बिहार में पुलिस दमन मानों प्रजातंत्र न हो सज़ातंत्र हो
– ललित गर्ग –
बिहार में फिर जंगलराज शुरु हो गया है। नई सरकार बनते ही पुलिस बर्बरता देखने को मिल रही है। लीडरशीप भ्रष्ट हो तो पुलिस-प्रशासन कैसे ईमानदार एवं अनुशासित होगा? कल ही छोटे परदे पर तब यह देख कर मन को गहरा असन्तोष हुआ जब एक एडीएम तिरंगा लिए गिरे पड़े एक बेरोजगार युवक को रोजगार की मांग करने पर बेरहमी से पीट रहे थे। देश की सेवक, जनता की रक्षक, अपराधियों को सजा दिलाने वाली, कानून व्यवस्था को बनाये रखने वाली पुलिस की इस तरह की बर्बर, क्रूर एवं खौफनाक छवि कोई नयी बात नहीं है। यह खाकी एवं खादी की मिलीभगत का परिणाम है, इसी खाकी के बल पर खादी वाले घौंसपट्टी जमाते हैं और इसी खादी के बल पर खाकी वाले आपराधिक कृत्यों, घालमेल, आर्थिक अनियमितताओं, कमजोरों पर अत्याचार, दमन, लाठीचार्ज और जमीन से लेकर हर तरह के सौदों में हेरफेर को अंजाम देते हैं। लोकतंत्र के मुखपृष्ठ पर ऐसे बहुत धब्बे हैं, अंधेरे हैं, वहां मुखौटे हैं, गलत तत्त्व हैं, खुला आकाश नहीं है। मानो प्रजातंत्र न होकर सज़ातंत्र हो गया। क्या यही उन शहीदों का स्वप्न था, जो फांसी पर झूल गये थे? व्यवस्था और सोच में व्यापक परिवर्तन हो ताकि अब कोई बेरोजगार रोजगार की मांग करने पर डंडंे ना खाये।
पूरी दुनिया में शायद कहीं ऐसी बर्बर, दमनकारी एवं हिंसक पुलिस नहीं होगी, जैसी भारत में है। किसी आंदोलन, धरना-प्रदर्शन से निपटने का उसे एक ही तरीका पता है- दमन और डंडे का। यह हिंसक एवं अत्याचारी प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है। जहां भी कोई आंदोलन सिर उठाता है, पुलिस अपनी लाठी-बंदूक उठा लेती है। बिहार में शिक्षक भर्ती अभ्यर्थियों पर उसका ‘शौर्य प्रदर्शन’ इसका काला उदाहरण है। सब जानते हैं कि वहां शिक्षक भर्ती प्रक्रिया में लंबे समय से टालमटोल का रवैया बना हुआ है। राज्य के वर्तमान उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव जब विपक्ष में थे तो वे यह दावा करते नहीं थकते थे कि अगर उनकी सरकार होगी, तो शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया को तत्काल शुरू करेगी, ताकि राज्य की शिक्षा-व्यवस्था बेहतर हो सके। फिर यह अत्याचार क्यों? पुलिस इतनी निरंकुश बिना राजनीतिक दिशा-निर्देश एवं संरक्षण के हो नहीं सकती कि वो ऐसा कहर बरपाये। रोज-रोज की घटनाओं में आज एक आम आदमी भी अपने अनुभव से जानता है कि ये जनता के रक्षक नहीं बल्कि भक्षक हैं, वर्दीधारी गुण्डे हैं।
बात किसी एक दल या उसकी सरकार की नहीं है, पुलिस की ज्यादतियां हर दल की सरकारों की त्रासद निष्पत्तियां हैं। ज्यादा दिन नहीं हुए, जब उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में इसी तरह टेट परीक्षा में गड़बड़ी को लेकर छात्र आंदोलन पर उतरे थे और पुलिस ने बेलगाम अपनी ताकत का प्रदर्शन किया था। उसकी घोर निंदा हुई थी। मगर बिहार पुलिस ने उससे सबक लेना जरूरी नहीं समझा। ठीक वैसा ही बल प्रयोग पटना में किया गया। सरकार अगर कानून-व्यवस्था को लेकर लोकतांत्रिक तौर-तरीका अपनाना चाहती, तो पुलिस