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श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग

श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
विभिन्न रामायणों में श्रीराम-चरण पादुका प्रसंग
भारत की प्राय: सभी भाषाओं की रामायणों के अयोध्याकाण्ड के अन्त में श्रीराम एवं भरतजी की भेंट का मार्मिक वर्णन प्राप्त होता है। अंत में श्रीराम वशिष्ठ के माध्यम से भरतजी को समझा बुझा कर तथा श्रीराम की चरण पादुकाओं सहित ले जाते हैं। श्रीराम ने भरत को अपने अवतार लेने का उद्देश्य-रहस्य तथा राक्षसों के संहार करने के लिए एवं मुनि-ऋषियों की रक्षा के लिए, पृथ्वी के भार को कम करने आदि का कारण नहीं बताया। श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं वे अपने मुख से यह सब कैसे कह सकते हैं? अत: वशिष्ठजी ने भरत को श्रीराम के अवतार लेने एवं राक्षसों के संहार करने का रहस्य बताकर, श्रीराम के प्रतिनिधि के रूप उनकी चरण पादुकाओं को लेकर लौटने का कहा। यह प्रसंग रोचक, मार्मिक, रहस्यपूर्ण और भ्रातृप्रेम का अपूर्व उदाहरण हैं। अत: यहाँ विभिन्न रामायणों से बताया जा रहा है।
अध्यात्मरामायण में श्रीराम की चरणपादुका प्रसंगवेद व्यास द्वारा रचित अध्यात्मरामायण में श्रीराम द्वारा भरत को दी गई दिव्य चरण पादुकाओं (खड़ाऊँ) का रहस्यपूर्ण वर्णन है। इसमें भरतजी ने श्रीराम को अयोध्या का राज्य करने का तथा स्वयं को १४ वर्ष वनवास का विकल्प भी निवेदन किया है तब-
भरतस्यापि निर्बन्धं दृष्टवा रामोऽतिविस्मित:।
नेत्रान्तसंज्ञां गुरवे चकार रघुनन्दन:।।
आनन्दरामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग ९-४१
भरतजी का ऐसा हठ देखकर श्रीरामचन्द्रजी ने अत्यन्त विस्मित होकर गुरु वशिष्ठजी को नेत्रों से संकेत किया। यह देखकर ज्ञानियों में श्रेष्ठ वशिष्ठजी ने भरत को एकान्त में ले जाकर कहा- ‘वत्स! अब मैं जो कुछ कहता हूँ यह अत्यन्त ही गुप्त रहस्य की बात ध्यानपूर्वक सुनो।
रामौ नारायण: साक्षाद् ब्रह्मणा याचित: पुरा।
रावणस्य वधार्थाय जांतो दशरथात्मज:।।
योगमायापि सीतेति जाता जनकनन्दिनी।
शेषोऽपि लक्ष्मणो जातो राममन्वेति सर्वदा।।
रावणं हन्तुकामास्ते गमिष्यन्ति न संशय:।
कैकेया वरदानादि यद्यन्निष्ठुर भाषणम्।।
अध्यात्मरामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग ९-४३-४४-४५
