। कोई भी भीतर न आने पाए। इस समय किसी भी प्रकार की चिट्ठी-पत्री भी अन्दर न लाए। जो कोई भीतर आएगा, मेरे हाथ से उसकी मौत होगी।
इसके बाद राम ने कहा- हे मुनि अब एकान्त है, कहिए क्या बात है? मुनि ने शुद्ध भाव से श्रीराम से कहा, ‘अब आप अपने धाम चलिए। मैं कालपुरुष हूँ। तापस का कपट वेष बनाकर आया हूँ। हे राजा मुझे ब्रह्माजी ने भेजा है। हे प्रभु! आप युद्ध में न जीतने योग्य रावण को मार चुके हैं तथा धरती के भार को दूर कर चुके हैं। अब अपनी देवोचित मर्यादा का पालन कीजिए। ब्रह्माजी ने कहा वह मैंने आपको सुना दिया है।Ó राम ने इसे स्वीकार कर लिया, हालाँकि यह सब उनका अपने खेल (लीला थी) था। उसी समय कालपुरुष की प्रेरणा से दुर्वासा ऋषि वहाँ आ पहुँचे। कौन जानता था कि वे इतने क्रोधी हैं। उन्होंने लक्ष्मण से इस प्रकार कहा- हे लक्ष्मण! आप तुरन्त राम के पास जाइए और मेरी उनसे भेंट करने का तुरन्त प्रबन्ध करो। लक्ष्मण ने उत्तर दिया हे मुनि! क्षण भर क्षमा कीजिए। बताइए कि आपको श्रीराम से क्या काम है? मैं उनकी ओर से अभी ही पूरा कर दूँगा। राजा दूसरे कार्य में व्यस्त हैं। राजा की भीतरी बात कौन जान सकता है? श्रीराम ने आज्ञा दी है कि अभी कोई भीतर न आएं। मैं राजा की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करूँगा। कौन हठ करके आग में पतंग बनने जाए। यह सुनते ही दुर्वासा ऋषि आगबबूला हो गए। काल किसकी बुद्धि को नहीं बिगाड़ देता है? दुर्वासा बोले, ‘राजा के द्वार पर मेरा ऐसा अपमान हो? यह तो मुनियों की आज्ञा की भारी अवहेलना हुई। यदि आप मेरा यह कहा नहीं करेंगे तो कहाँ आपके राजा जाएंगे और कहाँ राज्य।Ó
परिजन सहित भस्म कय देव। नृपतिक द्वार अनादर लवे।।
मैथिली रामायण रचयिता श्रीचन्द्रा झा उत्तरकाण्ड ७-५०
मैं परिजनों सहित राम को भस्म कर दूँगा और राजा के द्वार पर अपने अपमान का प्रतिशोध लूँगा। इतना सब सुनकर लक्ष्मण ने मन में सोचा- ‘मैं तो बड़े असमंजस में पड़ गया। क्या करूँ क्या न करूँ। यदि मैं भीतर जाता हूँ तो मैं इस संसार से चला जाऊँगा। काल के दण्ड को रोकना किसके बूतों की बात है? यदि अन्दर नहीं जाता हूँ तो सबका (सूर्यवंश का) अनर्थ निश्चित है। काल के समक्ष उबरने का प्रयत्न व्यर्थ है। किन्तु यदि मैं अकेला मरता हूँ तो श्रीराम पर कोई खतरा न होगा। प्रजा भी आनन्दपूर्वक रहेगी तथा मुझ पर किसी भी प्रकार का कलंक नहीं होगा। मेरी कोई बदनामी भी न होगी। ऐसा सोच विचार कर वे राजा राम के भवन में प्रवेश कर गए और बिना किसी डर के उनसे कहा- हे परम् उदार प्रभु सावधान होइए। दुर्वासा ऋषि द्वार पर पधारे हैं। राम ने इतना सुनते ही काल को बिदा करके मुनि को प्रणाम किया और कहा हे मुनि आज्ञा हो। मैं आपकी क्या सेवा करूँ? मुनियों का सत्कार करना गृहस्थों का धर्म है। दुर्वासा ने कहा- हे राजा सुनिए, मैं हजार वर्षों से भूखा हूँ। आज सिद्ध अन्न (भात) खाऊँगा। राम ने इस आज्ञा के पालन को सबसे पहला अपना कर्तव्य समझा। श्रीराम की आज्ञा से रसोई तैयार हो गई। मुनि ने अमृत तुल्य अन्न खाया। मुनि भोजन कर सन्तुष्ट हुए तथा अपने आश्रम चले गए।
अब श्रीराम को अपनी आज्ञा का स्मरण हुआ। वे हाहाकार करने लगे हाय-हाय, हा भ्राता लक्ष्मण एक ओर भ्रातृ स्नेह था और दूसरी तरफ वह कठोर प्रतिज्ञा। वे बहुत पीड़ा का अनुभव करने लगे। श्रीराम विकल और विह्वल हो चुपचाप से खड़े रहे।
से देखि लक्ष्मण जोड़ल हाथ। चिन्ता तेजल जाय रघुनाथ।।
कालक गति के रोकय पार। तत्त्व विचार वृथा-संसार।।
प्रभुक निदेश वृथा भय जाय। घोर नरक हमार तन पाय।।
हमरा विषयनाथ जौं प्रीति। पालन कयल जाय नृपनीति।।