इस तरह मध्ययुगीन बर्बरता का खुला प्रदर्शन नहीं करने पाती। आजादी का अमृत महोत्सव मनाने के बाद भी भारत में बेरोजगारी और भुखमरी की स्थिति विस्फोटक है। सन् 1946 में पांच करोड़ टन अनाज पैदा होता था और आज लगभग 36 करोड़ टन पैदा करके भी हम देशवासियों का पेट नहीं भर पा रहे हैं। दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बनने की अग्रसर देश अपने बेरोजगार युवकों को रोजगार नहीं दे पा रहा है। औद्योगिक नीति से धुआं उगलने वाले कारखानों की चिमनियों में वृद्धि हुई है पर गरीब के चूल्हे की चिमनी में धुआं नहीं है। भवनों की मंजिलें और बढ़ गईं पर झोंपड़ियों पर छतंे नहीं हैं। अन्तराल बढ़ा है, यह सच्चाई है। इससे बड़ी सचाई यह है कि इस देश का मजबूर, गरीब एवं बेसहारा आदमी ही पुलिस की बर्बरता का शिकार होता है? लेकिन कब तक? गौरतलब तथ्य यह भी है कि पुलिस हिरासत में अक्सर गरीब लोग ही मारे जाते हैं। उन्हीं को शारीरिक एवं मानसिक यन्त्रणाएँ देकर मारा जाता है। अमीरों के लिए तो जेल में भी सुविधा की सैरगाह है।
विकासशील देशों में महंगाई बढ़ती है, मुद्रास्फीति बढ़ती है, यह अर्थशास्त्रियों की मान्यता है। पर बेरोजगारी क्यों बढ़ती है? पुलिस की बर्बरता क्यों बढ़ती है? एक और प्रश्न आम आदमी के दिमाग को झकझोरता है कि तब फिर विकास से कौन-सी समस्या घटती है?क्यों गरीब एवं जरूरतमंद की आवाज को ही दबाया जाता है? किससे छिपा है कि पुलिस सरकारों के इशारों पर काम करती है। अगर सरकार आंदोलनकारी छात्रों-अभ्यर्थियों की समस्या सुनने और उसका समाधान निकालने की इच्छुक होती, तो उनसे बातचीत के रास्ते खोलती। मगर अब तो सरकारों ने जैसे मान लिया है कि लोगों की आवाज दबाने का एक ही तरीका है दमन, डंडा एवं बर्बरता। जैसे ही कोई आंदोलन उठे, उसे लाठी-डंडे के बल पर रोक दो।
दरअसल, हमने पुलिस-व्यवस्था अंग्रेजों के समय की ही अपना ली है। उस समय अंग्रेजी सरकार इन्हीं पुलिस-बल के सहारे हिन्दुस्तानी लोगों को कुचलती, उन पर बर्बरता करती, अत्याचार करती। उन्हें देश का नागरिक ना समझकर दुश्मन मानती थी। अब तो हम आजादी भारत के निवासी है, हम पर वो ही बर्बरता क्यों? जरूरत है पुलिस के समुचित प्रशिक्षण का। किसी भी लोकतंत्र में नागरिकों को अपने हक के लिए आवाज उठाने का अधिकार है और उसे सुनना सरकारों का दायित्व। पुलिस को कोई अधिकार नहीं कि इस तरह आंदोलनकारियों पर बल प्रयोग करे। उनके साथ हिंसक व्यवहार करे। अगर कहीं, किसी वजह से भीड़ बेकाबू हो जाए, तो हवा में गोली चलाने, आंसू गैस के गोले दागने, पानी की बौछार करने आदि का नियम है। लेकिन ऐसा नहीं होना दुर्भाग्यपूर्ण है, विरोधाभासी है।
प्रश्न तो यह भी है कि लाठी से पीट कर अधमरा कर देने का अधिकार पुलिस को किसने दिया है। यह अधिकार उसे सरकारें देती हैं। उन्हीं के इशारे पर आंदोलनकारियों के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है। इस मामले में बिहार सरकार अपनी जवाबदेही से पल्ला नहीं झाड़ सकती। जिस पुलिस अफसर ने अभ्यर्थियों पर लाठियां बरसाईं, उसे कठोर दंड मिलना चाहिए और साथ ही पुलिस को स्पष्ट निर्देश होना चाहिए कि किसी भी आंदोलन से निपटने का क्या तरीका होगा। लोकतंत्र लाठी के बल पर जिंदा नहीं रह सकता। जब पटना की घटना की तस्वीरें तेजी से प्रसारित होनी शुरू हुईं, तो पहले सरकार ने घटना से अनजान होने का नाटक किया, फिर इसकी जांच के लिए एक समिति गठित कर दी। सरकारों का यह तरीका अब बहुत घिस-पिट चुका है।
हमारे लिए हमारे साथ होने का दम भरने वाली पुलिस द्वारा कानून-व्यवस्था का नाम लेकर आम सीधे-साधे, भोले-भाले नागरिकों पर आतंक एवं क्रूरता का जंगलराज कायम किया जाता है। जुल्म और अन्याय के खि़लाफ आवाज उठाने वालों को पुलिस दमन का शिकार होना पड़ता है। लेकिन सोचने की बात यह भी है कि क्या पुलिसकर्मी इतने दरिन्दे और वहशी जन्मजात होते हैं या उन्हें वैसा बनाया जाता है। यह व्यवस्था उन्हें वैसा बनाती है, ताकि आम जनता में भय और दहशत फैलाकर निरंकुश पूँजीवादी लूट एवं राजनीतिक अपराधों को बरकरार रखा जा सके। जिस तरह से समाज में आम बेरोजगारों की फौज खड़ी है, उन्हीं में से वेतनभोगियों की नियुक्ति की जाती है और अनुभवी घाघ नौकरशाहों की देखरेख में उन्हें समाज से पूरी तरह काटकर उनका अमानवीकरण कर दिया कर जाता है और इस व्यवस्था रूपी मशीन का नट-बोल्ट बना दिया जाता है। जेलों में कैदियों के साथ अमानवीय बर्ताव, झूठे मामलों में लोगों को फँसा देना, हिरासत में उत्पीड़न की इन्तहा से लोगों की जान ले लेना, ये आम बातें हैं। तभी तो हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील ने कहा था कि ‘इस देश की पुलिस एक संगठित सरकारी गुण्डा गिरोह है।’
– ललित गर्ग –
बिहार में फिर जंगलराज शुरु हो गया है। नई सरकार बनते ही पुलिस बर्बरता देखने को मिल रही है। लीडरशीप भ्रष्ट हो तो पुलिस-प्रशासन कैसे ईमानदार एवं अनुशासित होगा? कल ही छोटे परदे पर तब यह देख कर मन को गहरा असन्तोष हुआ जब एक एडीएम तिरंगा लिए गिरे पड़े एक बेरोजगार युवक को रोजगार की मांग करने पर बेरहमी से पीट रहे थे। देश की सेवक, जनता की रक्षक, अपराधियों को सजा दिलाने वाली, कानून व्यवस्था को बनाये रखने वाली पुलिस की इस तरह की बर्बर, क्रूर एवं खौफनाक छवि कोई नयी बात नहीं है। यह खाकी एवं खादी की मिलीभगत का परिणाम है, इसी खाकी के बल पर खादी वाले घौंसपट्टी जमाते हैं और इसी खादी के बल पर खाकी वाले आपराधिक कृत्यों, घालमेल, आर्थिक अनियमितताओं, कमजोरों पर अत्याचार, दमन, लाठीचार्ज और जमीन से लेकर हर तरह के सौदों में हेरफेर को अंजाम देते हैं। लोकतंत्र के मुखपृष्ठ पर ऐसे बहुत धब्बे हैं, अंधेरे हैं, वहां मुखौटे हैं, गलत तत्त्व हैं, खुला आकाश नहीं है। मानो प्रजातंत्र न होकर सज़ातंत्र हो गया। क्या यही उन शहीदों का स्वप्न था, जो फांसी पर झूल गये थे? व्यवस्था और सोच में व्यापक परिवर्तन हो ताकि अब कोई बेरोजगार रोजगार की मांग करने पर डंडंे ना खाये।
