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‘डॉक्टर जी’ फ़िल्म में है बड़ा संदेश

‘डॉक्टर जी’ फ़िल्म में है बड़ा संदेश
*रजनीश कपूर
बॉलीवुड के मशहूर अभिनेता आयुष्मान खुराना की हर फ़िल्म मनोरंजन के साथ-साथ समाज के लिए एक संदेश भी
लाती है। लीक से हटकर विषयों पर बनी उनकी फ़िल्में, ‘विक्की डोनर’, ‘शुभ मंगल सावधान’, ‘बधाई हो’ और
‘बरेली की बर्फी’ से अपनी अलग पहचान बनाने वाले आयुष्मान खुराना इस बार भी ऐसे ही विषय पर बनी
‘डॉक्टर जी’ में आपको प्रभावित करते हैं।
यह फ़िल्म आपको हसाएगी, रुलाएगी और सोचने पर भी मजबूर करेगी। फ़िल्म के निर्माताओं ने इस फ़िल्म में उन
स्त्री रोग विशेषज्ञों के बारे में आम लोगों में चली आ रही रूढ़िवादी सोच को बदलने का काम किया है जो होते तो
पुरुष हैं पर महिलाओं के शरीर के उन अंगों का इलाज करते हैं जिन्हें हर भारतीय महिला पराये पुरुषों से छिपा
कर रखती है।
फ़िल्म का तानाबाना डाक्टरी पढ़ने वाले एक पुरुष डाक्टर पर केंद्रित है। एमबीबीएस पढ़ने के बाद, डॉ उदय गुप्ता
(आयुष्मान खुराना) हड्डी रोग विशेषज्ञ बनने का सपना लेकर भोपाल के मेडिकल कालेज में प्रवेश लेना चाहता है।
परंतु रैंक कम आने के कारण उसे हड्डी रोग के बजाए स्त्री रोग (गाईनेकोलॉजी) में ही सीट मिलती है। जो उसकी
रुचि की नहीं होती। काफ़ी प्रयास के बाद भी जब डॉ उदय हड्डी रोग ब्रांच में अपने लिए स्थान नहीं बना पाता तो
मजबूरन वो गाईनेकोलॉजी की कक्षा में चला ही जाता है। अन्य कॉलेजों की तरह भोपाल मेडिकल कॉलेज के स्त्री
रोग विभाग में भी उदय की एक फेर्शेर की तरह खिंचाई होती है। पर पुरुषों द्वारा नहीं बल्कि उसकी सीनियर
महिला छात्राओं द्वारा। यहीं उदय की मुलाक़ात अपनी सीनियर, डॉ फ़ातिमा शेख़ (रकुलप्रीत सिंह) से होती है। यह
जानते हुए कि फ़ातिमा की शादी पहले से ही तय हो चुकी है, दोनो अच्छे दोस्त बन जाते हैं। गाईनेकोलॉजी की
पढ़ाई के साथ-साथ उदय की ऑर्थोपैडिक ब्रांच लेने की चाहत कम नहीं होती। वह अगले साल ज्यादा नंबर लाकर
गाइनेकॉलजी से छुटकारा पाने की तैयारियों में लगा रहता है।
उदय के गाईनेकोलॉजी के सहपाठी और वहाँ की एच॰ओ॰डी॰ डॉ नंदिनी श्रीवास्तव (शेफाली शाह) उसे
गाईनेकोलॉजी में ही मेहनत कर वहीं पर टिके रहने की सलाह देती हैं। लेकिन वो अपने इरादे पर अड़ा रहता है
और गाईनेकोलॉजी ब्रांच पर ज़्यादा ध्यान नहीं देता। उदय के दिमाग़ में एक बात बैठ जाती है कि एक पुरुष भला
स्त्री रोग विशेषज्ञ कैसे बन सकता है? स्त्रियों के रोग को एक महिला डाक्टर से ज़्यादा बेहतर कौन समझ सकता है?
फ़िल्म में कई जगह जब उदय को अपनी मरीज़ों की जाँच करनी होती है तो मरीज़ों व उनके रिश्तेदारों द्वारा भी
उसे संदेह से देखा जाता है। इन्हीं सब परिस्थितियों से बचने के लिए उदय किसी न किसी बहाने से अपनी मरीज़ों
की जाँच करने से बचता रहता है।
डॉ नंदिनी जब उदय को अपना ‘मेल टच’ भूलने की सलाह देती हैं तो वो इसी सोच में पड़ जाता है कि वो उसे कैसे
छोड़े। परंतु एक दिन जब आपात स्थिति में उदय को एक महिला की प्रसूति अस्पताल के कॉरिडर में ही करनी
पड़ती है तब उसे समझ आता है कि कैसे बिना ‘मेल टच’ के वो आराम से महिला मरीज़ को बच्चा जनने की पीड़ा से
छुटकारा दिला देता है। उस दिन से उदय की मानसिकता में बदलाव शुरू हो जाता है। इसी मानसिकता को बदलने
की नियत से बनी इस फ़िल्म का निर्देशन अनुभूति कश्यप द्वारा बहुत अच्छे ढंग से किया गया है। बतौर निर्देशक यह
अनुभूति की पहली फ़िल्म है।
फ़िल्म के पहले हिस्से में आपको जहां कॉमेडी अधिक दिखेगी वहीं फ़िल्म के दूसरे हिस्से में सभी मर्दों को ‘मेल टच’
के माध्यम से अपनी मां, बहन, गर्लफ्रेंड या दूसरी औरतों के प्रति जीवन से जुड़ी कुछ अहम सीख भी मिलेगी।

