14 अक्टूबर 1999 सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी दुर्गा भाभी का गुमनामी में निधन
अंग्रेजो की आँखों के सामने से भगतसिंह और राजगुरू को निकाला, गवर्नर हैली को गोली मारी थी
–रमेश शर्मा
सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी दुर्गा भाभी का नाम भारत में सबकी जुबान पर होगा पर उनका नाम इतिहास की पुस्तकों में शून्य के आसपास। वे स्वतंत्रता के बाद लगभग भी आधी शताब्दी जीवन जिया पर गुमनामी के अंधकार में।
यह वही दुर्गा भाभी हैं, जो साण्डर्स वध के बाद सुप्रसिद्ध क्राँतिकारी भगतसिंह और राजगुरू को अंग्रेजो की आँखों के सामने से कोलकत्ता ले गयी थीं । वे सभी क्रांतिकारियों का मानों एक संपर्क सूत्र थीं। क्राँतिकारी चंद्रशेखर आजाद ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में जिस माउजर पिस्तौल से अंग्रेजों से मुकाबला किया था, वह माउजर दुर्गा भाभी ने ही उनको दिया था.
दुर्गा भाभी का जन्म 7 अक्टूबर 1907 को कौशांबी जिले के ग्राम शहजादपुर में हुआ था । उनका जन्म एक जमींदार परिवार में हुआ था । उनके पिता पंडित बांके बिहारी भट्ट इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाजिर थे । वे बचपन से सबकी लाड़ली थीं । पूरा परिवार उनकी हर इच्छा पूरी करता था । उन दिनों की परंपरा के अनुसार उनका विवाह केवल दस वर्ष की आयु में भगवती चरण वोहरा के साथ हो गया था । ससुराल का परिवार भी लाहौर में संपन्न और प्रतिष्ठित था । ससुर शिवचरण जी रेलवे में ऊंचे पद पर थे। अंग्रेज सरकार ने उन्हें राय बहादुर की उपाधि प्रदान की थी। समय के साथ परिवार आर्य समाज से जुड़ गया था । इस नाते परिवार में स्वत्व का भाव प्रबल हो गया था । इससे भगवती चरण बोहरा भारत को अंग्रेजो की दासता से मुक्त करने के अभियान से जुड़ गये । उन्हे तब क्रांतिकारी संगठन के प्रचार सचिव का दायित्व मिला था। पिता को अपने पुत्र की सक्रियता का आभास तो हो गया था पर उन्होंने रोका नहीं। वर्ष 1920 में पिता की मृत्यु के पश्चात भगवती चरण वोहरा खुलकर क्रांति की राह में आ गए और साथ ही अपनी पत्नि दुर्गा देवी को भी जोड़ लिया और वे सबकी प्रिय भाभी बन गईं और यहीं से उनका नाम दुर्गा भाभी हो गया । विवाह के बाद भी दोनों पति पत्नि ने अपनी पढ़ाई भी जारी रखी और सन् 1923 में भगवती चरण वोहरा ने नेशनल कालेज बीए और दुर्गा भाभी ने प्रभाकर की डिग्री प्राप्त की। पिता के निधन के बाद परिवार के व्यापार के समन्वय का दायित्व भगवती चरण जी ही हाथ में आ गया था । उन्होंने क्राँतिकारी आंदोलन को गति देने के लिये एक लाख रुपये का सहयोग किया । इसमें पैंतालीस हजार रुपया वह भी शामिल था जो विवाह के समय दुर्गा भाभी को अपने पिता और ससुर के साथ अन्य रिश्तेदारों द्वारा सगुन के लिये दिया गया था । लेकिन इस दंपती ने इसकी परवाह नहीं की और अपनी निजी संपत्ति का उपयोग भी देश के स्वाधीनता के लिये क्राँतिकारी आंदोलन में लगा दिया। मार्च 1926 में भगवती चरण वोहरा, रामचंद्र कपूरऔर भगत सिंह ने मिलकर नौजवान भारत सभा का गठन किया और नौजवानों को क्राँतिकारी आंदोलन से जोड़ना आरंभ किया । देश के युवकों को प्रेरणा देने के लिये भगत सिंह व भगवती चरण वोहरा सहित सदस्यों ने अपने रक्त से प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर किए। 28 मई 1930 को रावी नदी के तट पर साथियों के साथ बम बनाने के बाद परीक्षण करते समय वोहरा जी के प्राणों का बलिदान हो गया । जब यह बज्रापात हुआ तब उनकी आयु केवल तेइस वर्ष की थी । पर वे विचलित नहीं हुईं। भगवती चरण जी के बलिदान के बाद दुर्गा भाभी पर दोहरा दायित्व आ गया । उन्होंने अपना पूरा जीवन देश के क्रान्तिकारी आन्दोलन के लिये समर्पित कर दिया । क्रान्तिकारियो ने कमिश्नर हैली को मारने की योजना बनाई और यह काम दुर्गाभाभी को सौंपा गया । 