मैथिली रामायण रचयिता श्री चन्द्रा झा उत्तरकाण्ड अध्याय ७-६६ से ६९
यह दशा देखकर लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर कहा हे राम! आप चिन्ता मत कीजिए। काल की गति को कौन रोक सकता है? इस संसार में तत्व-मीमांसा करना व्यर्थ है। यदि मेरे रहते आपकी आज्ञा विफल हो जाए तो मेरा यह शरीर किस काम का? मैं तो घोर नरक पाऊँगा। यदि आपका मुझ पर स्नेह है तो राजा का जो भी उचित कर्तव्य है, उसका पालन किया जाए। मेरा यही विचार है कि इसमें समझौते का कोई अवसर नहीं है। निर्भय होकर कोई काम करने में दोष नहीं है। राम ने लक्ष्मण की यह बात सुनी तथा उनका मन चिन्ता से व्याकुल हो उठा। उन्होंने तत्काल समस्त मंत्रियों को बुलवाया। गुरु वशिष्ठजी से पूछा कि अब क्या करना उचित होगा? श्रीराम ने बताया कि कैसे तापस-वेषधारी काल ने प्रतिज्ञा करवाई, कैसे ऋषि दुर्वासा का आगमन हुआ। स्वयं राम ने कैसे प्रतिज्ञा की तथा कैसे एक ओर भाई लक्ष्मण के प्रति स्नेह और दूसरी तरफ प्रतिज्ञापालन की नीति इस द्विविधा इस चिन्ता में व्याकुल हो गए हैं। श्रीराम की बात सुनकर सभी मंत्रियों और गुरुजनों ने ठीक-ठीक विचार दिया। आपने पृथ्वी का भार दूर कर दिया। अब आप देवलोक में पधारिये। अपने प्रतिज्ञा रूपी धर्म का पालन कीजिए। लक्ष्मण को त्याग देना सब प्रकार से उचित होगा। श्रीराम ने धर्मसम्मत तत्वार्थ सुन लिया। उन्हें यह भी उचित लगा। श्रीराम ने लक्ष्मण से वैसा ही कहा- वही करो जो धर्म के अनुरूप हो।
परित्याग वध एक समान। सज्जन काँ कह धर्म्म प्रधान।।
मैथिली रामायण रचयिता श्री चन्द्रा झा उत्तरकाण्ड अध्याय ७-८१
धार्मिक सज्जनों का कहना है कि परित्याग करना वध करना दोनों बराबर है। यह सुनकर लक्ष्मण ने श्रीराम के चरणों में प्रणाम किया तथा शोक से व्याकुल हो तुरन्त अपने महल में चले गए। तत्पश्चात् सरयू नदी के तट पर गए। उसके जल से आचमन करके मन को शुद्ध किया। शरीर को सीधा कर और सभी नौ द्वारों पर नियन्त्रण करके अचल समाधि लगाई। श्वांस को मस्तिष्क में ले गए। अविच्छिन्न रूप से ध्येय ब्रह्माजी का ध्यान किया। यह दृश्य देखकर देवगण उनकी समाधि पर फूलों की वर्षा करने लगे तथा उनकी स्तुति की।
लक्ष्मण काँ निजधाम, शचीकान्त लय जाय तहँ।।
विष्णु-अंश अभिराम, जानि करथि पूजा तनिक।।
मैथिलीरामायण रचयिता श्री चन्द्रा झा उत्तरकाण्ड ७-८८-८९
तत्पश्चात् इन्द्र लक्ष्मण को वहाँ से अपने यहाँ अमरावती ले गए। उन्हें विष्णु का अंश मानकर उनकी पूजा करने लगे।
लगभग ऐसा ही वर्णन इस प्रसंग का महर्षि वाल्मीकिजी की रामायण में वर्णित है। श्रीराम ने महर्षि वशिष्ठ के निर्देशानुसार लक्ष्मण का परित्याग किया है यथा-
विसर्जये त्वां सौमित्र मा भूद् धर्मविपर्यय:।
त्यागो वघो वा विहत: साधूनां ह्यभयं समम्।।
वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग १०६-१३
श्रीराम ने कहा सुमित्रानन्दन, मैं तुम्हारा परित्याग करता हूँ जिससे धर्म का लोप न हो। साधु पुरुषों का त्याग किया जाए अथवा वध दोनों ही समान है। लक्ष्मणजी ने अन्त: सरयू नदी के किनारे आचमन कर हाथ जोड़कर सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके प्राण वायु रोक लिया तथा योग युक्त होकर श्वास लेना बंद कर दिया और लक्ष्मण जी शरीर के साथ सब मनुष्यों की दृष्टि से ओझल हो गए तथा इन्द्र आकर उन्हें स्वर्ग में ले गए।
सन्दर्भ ग्रन्थ – १. मैथिली रामायण रचयिता श्री चन्द्रा झा भुवनवाणी ट्रस्ट लखनऊ
२. महर्षि वाल्मीकि रामायण, गीता प्रेस गोरखपुर उ.प्र.
प्रेषक
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
‘मानसश्री, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर