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महावीर बनने की तैयारी करें

महावीर जयंती 9 अप्रैल, 2017 पर विशेष
जैन धर्म के चैबीस तीर्थंकरों में भगवान महावीर का स्थान सर्वोत्कृष्ट है। वे अंतिम तीर्थंकर थे, उन्होंने ‘अहिंसा परमो धर्म’ का शंखनाद कर आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना को देश और दुनिया में जागृत किया। ‘जियो और जीने दो’ अर्थात् सह-अस्तित्व, अहिंसा एवं अनेकान्त का नारा देने वाले महावीर के सिद्धान्त विश्व की अशांति दूर कर शांति कायम करने में समर्थ है।
प्रत्येक वर्ष भगवान महावीर की जन्म-जयन्ती हम मनाते हैं। समस्त विश्व में जैन समाज और अन्य अहिंसा प्रेमी व्यक्तियों द्वारा बड़े हर्ष और उल्लास के साथ उनकी जयंती मनाई जाती है। उस दिन भगवान महावीर की शिक्षाओं पर गोष्ठियां होती हैं, भाषण होते हैं और कई प्रकार के कार्यक्रम आयोजित होते हैं। भगवान महावीर की शिक्षाओं का हमारे जीवन और विशेषकर व्यावहारिक जीवन में किस प्रकार समावेश हो और कैसे हम अपने जीवन को उनकी शिक्षाओं के अनुरूप ढाल सकें, यह अधिक आवश्यक है लेकिन इस विषय पर प्रायः सन्नाटा देखने को मिलता है। विशेषतः जैन समाज के लोग एवं अनुयायी ही महावीर को भूलते जा रहे हैं, उनकी शिक्षाओं को ताक पर रख रहे हैं। दुःख तो इस बात का है कि जैन समाज के सर्वे-सर्वा लोग ही सबसे ज्यादा महावीर को सबसे अधिक अप्रासंगिक बना रहे हैं, महावीर ने जिन-जिन बुराइयां पर प्रहार किया, वे उन्हें ही अधिक अपना रहे हैं।
महावीर जैसे महान् क्रांतिकारी वीर महापुरुष की जयंती भी आज आयोजनात्मक होती है, प्रयोजनात्मक नहीं हो पा रही है। हम महावीर को केवल पूजते हैं, जीवन में धारण नहीं कर पाते हैं। हम केवल कर्मकाण्ड और पूजा विधि में ही लगे रहते हैं और जो मूलभूत सारगर्भित शिक्षाएं हैं, उन्हें जीवन में नहीं उतार पाते। आज मनुष्य जिन समस्याओं से और जिन जटिल परिस्थितियों से घिरा हुआ है उन सबका समाधान महावीर के दर्शन और सिद्धांतों में समाहित है। जरूरी है कि महावीर ने जो उपदेश दिये उन्हें हम जीवन और आचरण में उतारें। हर व्यक्ति महावीर बनने की तैयारी करे, तभी समस्याओं से मुक्ति पाई जा सकती है। महावीर वही व्यक्ति बन सकता है जो लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पित हो, जिसमें कष्टों को सहने की क्षमता हो। जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी समता एवं संतुलन स्थापित रख सके, जो मौन की साधना और शरीर को तपाने के लिए तत्पर हो। जिसके मन में संपूर्ण प्राणिमात्र के प्रति सहअस्तित्व  की भावना हो। जो पुरुषार्थ के द्वारा न केवल अपना भाग्य बदलना जानता हो, बल्कि संपूर्ण मानवता के उज्ज्वल भविष्य की मनोकामना रखता हो।
सदियों पहले महावीर जनमे। वे जन्म से महावीर नहीं थे। उन्होंने जीवन भर अनगिनत संघर्षों को झेला, कष्टों को सहा, दुख में से सुख खोजा और गहन तप एवं साधना के बल पर सत्य तक पहुंचे, इसलिये वे हमारे लिए आदर्शों की ऊंची मीनार बन गये। उन्होंने समझ दी कि महानता कभी भौतिक पदार्थों, सुख-सुविधाओं, संकीर्ण सोच एवं स्वार्थी मनोवृत्ति से नहीं प्राप्त की जा सकती उसके लिए सच्चाई को बटोरना होता है, नैतिकता के पथ पर चलना होता है और अहिंसा की जीवन शैली अपनानी होती है।