छोटे शहरों में रहने वाले कुछ कामयाब मर्द किस तरह अपनी हवस पूरी करने के बाद अपनी इज़्ज़त बचाने के लिये
एक मासूम और नाबालिग लड़की की ज़िंदगी से खिलवाड़ करते हैं और उन्हें नारकीय गर्भपात केंद्रों में धकेल देते हैं।
इसे भी बखूबी दर्शाया गया है। ताकि भावना में बहने वाली लड़कियाँ ऐसे पुरुषों से सावधान हो जाएं।
फ़िल्म के डायलॉग और इसका छायांकन भी आपको खूब भाएगा। युवा छायाकार ईशित नारायण की
सिनेमेटोग्राफ़ी हमेशा की तरह फ़िल्म को जीवंत रखती है और मेडिकल कॉलेज के अत्यंत पेचीदे माहौल को बखूबी
दर्शाती है।
एक अनुभवी अभिनेत्री शेफाली शाह ने फ़िल्म में अपने किरदार को बहुत प्रभावशाली ढंग से निभाया है। रकुलप्रीत
सिंह ने कॉमेडी के साथ-साथ गम्भीर किरदार को भी एक संतुलित रूप में प्रस्तुत किया है। आयुष्मान खुराना ने एक
बार फिर साबित कर दिया है कि लीक से हटकर विषयों पर वे अपने किरदार को सहजता से निभा लेते हैं। फ़िल्म
में आयुष्मान की माँ का किरदार निभाने वाली शीबा चड्ढा ने अपने किरदार द्वारा अकेली माँओं द्वारा किए गए
संघर्ष को दिखाया है। कम उम्र में विधवा होने के बाद बच्चों की ज़िम्मेदारी के चलते उन्हें कैसे-कैसे समझौते करने
पड़ते हैं ये शीबा ने इस फ़िल्म में पूरी तरह से जिया है। ‘जंगली फ़िल्मस’ द्वारा निर्मित इस फ़िल्म में कुल मिला कर
आपको कॉमेडी के साथ समाज में चली आ रही प्रथाओं पर दिए गए संदेश का एक अच्छा मिश्रण नज़र आएगा।
डाक्टरी पढ़ने व पढ़ाने वाले विद्यार्थी व प्रोफ़ेसर इस फ़िल्म में खुद को देख सकेंगे और अपने पढ़ाई के दिनों को याद
करेंगे। कुल मिलाकर ये एक सार्थक मनोरंजक वाली किंतु वयस्क फ़िल्म है।

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