भगवान् राम साक्षात् नारायण है। पूर्वकाल में ब्रह्माजी के प्रार्थना करने पर उन्होंने रावण को मारने के लिए दशरथ के यहाँ पुत्र रूप में जन्म लिया है। इसी प्रकार योगमाया ने जनकनन्दिनी सीता के रूप में अवतार लिया है और शेषजी लक्ष्मण के रूप से उत्पन्न होकर उनका अनुगमन कर रहे हैं। वे रावण को मारना चाहते हैं इसलिए निस्सन्देह वन को जाएंगे। कैकेयी के जो कुछ वरदान माँगने आदि और अन्य निष्ठुर भाषण आदि कार्य है। वे सब देवताओं की प्रेरणा (इच्छा) से ही हुए हैं, नहीं तो कैकेयी ऐसे वचन कैसे बोल सकती थी? इसलिए हे तात्। तुम राम को अध्योया लौट चलने का आग्रह त्याग दो। माताओं तथा विशाल सेना सहित अयोध्या को लौट चलो, राम भी रावण के कुल सहित उनका संहार करके शीघ्र ही आ जाएंगे।
वसिष्ठजी के ये वचन सुनकर भरत को बहुत आश्चर्य हुआ और उन्होंने आश्चर्यचकित होकर श्रीराम के समीप जाकर कहा-
पादुके देहि राजेन्द्र राज्याय तव पूजिते।
तयो सेवां करोम्योव यावदागमनं तव।।
इत्युक्त्वा पादुके दिव्य योजयामास पादयो:।
रामस्य ते ददौ रामो भरतायातिभक्तित:।।
अध्यात्मरामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग ९-४९-५०
हे राजेन्द्र! आप मुझे राज्य शासन के लिए जगत् पूजनीय अपनी चरण पादुकाएँ दीजिए। जब तक आप लौटेंगे तब तक मैं उन्हीं की सेवा करता रहूँगा। ऐसा कहकर भरतजी ने श्रीराम के चरणों में दो दिव्य पादुकाएं (खड़ाऊँ) पहना दी। श्रीराम ने भरत का भक्तिभाव देखकर वे पादुकाएँ उन्हें दे दी। भरतजी ने रत्नजड़ित दिव्य पादुकाएँ लेकर श्रीरामजी की परिक्रमा की और उन्हें बारम्बार प्रणाम किया। तत्पश्चात् भरतजी ने कहा हे राम! यदि १४ वर्ष व्यतीत होने पर आप पहले दिन ही अयोध्या न पहुँचे तो मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगा। श्रीराम ने कहा ठीक है तथा भरतजी को विदा कर दिया। इस प्रकार वशिष्ठजी को आने वाले १४ वर्षों की जानकारी थी तथा वे भरत को समझा बुझा कर अयोध्या ले गए।
मैथिली रामायण रचयिता चन्द्रा झा में श्रीराम चरणपादुका प्रसंग

इस रामायण में अयोध्याकाण्ड के अध्याय ९ में श्रीराम एवं भरत भेंट का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। भरत के अटल हठ को छोड़ने हेतु वशिष्ठजी ने समझाते हुए कहा-
रामचन्द्र मन बुझल भरत अविचल हठ ठानल।।
कहलहु कथा बुझाय वचन एक गोट न मानल।
गुरु वसिष्ठ काँ देल वामनेत्रान्त इसारा।।
ई नहि ककरो शक्य देल अपनहि काँ भारा।।
कहलनि गुरु एकान्त में भरत कठिन हठ परिहरिय।।
हेतु कहैछी से शुनिय सत्यवचन श्रुति में धरिय।।
मैथिली रामायण रचयिता चन्द्रा झा अयोध्या अध्याय ९-७९ से ८४
श्रीराम ने मन में सोचा कि भरत ने जो अटल हठ ठान लिया, समझाने-बुझाने पर भी एक नहीं सुनी तब फिर उन्होंने बाँयी आँख से वसिष्ठजी को इशारा किया कि भरत को कोई नहीं समझा सकता, अब समझाने-मनाने का दायित्व आप पर है। गुरु वशिष्ठजी ने एकान्त में भरत को समझाया- हे भरत! इस अटल हठ को छोड़िए। मैं जो तर्क कहता हूँ वह सुनिए। जो वास्तविक तथ्य है उस ओर ध्यान दो। आप अजन्मा, अविनाशी नारायण को ही श्रीरामचन्द्र समझिए। ब्रह्माजी ने बहुत