हिंदुओं-सिखों से मुक्त होता अफगानिस्तान*
_-बलबीर पुंज_
गत 25 सितंबर को 55 अफगान सिख और हिंदू (3 शिशुओं सहित) विशेष विमान से भारत लौट आए। इसी के साथ अनादिकाल तक सांस्कृतिक भारत का हिस्सा रहा अफगानिस्तान भी अपने मूल निवासियों— हिंदू-सिख-बौद्ध से शत-प्रतिशत मुक्त हो गया है। इस जत्थे के बाद अफगानिस्तान में अब शेष हिंदू और सिखों की संख्या नाममात्र 43 रह गई है। यह पलायन कोई पहली बार नहीं हुआ है। इसका पिछले एक हजार वर्षों का एक काला इतिहास है। 1970 के दशक में जिन अफगान हिंदुओं-सिखों की संख्या लगभग सात लाख थी, उनकी संख्या अब गृहयुद्ध, खालिस शरीयत व्यवस्था और तालिबानी जिहाद के बाद निरंतर घटते हुए नगण्य हो गई है।
इस प्रकरण में यदि कुछ नया है या यूं कहे कि हतप्रभ करने वाला है, तो वह 11 सितंबर को तालिबान द्वारा पवित्र श्री गुरु ग्रंथ साहिब के चार ‘सरूपों’ को ‘अफगानिस्तानी विरासत’ का अंग बताकर उसे देश से बाहर ले जाने पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय है। इससे पहले तालिबान के अफगानिस्तानी सत्ता में पुनर्वापसी और सिखों-गुरुद्वारों पर हमलों के बाद भारत द्वारा चलाए गए विशेष अभियान के दौरान भी वर्ष 2021 में 24 अगस्त और 10 दिसंबर को दो जत्थों में श्री गुरु ग्रंथ साहिब के छह ‘सरूपों’ को सफलतापूर्वक, निर्धारित सिख मर्यादा के साथ भारत लाया गया था। यक्ष प्रश्न है कि क्या तालिबान का ह्रद्य-परिवर्तन हो रहा है? क्या तालिबान के दावे पर विश्वास किया जा सकता है? जिस चिंतन के गर्भ से 1990 के दशक में तालिबान का जन्म हुआ या जिस मजहबी अवधारणा से अफगानिस्तान का ‘इको-सिस्टम’ सदियों से अभिशप्त है, क्या उसमें गैर-इस्लामी पंथ-मजहबों के साथ सह-अस्तित्व संभव है? क्या तालिबान बदल रहा है या सच्चाई कुछ और है?
तालिबान ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब हेतु ‘अफगानिस्तानी विरासत’ से संबंधित जो तर्क दिया है, वह उसके वैचारिक अधिष्ठान के प्रतिकूल है। ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरित तालिबान का जन्म पाकिस्तान स्थित मदरसों में हुआ था, जिसका वित्तपोषक वर्षों तक सऊदी अरब रहा है। 1980-90 के दशक में अफगानिस्तान से सोवियत संघ को खदेड़ने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान और सऊदी अरब की मजहबी सहायता से मुजाहिदीनों अर्थात्- ‘काफिरों’ के खिलाफ ‘जिहाद’ हेतु आयुध उपलब्ध कराया था। वास्तव में, तालिबान उन्हीं मुजाहिदीनों का समूह है।
यदि तालिबान को वाकई ‘अफगान विरासत’ की चिंता होती, तो उसके लड़ाके मार्च 2001 में सच्चे मुसलमान का कर्तव्य निभाते हुए बामियान स्थित विशाल बुद्ध प्रतिमा को बम से क्यों उड़ाते? यही नहीं, तालिबानी और अफगान मंत्री सिराजुद्दीन हक्कानी का भाई अनस हक्कानी 5 अक्टूबर 2021 को उस इस्लामी आक्रांता महमूद गजनी की कब्र पर जाकर उसका यशगान क्यों करता, जिसने अपने 32 वर्ष के खलीफाकाल में भारत पर ‘काफिर-कुफ्र’ चिंतन से प्रेरित होकर 17 बार हमले किए, स्थानीय हिंदुओं को मौत के घाट उतारा, उनका मतांतरण किया और सोमनाथ मंदिर सहित असंख्य पूजास्थलों को मजहबी कारणों से ध्वस्त कर दिया। इसके बाद गौरी, खिलजी, तुगलक, बाबर, अकबर, जहांगीर, औरंगजेब और टीपू सुल्तान आदि गजनीबंधुओं ने उसी जहरीले चिंतन से प्रेरित होकर भारतीय उपमहाद्वीप की बहुलतावादी सनातन संस्कृति के प्रतीकों-मानबिंदुओं को जमींदोज किया और लाखों निरपराधों को या तो मौत के घाट उतारा या फिर उन्हें तलवार के बल इस्लाम अंगीकार हेतु विवश किया। विश्व के इस भूखंड में तालिबान सहित मुस्लिम समाज का एक बड़ा वर्ग आज भी उन्हीं क्रूर इस्लामी आक्रांताओं को अपना ‘नायक’ मानता है।