9 अक्टूबर 1930 को दुर्गा भाभी ने कमिश्नर हैली पर गोली चला दी उन्हे गोली चलाने एक सैन्य टेलर ने देख लिया था । उसने फुर्ती से कमिश्नर को पीछे किया जिससे हैली तो बच गया लेकिन वह सैनिक अधिकारी टेलर घायल हो गया। अब अंग्रेज पुलिस इनके पीछे पड़ गई। मुंबई में दुर्गा भाभी एवं एक क्राँतिकारी यशपाल को गिरफ्तार कर लिया गया। दुर्गा भाभी एक प्रकार से अपने सब साथियों के लिये बचाव का काम करतीं थीं। वे देशी वस्त्र भूषा कुछ इस प्रकार से पहन लेतीं थीं जिससे वे एकदम ठेट देहात की लगतीं थीं। पंजाब राजस्थान से लेकर बंगाल तक वे सभी ग्रामीण परिवेश धारण कर स्वयं भी निकल जातीं थीं और अन्य क्रांतिकारियों को भी सुरक्षित निकाल ले जातीं। वैषभूषा बदलकर और सहज रूप से स्थानीय बोली बोलने के कारण ही वे क्रांतिकारियों को हथियार पहुँचाने में सफल हो जातीं थीं। इसी वेषभूषा में उन्होंने क्राँतिकारी चंद्रशेखर आजाद को ओरछा जाकर माउजर पिस्तौल दी थी । उन दिनों चंद्रशेखर आजाद ओरछा के जंगलों में एक ब्रह्मचारी के वेष में रह रहे थे । यही पिस्तौल उनके पास अंतिम मुकाबले के समय साथ था । जब क्राँतिकारियों ने लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लेने के लिये अंग्रेज अधिकारी साण्डर्स के वध की योजना बनाई तब दुर्गा भाभी भी इस योजना में शामिल थीं । भगतसिंह सिंह और राजगुरू ने जैसे ही साण्डर्स वध किया । दुर्गा भाभी वहाँ बंगाली देहात के वस्त्र लेकर तैयार थीं दोनों ने वेष बदला और दुर्गा भाभी ने भगतसिंह की पत्नि का अभिनय करते हुये दोनों को वहाँ से निकाल ले गईं। यह घटना 17 दिसम्बर 1928 की है । दोनों क्रान्तिकारियो के निकल जाने से अंग्रेज सरकार बौखला गई और देश भर में सख्ती आरंभ हो गई। इसके बाद दूसरी बड़ी घटना असेंबली बम काँड की है । भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त जब केंद्रीय असेंबली में बम फेंकने के लिये जाने लगे तो दुर्गा भाभी ने केवल उन्हे असेम्बली तक पहुँचाया बल्कि अपने रक्त से दोनों को तिलक भी लगाया था। इन क्रांतिकारियों ने यह असेंबली बम कांड किसी की हत्या करने केलिये नहीं किया था । बल्कि देश को जगाने केलिये किया था । बम तो खाली स्थान पर फेका था । ताकि किसी को नुकसान न हो । दोनों क्रांतिकारियों ने भागने का भी प्रयास न किया । वहीं मौके पर बंदी बना लिये गये । बाद में सभी को फाँसी हुई ।
साथी क्रांतिकारियों का बलिदान हो जाने और सरकार के दमन चक्र से अन्य क्रांतिकारियों के भूमिगत हो जाने के बाद दुर्गा भाभी एकदम अकेली पड़ गई और अपने पांच वर्षीय पुत्र शचींद्र को शिक्षा दिलाने की व्यवस्था करने के उद्देश्य से दिल्ली आ गईं। । बाद में लाहौर चली गई, जहां पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया । अंत में लाहौर से जिलाबदर किया गया । 1935 में वे गाजियाबाद आ गई और एक कन्या विद्यालय में अध्यापिका हो गईं और कुछ समय बाद पुन: दिल्ली आ गईं दिल्ली आकर उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ली ली । पर कांग्रेस की कार्यशैली उन्हे रास न आई । उन्होंने 1937 में काँग्रेस से त्यागपत्र दे दिया और मद्रास आ गईं यहाँ मारिया मांटेसरी नामक स्कूल से मांटेसरी पद्धति का प्रशिक्षण लिया 1940 में लखनऊ आकर लखनऊ में एक मांटेसरी विद्यालय आरंभ किया । आज भी यह विद्यालय है और लखनऊ में मांटेसरी इंटर कालेज के नाम से जाना जाता है। जीवन के अंतिम समय तक वे इसी विद्यालय से जुड़ी रहीं। पूरी दुनियाँ से अलग मानों उन्होने स्वयं को इस विद्यालय में स्वयं को समर्पित कर दिया था । दुनियाँ ने भी उनकी खोज खबर न ली और 14 अक्टूबर 1999 को गाजियाबाद में उन्होंने संसार से विदा ले ली ।