प्रार्थना की तब नारायण दशरथ के घर में उसके पुत्र बनकर आए। ईश्वर की माया-सीता बनकर अवतीर्ण हुई है। लक्ष्मण शेषनाग के अनुपम अवतार हैं। कैकेयी की करनी से जो आपके अन्तर्मन में व्यथा है, उसका भी रहस्य बताता हूँ। देवताओं ने सोचा यदि श्रीराम राज्य करेंगे तो काम नहीं बनेगा। इसलिए देवी सरस्वती ने रानी कैकेयी के कंठ में बैठकर राज्याभिषेक में विघ्न खड़ा किया। कैकेयी के सिर पर कलंक लिखा था। इसलिए सरस्वती ने निष्ठुर और नि:शक्त होकर कहा कि ये दण्डकवन जाएंगे। वहाँ अधर्मचारी रावण आएगा। अपने कुकर्मों से रावण धरती माता का बोझ बन जाएगा और राम उसका संहार करेंगे। फिर रावण को कुल परिवार और सेना सहित परास्त कर राम अयोध्या लौट जाएंगे तथा न्यायपूर्वक राज्य करेंगे। हे भरत! आप अपना हठ त्याग दीजिए।
गुरु वशिष्ठ की यह रहस्यपूर्ण बात सुनकर भरत को बड़ा आश्चर्य हुआ तथा आँखों में आँसू भर गए। भरतजी श्रीराम में लीन होकर उनके पाए गए तथा कहा- हे प्रभु! अपने पाँव के खड़ाऊँ मुझे दे दीजिए। श्रीरामजी ने दोनों खड़ाऊँ भरत को दे दिए। श्रीरामजी ने दोनों खड़ाऊँ भरत को दे दिए। भरत ने भक्तिपूर्वक उन्हें सिर पर रख लिया। चरणपादुकाओं में से अत्यन्त चमकीली ज्योति निकल रही थी क्योंकि उनमें रत्न जड़े थे। भरत श्रीराम की प्रदक्षिणा करते और कहते हैं कि आप क्या अवधिपूर्ण होने पर लौट आएंगे? यदि आप (श्रीराम) अवधि के दिन को बिताकर नहीं आए तो मैं विरह की आग में जलकर राख हो जाऊँगा। तत्पश्चात् भरत आदि सभी सेना सहित लौट गए।
मराठी भावार्थ रामायण विरचित संत एकनाथ में श्रीराम की चरणपादुका प्रसंग
इस रामायण में चित्रकूट में श्रीराम-भरत भेंट प्रसंग के अन्तर्गत वशिष्ठ द्वारा भरत को उनके हठ छोड़ने तथा समझाने का वर्णन नहीं है। मराठी भावार्थ रामायण में महर्षि वाल्मीकि द्वारा भरतजी को उनके श्रीराम के अयोध्या लौटने के हठ को न करने बताया गया है। महर्षि वाल्मीकिजी ने भरत को मेरी बात मान लो मैं श्रीराम के चरित्र सम्बन्धी एक रहस्य की सम्पूर्ण जानकारी तुम्हें बताना चाहता हूँ। मेरे साथ आए ये तपोधन ऋषि श्रीराम चरित्र के रहस्य सम्बन्धी भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों की अपार जानकारी रखते हैं। वे आपसे यह बात करने के लिए मेरे साथ यहाँ आए हैं। वैसे तो तुम दोनों बड़े ही हठीले हो। तुम प्राणों के संकट उत्पन्न कर बैठे हो।