पूरी दुनिया में शायद कहीं ऐसी बर्बर, दमनकारी एवं हिंसक पुलिस नहीं होगी, जैसी भारत में है। किसी आंदोलन, धरना-प्रदर्शन से निपटने का उसे एक ही तरीका पता है- दमन और डंडे का। यह हिंसक एवं अत्याचारी प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है। जहां भी कोई आंदोलन सिर उठाता है, पुलिस अपनी लाठी-बंदूक उठा लेती है। बिहार में शिक्षक भर्ती अभ्यर्थियों पर उसका ‘शौर्य प्रदर्शन’ इसका काला उदाहरण है। सब जानते हैं कि वहां शिक्षक भर्ती प्रक्रिया में लंबे समय से टालमटोल का रवैया बना हुआ है। राज्य के वर्तमान उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव जब विपक्ष में थे तो वे यह दावा करते नहीं थकते थे कि अगर उनकी सरकार होगी, तो शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया को तत्काल शुरू करेगी, ताकि राज्य की शिक्षा-व्यवस्था बेहतर हो सके। फिर यह अत्याचार क्यों? पुलिस इतनी निरंकुश बिना राजनीतिक दिशा-निर्देश एवं संरक्षण के हो नहीं सकती कि वो ऐसा कहर बरपाये। रोज-रोज की घटनाओं में आज एक आम आदमी भी अपने अनुभव से जानता है कि ये जनता के रक्षक नहीं बल्कि भक्षक हैं, वर्दीधारी गुण्डे हैं।
बात किसी एक दल या उसकी सरकार की नहीं है, पुलिस की ज्यादतियां हर दल की सरकारों की त्रासद निष्पत्तियां हैं। ज्यादा दिन नहीं हुए, जब उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में इसी तरह टेट परीक्षा में गड़बड़ी को लेकर छात्र आंदोलन पर उतरे थे और पुलिस ने बेलगाम अपनी ताकत का प्रदर्शन किया था। उसकी घोर निंदा हुई थी। मगर बिहार पुलिस ने उससे सबक लेना जरूरी नहीं समझा। ठीक वैसा ही बल प्रयोग पटना में किया गया। सरकार अगर कानून-व्यवस्था को लेकर लोकतांत्रिक तौर-तरीका अपनाना चाहती, तो पुलिस इस तरह मध्ययुगीन बर्बरता का खुला प्रदर्शन नहीं करने पाती। आजादी का अमृत महोत्सव मनाने के बाद भी भारत में बेरोजगारी और भुखमरी की स्थिति विस्फोटक है। सन् 1946 में पांच करोड़ टन अनाज पैदा होता था और आज लगभग 36 करोड़ टन पैदा करके भी हम देशवासियों का पेट नहीं भर पा रहे हैं। दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बनने की अग्रसर देश अपने बेरोजगार युवकों को रोजगार नहीं दे पा रहा है। औद्योगिक नीति से धुआं उगलने वाले कारखानों की चिमनियों में वृद्धि हुई है पर गरीब के चूल्हे की चिमनी में धुआं नहीं है। भवनों की मंजिलें और बढ़ गईं पर झोंपड़ियों पर छतंे नहीं हैं। अन्तराल बढ़ा है, यह सच्चाई है। इससे बड़ी सचाई यह है कि इस देश का मजबूर, गरीब एवं बेसहारा आदमी ही पुलिस की बर्बरता का शिकार होता है? लेकिन कब तक? गौरतलब तथ्य यह भी है कि पुलिस हिरासत में अक्सर गरीब लोग ही मारे जाते हैं। उन्हीं को शारीरिक एवं मानसिक यन्त्रणाएँ देकर मारा जाता है। अमीरों के लिए तो जेल में भी सुविधा की सैरगाह है।
विकासशील देशों में महंगाई बढ़ती है, मुद्रास्फीति बढ़ती है, यह अर्थशास्त्रियों की मान्यता है। पर बेरोजगारी क्यों बढ़ती है? पुलिस की बर्बरता क्यों बढ़ती है? एक और प्रश्न आम आदमी के दिमाग को झकझोरता है कि तब फिर विकास से कौन-सी समस्या घटती है?क्यों गरीब एवं जरूरतमंद की आवाज को ही दबाया जाता है? किससे छिपा है कि पुलिस सरकारों के इशारों पर काम करती है। अगर सरकार आंदोलनकारी छात्रों-अभ्यर्थियों की समस्या सुनने और उसका समाधान निकालने की इच्छुक होती, तो उनसे बातचीत के रास्ते खोलती। मगर अब तो सरकारों ने जैसे मान लिया है कि लोगों की आवाज दबाने का एक ही तरीका है दमन, डंडा एवं बर्बरता। जैसे ही कोई आंदोलन उठे, उसे लाठी-डंडे के बल पर रोक दो।