वास्तव में, जिस अफगानिस्तान को हम आज देख रहे है, वह सदियों पहले सांस्कृतिक भारत का अंग हुआ करता था और लगभग एक हजार वर्ष पहले उसकी जनसांख्यिकीय वर्तमान समय से अलग थी। प्राचीनकाल में यह क्षेत्र भारत के 16 महाजनपदों में एक (गांधार) था, तो दुराचारी गजनी के आगमन से पहले 11वीं शताब्दी तक इस भूखंड का स्वरूप हिंदू-बौद्ध बहुल था। उस समय यह धरती अपनी मूल संस्कृति के अनुरूप प्राचीन मंदिरों और विशालकाय विस्मयी मूर्तियों से सुशोभित थी। सिख पंथ के संस्थापक गुरु नानक देवजी ने 16वीं शताब्दी में जिन स्थानों का भ्रमण कर उपदेश दिया था, उसमें वर्तमान अफगानिस्तान भी था। इन यात्राओं को सिख परंपरा में ‘उदासियां’ कहा जाता है। इसलिए अफगानिस्तान, सिखों के लिए पवित्र है। किंतु कालांतर में हिंदू-बौद्ध-सिख अनुयायियों पर बलात् मजहबी यातना-हमलों का शिकार होने के बाद आज स्थिति यह है कि इनका नाम लेने वाला कोई नहीं है।
ऐसा नहीं है कि वहां केवल गैर-मुस्लिम ही मजहबी दंश झेल रहे है। अफगानिस्तान में तालिबान और आतंकी संगठन ‘इस्लामिक स्टेट’ (आईएस) के अफगान ईकाई— आईएस खुरासन प्रोविंस (आईएसकेपी) के बीच वर्चस्व की लड़ाई चल रही है, जिसका उद्देश्य स्वयं को इस्लाम का सच्चा अनुयायी सिद्ध करना है। यह दीन-मजहब आधारित हिंसा का ही विस्तार है, जिसमें शिया-सुन्नी मुसलमानों के बीच संघर्ष भी सदियों से चल रहा है।
आखिर किन कारणों से तालिबान अपनी छवि सुधारना चाहता है? इसका कारण भी स्वयं तालिबान ही है, जिसके दोबारा सत्ता में आते ही अफगानिस्तान को विकास के नाम पर अन्य देशों से मिल रही आर्थिक-सहायता एकाएक रुक गई। इससे अफगानिस्तान बीते एक वर्ष में सामाजिक, आर्थिक और मानवीय रूप से ध्वस्त हो चुका है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, वहां 60 लाख लोग भुखमरी के शिकार है, तो 2 करोड़ 90 लाख लोगों को मानवीय सहायता की आवश्यकता है। इन सबसे निपटने के लिए अफगानिस्तान को तुरंत 770 मिलियन डॉलर चाहिए।
कुछ माह पहले पाकिस्तान ने अफगानिस्तान को मानवता के नाम पर जो गेहूं भेजा था, वह घटिया गुणवत्ता का निकला। यह उसकी दयनीय स्थिति के अनुरूप भी था, क्योंकि अफगानिस्तान की भांति पाकिस्तान भी वर्षों से कष्ट में है। चीनी ऋण के मकड़जाल में फंसने और उसकी आर्थिकी ढहने के बाद पाकिस्तान का एक तिहाई हिस्सा बीते कई दिनों से बाढ़ के कारण जलमग्न है। इससे उसे दो लाख करोड़ रुपये का और नुकसान हो चुका है। यह स्थिति तब है, जब पाकिस्तान के ऊपर वैश्विक वित्तीय संस्थाओं के साथ चीन आदि अन्य देशों का कर्ज उसकी कुल जीडीपी का 70 प्रतिशत है और महंगाई दर लगभग 26 प्रतिशत है। बात यदि भारत की करें, तो उसने पिछले दिनों अफगानिस्तान को मानवीय आधार पर दवाइयों के साथ 50 हजार मिट्रिक टन गेहूं भेजा था।
संयुक्त राष्ट्र कार्यालय में मानवीय मामलों के समन्वय विभाग के प्रमुख मार्टिन ग्रिफिथ्स ने संयुक्त राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में सभी दाताओं से आग्रह करते हुए कहा था कि अफगानिस्तान का वित्तपोषण फिर से शुरू किया जाए। क्या यही कारण नहीं कि तालिबान अपने छवि-सुधार के माध्यम से वैश्विक प्रतिबंधों से मुक्त होना चाहता है? इस ‘अस्थायी ह्रद्य-परिवर्तन’ का एक सच यह भी है कि जो तालिबान आज सिखों के पवित्र ग्रंथों को ‘अफगानिस्तान की विरासत’ बता रहा है, उसने ही एक वर्ष पहले सिखों को ‘इस्लाम अपनाने’ या ‘अफगानिस्तान छोड़ने’ में से कोई एक चुनने विकल्प दिया था। तालिबान, जोकि खालिस शरीयत आधारित व्यवस्था का पक्षधर है— वह भी उसी विषाक्त चिंतन से प्रेरणा पाता है, जिसमें गैर-इस्लामी संस्कृति, सभ्यता, मानबिंदुओं और पूजास्थलों का स्थान न केवल नगण्य है, अपितु उसका नामोनिशान मिटाना मजहबी दायित्व मानता है।
*लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।*