हे भरत ध्यानपूर्वक सुन लो। श्रीराम सीता और लक्ष्मण के वन में आकर बस जाने का यही कारण है कि श्रीराम रावण का वध करेंगे। सब देवों की यही इच्छा है। श्रीराम, सीता और लक्ष्मण को वन में रहने दो और तुम स्वयं अयोध्या के लिए प्रयाण कर लो। तुम स्वयं यह पूछ सकते हो कि श्रीराम कहाँ रहते हैं और रावण कहाँ है? उसका वध करने का क्या कारण है? अत: इस बात को ध्यानपूर्वक सुनो तुम अयोध्या गमन कर लोगे तब श्रीराम दण्डकारण्य में जाकर रहेंगे। गोदावरी नदी के तट पर पंचवटी में वनवास हेतु पर्णकुटी तैयार होगी। श्रीराम, लक्ष्मण और सीता सहित वे वहाँ तेरह वर्ष और छ: मास तक सुखपूर्वक रहेंगे। शेष अन्तिम छ: महीने में श्रीराम राक्षसों का वध करेंगे। शूर्पणखा नाम की एक राक्षसी अपने पुत्र के वध के कारण सुन्दर कन्या के रूप में उन्हें धोखा देकर कष्ट पहुँचाने जाएगी। लक्ष्मण उसे निश्चय ही नासिकाविहीन बना देंगे। तदनन्तर श्रीराम के मृग का पीछा करते हुए दूर जाने पर रावण पंचवटी में आकर सीता का हरण कर त्रिकूट पर लंका में रख देगा।
सीताजी की खोज के उद्देश्य से श्रीराम पम्पा जाएंगे। वहाँ उनकी हनुमानजी से भेंट होगी। हनुमानजी श्रीराम और सुग्रीव में मित्रता स्थापित करेंगे। तत्पश्चात् यथा समय अपार वानर सेना को लेकर श्रीराम लंका जाएंगे। श्रीराम समुद्र पर एक सेतु निर्माण करवाएंगे। श्रीराम अन्त में रावण का वध कर विजय प्राप्त कर अयोध्या लौट आएंगे। अत: हे भरत तुम उन्हें वन में छोड़ अयोध्या लौट जाओ।
तदनन्तर श्रीराम से गुरु वशिष्ठ ने यह बात कही। हे पुत्र! राम भरत को तुम अपनी दोनों चरण पादुकाएँ दे दो। यह सुनकर श्रीराम ने भरत से कहा- मेरी ये दोनों सुवर्ण भूषित चरण पादुकाएँ अपने प्रतीक स्वरूप राज्य के लिए मैंने दे दी। तदनन्तर भरत ने श्रीराम की चरण पादुकाओं को अपने मस्तक पर धारण करते हुए उनकी आज्ञा शिरोधार्य की। भरतजी ने श्रीराम से कहा- आपकी इन शुभ चरण पादुकाओं को लेकर मैं अयोध्या के प्रति चला जाता हूँ।
मराठी श्रीराम विजय रामायण के रचयिता पं. श्रीधर स्वामी में श्रीराम चरण पादुका के प्रसंग में भरतजी को महर्षि वाल्मीकिजी ने श्रीराम के अवतार का रहस्य तथा रावण वध मराठी भावार्थ रामायण के ही समान वर्णन किया है। भरतजी ने महर्षि वाल्मीकिजी के उपदेशानुसार श्रीराम की चरण पादुकाएँ लेकर अयोध्या की ओर प्रस्थान किया।
गुजराती गिरधर रामायण में श्रीराम की चरण पादुका प्रसंग

गुजराती भाषा की इस प्रसिद्ध रामायण में महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम-भरत मिलन के अवसर पर भरत को उनके हठ को त्याग देने का कहा। महर्षि वाल्मीकि ने उन्हें पूरी रामायण सुनाई तथा बताया कि श्रीराम का अयोध्या लौट जाना उनकी महिमा के अनुकूल नहीं है।
तत्पश्चात् सूर्य अस्त हुआ तो रात हो गई। गुरु के साथ श्रीराम सेवा वन्दन के काम करने के लिए चले गए। उनके साथ लक्ष्मण शत्रुघ्न थे। उनके चले जाने से भरत को अवसर मिल गया तब पर्वत पर दूर जाकर उन्होंने आवेश में आकर लकड़ियाँ इकट्ठी की और उसमें अग्नि डालकर निश्चय ही जल जाने का विचार किया तथा यह निर्णय कर लिया। भरत ने अग्नि के पास से प्रदक्षिणा करते रहे और तत्पश्चात् हाथ जोड़कर स्तवन करते रहे। उन्होंने श्रीराम को मन समर्पित किया और कहा कि जहाँ कहीं मैं जन्म तथा निवास को प्राप्त हो जाऊँ मैं श्रीरामजी का दास ही रहूँ। इतना कहकर वे अग्नि में साहसपूर्वक कूदने को तैयार हो गए, तब-