दरअसल, हमने पुलिस-व्यवस्था अंग्रेजों के समय की ही अपना ली है। उस समय अंग्रेजी सरकार इन्हीं पुलिस-बल के सहारे हिन्दुस्तानी लोगों को कुचलती, उन पर बर्बरता करती, अत्याचार करती। उन्हें देश का नागरिक ना समझकर दुश्मन मानती थी। अब तो हम आजादी भारत के निवासी है, हम पर वो ही बर्बरता क्यों? जरूरत है पुलिस के समुचित प्रशिक्षण का। किसी भी लोकतंत्र में नागरिकों को अपने हक के लिए आवाज उठाने का अधिकार है और उसे सुनना सरकारों का दायित्व। पुलिस को कोई अधिकार नहीं कि इस तरह आंदोलनकारियों पर बल प्रयोग करे। उनके साथ हिंसक व्यवहार करे। अगर कहीं, किसी वजह से भीड़ बेकाबू हो जाए, तो हवा में गोली चलाने, आंसू गैस के गोले दागने, पानी की बौछार करने आदि का नियम है। लेकिन ऐसा नहीं होना दुर्भाग्यपूर्ण है, विरोधाभासी है।
प्रश्न तो यह भी है कि लाठी से पीट कर अधमरा कर देने का अधिकार पुलिस को किसने दिया है। यह अधिकार उसे सरकारें देती हैं। उन्हीं के इशारे पर आंदोलनकारियों के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है। इस मामले में बिहार सरकार अपनी जवाबदेही से पल्ला नहीं झाड़ सकती। जिस पुलिस अफसर ने अभ्यर्थियों पर लाठियां बरसाईं, उसे कठोर दंड मिलना चाहिए और साथ ही पुलिस को स्पष्ट निर्देश होना चाहिए कि किसी भी आंदोलन से निपटने का क्या तरीका होगा। लोकतंत्र लाठी के बल पर जिंदा नहीं रह सकता। जब पटना की घटना की तस्वीरें तेजी से प्रसारित होनी शुरू हुईं, तो पहले सरकार ने घटना से अनजान होने का नाटक किया, फिर इसकी जांच के लिए एक समिति गठित कर दी। सरकारों का यह तरीका अब बहुत घिस-पिट चुका है।
हमारे लिए हमारे साथ होने का दम भरने वाली पुलिस द्वारा कानून-व्यवस्था का नाम लेकर आम सीधे-साधे, भोले-भाले नागरिकों पर आतंक एवं क्रूरता का जंगलराज कायम किया जाता है। जुल्म और अन्याय के खि़लाफ आवाज उठाने वालों को पुलिस दमन का शिकार होना पड़ता है। लेकिन सोचने की बात यह भी है कि क्या पुलिसकर्मी इतने दरिन्दे और वहशी जन्मजात होते हैं या उन्हें वैसा बनाया जाता है। यह व्यवस्था उन्हें वैसा बनाती है, ताकि आम जनता में भय और दहशत फैलाकर निरंकुश पूँजीवादी लूट एवं राजनीतिक अपराधों को बरकरार रखा जा सके। जिस तरह से समाज में आम बेरोजगारों की फौज खड़ी है, उन्हीं में से वेतनभोगियों की नियुक्ति की जाती है और अनुभवी घाघ नौकरशाहों की देखरेख में उन्हें समाज से पूरी तरह काटकर उनका अमानवीकरण कर दिया कर जाता है और इस व्यवस्था रूपी मशीन का नट-बोल्ट बना दिया जाता है। जेलों में कैदियों के साथ अमानवीय बर्ताव, झूठे मामलों में लोगों को फँसा देना, हिरासत में उत्पीड़न की इन्तहा से लोगों की जान ले लेना, ये आम बातें हैं। तभी तो हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील ने कहा था कि ‘इस देश की पुलिस एक संगठित सरकारी गुण्डा गिरोह है।’