 भगवान महावीर की मूल शिक्षा है- ‘अहिंसा’। सबसे पहले ‘अहिंसा परमो धर्मः’ का प्रयोग हिन्दुओं के ही नहीं बल्कि समस्त मानव जाति के पावन ग्रंथ ‘महाभारत’ के अनुशासन पर्व में किया गया था। लेकिन इसको अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि दिलवायी भगवान महावीर ने। भगवान महावीर ने अपनी वाणी से और अपने स्वयं के जीवन से इसे वह प्रतिष्ठा दिलाई कि अहिंसा के साथ भगवान महावीर का नाम ऐसा जुड़ गया कि दोनों को अलग कर ही नहीं सकते। अहिंसा का सीधा-साधा अर्थ करें तो वह होगा कि व्यावहारिक जीवन में हम किसी को कष्ट नहीं पहुंचाएं, किसी प्राणी को अपने स्वार्थ के लिए दुःख न दें। ‘आत्मानः प्रतिकूलानि परेषाम् न समाचरेत्’’ इस भावना के अनुसार दूसरे व्यक्तियों से ऐसा व्यवहार करें जैसा कि हम उनसे अपने लिए अपेक्षा करते हैं। इतना ही नहीं सभी जीव-जन्तुओं के प्रति अर्थात् पूरे प्राणी मात्र के प्रति अहिंसा की भावना रखकर किसी प्राणी की अपने स्वार्थ व जीभ के स्वाद आदि के लिए हत्या न तो करें और न ही करवाएं और हत्या से उत्पन्न वस्तुओं का भी उपभोग नहीं करें। यहां तक किसी को मानसिक रूप से भी कष्ट न दे, क्योंकि यह भी हिंसा ही है।
भगवान महावीर का एक और महत्वपूर्ण संदेश है ‘क्षमा’। भगवान महावीर ने कहा कि ‘खामेमि सव्वे जीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे, मित्ती में सव्व भूएसू, वेर मज्झं न केणई’। अर्थात् ‘मैं सभी से क्षमा याचना करता हूं। मुझे सभी क्षमा करें। मेरे लिए सभी प्राणी मित्रवत हैं। मेरा किसी से भी वैर नहीं है। यदि भगवान महावीर की इस शिक्षा को हम व्यावहारिक जीवन में उतारें तो फिर क्रोध एवं अहंकार मिश्रित जो दुर्भावना उत्पन्न होती है और जिसके कारण हम घुट-घुट कर जीते हैं, वह समाप्त हो जाएगी। व्यावहारिक जीवन में यह आवश्यक है कि हम अहंकार को मिटाकर शुद्ध हृदय से आवश्यकता अनुसार बार-बार ऐसी क्षमा प्रदान करें कि यह भावना हमारे हृदय में सदैव बनी रहे।
भगवान महावीर आदमी को उपदेश/दृष्टि देते हैं कि धर्म का सही अर्थ समझो। धर्म तुम्हें सुख, शांति, समृद्धि, समाधि, आज, अभी दे या कालक्रम से दे, इसका मूल्य नहीं है। मूल्य है धर्म तुम्हें समता, पवित्रता, नैतिकता, अहिंसा की अनुभूति कराता है। महावीर का जीवन हमारे लिए इसलिए महत्वपूर्ण है कि उसमें सत्य धर्म के व्याख्या सूत्र निहित हैं, महावीर ने उन सूत्रों को ओढ़ा नहीं था, साधना की गहराइयों में उतरकर आत्मचेतना के तल पर पाया था। आज महावीर के पुनर्जन्म की नहीं बल्कि उनके द्वारा जीये गये आदर्श जीवन के अवतरण की/पुनर्जन्म की अपेक्षा है। जरूरत है हम बदलें, हमारा स्वभाव बदले और हम हर क्षण महावीर बनने की तैयारी में जुटें तभी महावीर जयंती मनाना सार्थक होगा।
महावीर बनने की कसौटी है-देश और काल से निरपेक्ष तथा जाति और संप्रदाय की कारा से मुक्त चेतना का आविर्भाव। भगवान महावीर एक कालजयी और असांप्रदायिक महापुरुष थे, जिन्होंने अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत को तीव्रता से जीया। वे इस महान त्रिपदी के न केवल प्रयोक्ता और प्रणेता बने बल्कि पर्याय बन गए। जहां अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत की चर्चा होती है वहां भगवान महावीर का यशस्वी नाम स्वतः ही सामने आ जाता है।