त्यारे वाल्मीक मुनि महाराज, दीठुं करतां विपरीत काज,
नो तत्क्षण धाया, मुनिनाथ, आवी झाल्यो भरत नो हाथ।।
रुदे साथे आलिंगन दींघु, मनभरतनुं शीतल कोधु,
अल्या भरत आ शुंकर काम? पाल आज्ञा कर जे राम।।
गुजराती गिरधरकृत रामायण अयोध्याकाण्ड, अध्याय ९९-६-७
मुनिनाथ महाराज वाल्मीकि ने उन्हें ऐसा विपरीत काम करते देखा, तो वे तत्क्षण दौड़ पड़े और वहाँ आकर उन्होंने भरत का हाथ पकड़ लिया। तत्पश्चात् वाल्मीकिजी ने भरत को हृदय से लगाकर आलिंगन किया और उनके मन को शान्त कर दिया। वाल्मीकिजी बोले हे भरत क्या काम करने जा रहे हो? तुम जो भी आज्ञा राम देंगे उसका पालन करो। तुम बुद्धिमान और समझदार हो। एकाएक आत्मघात करने जा रहे हो। अत: मन में धैर्य धारण करो। यह सुनकर भरत ने कहा हे मुनिराज मुझसे बिना श्रीराम के रहा नहीं जा रहा है। अतएव अब मैं देह त्याग करने जा रहा हूँ। मैं कैकेयी का पुत्र हूँ जिसके कारण श्रीराम वन जा रहे हैं। वाल्मीकिजी भरत से बोले- वे श्रीहरि (भगवान्) राम के रूप में देवों का कार्य करने भूमि का भार उतारने तथा राक्षसों का संहार करने के लिए प्रत्यक्ष रूप से अवतरित हुए हैं। समस्त मुनियों ने भविष्य कहा है कि रावण आदि का संहार करके वे घर (अयोध्या) लौट आएँगे। उसी समय श्रीराम ने लक्ष्मण से पूछा कि भरत इस समय कहाँ है? तुम उसे तुरन्त मेरे पास ले आओ। इतने में भरत का हाथ पकड़कर महर्षि वाल्मीकि उन्हें वहाँ ले आए। उन्होंने संकेत से वह कृत्य बता दिया कि जो भरत करने जा रहे थे। यह देखकर श्रीराम ने भरत को कसकर हृदय से लगा लिया।
श्रीराम ने भरत से कहा मेरे भाई ऐसा कृत्य मत करो। क्षत्रिय धर्म का निर्वाह करो। तब भरत ने कहा- महाराज मुझे अपने साथ सेवा के लिए ले लीजिए। तब राम ने कहा, हे भाई! ऐसा नहीं होगा। तुम मेरी आज्ञा का पालन करो।
चौद वरस पूरां पावन, ते थी अधिक चतुर्दश दिन,
पंदरमा दिवसनी मध्यान्ह, हुं तमने मलाश देई मान।।
गुजराती गिरधर रामायण अयोध्या अध्याय २२-२२
चौदह वर्ष पूर्ण हो जाए तब से अधिक चौदह दिन हो जाने पर पंद्रहवे दिन मध्याह्न में मैं तुम्हारा मान रखते हुए अर्थात् तुम्हारी बात मानते हुए तुमसे मिलूँगा। मैं अवधि यहाँ पूर्ण करूँगा, तब नगर में आ जाऊँगा। उस समय भरत तत्क्षण उठकर सभा में बोले- मैं निश्चयपूर्वक बात कहता हूँ कि मैं अब नगर में नहीं जाऊँगा। आपके आगमन बिना यदि मैं नगर में प्रवेश करूँ तो मुझे निश्चय ही गुरुजी के चरणों और