महावीर ने आकांक्षाओं के सीमाकरण की बात कही। उन्होंने कहा मूच्र्छा परिग्रह है उसका विवेक करो। आज की समस्या है- पदार्थ और उपभोक्ता के बीच आवश्यकता और उपयोगिता की समझ का अभाव। उपभोक्तावादी संस्कृति महत्वाकांक्षाओं को तेज हवा दे रही है, इसीलिए जिंदगी की भागदौड़ का एक मकसद बन गया है- संग्रह करो, भोग करो। महावीर की शिक्षाओं के विपरीत हमने मान लिया है कि संग्रह ही भविष्य को सुरक्षा देगा। जबकि यह हमारी भूल है। जीवन का शाश्वत सत्य है कि इंद्रियां जैसी आज है भविष्य मंे वैसी नहीं रहेगी। फिर आज का संग्रह भविष्य के लिए कैसे उपयोगी हो सकता है। क्या आज का संग्रह कल भोगा जा सकेगा जब हमारी इंद्रिया अक्षम बन जाएंगी।
 महावीर का दर्शन था खाली रहना, अपरिग्रही रहना, निग्र्रंथी रहना। इसीलिए उन्होंने जन-जन के बीच आने से पहले, अपने जीवन के अनुभवों को बांटने से पहले, कठोर तप करने से पहले, स्वयं को अकेला बनाया, खाली बनाया। तप तपा। जीवन का सच जाना। फिर उन्होंने कहा अपने भीतर कुछ भी ऐसा न आने दो जिससे भीतर का संसार प्रदूषित हो। न बुरा देखो, न बुरा सुनो, न बुरा कहो। यही खालीपन का संदेश सुख, शांति, समाधि का मार्ग है। दिन-रात संकल्पों-विकल्पों, सुख-दुख, हर्ष-विषाद से घिरे रहना, कल की चिंता में झुलसना तनाव का भार ढोना, ऐसी स्थिति में भला मन कब कैसे खाली हो सकता है? कैसे संतुलित हो सकता है? कैसे समाधिस्थ हो सकता है? इन स्थितियों को पाने के लिए वर्तमान में जीने का अभ्यास जरूरी है। न अतीत की स्मृति और न भविष्य की चिंता। जो आज को जीना सीख लेता है, समझना चाहिए उसने मनुष्य जीवन की सार्थकता को पा लिया है और ऐसे मनुष्यों से बना समाज ही संतुलित हो सकता है, स्वस्थ हो सकता है, समतामूलक हो सकता है।
महापुरुष सदैव प्रासंगिक रहते हैं, फिर पुरुषोत्तम महावीर की प्रासंगिकता के विषय में जिज्ञासा ही अयुक्त है। कौन बता सकता है सूर्य कब अप्रासंगिक बना? चन्द्रमा कब अप्रासंगिक बना? सूर्य केवल दिन को प्रकाशित करता है और चन्द्रमा केवल रात्रि को, किंतु भगवान महावीर का दिव्य-दर्शन अहर्निश मानव-मन को आलोकित कर रहा है। वे सचमुच प्रकाश के तेजस्वी पंुज और सार्वभौम धर्म के प्रणेता हैं। वे इस सृष्टि के मानव-मन के दुःख-विमोचक हैं। पदार्थ के अभाव से उत्पन्न दुःख को सद्भाव से मिटाया जा सकता है, श्रम से मिटाया जा सकता है किंतु पदार्थ की आसक्ति से उत्पन्न दुख को कैसे मिटाया जाए? इसके लिए महावीर के दर्शन की अत्यंत उपादेयता है। उन्होंने व्रत, संयम और चरित्र पर सर्वाधिक बल दिया था और पांच लाख लोगों को बारहव्रती श्रावक बनाकर धर्म क्रांति का सूत्रपात किया था। यह सिद्धांत और व्यवहार के सामंजस्य का महान प्रयोग था।
भगवान महावीर का संपूर्ण जीवन तप और ध्यान की पराकाष्ठा है इसलिए वह स्वतः प्रेरणादायी है। उनके उपदेश जीवनस्पर्शी हैं जिनमें जीवन की समस्याओं का समाधान निहित है। वे चिन्मय दीपक हैं। दीपक अंधकार का हरण करता है किंतु अज्ञान रूपी अंधकार को हरने के लिए चिन्मय दीपक की उपादेयता निर्विवाद है। वस्तुतः उनकेे प्रवचन, सिद्धान्त और उपदेश आलोक पंुज हैं। ज्ञान-रश्मियों से आप्लावित होने के लिए उनमें निमज्जन जरूरी है।
प्रेषकः
(ललित गर्ग)

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