आपके पदों की शपथ है। मैं समस्त माया-मोह के बन्धन काटकर, मैं नन्दी गाम में रहकर तप की साधना करूँगा। यदि अवधि बीत जाएँ और आप नहीं आए तो मैं तत्काल प्राण त्याग दूँगा। यह सब सुनकर श्रीराम ने अपनी रत्नजड़ित पादुकाएँ भरत के हाथों सौंप दी। भरतजी ने उन्हें अपने मस्तक पर रख लिया। तदनन्तर श्रीराम ने भरतजी को राज्य संचालन का उपदेश दिया। भरतजी भी चरण पादुकाएँ लेकर लौट गए।
वाल्मीकि रामायण में श्रीराम चरणपादुका प्रसंग
भरत ने श्रीराम को अयोध्या लौट चलने के लिए अनेक प्रकार से प्रयत्न किए। यह सब देखकर श्रीराम ने भरत से कहा-
पुरा भ्रात: पिता: न: स मातरं ते समुद्वहन।
मातामहे समश्रौषीद राज्यशुल्कमनुत्तमम्।।
वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग १०७-३
भैया भरत! आज से बहुत पहले की बात है- पिताजी का तुम्हारी माताजी के साथ विवाह हुआ था, तभी उन्होंने तुम्हारे नाना से कैकेयी के पुत्र को राज्य देने की उत्तम शर्त कर ली थी। यह रहस्य भी अंत में भरत को श्रीराम ने बताया किन्तु भरत अपने हठ पर अटल रहे। भरत ने कहा-
अधिरोहार्य पादाभ्यां पादुके हेमभूषिते।
एते हि सर्वलोकस्य योगक्षेमं विधास्त:।।
वाल्मीकि रामायण अयोध्याकाण्ड सर्ग ११२-२१
आर्य ये दो सुवर्णभूषित पादुकाएँ आपके चरणों में अर्पित है, आप इन पर चरण रखें। ये ही सम्पूर्ण जगत के योगक्षेम का निर्वाह करेगी। तब श्रीराम ने उन पादुकाओं पर चढ़कर उन्हें फिर अलग कर दिया और भरत को सौंप दिया। उन पादुकाओं को प्रणाम करके भरत ने श्रीराम से कहा- वीर रघुनन्दन मैं भी चौदह वर्षों तक जटा और चीर धारण करके फल-मूल का भोजन करता हुआ आपके आगमन की प्रतीक्षा में नगर से बाहर ही रहूँगा। हे रघुकुल शिरोमणि! यदि चौदहवाँ वर्ष पूर्ण होने पर नूतन वर्ष के प्रथम दिन ही मुझे आपके दर्शन नहीं मिले तो मैं जलती हुई अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगा। तदनन्तर श्रीरामजी की दोनों चरण पादुकाओं को भरत अपने मस्तक पर रखकर शत्रुघ्न के साथ लौट गए।
दशरथ जातक में बताया गया है कि अमात्य श्रीराम की इन पादुकाओं के सामने राजकार्य करते हैं। अन्याय होने पर ही पादुकाएँ एक-दूसरे पर आघात करती है तथा ठीक निर्णय होने पर शान्त हो जाती हैं।

सन्दर्भ ग्रन्थ – १. अध्यात्म रामायण – गीता प्रेस, गोरखपुर, उ.प्र.
2. मैथिली रामायण रचयिता चन्द्रा झा, भुवनवाणी ट्रस्ट, लखनऊ
3. मराठी भावार्थ रामायण- भुवनवाणी ट्रस्ट, लखनऊ
4. गुजराती रामायण गिरधर रामायण, भुवनवाणी ट्रस्ट, लखनऊ
५. मराठी श्रीराम-विजय रचियता पं. श्रीधर स्वामी महाराज, भुवनवाणी ट्रस्ट, लखनऊ, उ.प्र.

प्रेषक
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता

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